Thursday, September 30, 2010

कश्मीर का ताज़ा हाल

पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के जनमत संग्रह का मुद्दा उठाया है। इसपर भारत के विदेशमंत्री ने जवाब दिया है कि अब तक कई बार हो चुके चुनाव ही जनमत संग्रह की निशानी हैं। यह साफ है कि कश्मीर के मौजूदा माहौल को भड़काने में पाकिस्तान का हाथ है। करगिल की लड़ाई भड़काने वाले परवेज़ मुशर्रफ को बाद में समझ में आ गया था कि यह काम खतरनाक है। अब पाकिस्तानी सेना के जनरल कयानी इसे भड़काना चाहते हैं।

पाकिस्तान को यह भी समझ में आ रहा है कि उसे अमेरिका से वैसा सहयोग नहीं मिलेगा जैसा मिलता रहा है। इसलिए चीन का नया कार्ड खेला है। चीन को भी पाकिस्तान की उसी तरह ज़रूरत है जैसे अमेरिका को है। भारत को इन दोनों का सामना अपने राजनैतिक संकल्प से करना होगा। उसके पहले कश्मीर में हालात को सामान्य करना भी ज़रूरी है।


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Wednesday, September 29, 2010

सलमान खान तो हमारे पास भी है


रविवार के इंडियन एक्सप्रेस का एंकर सलमान खान पर था। यह सलमान बॉलीवुड का सितारा नहीं है, पर अमेरिका में सितारा बन गया है। बंग्लादेशी पिता और भारतीय माता की संतान सलमान ने सिर्फ अपने बूते दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाइन स्कूल स्थापित कर लिया है। हाल में गूगल ने अपने 10100 कार्यक्रम के तहत सलमान को 20 लाख डॉलर की मदद देने की घोषणा की है। इस राशि पर ध्यान दें तो और सिर्फ सलमान के काम पर ध्यान दें तो उसमें दुनिया को बदल डालने का मंसूबा रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छिपे हैं।

सलमान खान की वैबसाइट खान एकैडमी पर जाएं तो आपको अनेक विषयों की सूची नज़र आएगी। इनमें से ज्यादातर विषय गणित, साइंस और अर्थशास्त्र से जुड़े हैं। सलमान ने अपने प्रयास से इन विषयों के वीडियो बनाकर यहाँ रखे हैं। छात्रों की मदद के लिए बनाए गए ये वीडियो बगैर किसी शुल्क के उपलब्ध हैं। सलमान ने खुद एमआईटी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से डिग्रियाँ ली हैं। शिक्षा को लालफीताशाही की जकड़वंदी से बाहर करने की उसकी व्यक्तिगत कोशिश ने उसे गूगल का इनाम ही नहीं दिलाया, बिल गेट्स का ध्यान भी खींचा है। बिल गेट्स का कहना है कि मैने खुद और मेरे बच्चों ने इस एकैडमी में प्राप्त शिक्षा सामग्री मदद ली है। पिछले साल सलमान को माइक्रोसॉफ्ट टेक एवॉर्ड भी मिल चुका है।

सलमान की इस कहानी का हमारे जैसे देश में बड़ा अर्थ है। इसके पीछे दो बातें है। दूसरों को ज्ञान देना और निशुल्क देना। सलमान का अपना व्यवसाय पूँजी निवेश का था। उसने अपनी एक रिश्तेदार को कोई विषय समझाने के लिए एक वीडियो बनाया। उससे वह उत्साहित हुआ और फिर कई वीडियो बना दिए। और फिर अपनी वैबसाइट में इन वीडियो को रख दिय़ा। सलमान की वैबसाइट पर जाएं तो आपको विषय के साथ एक तरतीब से वीडियो-सूची मिलेगी। ये विडियो उसने माइक्रोसॉफ्ट पेंट, स्मूद ड्रॉ और कैमटेज़िया स्टूडियो जैसे मामूली सॉफ्टवेयरों की मदद से बनाए हैं। यू ट्यूब में उसके ट्यूटोरियल्स को हर रोज 35,000 से ज्यादा बार देखा जाता है।

गूगल ने उसे जो बीस लाख डॉलर देने की घोषणा की है उससे नए वीडियो बनाए जाएंगे और इनका अनुवाद दूसरी भाषाओं में किया जाएगा। सलमान ने सीएनएन को बताया कि स्पेनिश, मैंडरिन(चीनी), हिन्दी और पोर्चुगीज़ जैसी भाषाओं में इनका अनुवाद होगा। सलमान का लक्ष्य है उच्चस्तरीय शिक्षा हरेक को, हर जगह। शिक्षा किस तरह समाज को बदलती है इसका बेहतर उदाहरण यूरोप है। पन्द्रहवीं सदी के बाद यूरोप में ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट हुआ। उसे एज ऑफ डिस्कवरी कहते हैं। इस दौरान श्रेष्ठ साहित्य लिखा गया, शब्दकोश, विश्वकोश, ज्ञानकोश और संदर्भ-ग्रंथ लिखे गए। उसके समानांतर विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ।

दुनिया में जो इलाके विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनके विकास के सूत्र केवल आर्थिक गतिविधियों में नहीं छिपे हैं। इसके लिए वैचारिक आधार चाहिए। और उसके लिए सूचना और ज्ञान। यह ज्ञान अपनी भाषा में होगा तभी उपयोगी है। हिन्दी के विस्तार को लेकर हमें खुश होने का पूरा अधिकार है। अपनी भाषा में दुनियाभर के ज्ञान का खजाना भी तो हमें चाहिए। हमारे भीतर भी ऐसे जुनूनी लोग होंगे, जो ऐसा करना चाहते हैं, पर बिल गेट्स और गूगल वाले हिन्दी नहीं पढ़ते हैं। हिन्दी पढ़ने वाले और हिन्दी का कारोबार करने वालों को इस बात की सुध नहीं है। यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि हिन्दी के ज्ञान-व्यवसाय पर हिन्दी के लोग हैं ही नहीं। जो हैं उन्हें या तो अंग्रेजी 
आती है या धंधे की भाषा।

इंटरनेट के विकास के बाद उसमें हिन्दी का प्रवेश काफी देर से हुआ। हिन्दी के फॉण्ट की समस्या का आजतक समाधान नहीं हो पाया है। गूगल ने ट्रांसलिटरेशन की जो व्यवस्था की है वह पर्याप्त नहीं है। वहरहाल जो भी है, उसका इस्तेमाल करने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में जिस गति से ब्लॉगिंग हो रही है, उसके मुकाबले हिन्दी में हम बहुत पीछे हैं। विकीपीडिया पर हिन्दी में लिखने वालों की तादाद कम है। अगस्त 2010 में विकीपीडिया में लिखने वाले सक्रिय लेखकों की संख्या 82794 थी। इनमें से 36779 अंग्रेजी में लिखते हैं। जापानी में लिखने वालों की संख्या 4053 है और चीनी में 1830। हिन्दी में 70 व्यक्ति लिखते हैं। इससे ज्यादा 82 तमिल में और 77 मलयालम में हैं। भारतीय भाषाओं के मुकाबले भाषा इंडोनेशिया में लिखने वाले 244, थाई लिखने वाले 256 और अरबी लिखने वाले 522 हैं।

करोड़ों लोग हिन्दी में बात करते हैं, फिल्में देखते हैं या न्यूज़ चैनल देखते हैं। इनमें से कितने लोग बौद्धिक कर्म में अपना समय लगाते हैं?  मौज-मस्ती जीवन का अनिवार्य अंग है। उसी तरह बौद्धिक कर्म भी ज़रूरी है। अपने भीतर जब तक हम विचार और ज्ञान-विज्ञान की लहर पैदा नहीं करेंगे, तब तक एक समझदार समाज बना पाने की उम्मीद न करें। बदले में हमें जो सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था मिल रही है उसे लेकर दुखी भी न हों। यह व्यवस्था हमने खुद को तोहफे के रूप में दी है।
प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग में हिन्दी की किताबें खोजें। नहीं मिलेंगी। गूगल बुक्स में देखें। थोड़ी सी मिलेंगी। हिन्दी की कुछ वैबसाइटों में हिन्दी के कुछ साहित्यकारों की दस से पचास साल पुरानी किताबों का जिक्र मिलता है। कुछ पढ़ने को भी मिल जाती हैं। इनमें हनुमान चालीसा और सत्यनारायण कथा भी हैं। पुस्तकालयों का चलन कम हो गया है। स्टॉल्स पर जो किताबें नज़र आतीं हैं, उनमें आधी से ज्यादा अंग्रेजी में लिखे उपन्यासों, सेल्फ हेल्प या पर्सनैलिटी डेवलपमेंट की किताबों के अनुवाद हैं। सलमान खान के वीडियो देखें तो उनके संदर्भ अमेरिका के हैं। हमारे लिए तो भारतीय संदर्भ के वीडियो की ज़रूरत होगी।

समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान, मानव विज्ञान से लेकर प्राकृतिक विज्ञानों तक हिन्दी के संदर्भ में किताबें या संदर्भ सामग्री कहाँ है? नहीं है तो क्यों नहीं है? हिन्दी में शायद सबसे ज्यादा कविताएं लिखीं जाती हैं। हिन्दी के पाठक को विदेश व्यापार, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, यहाँ तक कि मानवीय रिश्तों पर कुछ पढ़ने की इच्छा क्यों नहीं होती है? हाल में मुझसे किसी ने हिन्दी में शोध परक लेख लिखने को कहा। उसका पारिश्रमिक शोध करने का अवसर नहीं देता। शोध की भी कोई लागत होती है। वह कीमत हबीब के यहाँ एक बार की हजामत और फेशियल से भी कम हो तो क्या कहें? सलमान खान तो हमारे पास भी है, पर वह मुन्नी बदनाम के साथ नाचता है।  

Friday, September 24, 2010

नया वाला जियो उठो बढ़ो जीतो

सुनिए क्या आपको यह पसंद आया?



ओ यारो ये इंडिया..बुला लिया..
दीवाना ये इंडिया बुला लिया..बुला लिया
ये तो खेल हैं, बड़ा मेल हैं
मिला दिया, मिला दिया


ओ रुकना रुकना रुकना
रुकना रुकना नहीं..
हारना हारना हारना
हारना हारना नहीं..
जुनून से कानून से मैदान मारो

लेट्स गो..लेट्स गो
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो




ओ यारो ये इंडिया..बुला लिया..
दीवाना ये इंडिया बुला लिया..बुला लिया
पर्वत से ऊँचे हो तुम
तो ये दुनिया सलामी दे
सर्द इरादे न हो जाएं कहीं
दिल को वो सूरज दे
जियो उठो बढ़ो जीतो
jतेरा मेरा जहाँ लेट्स गो

कैसी सजी है सजी है देखों माटी अपनी
बनी रश्के जहाँ यारा हो
कई रंग हैं बोली हैं देश हैं मगर
यहीं जग है समाया सारा हो

लागी रे अब लागी रे लगन
जागी रे मन जीत की अगन
उठी रे अब इरादों में तपन
चली रे टोली चली बन ठन

द लांगर द नाइट
द लांगर अवर ड्रीम्स बी
फ्लो लाइक द विंड
लेट द गेम्स टेक ओवर मी
बी लाइक द टाइगर स्ट्रांग
लेट द फियर बी गॉन
फॉलो द विल टु विन टु थ्रिल टु थ्रल..
प्ले ओ जियो हेयो लेट्स गो

कदमों में एक भँवर
का है दिन..
जश्न का आज दिन है
सीनों में तूफान
का हैं दिन..
बाजू आजमा ये दिन है
ये दिन है तेरा दिन है
तू जोर लगा.. चल आँख मिला..
कल ना आए दिन ये!
जियो उठो बढ़ो जीतो
प्ले ओ जियो लेट्स गो


जियो उठो बढ़ो जीतो
तेरा मेरा जहाँ लेट्स गो


अयोध्या

कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया है। इससे कुछ लोगों ने राहत की साँस ली है और कुछ ने कहा है कि इतने साल बाद फैसले की घड़ी आने पर दो-चार दिन टाल देने से कोई समझौता हो जाएगा क्या? बहरहाल आज के सभी अखबारों ने इस विषय पर सम्पादकीय लिखने की ज़रूरत नहीं समझी है। कहा जा सकता है कि वे लिखते भी तो क्या लिखते। 


अंग्रेजी में हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस विषय पर टिप्पणी की है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने नहीं की। हिन्दी में जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान ने टिप्पणी की है। भास्कर और नवभारत टाइम्स ने नहीं की। संयोग से तीनों का शीर्षक एक ही है। ऐसा शीर्षक को रोचक बनाने के लिए या आसानी से उपलब्ध एक शीर्षक का इस्तेमाल करने के लिए किया गया है। 




एक रुका हुआ फैसला
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ की ओर से 24 सितंबर को आने वाले फैसले को लेकर जैसा तनावपूर्ण माहौल बना दिया गया था उसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप तात्कालिक राहत देने वाला है। वैसे तो उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय सुनाने पर एक सप्ताह की ही रोक लगाई है, लेकिन देखना यह होगा कि वह सुलह-समझौते की अर्जी पर 28 सितंबर को क्या फैसला देता है? उसका फैसला कुछ भी हो, फिलहाल अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकलने के आसार नजर नहीं आते। सुलह का मौका देने की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले याचिकाकर्ता को छोड़ दिया जाए तो न तो वादी-प्रतिवादी आपसी सहमति के रास्ते पर चलने को तैयार दिखते हैं और न ही प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठन। राष्ट्रहित में इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या विवाद को आपसी बातचीत के माध्यम से हल किया जाए, लेकिन यह निराशाजनक है कि इसके लिए किसी भी स्तर पर ठोस प्रयास नहीं हो रहे हैं। क्या यह उम्मीद की जाए कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप ने जो अवसर प्रदान किया है उसका उपयोग करने के लिए वे लोग आगे आएंगे जो अयोध्या विवाद का समाधान परस्पर सहमति से खोजने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने में सहायक हो सकते हैं? यदि दोनों पक्षों के धर्माचार्य और प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में कदम उठाएं तो अभीष्ट की पूर्ति हो सकती है। यह सही है कि अतीत में ऐसे जो प्रयास हुए वे नाकाम रहे, लेकिन आखिर और अधिक निष्ठा के साथ एक और कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह विचित्र है कि जो लोग ऐसी कोशिश कर सकते हैं उनमें से ही अनेक 24 सितंबर के फैसले को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। ऐसे राजनेता एक ओर शांति-सद्भाव बनाए रखने का आग्रह कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने बयानों के जरिये ऐसा माहौल रच रहे जैसे 24 सितंबर को आसमान टूटने जा रहा हो। परिणाम यह हुआ कि देश के कुछ हिस्सों में दहशत पैदा हो गई। कुछ राज्यों में तो स्कूलों में छुट्टी करने की तैयारी कर ली गई थी। इसमें दो राय नहीं कि पूरा देश अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का अभिमत जानने को उत्सुक है, लेकिन धीरे-धीरे इस उत्सुकता में आशंका घुल गई। इसके लिए चाहे जो जिम्मेदार हो, 24 सितंबर के फैसले को लेकर जैसे माहौल का निर्माणकिया गया उससे एक परिपक्व राष्ट्र की हमारी छवि को धक्का लगा है। यह आश्चर्यजनक है कि जब यह स्पष्ट था कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं होगा तब भी आम जनता के बीच यह संदेश क्यों जाने दिया गया कि अयोध्या मामले में कोई निर्णायक फैसला होने जा रहा है। जिन परिस्थितियों में अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का फैसला रुका वे सुरक्षा तैयारियों को विस्तार देने वाली हैं। चूंकि उच्च न्यायालय की ओर से फैसला सुनाने वाले तीन में से एक न्यायाधीश एक अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं इसलिए उच्चतम न्यायालय का यह हस्तक्षेप फैसला टलने का कारण भी बन सकता है। यदि अयोध्या विवाद पर सुलह की कोशिश भी नहीं होती और उच्च न्यायालय का फैसला भी लंबे समय के लिए टलता है तो आम जनता खुद को ठगा हुआ महसूस कर सकती है।

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर पर नई पहल

संसदीय टीम कश्मीर से वापस आ गई है। भाजपा और दूसरी पार्टियों के बीच अलगाववादियों से मुलाकात को लेकर असहमति के स्वर सुनाई पड़े हैं। मोटे तौर पर इस टीम ने अपने दोनों काम बखूबी किए हैं। कश्मीरियों से संवाद और उनके विचार को दर्ज करने का काम ही यह टीम कर सकती थी।

इंडियन एक्सप्रेस ने एक नई जानकारी दी है कि समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह ने सबसे पहले अलगाववादियों से मुलाकात का विरोध किया था. मोहन सिंह का कहना था कि हम राष्ट्र समर्थक तत्वों का मनोबल बढ़ाने आए हैं। हमारे इस काम से अलगाववादियों का मनोबल बढ़ता है।

एक रोचक जानकारी यह है कि संसदीय टीम की मुलाकात हाशिम कुरैशी से भी हुई। हाशिम कुरैशी 30 जनवरी 1971 को इंडियन एयरलाइंस के प्लेन को हाईजैक करके लाहौर ले गया था। वहाँ उसे 14 साल की कैद हुई। सन 2000 में वह कश्मीर वापस आ गया। आज उसके विचार चौंकाने वाले हैं। हालांकि वह कश्मीर में भारतीय हस्तक्षेप के खिलाफ है, पर उसकी राय में भारत और पाकिस्तान में से किसी को चुनना होगा तो मैं भारत के साथ जाऊँगा। उसका कहना है मैने पाक-गिरफ्त वाले कश्मीर में लोगों की बदहाली देख ली है।

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Tuesday, September 21, 2010

टकराव के दौर में मीडिया

इस हफ्ते भारतीय मीडिया पर जिम्मेदारी का दबाव है। 24 सितम्बर को बाबरी मस्जिद मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आएगा। उसके बाद कॉमनवैल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जिन्हें लेकर मस्ती कम अंदेशा ज्यादा है। पुरानी दिल्ली में इंडियन मुज़ाहिदीन ने गोली चलाकर इस अंदेशे को बढ़ा दिया है। कश्मीर में माहौल बिगड़ रहा है। नक्सली हिंसा बढ़ रही है और अब सामने हैं बिहार के चुनाव। भारत में मीडिया, सरकार और समाज का द्वंद हमेशा रहा है। इतने बड़े देश के अंतर्विरोधों की सूची लम्बी है। मीडिया सरकार को कोसता है, सरकार मीडिया को। और दर्शक या पाठक दोनों को।

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने अयोध्या मसले को लेकर पहले से सावधानी बरतने का फैसला किया है। फैसले की खबर देते समय साथ में अपनी राय देने या उसका निहितार्थ निकालने की कोशिश नहीं की जाएगी। बाबरी विध्वंस की फुटेज नहीं दिखाई जाएगी। इसके अलावा फैसला आने पर उसके स्वागत या विरोध से जुड़े विज़ुअल नहीं दिखाए जाएंगे। यानी टोन डाउन करेंगे। हाल में अमेरिका में किसी ने पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ को जलाने की धमकी दी थी। उस मामले को भी हमारे मीडिया ने बहुत महत्व नहीं दिया। टकराव के हालात में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। मीडिया ने इसे समझा यह अच्छी बात है।  

6 दिसम्बर 1992 को देश में टीवी का प्रसार इस तरीके का नहीं था। प्राइवेट चैनल के नाम पर बीबीसी का मामूली सा प्रसारण केबल टीवी पर होता था। स्टार और एमटीवी जैसे चैनल थे। सब अंग्रेजी में। इनके बीच ज़ी का हिन्दी मनोरंजन चैनल प्रकट हुआ। अयोध्या ध्वंस के काफी बाद भारतीय न्यूज़ चैनल सामने आए। पर हम 1991 के इराक युद्ध की सीएनएन कवरेज से परिचित थे, और उससे रूबरू होने को व्यग्र थे। उन दिनों लोग न्यूज़ ट्रैक के कैसेट किराए पर लेकर देखते थे। आरक्षण-विरोधी आंदोलन के दौरान आत्मदाह के एक प्रयास के विजुअल पूरे समाज पर किस तरह का असर डालते हैं, यह हमने तभी देखा। हरियाणा के महम में हुई हिंसा के विजुअल्स ने दर्शकों को विचलित किया। अखबारों में पढ़ने के मुकाबले उसे देखना कहीं ज्यादा असरदार था। पर ज्यादातर मामलों में यह असर नकारात्मक साबित हुआ। 

बहरहाल दिसम्बर 1992 में मीडिया माने अखबार होते थे। और उनमें भी सबसे महत्वपूर्ण थे हिन्दी के अखबार। 1992 के एक साल पहले नवम्बर 1991 में बाबरी मस्जिद को तोड़ने की कोशिश हुई थी। तब उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा, ऐसी घटना नहीं हुई। मुझे याद है लखनऊ के नव भारत टाइम्स ने बाबरी के शिखर की वह तस्वीर हाफ पेज में छापी। सबेरे उस अखबार की कॉपियाँ ढूँढे नहीं मिल रहीं थीं। उस ज़माने तक बहुत सी बातें मीडिया की निगाहों से दूर थीं। आज मीडिया की दृष्टि तेज़ है। पहले से बेहतर तकनीक उपलब्ध है। तब के अखबारों के फोटोग्राफरों के कैमरों के टेली लेंसों के मुकाबले आज के मामूली कैमरों के लेंस बेहतर हैं।

मीडिया के विकास के समानांतर सामाजिक-अंतर्विरोधों के खुलने की प्रक्रिया भी चल रही है। साठ के दशक तक मुल्क अपेक्षाकृत आराम से चल रहा था। सत्तर के दशक में तीन बड़े आंदोलनों की बुनियाद पड़ी। एक, नक्सली आंदोलन, दूसरा बिहार और गुजरात में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और तीसरा पंजाब में अकाली आंदोलन। तीनों आंदोलनों के भटकाव भी फौरन सामने आए। संयोग है कि भारतीय भाषाओं के, खासकर हिन्दी के अखबारों का उदय इसी दौरान हुआ। यह जनांदोलनों का दौर था। इसी दौरान इमर्जेंसी लगी और अखबारों को पाबंदियों का सामना करना पड़ा। इमर्जेंसी हटने के बाद देश के सामाजिक-सांस्कृतिक  अंतर्विरोधों ने और तेजी के साथ एक के बाद एक खुलना शुरू किया। यह क्रम अभी जारी है।

राष्ट्रीय कंट्राडिक्शंस के तीखे होने और खुलने के समानांतर मीडिया के कारोबार का विस्तार भी हुआ। मीडिया-विस्तार का यह पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके कारण मीडिया को अपनी भूमिका को लेकर बातचीत करने का मौका नहीं मिला। बाबरी-विध्वंस के बाद देशभर में विचार-विमर्श की लहर चली थी। अखबारों की भूमिका की खुलकर और नाम लेकर निंदा हुई। उस तरीके का सामाजिक संवाद उसके बाद नहीं हुआ। अलबत्ता उस संवाद का फायदा यह हुआ कि आज मीडिया अपनी मर्यादा रेखाएं तय कर रहा है। 

सामाजिक जिम्मेदारियों को किनारे रखकर मीडिया का विस्तार सम्भव नहीं है। मीडिया विचार-विमर्श का वाहक है, विचार-निर्धारक या निर्देशक नहीं। अंततः विचार समाज का है। यदि हम समाज के विचार को सामने लाने में मददगार होंगे तो वह भूमिका सकारात्मक होगी। विचार नहीं आने देंगे तो वह भूमिका नकारात्मक होगी और हमारी साख को कम करेगी। हमारे प्रसार-क्षेत्र के विस्तार से ज्यादा महत्वपूर्ण है साख का विस्तार। तेज बोलने, चीखने, कूदने और नाचने से साख नहीं बनती। धीमे बोलने से भी बन सकती है। शॉर्ट कट खोजने के बजाय साख बढ़ाने की कोशिश लम्बा रास्ता साबित होगी, पर कारोबार को बढ़ाने की बेहतर राह वही है।

खबर के साथ बेमतलब अपने विचार न देना, उसे तोड़ कर पेश न करना, सनसनी फैलाने वाले वक्तव्यों को तवज्जो न देना पत्रकारिता के सामान्य सूत्र हैं। पिछले बीस बरस में भारतीय मीडिया जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय मसलों से जूझ रहा है। इससे जो आम राय बनकर निकली है वह इस मीडिया को शत प्रतिशत साखदार भले न बनाती हो, पर वह उसे कूड़े में भी नहीं डालती। जॉर्ज बुश ने कहीं इस बात का जिक्र किया था कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं। इसे मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें। भारतीय मुसलमान के सामने तमाम दुश्वारियाँ हैं। वह आर्थिक दिक्कतों के अलावा केवल मुसलमान होने की सज़ा भी भुगतता है, पर भारतीय राष्ट्र राज्य पर उसकी आस्था है। इस आस्था को कायम रखने में मीडिया की भी भूमिका है, गोकि यह भूमिका और बेहतर हो सकती है। कश्मीर के मामले में भारतीय मुसलमान हमारे साथ है।

मीडिया सामजिक दर्पण है। जैसा समाज सोचेगा वैसा उसका मीडिया होगा। यह दोतरफा रिश्ता है। मीडिया भी समाज को समझदार या गैर-समझदार बनाता है। हमारी दिलचस्पी इस बात में होनी चाहिए कि हम किस तरह सकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकते हैं। साथ ही इस बात में कि हमारे किसी काम का उल्टा असर न हो। उम्मीद है आने वाला वक्त बेहतर समझदारी का होगा। पूरा देश हमें देखता, सुनता और पढ़ता है।       

Sunday, September 19, 2010

अयोध्या का फैसला आने से पहले

फैसला तो जो भी आएगा, लगता है हम सब घबरा रहे हैं। अतीत में हमारे मीडिया ने असंतुलित होकर जो भूमिका निभाई उसकी याद करके घबरा रहे हैं। वैबसाइट हूट के अनुसार न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसएशन ने इस सिलसिले में सहमति बनाई है कि फैसले को किस तरह कवर करेंगे। हूट के अनुसारः-


The News Broadcasters Association has put out an advisory on how the High Court judgement on the Ayodhya issue should be reported. All news on the judgement in the case should be a verbatim reproduction with no opinion or interpretation, no speculation of the judgement before it is pronounced should be carried, no footage of the demolition of the Babri Masjid is to be shown in any new item relating to the judgement, and no visuals need be shown depicting celebration or protest following the pronouncement.


इस एडवाइज़री की भावना ठीक है, पर इतना अंदेशा क्यों? अयोध्या मामला ही नहीं सारे मामले महत्वपूर्ण होते हैं। कवरेज के मोटे नियम सभी पत्रकारों को समझने चाहिए। फैसला आने पर उसपर टिप्पणी करना लोकतांत्रिक अधिकार है। उस अधिकार की मर्यादा रेखा को समझना चाहिए। पत्रकारिता की परम्परागत ट्रेनिंग  ऑब्जेक्टिविटी और फेयरनेस और क्या हैं?  इसी तरह तथ्यों में तोड़-मरोड़ नहीं होनी चाहिए। 


एक बात यह भी समझनी चाहिए कि यह न्यायालय का फैसला है। इसके कानूनी पहलू पर ही हमें ज़ोर देना चाहिए। भावनाओं को किनारे कर दें। हमें अपनी व्यवस्था और देशवासियों पर यकीन करना चाहिए। सब समझदार हैं। बेहतर हो कि फैसला आने के पहले पृष्ठभूमि का पता करें। उसे पढ़ें और पूरी समस्या पर विचार करें। इसपर आमराय भी बनाई जा सकती है। 

Friday, September 17, 2010

कश्मीर का क्या करें?

मेरे कई दोस्त व्यग्र हैं। वे समझना चाहते हैं कि कश्मीर का क्या हो रहा है। उसका अब क्या करें। हिन्दुस्तान में प्रकाशित अपने लेख पर मैने अपने फेस बुक मित्रों से राय माँगी तो ज्यादातर ने पोस्ट को पसंद किया, पर राय नहीं दी। विजय राणा जो लंदन में रहते हैं, पर भारतीय मामलों पर लगातार सोचते रहते हैं। उन्होंने जो राय दी वह मैं नीचे दे रहा हूँ।

Its' the problem of Islamic fundamentalism - something that we have been self-deludingly reluctant to acknowledge. Two nations theory did not end with the creation of Pakistan. How can a Muslim majority state live with Hindu India. That's how Huriyat thinks. The whole basis of Kashmiriat is Islam, it has no place for Kashmiri Pundits. There have been attempts for years to target Sikhs and now Christians in the Valley. Right from day one Huriyat leaders had a soft corner for Pakistan. Short of Azadi the Huriyat leadership will be quite happy to join Pakistan. Sadly this truth does not fit into our secularist aganda. Thats' why we have closed our eyes to it. Now economic integratioin is the key. Evey Indian state should give at least 1000 jobs to Kashmiri youth. You don't need law for this. Ask private sector to help. Just do special recuritment drive today and give them at least 30,000 jobs per year. Things will change.

विजय जी का यह विचार इस बात को बताता है कि कश्मीर का भारत में विलय हुआ है तो उसे भारत से जोड़ना भी चाहिए। कैसे जोड़ें? उनकी सलाह व्यावहारिक लगती है। तिब्बत में चीन ने पिछले साठ साल में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव कर दिया है। तिब्बतियों और चीनियों के आपसी विवाह से नई पीढ़ी एकदम अलग ढंग से सोचती है। कश्मीर के नौजवानों को हमने पाक-परस्त लोगों के सामने खुला छोड़ दिया है। उन्हें ठीक से धर्म-निरपेक्ष शिक्षा नहीं मिली। पंडितों को निकालकर बाकायदा एकरंगा समाज बना लिया। नौजवानों के मन में ज़हर भर दिया। अब आज़ादी की बात हो रही है।

मेरे मित्र शरद पांडेय ने मेल भेजी है, ......AGAR AZADI HI.., TO ITANE SAALO MAI JITANA UNHE DIYA GAYA WOH KISI OR STATE KO NAHI,ABHI DO ROJ PAHLE HI, KI UNHE EK BARA PACKAGE AUR..,TO IN SAB BAATO KA KYA MATALB, KYA ISSE..मेरे एक पाठक मनीष चौहान ने मुझे मेल भेजी, ...क्या आप चाहते हैं कि कश्मीर से की तैनाती हटा ली जाये? क्या आप कश्मीर को उसके हाल पर छोड़ देना चाहते हैं? माफ़ कीजिये, कोई भी पार्टी या संगठन कुछ भी मांग करे, सामरिक दृष्टि से वहां स्वायत्तता देना एक नई मुसीबत को आमंत्रण देना होगा ऐसा मेरा मानना है... अच्छा होता, हर बार की तरह आप एक क्लियर स्टैंड रखते...

इस आशय की मेल और भी आई हैं। हमारा क्लियर स्टैंड क्या हो?  अब चूंकि पानी सिर के ऊपर जा रहा है इसलिए एक साफ दृष्टिकोण ज़रूरी है। बेहतर हो कि पूरा देश तय करे कि क्या किया जाय़। 

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर पर पहल

कश्मीर पर केन्द्र सरकार की पहल हालांकि कोई नया संदेश नहीं देती, पर पहल है इसलिए उसका स्वागत करना चाहिए। कल रात 'टाइम्स नाव' पर अर्णब गोस्वामी ने सैयद अली शाह गिलानी को भी बिठा रखा था। उनका रुख सबको मालूम है, फिर भी उन्हें बुलाकर अर्णब ने क्या साबित किया? शायद उन्हें तैश भरी बहसें अच्छी लगती हैं। बात तब होती है, जब एक बोले तो दूसरा सुने। गिलानी साहब अपनी बात कहने के अलावा दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते तो उनसे बात क्यों करें?

अब विचार करें कि हम कश्मीर के बारे में क्या कर सकते हैं?

1. सभी पक्षों से बात करने का आह्वान करें। कोई न आए तो बैठे रहें।
2. सर्वदलीय टीम को भेजने के बाद उम्मीद करें कि टीम कोई रपट दे। रपट कहे कि कश्मीरी जनता से बात करो। फिर जनता से कहें कि आओ बात करें। वह न आए तो बैठे रहें।
3. उमर अब्दुल्ला की सरकार की जगह पीडीपी की सरकार लाने की कोशिश करें। नई सरकार बन जाए तो इंतजार करें कि आंदोलन रुका या नहीं। न रुके तो बैठे रहें।
4.उम्मीद करें कि हमारे बैठे रहने से आंदोलनकारी खुद थक कर बैठ जाएं।

इस तरह के दो-चार सिनारियो और हो सकते हैं, पर लगता है अब कोई बड़ी बात होगी। 1947 के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की सबसे बड़ी कोशिश 1965 में की थी। उसके बाद 1989 में आतंकवादियों को भेजा। फिर 1998 में करगिल हुआ। अब पत्थरमार है। फर्क यह है कि पहले कश्मीरी जनता का काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी कार्रवाई से असहमत होता था। अब काफी बड़ा तबका पाकिस्तान-परस्त है। गिलानी इस आंदोलन के आगे हैं तो उनके पीछे कोई समर्थन भी है। हम उन्हें निरर्थक मानते हैं तो उन्हें किनारे करें, फिर देखें कि कौन हमारे साथ है। उसके बाद पाकिस्तान के सामने स्पष्ट करें कि हम इस समस्या का पूरा समाधान चाहते हैं। यह समाधान लड़ाई से होना है तो उसके लिए तैयार हो जाएं। जिस तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय बैठा देख रहा है उससे नहीं लगता कि पाकिस्तान पर किसी का दबाव काम करता है।

एलओसी पर समाधान होना है तो देश में सर्वानुमति बनाएं। उस समाधान पर पक्की मुहर लगाएं। गिलानी साहब को पाकिस्तान पसंद है तो वे वहाँ जाकर रहें, हमारे कश्मीर से जाएं। अब आए दिन श्रीनगर के लालचौक के घंटाघर पर हरा झंडा लगने लगा है। यह शुभ लक्षण नहीं है।

इसके अलावा कोई समाधान किसी को समझ में आता है उसके सुझाव दें।

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Tuesday, September 14, 2010

मस्ती और मनोरंजन की हिन्दी


1982 में दिल्ली में हुए एशिया खेलों के उद्घाटन समारोह में टीमों का मार्च पास्ट हिन्दी के अकारादिक्रम से हुआ था। इस बार कॉमनवैल्थ खेलों में भी शायद ऐसा हो। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समारोहों में विमर्श की भाषा भले ही अंग्रेजी होती हो, पृष्ठभूमि पर लगे पट में हिन्दी के अक्षर भी होते हैं। ऐसा इसलिए कि इस देश की राजभाषा देवनागरी में लिखी हिन्दी है। हमें खुश रखने के लिए इतना काफी है। 14 सितम्बर के एक हफ्ते बाद तक सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के दफ्तरों में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिन्दी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। और अब दक्षिण भारत में भी हिन्दी का पहले जैसा विरोध नहीं है। दक्षिण के लोगों को समझ मे आ गया है कि बच्चों के बेहतर करिअर के लिए हिन्दी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिन्दी में काम करना है। इसलिए कि हिन्दी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। हिन्दी की जानकारी होने से एक फायदा यह होता है कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं और वहाँ अंग्रेजी जानने वाला भी न मिले तो हिन्दी की मदद मिल जाती है।

खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से भी हिन्दी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिन्दी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिन्दी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिन्दी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिन्दी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। सन 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र सुलभ समाचार में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात उठाई। बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे। दो पीढ़ी पहले के हिन्दी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिन्दी भाषी थे।

हिन्दी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ ले तो हिन्दी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है। हिन्दी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है, पर वह उतना ही है, जितना कहा गया है। यानी बोलने, सम्पर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिन्दी का बाजार छोटा है। 

बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम या दूसरी अन्य भाषाओं का राष्ट्रवाद अपनी भाषा को बिसराने की सलाह नहीं देता। हिन्दी का अपना राष्ट्रवाद उतना गहरा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अंग्रेजी का सहारा है। हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं का पाठक विचार-विमर्श के लिए अपनी भाषा को छोड़ना नहीं चाहता। आनन्द बाज़ार पत्रिका और मलयाला मनोरमा बंगाल और केरल के ज्यादातर घरों में जाते हैं। अंग्रेजी अखबारों के पाठक यों तो चार या पाँच महानगरों में केन्द्रित हैं, पर मराठी, तमिल, बांग्ला और कन्नड़ परिवार में अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी भाषा का अखबार भी आता है। हिन्दी शहरी पाठक का हिन्दी अखबार के साथ वैसा जुड़ाव नहीं है। एक ज़माने तक हिन्दी घरों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, पराग, नन्दन और सारिका जैसी  पत्रिकाएं जातीं थीं। उनके सहारे पाठक अपने लेखकों से जुड़ा था। ऊपर गिनाई सात पत्रिकाओं में से पाँच बन्द हो चुकी हैं। बांग्ला का देश बन्द नहीं हुआ, तमिल का आनन्द विकटन बन्द नहीं हुआ। हिन्दी क्षेत्र का शहरी पाठक अंग्रेजी अखबार लेता है रुतबे के लिए। बाकी वह कुछ नहीं पढ़ता। टीवी देखता है,  पेप्सी या कोक पीता है, पीत्ज़ा खाता है। वह अपवार्ड मोबाइल है। 

हिन्दी का इस्तेमाल हम जिन कामों के लिए करते हैं उसके लिए जिस हिन्दी की ज़रूरत है, वह बन ही रही है। उसमें आसान और आम शब्द आ रहे हैं। पर हिन्दी दिवस हम सरकारी हिन्दी के लिए मनाते हैं। वह हिन्दी राष्ट्रवाद का दिवस नहीं है। इसे समझना चाहिए हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है। मनोरंजन के बाद हिन्दी राष्ट्र का एक और शगल है, राजनीति। लोकसभा में जब भी किसी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होती है सबसे अच्छे भाषण हिन्दी में होते हैं। बौद्धिकता के लिहाज से अच्छे नहीं, भावनाओं और आवेशों में। लफ्फाज़ी में। हिन्दी राष्ट्र में तर्क, विवेक और विचार की जगह आवेशों और मस्ती ने ले ली है। मुझे पिछले दिनों रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति की एक बैठक में भाग लेने का मौका मिला। उसमें कई वक्ताओं ने सलाह दी कि रेलवे को आसान हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए। वास्तव में संज्ञान में कोई बात लाने के मुकाबले जानकारी में लाना आसान और बेहतर शब्द है। ऐसे तमाम शब्द हैं जो रेलवे के पब्लिक एड्रेस सिस्टम में इस्तेमाल होते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिए दिक्कत तलब हो सकते हैं। उनकी जगह आसान शब्द होने चाहिए। उस बैठक में किसी ने रेलवे-बजट की भाषा का सवाल उठाया। उसे भी आसान भाषा में होना चाहिए। बजट को आसान भाषा में तैयार करना उतना आसान नहीं है, जितना आसान पब्लिक एनाउंसमेंट में आसान भाषा का इस्तेमाल करना है।


संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी देश की राजभाषा है, पर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ही अनन्त काल तक अंग्रेजी देश की राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। हिन्दी के जबर्दस्त उभार और प्रसार के बावजूद इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि केवल उसे राजभाषा बनाने के लिए एक ओर तो समूचे देश की स्वीकृति की ज़रूरत है, दूसरे उसे इस काबिल बनना होगा कि उसके मार्फत राजकाज चल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल होता है। ज्यादातर बौद्धिक कर्म की भाषा अंग्रेजी है। हिन्दी पुस्तकालय की भाषा नहीं है। उसे समृद्ध बनाने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है। संविधान का अनुच्छेद 351 इस बात को कहता है, पर सरकार 14 से 21 सितम्बर तक हिन्दी सप्ताह मनाने के अलावा और क्या कर सकती है? तमाम फॉर्मों के हिन्दी अनुवाद हो चुके हैं। चिट्ठियाँ हिन्दी में लिखी जा रहीं हैं। दफ्तरों के दस्तावेजों में हिन्दी के काम की प्रगति देखी जा सकती है, पर वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। हमारा संविधान हिन्दी के विकास में ज़रूर मददगार होता बशर्ते हिन्दी का समाज अपनी भाषा की इज्जत के बारे में सोचता। 


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Sunday, September 12, 2010

बाढ़ लाइव, सूखा लाइव

पानी में खड़े होकर पीटीसी
शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में दिल्ली की बाढ़ को कवर करने की होड़ में लगे चैनलों पर अच्छी खबर है। जिस तरह पीपली लाइव में मधुमक्खियों की तरह टीवी की टीमें भाग रहीं थीं, तकरीबन उसी अंदाज़ में दिल्ली के बाढ़ वाले इलाके पर चैनल-वीरों ने हमला बोल दिया। कोई पानी में घुसा है, कोई नाव लेकर निकला है। किसी ने मंदिर के बैकड्रॉप को पकड़ा तो किसी ने पेड़ को। पानी और भगवान को छोड़ हर चीज़ की बाइट ले ली। 


अखबारों को अब एक नई बीट बनानी चाहिए। चैनल बीट। इसमें रिपोर्टर का काम सिर्फ यह होना चाहिए कि आज दिन भर में किस चैनल ने क्या किया। आप देखिएगा हर रोज उसमें रोचक खबरें होगी। 


चैनलों की दिलचस्पी बाढ़ की वजह से होती तो अच्छी बात थी। आखिर जनता की परेशानियों की फिक्र करना अच्छा है। पर इस फिक्र की दो वजहें थीं। एक यह बाढ़ दिल्ली में थी। वहाँ तक जाना आसान था। दिल्ली में टीवी देखने वाले भी ज्यादा हैं। मुम्बई वाले अपनी बाढ़ को लेकर इतनी अच्छी कवरेज करा सकते हैं, तो दिल्ली पीछे क्यों रहे? हाल में हरियाणा और पंजाब की बाढ़ को इतने जबर्दस्त ढंग से कवर नहीं किया गया। बिहार में कोसी की बाढ़ पर तो मीडिया का ध्पयान तब गया, जब बाढ़ उतर रही थी। 


बाढ़ हो या सूखा, बात सनसनीखेज न हो तो हमारी कवरेज से क्या फायदा? इसलिए इंटरेस्टिंग बनाने में ही हमारा कौशल है। सो हर रिपोर्टर जुट गया नया एंगिल तलाशने में। टीवी की न्यूज़ में रिपोर्टर को यों तो करना कुछ नहीं होता। काम तो कैमरामैन को करना होता है। रिपोर्टर का आकर्षण है पीटीसी। यानी पीस टु कैमरा। यह पीटीसी जितनी रोचक हो जाए कवरेज उतनी ही सफल है। 


कोई छत से लटक कर पीटीसी कर रहा है तो कोई गाय का सींग पकड़ कर। गनीमत है किसी ने गले तक पानी में डूबकर पीटीसी नहीं दिया। पीटीसी मे रिपोर्टर सारे तनाव अपने उपर लेकर ऐसा जाहिर करता है जैसे इस बाढ़ का पूरी जिम्मा उसका था। काम पूरा होते ही वह ऐसे खिसक लेता है जैसे नत्था के गायब होते ही पीपली से सारी टीमे निकल गईं थीं। 

Saturday, September 11, 2010

पुरुलिया बनाम अमेठी-रायबरेली

राहुल गांधी इन दिनों आक्रामक मुद्रा में देश का दौरा कर रहे हैं और गरीबों, दलितों और जनजातियों के पक्ष में बोल रहे हैं। जवाब में सीपीएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी ने यूपीए सरकार की धज्जियाँ उड़ाई हैं। इसमें रोचक है बंगाल के गरीब इलाके और अमेठी-रायबरेली की तुलना। पीपुल्स डेमोक्रेसी ने कुछ आँकड़े पेश किए हैं, जो इस प्रकार हैः-





पुरुलिया
अमेठी-रायबरेली
गरीबी रेखा के नीचे आबादी                          31%
54%
जिन परिवारों को बिजली प्राप्त है                     29%  
14%
प्रति व्यक्ति व्यय                                  461 रु
385 रु
बच्चों का वैक्सीनेशन                               84%                                               
16%
नवजात-शिशु मृत्यु दर                        प्रति 1000 में 46    
प्रति 1000 में 83    
पाँच साल से कम के शिशुओं की मृत्यु           प्रति 1000 में 89    
प्रति 1000 में 160    

यह जानकारी भी उपयोगी होगी कि राहुल गाँधी के परदादा जवाहर लाल नेहरू, दादा फीरोज़ गाँधी, दादी इंदिरा गाँधी, अंकल अरुण नेहरू, पिता राजीव गाँधी, चाचा संजय गाँधी और माँ सोनिया गाँधी उनके पहले अमेठी और रायबरेली से चुने जाते रहे हैं। 

सीपीएम को तड़पन तब हुई जब राहुल ने कहीं कहा, "Just as there are two Indias, one for the rich and the other for the poor, there are two [West] Bengals, one that glitters and is of the Communist Party of India (Marxist) and the other our Bengal, that of the poor and the backward."



Thursday, September 9, 2010

चीन से दोस्ती

भारत और चीन के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं, पर उतने अच्छे नहीं हैं, जितने हो सकते थे। आजादी के बाद भारत का लोकतांत्रिक अनुभव अच्छा नहीं रहा। व्यवस्था पर स्वार्थी लोग हावी हो गए। इससे पूरे सिस्टम की कमज़ोर छवि बनी। पर यह होना ही था। जब तक हमारे सारे अंतर्विरोध सामने नहीं आएंगे तब तक उनका उपचार कैसे होगा। 


चीन के बरक्स तिब्बत के मसले पर हमने शुरू से गलत नीति अपनाई। तिब्बत किसी लिहाज से चीन देश नहीं है।  चीन आज कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है, क्योंकि पाकिस्तानी तर्क उसे विवादित मानता है। पर तिब्बत के मामले में सिर्फ तकनीकी आधार पर उसने कब्जा कर लिया और सारी दुनिया देखती रह गई। तिब्बत के पास अपनी सेना होती तो क्या वह आज चीन के अधीन होता। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ज्यादा से ज्यादा उसे विवादित क्षेत्र मानता जैसा पाकिस्तानी हमलावरों के कारण कश्मीर बना दिया गया है। 


भारत को चीन से दोस्ती रखनी चाहिए। यह हमारे और चीन दोनों के हित में है, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सामरिक कारणों से हमारा प्रतिस्पर्धी है। वह पाकिस्तान का सबसे अच्छा दोस्त है। और हमेशा रहेगा। तमाम देश खुफिया काम करते हैं। चीन के सारे काम खुफिया होते हैं। उसने और उत्तरी कोरिया ने पाकिस्तान के एटमी और मिसाइल प्रोग्राम में मदद की है। यह भारत-विरोधी काम है। भारत जैसे विशाल देश के समाज में अंतर्विरोध भी चीनी विशेषज्ञों ने खोज लिए हैं। यह भी पाकिस्तानी समझ है। चीन की भारत-नीति में पाकिस्तानी तत्व हमेशा मिलेगा। 

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Tuesday, September 7, 2010

खेल के नाम पर धोखाधड़ी

एक के बाद एक खिलाड़ियों के नाम डोप टेस्ट में सामने आ रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या मे भारतीय खिलाड़ी पहली बार डोप टेस्ट में फँसे हैं। इसकी एक वजह नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी की चौकसी भी है। पर खिलाड़ियों को क्या हो गया? वे क्यों इस जाल में फँसे?

दिल्ली के कॉमनवैल्थ खेल पहले से ही फज़ीहत में थे। ऊपर से ऐसा हो गया। इसकी तमाम वजहों में से एक वजह वह पौष्टिक आहार है, जो पुराने मानकों पर बना है। पिछले साल दिसम्बर के बाद मानक बदले हैं। खिलाड़ियों को मिलने वाले आहार को उसी हिसाब से बदल जाना चाहिए। खिलाड़ियों को भी पता होना चाहिए कि कौन से तत्वों पर रोक लगाई गई है। अभी ये नाडा के टेस्ट हैं। कल को कॉमनवैल्थ खेलों के टेस्ट होंगे तब न जाने खिलाड़ी पकड़ में आएंगे।

खेल के नाम पर दूसरा कलंक है क्रिकेट की स्पॉट या मैच फिक्सिंग। इसमें पाकिस्तानी खिलाड़ी फँसे हैं। एक पाकिस्तानी खिलाड़ी ने दावा किया कि पूरी टीम फिक्सिंग में शामिल है। यासिर हमीद ने हालांकि अपने इस बयान को बाद में वापिस ले लिया, पर बात संगीन है। शुरू में तो पाकिस्तानी सरकार और पाकिस्तानी बोर्ड अपने खिलाड़ियों का समर्थन कर रहा था, पर लगता है उन्हें गम्भीरता समझ में आ गई है। हालांकि अभी इस मामले में भारतीय नाम सामने नहीं आए हैं, पर कोई गारंटी नहीं कि कल को नहीं आएंगे।

बेन जॉनसन जैसे खिलाड़ी को अपना सम्मान खोना पड़ा
पैसे के लिए जिस कदर व्यक्ति अपने को गिरा रहा है उससे निराशा पैदा होती है। अजब पागलपन पैदा हो गया है। क्या हमारी समझ विकृत है? क्या यह नई उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है? जिन खिलाड़ियों को लोग अपना रोल मॉडल बना रहे थे, वे इतने घटिया लोग हैं। यह क्यों है? क्या किसी के पास जवाब है?


2010 के लिए वाडा द्वारा प्रतिबंधित दवाओं की सूची 

कहाँ गया हमारा सामाजिक संवाद



नया दौर सन 1957 की हिन्दी फिल्म है। उसमें औद्योगिक बदलाव और सामाजिक परिस्थितियों का सवाल उठा था। फिल्म का नायक शंकर(दिलीप कुमार) मोटर गाड़ी के मुकाबले अपने तांगे को दौड़ाने की चुनौती स्वीकार करता है। उसकी मदद में आता है अखबार का रिपोर्टर शहरी बाबू जॉनी वॉकर। आजादी के करीब एक दशक पहले और डेढ़-दो दशक बाद तक खासतौर से पचास के पूरे दशक में हमारे वृहत् सामाजिक-सरोकारों को शक्ल लेने का मौका मिला। अभिनेताओं, संगीतकारों, लेखकों, कवियों और शायरों की जमात ने पूरे देश को सराबोर कर दिया। हिन्दी फिल्मी गीतों ने जैसा असर भारतीय समाज पर डाला उसकी दुनिया में मिसाल नहीं मिलेगी। यह सोशल डिसकोर्स या सामाजिक-विमर्श जारी था। उसमें तमाम संदेश छिपे थे। पर इसमें गुणात्मक अंतर आया है। यह अंतर है संदेशवाहक की बदली भूमिका का। सिनेमा, रेडियो और अखबार हमारा शुरूआती मास-मीडिया था। तीनों में एक खास तरह का जोशो-ज़ुनून था। सरकारी होने के बावज़ूद हमारे रेडियो का भी खास अंदाज़ था। कम से कम वह सही वक्त बताता था, शुद्ध खबरें और अच्छे लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों को अभिव्यक्ति का मौका देता था।

नब्बे के दशक तक भारतीय मीडिया के सामाजिक सरोकार उतने भटके हुए नहीं थे, जितने आज लगते हैं। सत्तर के दशक में देश ने बांग्लादेश की लड़ाई के अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात और बिहार-आंदोलन, नक्सली आंदोलन, जेपी-आंदोलन, इमर्जेंसी और उसके बाद संवैधानिक सुधार के आंदोलन देखे। अस्सी का दशक जबर्दस्त खूंरेज़ी और संकीर्णता लेकर आया। खालिस्तानी आंदोलन और उसके दमन ने मीडिया को साँसत में डाल दिया। एक ओर आतंकी धमकी दूसरी ओर राज-व्यवस्था का दबाव। फिर मंडल और कमंडल आए। इसने हालांकि हमारी सामाजिक बुनियाद पर असर डाला, पर सार्वजनिक विमर्श का स्तर कमज़ोर हो गया।

टेलीविज़न सत्तर के दशक में ही आ चुका था, पर नब्बे के दशक में दूरदर्शन में कुछ बाहरी कार्यक्रम शुरू होने से ताज़गी का झोंका आया। इसके बाद निजी चैनलों की क्रांति शुरू हुई, जो अभी जारी है। पर इस क्रांति ने बजाय सामाजिक-विमर्श को कोई नई दिशा देने के दर्शक के सामने कपोल-कल्पनाओं, सनसनी और अंधी मौज-मस्ती की थालियां सजा दीं। इसकी सबसे बड़ी वजह वह उपभोक्ता बाज़ार था, जिसके विज्ञापनों की बौछार होने वाली थी। 1995 में एक साथ दो भारत सुंदरियाँ मिस वर्ल्ड और मिस युनीवर्स बनाई गईं। यह सिर्फ संयोग नहीं था। टीवी के सोप ऑपेरा में हम लोग और बुनियाद के सीधे-सच्चे पात्रों की जगह लिपे-पुते मॉडल अभिनय करने के लिए मैदान में कूद पड़े। उनके मसले बदल गए। पहली बार चैनलों ने खबरें पढ़ने के लिए पत्रकारों की जगह मॉडलों को बैठाया। ऐसा दुनिया में कहीं और हुआ, मुझे पता नहीं।

देश के मीडिया से राष्ट्रीय महत्व के मसले इसके पहले इमर्जेंसी के दौर में गायब हुए थे। उन दिनों फिल्म और खेल की सामग्री अखबारों में बढ़ गई थी। राजनैतिक गतिविधियों को रिपोर्ट करने में जोखिम था, बल्कि अनुमति नहीं थी। अब तो वह बात नहीं है। इस वक्त प्राथमिकता बदली हुई है। हाल में पीपली लाइव और उसके कुछ पहले रणने विचार-विमर्श का मौका दिया है। इस बार एक मीडिया ने दूसरे मीडिया की खबर ली है। टीवी भी चाहे तो सिनेमा की वास्तविकता को दिखा सकता है, पर वह दिखाना नहीं चाहेगा। टीवी या अखबारों में बॉलीवुड की कवरेज प्रचारात्मक होती है, विश्लेषणात्मक नहीं। इस वक्त अखबार, टीवी और सिनेमा तीनों से एक साथ सामाजिक-विमर्श गायब हुआ है। वह इंटरनेट के रास्ते सिर उठा रहा है, पर इंटरनेट की व्याप्ति अभी सीमित है।

हमारे सिनेमा ने अछूत कन्या, दो बीघा ज़मान, प्यासा, आवारा, श्री 420, जागते रहो, मदर इंडिया, नीचा नगर, गरम कोट, सुजाता, इंसान जाग उठा, पड़ोसी और दो आँखें बारह हाथ जैसी तमाम फिल्में दीं और सब सफल हुईं। यह सूची सत्यकाम और गर्म हवा तक आती है। सत्तर के दशक में श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत ने सिनेमा को नया आयाम दिया। गोविन्द निहलानी ने आक्रोश, पार्टी, अर्ध सत्य, तमस और हजार चौरासी की माँ, प्रकाश झा ने दामुल, मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण और अब राजनीति बनाई। एक ज़माने तक फिल्मों में पत्रकार और नेता बड़े आदर्शवादी और प्रायः लड़ाई जीतने वाले होते थे। धीरे-धीरे फिल्मों के आदर्शवादी पत्रकार पात्र संकट में आने लगे या फिर व्यवस्था का हिस्सा बन गए। रमेश शर्मा और गुलज़ार की न्यू डेल्ही टाइम्स ऐसी ही फिल्म थी। कुंदन शाह की जाने भी दो यारो के पत्रकार धंधेबाज़ हैं। पेज थ्री में कोंकणा सेन शर्मा इस कारोबार के द्वंद में फँसी रह जाती है।

मीडिया के अंतर्विरोधों को बेहतर शोध और रचनात्मक प्रतिभा के मार्फत सामाजिक विमर्श का माध्यम बनाया जा सकता है। जनता जानना चाहती है। पत्रकार, नेता और अभिनेता जिस ज़मीन पर खड़े हैं वह काल्पनिक नहीं है। उसके सच और उसके अंतर्विरोध सामने आने चाहिए। यह आत्मविश्लेषण मीडिया को ही करना है। आश्चर्यजनक यह है कि टेलीविजन और अखबार इन विषयों को अपनी कवरेज का विषय नहीं बनाते। ऐसा भी नहीं कि उसमें शामिल लोग इस पर चर्चा करना न चाहते हों। मीडिया के जिन लोगों से मेरी बात होती है, उनमें से ज्यादातर अपने आप से संतुष्ट नहीं होते। वे ज्यादा से ज्यादा यह बताने का प्रयास करते हैं कि अभी शुरुआत है। हम अपने पैर जमा रहे हैं। ये बातें जल्द खत्म हो जाएंगी। टीवी के मामले में यह बात समझ में आती है। यह मीडिया अपेक्षाकृत नया है। उसने अपनी औपचारिक या अनौपचारिक आचार संहिता तैयार नहीं की है। पर प्रिंट मीडिया को तो अपना स्पेस नहीं छोड़ना चाहिए। यह सोचना गलत है कि जनता गहरे मसलों को पढ़ना नहीं चाहती। दरअसल हमें ज्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है। 

मीडिया में कंटेंट यानी सामग्री की उपेक्षा को लेकर चिंता व्यक्त करने वालों में ज्यादातर लोग पत्रकार या लेखक हैं। कारोबारी लोगों की चिंता के कारण वही नहीं होते जो लेखक-पत्रकार और पाठक के होते हैं। पर कारोबारी समझ को ही कंटेंट की महत्ता समझनी चाहिए। इस वक्त जो भी सफल अखबार हैं, वे कंटेंट में ही सफल हैं। और कंटेंट निरंतर सुधरना चाहिए। अखबारों का इनवेस्टमेंट कवरेज में सुधार पर बढ़ना चाहिए। हिन्दी अखबारों को तमाम नए विषयों के विशेषज्ञों की पत्रकार के रूप में ज़रूरत है। अखबार अपने बिजनेस के लिए बड़े वेतन पर एमबीए लाना चाहते हैं। पर पत्रकारों को सस्ते में निपटाना चाहते हैं। खासतौर से भाषायी पत्रकारों के साथ ऐसा ही हो रहा है।
भारतीय भाषा के पत्रकारों के ऊपर सामाजिक-विमर्श को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी है। भारतीय भाषाओं के पाठक ही संख्या में बढ़ रहे हैं। अखबार सिर्फ खबर नहीं देता। वह अपने पाठक से संवाद करता है। उसे शिक्षित करता है, दिशा देता है। नए पत्रकार को उसके सामाजिक संदर्भों की जानकारी देना उसके संस्थान का काम है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई विचार आज अखबारों की विस्तार-योजना में शामिल है। इसकी एक वजह है कारोबारी समझ। मेरे विचार से अखबारों का कारोबार देखने वालों को भी पत्रकारिता के वैल्यू सिस्टम की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। पत्रकारों की ट्रेनिंग में सामाजिक जिम्मेदारी का भाव खत्म हो गया है। अखबार को प्रोडक्ट कहना ही इस जिम्मेदारी का गला दबोचना है।    


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Saturday, September 4, 2010

काग्रेस में वंशवाद!!!

मुम्बई में कांग्रेस  का पहला सम्मेलन 28-31 दिसम्बर 1885
यह पार्टी का फैसला है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष बनें। सोनिया गांधी समझदार, शांत और सुशील महिला हैं। सब कुछ ठीक है। पर यह सवाल ज़रूर उठता है कि देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल अपने आप को व्यवस्थित रखने के लिए नेहरू-गांधी परिवार का सहारा क्यों लेता है। ऐसा नहीं कि सोनिया गांधी ने कोई साज़िश की है। वास्तव में पार्टी ने उन्हें अध्यक्ष बनाया है। उनके मुकाबले वास्तव में कोई खड़ा होना नहीं चाहेगा। और इस प्रकार वे जब तक चाहेंगी तब तक अध्यक्ष बनी रह सकतीं हैं।

मेरे विचार से राहुल गांधी इस वक्त देश के सर्वश्रेष्ठ युवा नेता हैं। अपने आचार-व्यवहार में वे किसी भी पार्टी के नेता से बेहतर हैं। वे जब चाहेंगे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। नहीं बनते तो यह उनकी उदारता और समझदारी दोनों है। वे जिस तरह से देश की राजनीति के डायनेमिक्स को समझ रहे हैं, वह अद्वितीय है। फिर भी मुझे एक आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति के लिए पारिवारिक व्यवस्था अटपटी लगती है। मैं अटपटी इसलिए कह रहा हूँ कि ऐतिहासिक कारणों से यह व्यवस्था न सिर्फ मौज़ूद, बल्कि सफल है,  इसीलिए यह आधुनिक भारत में कायम है। पर यह सिद्धांत और व्यवहार के बीच गहरी खाई को भी दर्शाती है। 

कांग्रेस के अतीत में ज्यादा गहराई से जाने की ज़रूरत नहीं, पर दिखाई पड़ता है कि यह पार्टी सत्ता में आने के बाद से अपने व्यवहार में बदल गई है। अब यह स्वतंत्रता से पहले वाली कांग्रेस नहीं है। कांग्रेस ही नहीं सारी पार्टियाँ पाखंडी लगती हैं। इनमें कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी शामिल हैं। हाँ इतना है कि कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र एक हद तक कायम है। सभी पार्टियों में निश्छल, सरल और निस्वार्थी नेता और कार्यकर्ता भी हैं, पर वे धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे। कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र बड़ा रोचक है। फैसला करने की घड़ी में पूरी पार्टी अंतिम निर्णय हाई कमान पर छोड़ देती है। ऐसा ही शेष गैर-कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं। 

कांग्रेस ने देश को सर्वश्रेष्ठ नेता दिए हैं। आज़ादी के पहले की सूची के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, पर आज़ादी के बाद 1959 में श्रीमती इंदिरा गांधी के आने के बाद गुणात्मक बदलाव हुआ। यों कांग्रेस के पास फिर भी कद्दावर नेता थे। इधर परिवार के बाहर कांग्रेस के सबसे बड़े नेता पीवी नरसिंह राव हुए, जिन्हें इस वक्त कांग्रेस याद करना नहीं चाहती। उनका दोष क्या श्रीमती सोनिया गांधी की उपेक्षा करना था? नरसिंह राव की कांग्रेस भी नेता से दबी पार्टी थी। उस वक्त भी सारे फैसले हाई कमान पर छोड़े जाते थे। उस दौरान पहली बार लम्बे अर्से बाद पार्टी के चुनाव हुए। वे चुनाव मंज़ूर नहीं हुए। दलितों और महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व न मिल पाने के कारण वे चुनाव रद्द हो गए। यानी पार्टी में सिद्धांत और व्यवहार का फासला बना रहा। 

इसकी वजह क्या हमारा समाज है जो आधुनिक नहीं हो पाया है? कम्युनिस्ट पार्टियों को देखिए, जिनके शिखर पर बैठे नेता जनता से अपेक्षाकृत कटे लोग हैं। उनकी असल योग्यता अंग्रेजी बोलना और बड़े उद्योगपतियों की पार्टियों में शामिल होना है, जो उनके सिद्धांत और व्यवहार से अटपटा है। सामाजिक न्यायवादी-लोहियावादी पार्टियों को देखिए। इनके नेताओं का भी वंशानुगत प्रभाव है। वे सामाजिक अन्याय के नाम पर आगे आए हैं, पर अपनी जाति से ज्यादा पिछड़ी जाति की उपेक्षा करते हैं। अपने जाति बंधुओं को अनन्त काल तक पिछड़ा बनाए रखने में भी वे अपना हित देखते हैं। वे सोचने-विचारने लगेंगे और फैसले करने लगेंगे तो नेता को बदलने की कोशिश भी करेंगे। 

जनसंघ या भाजपा का जन्म स्वच्छता और अनुशासनवादी पार्टी के रूप में हुआ। इस पार्टी पर हावी परिवार खानदानी नहीं वैचारिक है। यह संघ परिवार है। पूरे देश में राजनीति परिवारों के सहारे चल रही है। गांधी परिवार के बाद मुलायम परिवार, लालू परिवार, ठाकरे परिवार, बादल परिवार, पवार परिवार, वाईएसआर परिवार, करुणानिधि परिवार, शेख अब्दुल्ला परिवार, मुफ्ती मोहम्मद परिवार, मीर वाइज़ परिवार, पटनायक परिवार वगैरह। लोकल लेवल पर ऐसे परिवार पूरी व्यवस्था को चलाते हैं। 

कांग्रेस यदि अपने नेतृत्व संचालन की कोई व्यवस्था खोज सके तो दूसरी पार्टियों को भी अपनी व्यवस्थाएं  खोजनी होंगी। दरअसल देश की पूरी राजनीति कांग्रेस ने परिभाषित की है। असके समांतर कोई राजनीति निकली भी तो कांग्रेस की मोनोपली राजनीति या तो उसे खा गई या उसे कांग्रेसमय कर दिया। और कांग्रेस नेहरू-गांधीमय है। आज़ादी के 63 साल में कांग्रेस के 15 अध्यक्ष हुए। इनमें से चार नेहरू-गांधी परिवार से थे। ये चार इन 63 में से 30 साल अध्यक्ष रहे। बाकी 11 के लिए शेष 33 साल थे। 

देश की राजनीति अपने आप को जब परिवारों की जकड़बंदी से मुक्त करेगी उस दिन हम एक कदम आगे बढ़ेंगे। दूसरा कदम तब बढ़ेंगे जब हमारे नेता अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को बोलते हुए आएंगे। 

फिलहाल कांग्रेस अध्यक्षों की सूची देखें जो मैने विकीपीडिया से ली है।

Name of PresidentLife SpanYear of PresidencyPlace of Conference
Womesh Chandra Bonnerjee29 December 1844- 19061885Mumbai
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171886Calcutta
Badruddin Tyabji10 October 1844- 19061887Madras
George Yule1829–18921888Allahabad
Sir William Wedderburn1838–19181889Mumbai
Sir Pherozeshah Mehta4 August 1845- 19151890Calcutta
P. AnandacharluAugust 1843- 19081891Nagpur
Womesh Chandra Bonnerjee29 December 1844- 19061892Allahabad
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171893Lahore
Alfred Webb1834–19081894Madras
Surendranath Banerjea10 November 1848- 19251895Pune
Rahimtulla M. Sayani5 April 1847- 19021896Calcutta
Sir C. Sankaran Nair11 July 1857- 19341897Amraoti
Ananda Mohan Bose23 September 1847- 19061898Madras
Romesh Chunder Dutt13 August 1848- 19091899Lucknow
Sir Narayan Ganesh Chandavarkar2 December 1855- 19231900Lahore
Sir Dinshaw Edulji Wacha2 August 1844- 19361901Calcutta
Surendranath Banerjea10 November 1825- 19171902Ahmedabad
Lalmohan Ghosh1848–19091903Madras
Sir Henry Cotton1845–19151904Mumbai
Gopal Krishna Gokhale9 May 1866- 19151905Benares
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171906Calcutta
Rashbihari Ghosh23 December 1845- 19211907Surat
Rashbihari Ghosh23 December 1845- 19211908Madras
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461909Lahore
Sir William Wedderburn1838–19181910Allahabad
Pandit Bishan Narayan Dar1864–19161911Calcutta
Rao Bahadur Raghunath Narasinha Mudholkar1857–19211912Bankipur
Nawab Syed Muhammad Bahadur ?- 19191913Karachi
Bhupendra Nath Bose1859–19241914Madras
Lord Satyendra Prasanna SinhaMarch 1863- 19281915Mumbai
Ambica Charan Mazumdar1850–19221916Lucknow
Annie Besant1 October 1847- 19331917Calcutta
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461918Delhi
Syed Hasan Imam31 August 1871- 19331918Mumbai (Special Session)
Pandit Motilal Nehru6 May 1861- 6 February 19311919Amritsar
Lala Lajpat Rai28 January 1865- 17 November 19281920Calcutta (Special Session)
C. Vijayaraghavachariar1852- 19 April 19441920Nagpur
Hakim Ajmal Khan1863- 29 December 19271921Ahmedabad
Deshbandhu Chittaranjan Das5 November 1870- 16 June 19251922Gaya
Maulana Mohammad Ali10 December 1878- 4 January 19311923Kakinada
Maulana Abul Kalam Azad1888- 22 February 19581923Delhi (Special Session)
Mahatma Gandhi2 October 1869- 30 January 19481924Belgaum
Sarojini Naidu13 February 1879- 2 March 19491925Kanpur
S. Srinivasa IyengarSeptember 11, 1874- 19 May 19411926Gauhati
Dr. M A Ansari25 December 1880- 10 May 19361927Madras
Pandit Motilal Nehru6 May 1861- 6 February 19311928Calcutta
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641929 & 30Lahore
Sardar Vallabhbhai Patel31 October 1875- 15 December 19501931Karachi
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461932Delhi
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461933Calcutta
Nellie Sengupta1886–19731933Calcutta
Dr. Rajendra Prasad3 December 1884- 28 February 19631934 & 35Mumbai
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641936Lucknow
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641936& 37Faizpur
Netaji Subhash Chandra Bose23 January 1897- 18 August 1945?1938Haripura
Netaji Subhash Chandra Bose23 January 1897- 18 August 1945?1939Tripuri(Jabalpur)
Maulana Abul Kalam Azad1888- 22 February 19581940-46Ramgarh
Acharya J.B. Kripalani1888- 19 March 19821947Delhi
Dr Pattabhi Sitaraimayya24 December 1880- 17 December 19591948 & 49Jaipur
Purushottam Das Tandon1 August 1882- 1 July 19611950Nasik
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641951 & 52Delhi
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641953Hyderabad
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641954Kalyani
U N Dhebar21 September 1905- 19771955Avadi
U N Dhebar21 September 1905- 19771956Amritsar
U N Dhebar21 September 1905- 19771957Indore
U N Dhebar21 September 1905- 19771958Gauhati
U N Dhebar21 September 1905- 19771959Nagpur
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841959Delhi
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961960Bangalore
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961961Bhavnagar
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961962 & 63Patna
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751964Bhubaneswar
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751965Durgapur
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751966 & 67Jaipur
S. Nijalingappa10 December 1902- 9 August 20001968Hyderabad
S. Nijalingappa10 December 1902- 9 August 20001969Faridabad
Jagjivan Ram5 April 1908- 6 July 19861970 & 71Mumbai
Dr Shankar Dayal Sharma19 August 1918- 26 December 19991972- 74Calcutta
Dev Kant Baruah22 February 1914- 19961975- 77Chandigarh
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841978- 83Delhi
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841983 -84Calcutta
Rajiv Gandhi20 August 1944- 21 May 19911985 -91Mumbai
P. V. Narasimha Rao28 June 1921- 23 December 20041992 -96Tirupati
Sitaram KesriNovember 1919- 24 October 20001997 -98Kolkata
Sonia Gandhi9 December 1946-1998–presentKolkata