Sunday, August 29, 2010

मुकाबला है भारत और चीन का

अचानक भारत और चीन को लेकर भारतीय मीडिया में सरगर्मी दिखाई पड़ रही है। शनिवार को इंडियन एक्सप्रेस ने अमेरिका के संटर फॉर इंरनेशनल पॉलिसी के डायरेक्टर सैलिग एस हैरिसन का न्यूयॉर्क टाइम्स में प्राशित लेख छापा। इसमें बताया गया है कि पाकिस्तान अपने अधीन कश्मीर में चीनी सेना के लिए जगह बना रहा है। चीन के सात हजार से ग्यारह हजार फौजी वहाँ तैनात हैं। इस इलाके में सड़कें और सुरंगें बन रहीं हैं, जहाँ पाकिस्तानियों का प्रवेश भी प्रतिबंधित है। यह बात आज देश के दूसरे अखबारों में प्रमुखता से छपी है।

चीन इस इलाके पर अपनी पकड़ चाहता है। समुद्री रास्ते से पाकिस्तान के ग्वादार नौसैनिक बेस तक चीनी पोत आने में 16 से 25 दिन लगते हैं। कश्मीर के गिलगित इलाके से सड़क बन जाएगी तो यह रास्ता सिर्फ 48 घंटे का रह जाएगा। हैरिसन के अनुसार चीन 22 सुरंगें बना रहा है। इसके अलावा रेल लाइन भी बिछाई जा रही है। चीनी सेना के लिए स्थायी आवास बनाए गए हैं।

यह लेख अमेरिका के नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर खीचने के लिए है कि चीन ने न सिर्फ कश्मीर में बल्कि इस पूरे इलाके में अपनी पहुँच बना ली है। यह भी कि पाकिस्तान अमेरिका को नहीं चीन को अपना दोस्त मानता है। पश्चिमी मीडिया भारत अधिकृत कश्मीर में जन-आंदोलनों को दबाले की खबरें तो छापता है, पर कश्मीर के गिलगित और बल्तिस्तान क्षेत्र में जन-आंदोलनों को कुचलने की खबरें नहीं आतीं।

हाल में भारत के लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को चीनी वीज़ा न मिलने पर विवाद चल ही रहा ता कि यह खबर आ गई। आज इंडियन एक्सप्रेस ने चीन के पीपुल्स डेली की वैबसाइट के पीपुल्स फोरम के कुछ डिस्कशन का हवाला देकर खबर छापी है। इनमें भारत पर चीन के सम्भावित हमले को लेकर एक वोटिंग भी है। इनका परिणाम क्या होगा, यह अभी कहना मुश्किल है, पर कुछ बात है ज़रूर।

हाल में भारतीय मीडिया में इकॉनॉमिस्ट के एक लेख की चर्चा थी जिसमे भारत को कछुआ और चीन को खरगोश का रूपक दिया गया था।इकोनॉमिस्ट ने इनके बीच की जोर-आज़माइश को  कॉण्टेस्ट ऑफ द सेंचुरी घोषित किया है।  इसपर टेलिग्राफ में पीटर फोस्टर का लेख छपा है। इसे पीपुल्स डेली के फोरम ने उद्धृत करके बहस चलाई है। पीटर फोस्टर ने लिखा है कि चीन के मीडिया में भारत को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता, जबकि भारत में चीन को बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है। पीटर फोस्टर इन दिनों पेइचिंग में तैनात हैं। इसके पहले वे दिल्ली में रह चुके हैं। वे दोनों देशों के माहौल को बेहतर जानते हैं। बहरहाल दोनों देशों की सभ्यताएं हजारों साल पुरानी हैं। इसमें दोस्ती भी है और प्रतिद्वंदिता भी।

Thursday, August 26, 2010

जैसी हिन्दी आप चाहेंगे वैसी बनेगी


ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के ताजा संस्करण में 2000 नए शब्द जोड़े गए हैं। इन नए शब्दों में ट्वीटप, चिलैक्स, नेटबुक और वुवुज़ेला भी हैं। कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ने और खासतौर से सोशल नेटवर्क साइट्स के विस्तार के साथ अनेक नए शब्द बन रहे हैं। इन नए शब्दों में डि-फ्रेंड, पेवॉल, वर्फिंग या ईयरवर्म जैसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल बढ़ता जाएगा। मसलन डि-फ्रेंड। अपनी फ्रेंड लिस्ट से किसी को हटाना। वर्फिंग याने काम (वर्क) के दौरान (नेट) सर्फिंग। संगीत सुनते-सुनते कोई धुन गहरे से दिमाग में बैठ गई तो वह ईयरवर्म है। ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ऑनलाइन सेवा हर तीन महीने में यों भी तकरीबन एक से दो हजार नए शब्द जोड़ती है।

हमारे लिए इस खबर के दो माने हैं। एक तो हम ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के बारे में जानें और दूसरे यह कि हिन्दी के विस्तार के दौर में इस बात का संकेत क्या है। आगे बढ़ने के पहले मैं यह निवेदन करना चाहूँगा कि किसी नई प्रवृत्ति के उभरने पर न तो घबराना चाहिए और न यह मान लेना चाहिए कि यह अंतिम सत्य है। दिल और दिमाग के दरवाजे खोलकर ही सारी चीज़ों को देखें। नई बातें बड़े कालखंड में ही सही या गलत साबित होंगी।  

हिन्दी में नए शब्दों को जोड़ने की ज़रूरत है। मेरे कहने मात्र से यह बात लागू नहीं होती। नए शब्द जुड़ने के कारण होते हैं। नए शब्द घर का दरवाज़ा खटखटाने वाले नए मेहमान हैं। हिन्दी का विकास नए शब्दों के जुड़ते जाने से ही हुआ है। उसके इस्तेमाल का भौगोलिक दायरा बढ़ता जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराने शब्द निरर्थक हो गए या उनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। कुछ लोग हिन्दी को आसान बनाने के नाम पर जबर्दस्ती अंग्रेजी शब्दों की जो ठूँसम-ठाँस कर रहे हैं, वह ठीक नहीं। पर लॉगिन, पासवर्ड, कोलेस्ट्रॉल, माउस, डायलॉग या ट्रेनिंग जैसे शब्द आसानी से हिन्दी में आ गए हैं। उन्हें शब्दकोशों में जगह दी जानी चाहिए। यों भी भाषा शब्दकोशों से नहीं शब्दकोश भाषा से बनते हैं।
     
हिन्दी को आसान बनाने की जो ज़िम्मेदारी लेते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए कि हिन्दी आसान होने के कारण ही तो प्रचलित है। पर आम बोलचाल की भाषा और  गूढ़ विषयों की भाषा को एक नहीं किया जा सकता। बोलचाल की भाषा भी व्यक्ति और व्यक्ति की अलग-अलग होती है। सड़क के भैये और एक अध्यापक की भाषा एक जैसी नहीं होती। चैनल और अखबार की भाषा भी एक जैसी नहीं हो सकती। दो चैनलों की भाषा का अंतर भी उनके बाज़ार का अंतर बता सकता है। आज नहीं तो दस साल बाद यह फर्क आएगा।

आसान, रोचक और संदेश को साफ-साफ बताना भाषा का काम है। अंग्रेजी जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी नहीं जाती। हिन्दी में भी ऐसा है। हिन्दी में हाल के वर्षों में झकास, मस्त, खलास, खीसा, भिड़ू, टकला, वाट लगाना जैसे शब्द फिल्मी कारखाने से आए। इन्होंने जगह बना ली है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी और कौरवी में तमाम ऐसे शब्द हैं जो मानक हिन्दी के विकास की धारा में पीछे रह गए हैं। नए शब्द सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं आते। भारतीय भाषाओं से और बोलियों से भी आएंगे। यह आदान-प्रदान भी चलेगा। कुमाऊंनी में गंध के लिए जितने प्रकार के शब्द हैं, उनकी सूची बनाई जाए तो बड़ी लम्बी और उपयोगी बनेगी। किसी एक घटना से शब्द प्रचलन में आ जाते हैं। जैसे खालिस्तानी आंदोलन के दौरान सरबत खालसा या घल्लू-घारां जैसे शब्द आए।  

हमारा सांस्कृतिक और व्यापारिक विस्तार हो रहा है। हम कमज़ोर बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोग नहीं है। पश्चिम और पूर्व के समन्वय के लिहाज से भी हम बेहतर स्थिति में हैं। भाषा-व्याकरण और शब्दकोश से जुड़ा हमारा अतीत बहुत समृद्ध है, पर वह अतीत है वर्तमान नहीं है। इस लिहाज से मैं ऑक्सफर्ड शब्दकोश के बारे में जानकारी हासिल करने का सुझाव दूँगा। पर उसके पहले अपने देश जानकारी भी लेनी चाहिए। हिन्दी विकीपीडिया के अनुसार,सब से पहले शब्द संकलन भारत में बने। हमारी यह शानदार परंपरा वेदों जितनीकम से कम पाँच हज़ार सालपुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृतनामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमरकोश के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।

भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है। यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है। ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है ईर्या आधुनिक कोशों की नीवँ डाली इंग्लैंड में 1755 में सैमुएल जानसन ने। उन की डिक्शनरी सैमुएल जॉन्संस डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज ने कोशकारिता को नए आयाम दिए। इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं। असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 में अमरीका में नोहा वैब्स्टर्स की नोहा वैब्स्टर्स ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था। साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था। कोश को सफल होना ही था, हुआ। वैब्स्टर के बाद अँगरेजी कोशों के संशोधन और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा। आज छोटे बड़े हर शहर में, किताबों की दुकानें हैं। हर दुकान पर कई कोश मिलते हैं। हर साल कोशों में नए शब्द सम्मिलित किए जाते हैं।

ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अपने आप में एक विशाल काम है। इस डिक्शनरी के दो संस्करण निकल चुके हैं। पहला 1928 में निकला था और दूसरा 1989 में। तीसरे संस्करण पर काम चल रहा है और सब ठीक रहा तो वह सन 2037 तक पूरा हो जाएगा। 1989 के इसके संस्करण में इसके 20 खंड थे। इसी संस्करण के छोटे-छोटे संस्करण आप अलग नाम से देखते हैं। इस डिक्शनरी को दुबारा टाइप करना पड़े तो एक व्यक्ति को 120 साल लगेंगे। प्रूफ पड़ने में 60 साल। इस शह्दकोश को इस तरह तैयार किया गया था कि इसमें अंग्रेजी भाषा के इतिहास में जितने शब्द इस्तेमाल में आए उन्हें इसमें शामिल कर लिया जाय। फिर भी इसमें सन 1150 तक प्रयोग से बाहर हो चुके शब्द शामिल नहीं हैं। यह एक विशाल आयोजन है जिसमें शास्त्रीय शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के और अपशब्द (स्लैंग) भी शामिल हैं।ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी को अपडेट करने के काम में 300 विद्वान लगे हैं और यह प्रोजेक्ट 5.5 करोड़ डॉलर का है। यानी ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का। इसके साथ ऑक्सफर्ड इंग्लिश कोर्पस है, जिसमें करीब बास लाख शब्दों का भंडार है। इस पर करीब 3.5 करोड़ पाउंड याने करीब 300 करोड़ का खर्च है। धनराशि बताने का आशय सिर्फ इस बात को रेखांकित करना है कि कोई समाज अपने वैचारिक कर्म के प्रति कितना सचेत है।

हिन्दी के पास ऑक्सफर्ड जैसा कोई कार्यक्रम नहीं है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाएं इन कार्यों को करतीं हैं। इसके लिए आर्थिक और तकनीकी सहयोग भी चाहिए। शब्दकोश के बारे में मुझे जानकारी नहीं है, पर हिन्दी के विश्वकोश को मैने नेट पर देखा है, जिसे सी-डैक की मदद से नेट पर रखा गया है। इस काम को जिस स्तर पर अपडेट करना चाहिए वह अभी हुआ नहीं है। हाल के वर्षों में अरविन्द कुमार-कुसुम कुमार के व्यक्तिगत प्रयास से समांतर कोश तैयार हुआ वह उत्साहवर्धक है। इसका सहज संस्करण भी देखने को मिला। इस कोश में प्रौपराइटर, प्रौपैलर, फोकस, औप्टीशियन, औरबिटर, औब्शेसन, इंटरनैट और इंटरकौम। जैसे तमाम अंग्रेजी शब्द हैं। पर यह मानक नहीं है। वर्तनी का सवाल भी है। वृत्तमुखी ध्वनि के लिए दीर्घ औ का इस्तेमाल किया गया है। कौल शब्द कुलीन और ग्रास के अर्थ में है। सम्भव है वे कभी टेली कॉल वाले कॉल को भी शामिल करें। यह कोश की नहीं मानक हिन्दी के प्रयोग की कमी है। अभी हम हर बात पर एकमत नहीं हैं।

हिन्दी के लिए नए शब्द बनाने की सरकारी परियोजना ने बहुत बड़ा काम किया था।गम्भीर विषयों की भाषा चलताऊ शब्दों से नहीं बनती। पर उससे ज्यादा बड़ी ज़रूरत अलग-अलग विषयों के शब्द कोशों और विश्वकोशों की है। इस काम का आधा हिस्सा मीडिया से और आधा विश्वविद्यालयों से जुड़ा है। हिन्दी के सहारे कारोबार चलाने वाले न जाने क्या सोचते हैं। अलबत्ता हिन्दी-प्रयोक्ता ही तय करेंगे कि वे अपनी भाषा को कहाँ ले जाना चाहते हैं। यह भी कि हिन्दी की ज़रूरत उन्हें कहाँ है। 

Wednesday, August 25, 2010

भारत-जापान रिश्ते

भारत और जापान के बीच एटमी सहयोग की बातचीत लम्बे अर्से से चली आ रही है, पर हाल के दिनों में इसमें तेजी आई है। इसके पीछे जापान की अपनी आर्थिक दुश्वारियाँ ज्यादा हैं। बहरहाल तमाम अंदेशों के बावज़ूद ऐसा लगता है कि इस साल के अंत में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान जाएंगे तब भारत-जापान न्यूक्लियर संधि हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के बनने और बिगड़ने की गति आसानी से नज़र नहीं आता।

भारत-जापान रिश्तों के भविष्य में और प्रगाढ़ होने की अच्छी खासी सम्भावनाएं हैं। इसके पीछे भौगोलिक यथार्थ, सामरिक और आर्थिक ज़रूरतें हैं। यों तो आज कोई किसी या शत्रु या मित्र नहीं है, पर कुछ मित्र अपेक्षाकृत ज्यादा सहज होते हैं। जापान हमारा अपेक्षाकृत सहज मित्र है।


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विश्लेषण आईडीएसए की टिप्पणी

Sunday, August 22, 2010

गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

अकबर इलाहाबादी


तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट[1] सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म[2] में बस यही दास्ताँ[3] है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ[4] है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है
शब्दार्थ:
  1.  गवर्नमेन्ट
  2.  सभा
  3.  कथा
  4.  अतिथि


कविता कोश में पढ़े अकबर इलाहाबादी की कुछ और रचनाएं

Saturday, August 21, 2010

पाँच नगर : प्रतीक- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

दिल्ली
कच्चे रंगों में नफ़ीस
चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया
जिसमें नकली हीरे की अंगूठी
असली दामों के कैश्मेमो में लिपटी हुई रखी है ।

लखनऊ
श्रृंगारदान में पड़ी
एक पुरानी खाली इत्र की शीशी
जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।

बनारस
बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,
जो एक तरफ़ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।

इलाहाबाद
एक छूछी गंगाजली
जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर
और रात में कला के नाम पर
उठायी जाती है ।

बस्ती
गाँव के मेले में किसी
पनवाड़ी की दुकान का शीशा
जिस पर अब इतनी धूल जम गई है
कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।
( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )

Friday, August 20, 2010

गलत काम करने वालों को म्यूज़िक क्यों सुनाते हैं?

सोनिया गांधी का एक वक्तव्य आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा है कि कॉमनवैल्थ गेम्स के दोषियों को खेल खत्म होने के बाद सजा मिलेगी। अखबार ने इसका शीर्षक दिया है Sonia says corrupt will face music after Games. मतलब साफ है, पर मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि काम गलत करें और म्यूज़िक का मजा भी लें, ऐसी भाषा क्यों बनी होगी। भाषा के विकास के दौरान ऐसे तमाम मौके आते हैं। इसके लिए मैने phrase.org को देखा। उसमें जो जानकारी मिली वह पेश है। पर यह जानकारी भी पर्याप्त नहीं लगती। शायद आप मदद करें। जानकारी इस प्रकार हैः-

Face the music

Meaning
Accept the unpleasant consequences of one's actions.
Origin
The phrase 'face the music' has an agreeable imagery. We feel that we can picture who was facing what and what music was playing at the time. Regrettably, the documentary records don't point to any clear source for the phrase and we are, as so often, at the mercy of plausible speculation. There was, of course, a definitive and unique origin for the expression 'face the music' and whoever coined it was quite certain of the circumstances and the music being referred to. Let's hope at least that one of the following suggestions is the correct one, even though there is no clear evidence to prove it.
A commonly repeated assertion is that 'face the music' originated from the tradition of disgraced officers being 'drummed out' of their regiment. A second popular theory is that it was actors who 'faced the music', i.e. faced the orchestra pit, when they went on stage. A third theory, less likely but quite interesting none the less, was recounted with some confidence by a member of the choir at a choral concert I attended recently in Sheffield. It relates to the old UK practice of West Gallery singing. This was singing, literally from the west galleries of English churches, by the common peasantry who weren't allowed to sit in the higher status parts of the church. The theory was that the nobility were obliged to listen to the vernacular songs of the parishioners, often with lyrics that were critical of the ways of the gentry.
It may help to pinpoint the origin to know that the phrase appears to be mid 19th American in origin. The earliest citation I can find for the phrase is from The New Hampshire Statesman & State Journal, August 1834:
"Will the editor of the Courier explain this black affair. We want no equivocation - 'face the music' this time."
ALmost all other early citations are American. Sadly, none of them give the slightest clue as to the source, or reason for, the music being faced.

मैने इसे और ज्यादा जानने की कोशिश की तो एक वीडियो मिला जिसमें संगीत से जुड़े अंग्रेजी के 6 मुहावरों  पर अच्छी जानकारी है।
 इस वीडियो को देखें

Thursday, August 19, 2010

कश्मीर के बारे में हम कितना सोचते हैं

हमारा जितना अनुभव आज़ादी का है लगभग उतना लम्बा अनुभव कश्मीर को लेकर तल्खी का है। यह समस्या आज़ादी के पहले ही जन्म लेने लगी थी। चूंकि हमारा विभाजन धार्मिक आधार पर हो रहा था, इसलिए कश्मीर सबसे बड़ी कसौटी था। साबित यह होना था कि क्या कोई मुस्लिम बहुल इलाका धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का हिस्सा हो सकता है। या  मुस्लिम जन-संख्या किसी न किसी रोज़ अपने लिए मुस्लिम राज्य को स्वीकार कर लेगी।

इस पोस्ट में मैं उस पृष्ठभूमि को नहीं दे पाऊँगा, जो कश्मीर समस्या से जुड़ी है। पर मेरे विचार से भारत और पाकिस्तान के बीच किसी रोज यह समस्या दोनों की रज़ामंदी से सुलझ गई तो इस उप महाद्वीप के अंतर्विरोध अच्छी तरह खुलेंगे। एक विचार यह है कि इस समस्या के समाधान के बाद पाकिस्तान का कट्टरपंथी समुदाय दूसरी समस्या उठाएगा। यदि वह समस्या नहीं उठाएगा तो उसका वज़ूद खतरे में होगा। क्योंकि पाकिस्तान के भीतर काफी बड़े इलाके के लोगों को लगता है कि पाकिस्तान बना ही क्यों।

हमारे लिए कश्मीर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हमें भी साबित करना है कि हमारी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था में एक मुस्लिम बहुल प्रदेश भी सदस्य है। समूचा कश्मीर उसमें होता तो बात ही क्या थी। बहरहाल आज श्रीनगर घाटी में तीन चौथाई से ज्यादा लोग भारत को अपना नहीं मानते। इसमें किसका दोष है, इसका विश्लेषण मैं नहीं कर रहा। हाँ इतनी मेरी समझ है कि 1950 में जनमत संग्रह होता तो कश्मीरी लोग भारत में रहना पसंद करते। कम से कम घाटी के लोगों में नाराज़गी नहीं थी। थी भी तो पाकिस्तानी रज़ाकारों से थी, जिन्होंने कश्मीरियों को सताया था।

आज हालात फर्क हैं। पर जिनके मंसूबे कश्मीर को भारत से अलग करने के हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे कश्मीर को भारत से अलग नहीं करा पाएंगे। यह पूरे देश की अस्मिता का सवाल है। समूचा देश किसी भी हद तक जाकर लड़ने को तैयार हो जाएगा। समाधान देश के लोगों की मर्जी से होगा। बेहतर हो हम सब सोचें कि हम कैसा समाधान चाहेंगे।

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Wednesday, August 18, 2010

क्या समाचार पत्रिकाएं अप्रासंगिक हो गईं हैं?

न्यूज़वीक का पहला अंक

दिनमानज्यादा वक्त चला नहीं। जब चलता था तो उसकी टाइम या न्यूज़वीक से तुलना की जाती थी। दिनमान को पूरी तरह विकसित होने का या पूरी तरह समाचार पत्रिका बनने का मौका ही नहीं मिला। जब वह बंद हुआ तब तक दुनिया में समाचार पत्रिकाओं पर संकट के बादल नहीं थे। हिन्दी के अखबारों का तो विकास ही तभी से शुरू हुआ था। हांगकांग से निकलने वाली फार ईस्टर्न इकोनॉमिक रिव्यू दिसम्बर 2009 में बंद हो गई। एशियावीक बंद हुई। बहरहाल जिन समाचार पत्रिकाओं को हम मानक मान कर चलते थे, उनके बंद होने का अंदेशा कुछ सोचने को प्रेरित करता है।
अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका न्यूज़वीक का सौदा हो गया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हर्मन हैं जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हर्मन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक हैं। वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी, जिसने न्यूज़वीक को बेचा, न्यूज़वीक अपने आप में और इसे खरीदने वाले सिडनी हर्मन तीनों किसी न किसी वजह से महत्वपूर्ण हैं। कैथरीन ग्राहम जैसी जुझारू मालकिन के परिवार के अलावा वॉशिंगटन पोस्ट के काफी शेयर बर्कशर हैथवे के पास हैं, जिसके स्वामी वॉरेन बफेट हैं। न्यूज़वीक को ख़रीदने की कोशिश करने वालों में न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ के पूर्व प्रकाशक फ्रेड ड्रासनर और टीवी गाइड के मालिक ओपनगेट कैपिटल भी शामिल थे। पर सिडनी हर्मन ने सिर्फ 1 डॉलर में खरीदकर इसकी सारी देनदारी अपने ऊपर ले ली है।
बताते हैं कि अब न्यूज़वीक को मुनाफे के लिए प्रकाशित नहीं किया जाएगा। तो क्या घाटे के लिए प्रकाशित किया जाएगा? सिडनी हर्मन मशहूर दानी भी हैं। पर क्या वे किसी पत्रिका को घाटे में चलाकर अपने दान को पूरा करेंगे? न्यूज़वीक ही नहीं टाइम पर भी संकट के बादल हैं। इसका प्रसार 42 लाख से घटकर 33 लाख पर आ गया है। इसके प्रकाशक टाइम वार्नर आईएनसी टाइम को ही नहीं खुद को यानी पूरे प्रकाशन संस्थान को बेचना चाहते हैं।
न्यूज़वीक हर हफ़्ते प्रकाशित होती है। जैसाकि इसका नाम है यह खबरों से जुड़ी पत्रिका है। 17 फरवरी 1933 को जब यह शुरू हुई थी इसका नाम न्यूज़-वीक था। न्यूज़ और वीक। 1937 में टुडे नाम की पत्रिका इसमे समाहित हो गई। नया नाम हुआ न्यूज़वीक। 1961 में जब वॉशिंगटन पोस्ट कम्पनी ने इसे खरीदा तब खबरों को लेकर दुनिया बेहद संज़ीदा थी। कम्पनी ने 1982 में न्यूज़वीक ऑन एयर नाम से रेडियो प्रोग्राम भी शुरू किया, जो इस साल जून में बदल कर फॉर योर ईयर्स ओनली कर दिया गया है। 2003 के बाद से न्यूज़वीक के प्रसार मे कमी आने लगी। उस वक्त इसका सर्कुलेशन 40 लाख से ज्यादा था। अमेरिकी संस्करण के अलावा इसका एक अंतरराष्ट्रीय संस्करण है। साथ ही जापानी, कोरियन, पोलिश, रूसी, स्पेनिश, अरबी और तुर्की संस्करण भी हैं।
सन 2008 में पत्रिका का प्रसार 31 लाख से घटकर 26 लाख हुआ। जुलाई 2009 में 19 लाख और जनवरी 2010 में 15 लाख। इन दिनों और कम हुआ होगा। विज्ञापन मेंभी इसी तरह की गिरावट है। 2008 में इसका ऑपरेटिंग घाटा 1.6 करोड़ डॉलर था जो 2009 में बढ़कर 2.93 करोड़ डॉलर हो गया। 2010 के पहली तिमाही में यह 1.1 करोड़ डॉलर था। पत्रिका के संचालकों को लगा कि अपने आप में कुछ बदलाव करके शायद बचाव का रास्ता मिल जाय। इसलिए 14 मई 2009 के अंक से इसमें नाटकीय बदलाव किया गया। इसमें लम्बे लेखों की संख्या बढ़ाई गई। हार्ड न्यूज़ की जगह कमेंट्री और विश्लेषण को बढ़ाया गया। बहरहाल गिरावट रुकी नहीं।
न्यूज़वीक के स्वामी इसकी रक्षा करना चाहते थे, पर इसके लिए वे जो भी कदम उठा रहे थे वे उल्टे पड़ रहे थे। इसलिए इसे बेचने का फैसला कर लिया गया। वॉशिंगटन पोस्ट के मुख्य कार्यकारी डॉनल्ड ग्राहम ने कहा, "हमें न्यूज़वीक के लिए एक ऐसा ख़रीददार चाहिए था जो उच्चस्तरीय पत्रकारिता की अहमियत उसी तरह महसूस करता हो जैसे हम करते हैं।" न्यूज़वीक के साथ 300 कर्मचारी जुड़े़ हुए हैं। विज्ञापनों में कमी और इंटरनेट पर मुफ़्त में उपलब्ध खबरों के न्यूज़वीक को भारी नुक़सान हुआ।
कारोबार के मामले में न्यूज़वीक हमेशा टाइमसे पीछे रही, पर उसकी अलग तरह की अंतरराष्ट्रीय छवि है। इन दोनों अमेरिकी पत्रिकाओं के मुकाबले इंग्लैंड की पत्रिका इकोनॉमिस्ट की पहचान अलग तरह की है। फ्री ट्रेड और वैश्वीकरण के पक्ष में उसका एक वैचारिक स्टैंड है, जिसपर वह काफी ज़ोर देती है। उसकी खासियत है कि उसमें एक भी बाइलाइन नहीं होती। इसके संचालकों की मान्यता है कि हमारे स्टैंड सामूहिक हैं। इसके सम्पादक को केवल एक बार, जब वह रिटायर होने वाला होता है, अपने नाम से लिखने का मौका मिलता है। विशेष सर्वे और बाहर से आमंत्रित लेखों पर ही लेखक का नाम दिया जाता है। इकोनॉमिस्ट अपने आप को न्यूज़पेपर कहता है मैगज़ीन नहीं।
न्यूज़वीक के बारे में अच्छी बात यह है कि उसे सिडनी हर्मन ने खरीदा है,  जो लालची दुकानदार नहीं हैं। हो सकता है कि वे पत्रिका को बचा लें। इससे क्या होगा? कुछ लोगों की नौकरियाँ बचेंगी। यह बात अपनी जगह ठीक है। पर क्या वे न्यूज़वीक के पुराने स्वरूप को बचा पाएंगे?  हालांकि वह रूप बदल चुका है, पर अब भी वह समाचार पत्रिका है। पाठकों को क्या समाचार पत्रिका नहीं चाहिए? न्यूज़ मैगज़ीन केवल खबर ही नहीं देती विचार भी देती है। इंटरनेट पर समाचार और विचार काफी उपलब्ध है, पर वह बिखरा हुआ है। उसे सुगठित और साखदार होने में समय लगेगा। उसका आसान रास्ता यही है कि प्रिंट की साखदार संस्थाएं जल्द से जल्द नेट पर आएं।
इकोनॉमिस्ट को पढ़ने वाले उसे उसके वैचारिक दृष्टिकोण के कारण पढ़ते हैं। वैसे ही जैसे मंथली रिव्यू या ईपीडब्ल्यू को पढ़ते हैं। सामग्री कागज़ पर मिले या नेट पर इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है जब किसी संस्था के साथ समाज के अंदर से एक परम्परा ग़ायब होने लगती है। दिनमान के दौर में एक पीढ़ी तैयार हुई। जब तक यह पीढ़ी आगे कुछ करती दिनमान नहीं बचा। इकोनॉमिस्ट,ईपीडब्ल्यू’ ‘मंथली रिव्यू,न्यूयॉर्कर औरन्यू स्टेट्समैन नेट पर भी उपलब्ध हैं। तकनीक शायद और बदलेगी, पर मनुष्य की बुनियादी बैचारिक चाहत कहीं न कहीं कायम रहेगी। न्यूज़वीक और टाइम को भी अपने आर्थिक मॉडल बदलने होंगे। अच्छी बात यह है कि इन संस्थाओं को बचाने वाली ताकतें इन देशों में हैं। हमारे देश में भी ऐसी ताकतों को होना चाहिए, जो वैचारिक कर्म की अवमानना रोकें। हमें वैचारिक कर्म की ज़रूरत है। वही हमें गलत रास्ते पर जाने से बचाएगा।  


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Tuesday, August 17, 2010

कुछ अपडेट

रंदीव ने माफी माँगी
श्रीलंका के खिलाड़ी रंदीव ने आखिरकार सहवाग से माफी माँग ली। सहवाग ने अपने ट्वीट में इसकी जानकारी दी है। पर यह बात समझ में नहीं आई कि ऐसा क्यों हुआ। खेल में स्पर्धा होती है। उन्हें बेशक सहवाग को सैकड़ा बनाने से रोकना चाहिए था, पर अच्छा खेलकर। बेईमानी से नहीं। एक अच्छी गेंद पर सहवाग रन न बना पाते तो उसका श्रेय रंदीव को जाता। क्रिकेट तो शरीफों का खेल माना जाता है। बहरहाल यह मामला खत्म हुआ।

भाजपा-कांग्रेस समन्वय
गुजरात के अमित शाह मामले के बाद से इन दोनों पार्टियों के बीच कटुता बढ़ गई थी। पर न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर दोनों की रज़ामंदी के बाद लगता है दोनों में समझदारी बढ़ी है। या इसमें अमेरिका की कोई भूमिका थी? उधर आडवाणी जी ने अपने सासंदों को यह सलाह देकर अच्छा काम किया है कि वे सासंदों का वेतन बढ़ाने के मामले में ज्यादा ज़ोर न दें। दरअसल जब पूरा देश भूखों और गरीबों की बात कर रहा है, यह बिल अभद्रता लग रही है। सोमवार को कैविनेट में चिदम्बरम और अम्बिका सोनी ने सलाह दी कि इसे पास कराने की जल्दी न करें। भाजपा-कांग्रेस समन्वय यूपी में भी नज़र आ रहा है जहाँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने यमुना हाइवे को लेकर आंदोलन खड़ा कर दिया है। लगता है अब सन 2012 में यूपी के चुनाव होने तक आंदोलनों का दौर चलेगा। ममता बनर्जी ने सिंगूर के मार्फत यह रास्ता दिखाय दिया है।

कुछ और खबरों के लिंक

चीन में कुछ लोग कंप्यूटर तकनीक के साथ तालमेल नहीं बिठा पाने के कारण अपना उपनाम बदल रहे हैं.

नियंत्रण रेखा के पार व्यापार का लाभ


Sunday, August 15, 2010

आज़ादी

चौसठवां स्वतंत्रता दिवस भी वैसा ही रहा जैसा होता रहा है। प्रधानमंत्री का रस्मी भाषण, ध्वजारोहण, देश भक्ति के गीत वगैरह -वगैरह। इधर एसएमएस भेजने का चलन बढ़ा है। बधाई देने की रस्म अदायगी बढ़ी है। यह दिन क्या हमको कुछ सोचने का मौका नहीं देता? अच्छा या बुरा क्या हो रहा है यह सोचने को प्रेरित नहीं करता? 


जिससे पूछिए वह निराश मिलेगा। देश से, इसके नेताओं से, अपने आप से। क्या हमारे पास खुश होने के कारण नहीं हैं? हमने कुछ भी हासिल नहीं किया?  बहरहाल मैं गिनाना चाहूगा कि हमने क्या हासिल किया। क्या खोया, उसे मैं क्या गिनाऊं। तमाम लोग गिना रहे हैं। 


इस गिनाने को मैं पहली उपलब्धि मानता हूँ। हम लोग अपनी बदहाली को पहचानने तो लगे हैं। हम क्या खो रहे हैं, यह समझने लगे हैं। शिक्षा और संचार के और बेहतर होने पर हम और शोर सुनेंगे। यह खोना नहीं पाना है। ये लोग जवाब माँगेंगे। आज नहीं माँगते हैं तो कोई बात नहीं कल माँगेंगे।


हमारी प्रतिरोध-प्रवृत्ति बढ़ी है। इस बात का रेखांकित होना उपलब्धि है। 


राज-व्यवस्था जनता से दूर होने लगी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी चीजों से भाग रही है। भाग कर कहाँ जाएगी। जनता उसे खींचकर मैदान में ले आएगी। शिक्षा अगर स्कूल में नहीं मिली तो अशिक्षा हमें आगे बढ़ने से रोकेगी। यह चक्र थोड़ा लम्बा चलेगा, पर राज-व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं पाएगी। 


टेलीकम्युनिकेशंस का फायदा बिजनेस वालों से ज्यादा जनता को मिलेगा। सारा देश जुड़ रहा है। जानकारियाँ बहुत जल्द यात्रा करतीं हैं। जानकारियाँ देने वाले यानी मीडियाकर्मी बहुत ज्यादा समय तक मसाला-चाट खिलाकर नहीं चलेंगे। दो-चार साल यह भी सही। 


जनसंख्या बढ़ रही है। जागरूक जनसंख्या बढ़ रही है। अब ढोर-डंगर नहीं जागरूक नागरिक बढ़ रहे हैं। वे सवाल पूछेंगे। निराशा की कोई सीमा होती है। हमें अपनी निराशा का सहारा लेना चाहिए। इस निराशा से लड़कर ही तो आप उम्मीदों के पर्वतों को जीतेंगे। 


पर ये उम्मीदें तब तक पूरी नहीं होंगी, जब तक आप अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगे। 


क्या आप जागरूक नागरिक हैं?


क्या आप अपनी शिकायत शिकायतघर में करते हैं?


क्या आप रिश्वत देने के बजाय रिश्वत लेने वाले की गर्दन दबोचना पसंद करते हैं?


क्या आप चार पेड़ कहीं लगाकर उन्हें पानी देते हैं, किसी गरीब बच्चे को पढ़ाते हैं?


छोटे काम कीजिए बड़े काम अपने आप हो जाएंगे। आप कमज़ोर नहीं ताकतवर हैं। 

Saturday, August 14, 2010

ग्राउंड ज़ीरो के पास मस्ज़िद



अमेरिका में 9/11 की साइट ग्राउंड ज़ीरो के नाम से प्रसिद्ध है। इसके पहले तक आमतौर पर किसी विस्फोट स्थल, खासतौर से जहां एटमी धमाका हुआ हो उस जगह को ग्राउंड ज़ीरो कहते थे। विकीपीडिया के अनुसारः-

The Oxford English Dictionary, citing the use of the term in a 1946 New York Times report on the destroyed city of Hiroshima, defines "ground zero" as "that part of the ground situated immediately under an exploding bomb, especially an atomic one."

In and around New York City, "Ground Zero" is generally understood to mean the site of the World Trade Center, which was destroyed in the September 11, 2001 attacks. The phrase was being applied to the World Trade Center site within hours after the towers collapsed. The adoption of this term by the mainstream North American media with reference to the September 11th attacks began as early as 7:47 p.m. (EDT) on that day, when CBS News reporter Jim Axelrod said,
“ Less than four miles behind me is where the Twin Towers stood this morning. But not tonight. Ground Zero, as it's being described, in today's terrorist attacks that have sent aftershocks rippling across the country.[5] ”


Rescue workers also used the phrase "The Pile", referring to the pile of rubble that was left after the buildings collapsed.[6]

बहरहाल ग्राउंड ज़ीरो के करीब एक इस्लामिक केन्द्र बनाने की योजना है। इसे कानूनी मंज़ूरी भी मिल गई है। दूसरी ओर कुछ लोगों ने इस केन्द्र को बनाने का विरोध शुरू कर दिया है। वे लोग इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं। जबकि इसके समर्थक कहते हैं कि यह केन्द्र साबित करेगा कि इस्लाम शांति का प्रतीक है। राष्ट्रपति ओबामा ने भी मस्ज़िद बनाने का समर्थन किया है। उन्होंने कहा, मुसलमानों को भी वही धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं, जो किसी दूसरे को हैं।
मस्ज़िद विरोधी कार्टून

Friday, August 13, 2010

ग्लोबल अपडेट

श्रीलंका से दो रोचक खबरें मिली हैं। एक तो लिट्टे के आतंक के खिलाफ लड़ी सेना के नायक जनरल सनत फोनसेका को वहाँ की फौजी अदालत ने अपने सेवाकाल में ही राजनीति में शामिल होने का दोषी पाया है। अब इस फैसले की पुष्टि सरकार कर देगी तो जनरल के पद और सारे अलंकरण छिन जाएंगे।

जनरल फोनसेका ने जनवरी में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा था, जिसमें वे महीन्द्रा राजपक्षे से हार गए थे। न्हें इसके बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। उनपर नागरिक सरकार का तख्ता पलटने की साज़िश का आरोप भी है।

सनकी मंत्री हटाया गया
श्रीलंका के एक उप राजमार्ग मंत्री मर्विन सिल्वा को पार्टी और पद से हटा दिया गया है। उन्होंने एक अफसर को रस्सी के सहारे पेड़ से बँधवा दिया था। अफसर पर आरोप था कि वह कुछ सरकारी बैठकों में शामिल नहीं हुआ।
लोकतंत्र का यह प्रयोग राष्ट्रपति महीन्द्र राजपक्षे को समझ में नहीं आया।

Wednesday, August 11, 2010

साथी हाथ बढ़ाना

एक ज़माने में हिन्दी फिल्मों की थीम गरीबों के इर्द-गिर्द होती थी। मदद करना, सहयोग करना, दूसरे के दुख में साझीदार होना उसका मकसद था। अब की फिल्मों के नायक चमक-दमक का जीवन जीते हैं। गरीब-गुर्बे पृष्ठभूमि में चले गए हैं। शायद इसीलिए हम सबने मदद के मूल्यों को बिसरा दिया है। अमेरिका के चालीस फीसदी अमीरों नें कम से कम अपनी आधी सम्पदा दान में देने की घोषणा करके भरोसा बढ़ाया है। शायद हमारे देश के सम्पन्न
वर्ग को भी अपनी जिम्मेदारी समझ में आए।
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अमेरिकी अमीरों ने संकल्प किया
संकल्प करने वालों की सूची
भारतीय दानशीलता पर बैन एंड कम्पनी की रपट
देविन बनर्जी की रपट
द क्रॉनिकल ऑव फिलैन्थ्रॉपी दानशीलता को समर्पित पत्रिका

Tuesday, August 10, 2010

हॉकी में हम नवें स्थान पर

भारत में हॉकी महासंघ का झगड़ा चल रहा है। वहीं एफआईएच ने नई विश्व रैंकिंग ज़ारी की है जिसमें भारतीय टीम नौवें स्थान पर है। पाकिस्तान से एक स्थान नीचे। 
रैंकिंग क्रम इस प्रकार हैः-
पुरुष
1. ऑस्ट्रेलिया     2620 पॉइंट
2. जर्मनी            2370
3. नीदरलैंड         2213
4. इंग्लैंड             2047
5. स्पेन               2040
6. कोरिया            1888
7. न्यूज़ीलैंड         1610
8. पाकिस्तान       1410
9. भारत               1280
10. कनाडा            1221  
11. अर्जेंटीना         1187
12. द अफ्रीका        1180
13 बेल्जियम         1148
14. चीन                 1053
15. मलेशिया          1039
16. जापान              0928

सम्पूर्ण हॉकी रैंकिंग



ट्विटरीकृत शोर के दौर में साख का सवाल


शनिवार के अखबारों में सहारा समूह के अध्यक्ष सुब्रत रॉय सहारा की  एक भावनात्मक अपील प्रकाशित हुई है। उन्होंने कहा है कि मीडिया में कॉमनवैल्थ गेम्स को लेकर जो निगेटिव कवरेज हो रहा है उससे उससे पूरे संसार में हमारे देश और निवासियों के बारे में गलत संदेश जा रहा है। हमें इन खेलों को सफल बनाना चाहिए। यह अपील टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रकाशित हुई, जिसके किसी दूसरे पेज पर उनके टीवी चैनल 'टाइम्स नाव' का विज्ञापन है। टाइम्स नाव कॉमनवैल्थ खेलों के इस 'भंडाफोड़' का श्रेय लेता रहा है। और वह काफी अग्रेसिव होकर इसे कवर कर रहा है।

शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता का साप्ताहिक कॉलम नेशनल इंटरेस्ट इसी विषय को समर्पित है। उन्होंने लिखा है कि दो हफ्ते पहले हमारे मन में इन खेलों को लेकर यह भाव नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने खुद इस भंडाफोड़ की शुरुआत की थी, पर हमने यह नहीं सोचा था कि इन सब बातों का इन खेलों के खिलाफ प्रचार करने और माहौल को इतना ज़हरीला बनाने में इस्तेमाल हो जाएगा। जिस तरीके से खेलों के खिलाफ अभियान चला है उससे पत्रकारिता के ट्विटराइज़ेशन का खतरा रेखांकित होता है।सब चोर हैं इस देश का लोकप्रिय जुम्ला है।

कॉमनवैल्थ गेम्स के बहाने हम मीडिया की प्रवृत्तियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। साथ ही यह समझ भी आता है कि पत्रकार छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा क्यों कर रह हैं। कॉमनवैल्थ गेम्स पर कितना खर्च हो रहा है, कहाँ-कहाँ खर्च हो रहा है और किस खर्च के लिए कौन जिम्मेदार है इसकी पड़ताल तो आसानी से की जा सकती है। दस-पन्द्रह हजार करोड़ के खर्च से शुरू होकर बात एक लाख करोड़ तक पर जा चुकी है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली सरकार और खेल मंत्रालय की रपटों के हवाले से 41,589.35 करोड़ रु के खर्च का ब्योरा दिया है। इसमें फ्लाई ओवरों का निर्णाण, मेट्रो कनेक्टिविटी, लो फ्लोर डीटीसी बसों की संख्या में वृद्धि, सड़कों का मरम्मत, फुटपाथों का निर्माण वगैरह भी शामिल है। खेलों के दौरान होने वाले खर्च अलग हैं। दूर से लगता है कि सुरेश कलमाडी के पास चालीस-पचास हजार करोड़ अपने विवेक से खर्च करने का अधिकार था। ऐसा नहीं है। घपले हुए हैं तो पूरी व्यवस्था ने होने दिए हैं।

इसमें दो राय नहीं कि मीडिया ने जो मामले उठाए हैं, उनके पीछे कोई आधार होगा। उन्हें जाँचा और परखा जाना चाहिए। पब्लिक स्क्रूटिनी जितनी अच्छी होगी काम उतने अच्छे होंगे। इस बात को साफ-साफ बताना चाहिए कि किससे कहाँ चूक हुई है या किसने कहाँ चोरी की है। इसके लिए पत्रकारों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे हवाबाज़ी में न आ जाएं। जैसे-जैसे आर्थिक मसले बढ़ेंगे वैसे-वैसे पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ेगी। ऐसे मौकों पर व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने वाले भी आगे आते हैं। वे अधूरे तथ्य पत्रकारों को बताकर अपनी मर्जी से काम करा लेते हैं। इधर लगभग हर चैनल और अखबार में एक्सक्ल्यूसिव का ठप्पा लगाने का चलन बढ़ा है। एक्सक्ल्यूसिव होने की जल्दबाज़ी में हम तथ्यों को परखते नहीं। कई बार तथ्य सही होते हैं, पर उन्हें उछालने वाले कोई का कोई स्वार्थ होता है। उसे देखने की ज़रूरत भी है। अच्छी खबर पढ़ने में अक्सर सनसनीखेज नहीं होती, पर मीडिया की दिलचस्पी सनसनी में है।     
 
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉगों पर जो शब्दावली चलती है, वह मुख्यधारा के मीडिया की शब्दावली कभी नहीं थी। जनता के बीच संवाद की भाषा और पत्रकारिता की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण पूरे देश की इज़्ज़त रसातल में जा रही है, इसलिए हम इस बात पर विचार कर रहे हैं। यों हमें सोचना चाहिए कि पत्रकारिता की भूमिका वास्तव में है क्या। तथ्यों को बाँचे-जाँचे बगैर पेश करने का चलन बढ़ता जा रहा है। जन-पक्षधरता अच्छी बात है, पर सारे तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति का पक्ष भी जानने की कोशिश करनी चाहिए, जिस पर आरोप लगाए जा रहे हैं। पत्रकारिता परिपक्व विचार और समझ का नाम भी है। इन दिनों उसे जिस तरह उसके मूल्यों से काटने की कोशिश हो रही है, वह भी तो ठीक नहीं है।

ये खेल बचें या न बचें यह राष्ट्रीय हितों से जुड़ा सवाल है। हमारी दिलचस्पी पत्रकारिता को बचाने में भी है। इस सिलसिले में मैं आनन्द प्रधान के एक लेख का हवाला देना चाहूँगा, जो उन्होंने हिन्दी पत्रकार-लेखक हेम चन्द्र पांडे की मौत को लेकर लिखा है। हेम की मौत पर मीडिया ने कोई पड़ताल नहीं की। संयोग से सोहराबुद्दीन की मौत इन दिनों खबरों में है। चूंकि उस खबर के साथ बड़े नाम जुड़े हैं, इसलिए मीडिया का ध्यान उधर है। जिन मूल्यों-सिद्धांतों के हवाले से सोहराबुद्दीन की पड़ताल हुई, वे हेम के साथ भी तो जुड़े हैं। शायद यह मामला डाउन मार्केट है। अप मार्केट और डाउन मार्केट पत्रकारिता की मूल भावना से मेल नहीं खाते। पत्रकारिता सिर्फ व्यवसायिक हितों की रक्षा में लग जाएगी तो वह जनता से कटेगी। उसका दीर्घकालीन व्यावसायिक हित भी साख बचाने में है। सब चोर हैं का जुम्ला उसके साथ नहीं चिपकना चाहिए।

इधर हूट में एक खबर पढ़ने को मिली कि पेड न्यूज़ के मसले पर प्रेस काउंसिल की संशोधित रपट में अनेक कड़वे प्रसंग हट गए हैं। बहुमत के आधार पर तय हुआ कि प्रकाशकों की दीर्घकालीन साख और हितों को जिन बातों से चोट लगे उन्हें हटा देना चाहिए। पर पत्रकारिता की दीर्घकालीन साख और हित-रक्षा किसकी जिम्मेदारी है? कॉमनवैल्थ गेम्स होने चाहिए और हमें एशियाई खेल से भी नहीं भागना चाहिए। यह काम एक गम्भीर और आश्वस्त व्यवस्था ही कर सकती है। इसे सिविल सोसायटी कहते हैं। इसमें मीडिया भी शामिल है। सब चोर हैं का भाव पैदा करने में मीडिया की भूमिका भी है।

अफरा-तफरी के पीछे कौन लोग हैं, यह साफ तौर पर बताने का काम मीडिया का है। इस काम के लिए गम्भीर पत्रकारिता की ज़रूरत है। यही पत्रकारिता भीड़ की मनोवृत्ति से बचाने में सेफ्टी वॉल्व का काम करती है। एक अरसे से खबरों के कान मरोड़कर उन्हें या तो सनसनीखेज़ या मनोरंजक बनाकर पेश करने की प्रवृत्ति हावी है। साख चाहे सरकार की गिरे या बिजनेस हाउसों की जनता की बेचैनी बढ़तीहै। जैसे-जैसे ट्विटर संस्कृति बढ़ेगी, शोर और बढ़ेगा। ऐसे में हर तरह के संस्थानों को अपनी साख के बारे में भी सोचना चाहिए। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले संस्थानों से लेकर मडिया हाउसों तक अपनी साख को लेकर चेतेंगे तब वे उन तरीकों को खोजेंगे, जिनसे साख बनती है या बचती है।