Friday, October 29, 2010

भारत-चीन और जापान

-प्रधानमंत्री की जापान-मलेशिया और वियतनाम यात्रा के संदर्भों में आर्थिक सहयोग और विकास के मुकाबले ज्यादा ध्यान सामरिक और भू-राजनैतिक प्रश्नों को दिया जा रहा है। हालांकि मनमोहन सिंह ने स्पष्ट किया है कि हम चीन के साथ आर्थिक सहयोग को ज्यदा महत्व देंगे विवादों को कम, पर सब जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में स्टेटेड और रियल पॉलिसी एक नहीं होती।

भारत का आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमंट है। और अब हम अलग-अलग देशों के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते भी करेंगे। पर यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आर्थिक शक्ति की रक्षा के लिए सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है।  हमें किसी देश के खिलाफ यह शक्ति नहीं चाहिए। हमारे जीवन में दूसरे शत्रु भी हैं। सागर मार्गों पर डाकू विचरण करते हैं। आतंकवादी भी हैं। इसके अलावा कई तरह के आर्थिक माफिया और अपराधी हैं।

भारत अब अपनी नौसेना को ब्लू वॉटर नेवी के रूप में परिवर्तित कर रहा है। यानी दूसरे महासागरों तक प्रहार करने में समर्थ नौसेना। हमारी परमाणु शक्ति-चलित पनडुब्बी का परीक्षण चल रहा है। एक पनडुब्बी रूस से आ रही है। हमारी नौसेना को परमाणु शक्ति चलित पनडुब्बियों के संचालन का करीब डेढ़ दशक  का अनुभव है। इस इलाके में विमानवाहक पोत हमारे पास ही हैं। चीन भी इस मामले में हम से पीछे है। प चीन ने अपनी पनडुब्बियों के सहारे हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति बना ली है।

दुर्भाग्य है  कि हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर  दक्षिण एशिया में उससे कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते। कश्मीर एक सबसे बड़ी राजनैतिक वजह है। इधर चीन ने दक्षिण एशिया के बारे में अपनी दृष्टि में बदलाव किया है। स्टैपल्ड वीज़ा समस्या नहीं, समस्या का लक्षण मात्र है। चीन से जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनसे लगता है कि वहाँ भारत को लेकर उत्तेजना है।

चीन आज हमसे कहीं बड़ी ताकत है, पर अभी वहाँ हमरी जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है। हमारी अधूरी व्यवस्था में जब इतनी बाधाएं हैं तब आप सोचें पूर्ण लोकतंत्र होने तक क्या होगा। पर लोकतांत्रिक-विकास  इसलिए ज़रूरी है कि राजशाही और तानाशाही अब चलने वाली नहीं। तानाशाही में तेज़ आर्थक विकास सम्भव है, पर जनता की भागीदारी के बगैर वह विकास निरर्थक है। चीन को अभी बड़े परीक्षण से गुज़रना है। हम उस परीक्षण के दूसरे या तीसरे चरण से गुज़र रहे हैं।

चीनी उत्तेजना को पीपुल्स डेली की सम्पादक  ली होंगमई  की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है।  अपने ब्लॉग में उन्होंने जो लिखा है, उससे चीनी दृष्टि का एक पहलू तो नज़र आता है। इस लेख को आप यहाँ पढ़ें और चाहें तो उसके लिंक पर जाकर भविष्य में भी पढ़ें।

 हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें


India's "Look East Policy" means "Look to encircle China" ?
16:30, October 27, 2010

By Li Hongmei

Indian Prime Minister Manmohan Singh's three-nation visit to Japan, Malaysia and Vietnam has been a media hype at home, being even describe as a missionary trip to seek new strategic allies to deal with China, and to showcase India's resolve to persist on its "Look East Policy" on its way to pursue the geopolitical and economic goals and achieve a "Big Power" status in the region, if not the leading power.

Some of the Indian media even add more color to Singh's Japan visit, besides the nuke deal and trade agreements, desperately crying it is high time for India that it strengthened the embankment of Tokyo to prevent "China's expansion."

As for Japan, whose relations with China have frosted over amid the diplomatic détente over the East China Sea, India, with a large consumer base, exudes a magnetic appeal to the presently sluggish economic power. Moreover, India's rare earth, although much less than China's deposits, is enough at the moment to present a peculiar fascination to Japan, who has all these days complaining about Chin's restriction on the rare earth exports and is anxious to get rid of the passive status quo caused by the undue reliance on China's supplies.

On top of that, India is viewed by Japan as an ideal partner to establish the strategic cooperation in security, based on the assumption that both of them are being threatened by China's military assertiveness in East China Sea as well as in the India Ocean. On this basis, Japan and India have both placed high expectations upon each other in combining strengths to counterbalance China.

But, what is noteworthy is that in Japan too, there are also sections that are wary of Tokyo aligning too closely with India. Robyn Lim, professor of international politics at Nanzan University in Nagoya, for instance, has been arguing that "the risks of alignment with India outweigh the advantages".

Some Japanese military observers somewhat echoed the opinion that it would be quite risky for Japan if it steps unusually close to India. A newly set alliance among Japan, India and Vietnam "might seem a logical response to China's ambitions in the South China Sea," as they opined.

The logic goes like this----India cannot protect Vietnam against China but its presence in Vietnam (if Hanoi were to give Delhi access to a naval base) would raise tensions with China and Japan would get drawn into the conflict. "Why would Japan wish to allow India to drag it into Vietnam's mostly self-inflicted problems with Beijing?" they argued.

Back to India, although its hawks are so intoxicated at the idea that India finally regains the momentum to counteract China's rising regional clout, with the " Look East Policy" as its guiding principle, encouraged by its leaders' sound relationship with ASEAN nations, and by taking advantage of the face-off between China and Japan, India still cannot relax its spasm of worries about China, nor can it brush aside the fear that China might nip its ambitions in the bud.

History is a great teacher. India's "Look East policy" was born out of failure---- the failure of India's Cold War strategy of "playing both ends against the middle", today, India is harping on the same string, but should wisely skip the out-of-tune piece. No matter what a strong temptation it is at the idea of benefiting from China and Japan playing off each other or killing the rival by another's hand.

The savvy Indian leadership will never rashly board the ship of Japan without giving a glance at China's expression. After all, it is not Japan, but China that acts as India's largest trade partner with the overall volume in 2010 to exceed US$ 60 billion.

By People's Daily Online
The articles in this column represent the author's views only. They do not represent opinions of People's Daily or People's Daily Online.


http://english.peopledaily.com.cn/90002/96417/7179404.html

Thursday, October 28, 2010

मीडिया-संकट पर एक आउटलुक


अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक कई मानों में अपने किस्म की अनोखी है। विनोद मेहता ने पायनियर को नए ढंग का अखबार बनाकर पेश किया था। वह आर्थिक रूप से सफल नहीं हुआ। पर आउटलुक आर्थिक रूप से भी सफल साबित हुआ। बावजूद इसके कि मुकाबला इंडिया टुडे जैसी पत्रिका से था जो उसके बीस साल पहले से बाज़ार में थी। आउटलुक न तो समाचार-केन्द्रित है और न विचार-पत्रिका है। बेशक वह भी बिजनेस के लिए मैदान में है, पर उन गिनी-चुनी पत्रिकाओं में से एक है, जिसके शीर्ष पर एक पत्रकार है। उसकी यूएसपी है विचारोत्तेजक और पठनीय सामग्री। वह सामग्री जिसकी भारतीय मीडिया इन दिनों सायास उपेक्षा कर रहा है। आउटलुक के 15 साल पूरे होने पर जो विशेषांक निकला है, वह हालांकि हिन्दी या भारतीय भाषाओं के पत्रकारों की दृष्टि से अधूरा है, पर पढ़ने लायक है।
 
भारतीय मीडिया के चालू दौर को विकास और उत्साह का दौर भी कहा जा सकता है और संकट का भी। मीडिया के कारोबार और पाठक-दर्शक पर उसके असर को देखें तो निराश होने की वही वज़ह नहीं है जो पश्चिम में है। यही हैरत की बात है जिसकी ओर सुमीर लाल ने इस अंक में इशारा किया है। पश्चिम में मालिक, पत्रकार और पाठक तीनों गुणात्मक पत्रकारिता के हामी हैं, पर उसका आर्थिक आधार ढह रहा है। हमारे यहाँ आर्थिक आधार बन रहा है, पर गुणात्मक पत्रकारिता का जो भी ढाँचा था वह सायास ढहाया जा रहा है। 

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कंटेंट एंड फिल के जुम्ले को नोम चोम्स्की ने दोहराया है। इसमें कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है, बल्कि विज्ञापन है। और फिल है खबरें। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय इसे लोकर गम्भीरता नहीं है। अखबारों में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। इसमें भी दिक्कत नहीं थी। आखिर खबरें लाने वालों के वेतन का इंतज़ाम भी करना होता है। पर हमने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते। 

आउटलुक के इस अंक का शीर्षक है द ग्रेट इंडियन मीडिया क्राइसिस। क्राइसिस माने क्या? पेड न्यूज़ और टीआरपी दो बदनाम शब्द हैं, पर क्या संकट इतना ही है? मीडिया से लोकतांत्रिक समाज बनता है या लोकतांत्रिक समाज अपना विश्वसनीय मीडिया बनाता है? मैकलुहान के अनुसार पहला औद्योगिक कारोबार मीडिया का ही था। यानी विश्वसनीयता का व्यवसाय। एक अर्से तक यह कारोबार ठीक से चला, भले ही उसमें तमाम छिद्र थे। और फिर लोभ और लालच ने पनीली सी विश्वसनीयता को खत्म कर डाला। नोम चोम्स्की के अनुसार अमेरिकी लिबरल के माने हैं स्टेट के समर्थक। राज्य की शक्ति के, राज्य की हिंसा के और राज्य के अपराधों के। नोम चोम्स्की अमेरिकी राज्यशक्ति के आलोचक हैं। उनकी धारणा है कि जो काम तानाशाही हिंसक शक्ति के मार्फत करती है वही काम लिबरल व्यवस्था अपने मीडिया के मार्फत करता है। 

मीडिया के मालिक आखिरकार अमीर लोग होते हैं वैल कनेक्टेड। पब्लिक रिलेशंस उद्योग का लक्ष्य है लोगों की मान्यताओं और व्यवहार को नियंत्रित करना। क्या कोई समाज ऐसा है जो इससे मुक्त हो? आप रोज़-ब-रोज़ एक खास तरह की राय पढ़ते हैं, टीवी पर देखते हैं तो काफी बड़ी संख्या में लोगों की वही राय बनती जाती है। यह बात राजनीति पर भी लागू होती है और उपभोक्ता बाज़ार पर भी। चोम्स्की के पास भारतीय मीडिया की जानकारी काफी सीमित है, पर उनसे इस बात पर असहमति नहीं हो सकती कि भारतीय मीडिया काफी बंदिशों से भरा, संकीर्ण, स्थानीय, जानकारी के मामले में सीमित है और काफी चीजों की उपेक्षा करता है। 

आउटलुक के इस अंक में काफी अच्छे नाम हैं। पर सीधे भारतीय संदर्भों में प्रणंजय गुहा ठकुरता, दीपांकर गुप्ता और रॉबिन जेफ्री ही हैं। बल्कि वास्तविक भारतीय संदर्भों में ये तीनों महत्वपूर्ण हैं। या फिर महत्वपूर्ण हैं रवि धारीवाल जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के उज्जवल पक्ष को रखा है। वे कहते हैं हमारा अखबार सम्पादक के लिए नहीं जनता के लिए निकलता है। कॉमन मैन के लिए। पर टाइम्स इंडिया का यह कॉमनमैन क्या आरके लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसा है? धारीवाल के अनुसार टाइम्स के सम्पादक पार्टीबाज़ नहीं होते। वे जनता से संवाद करते हैं। कम से कम विचार या सिद्धांत में यह बात अच्छी है। सैद्धांतिक पत्रकारिता भी यही कहती है कि हमारा काम जनता के लिए होता है साधन सम्पन्नों या नेताओं के लिए नहीं। 

इस अंक में हैरल्ड इवांस और टिम सेबस्टियन के बेहतरीन लेख भी हैं, पर उनके संदर्भ गैर-भारतीय हैं। भारतीय संदर्भों में पत्रकारिता कुछ अलग है। न जाने क्यों उसके संरक्षक ही उसकी समस्या बन गए हैं। भारतीय व्यवस्था में ऊँच-नीच कुछ ज़्यादा ही है। सुमीर लाल ने कुछ सम्पादकों का ज़िक्र किया है जो ए-लिस्टर होने की वज़ह से ही सम्पादक बने।अंग्रेजी अखबारों की बात की जाय तो शायद सम्पादक बनने की अनिवार्य शर्त राज-व्यवस्था और पार्टी-सर्कल से जुड़े होना है। यह अयोग्यता नहीं। विनोद मेहता भी बेहतर सम्पर्कों वाले और प्रवर वर्ग के हैं। यह लक्ष्मण रेखा हमारे जातीय-समाज को दिखाती है। 

आउटलुक के इस अंक में कई बार लगता है कि शायद अखबार के पारिवारिक घरानों को परोक्ष रूप में पत्रकारीय मूल्यों का संरक्षक माना गया है। भारत में तो ज्यादातर अखबार पारिवारिक नियंत्रण में हैं। हो सकता है परिवार अपनी प्रतिष्ठा के लिए ग़म खाते हों, पर इधर तो मुनाफे के लिए सभी में रेस है। इसे गलत भी क्यों माना जाय, पर न्यूज़पेपर ओनरशिप के किसी वैकल्पिक मॉडल की चर्चा नहीं है। भारतीय भाषाओं का काम केवल रॉबिन जेफ्री के लेख से निपटा लिया गया है। मीडिया के तमाम दूसरे फलितार्थ भी इसमें हैं। इसमें संजॉय हज़ारिका, शशि थरूर, मार्क टली वगैरह ने अच्छी टिप्पणियाँ की हैं। आउटलुक के बारे में दो बातों का जिक्र और किया जाना चाहिए। एक तो यह उन विरल पत्रिकाओं में से है, जिनमें पाठकों के पत्रों पर इतनी मेहनत की जाती है। दूसरे इसमें पठनीय लेख छपते हैं भले ही वे काफी लम्बे हों। खासतौर से अरुंधति रॉय के लेख जिनसे लोग कितने ही असहमत हों, पर पढ़ना चाहते हैं। पत्रिका का यह अंक कारोबार के लिहाज़ से भी बेहतर है।    


Friday, October 22, 2010

अपने आपको परिभाषित करेगा हमारा मीडिया

एक ज़माना था जब दिल्ली के अखबार राष्ट्रीय माने जाते थे और शेष अखबार क्षेत्रीय। इस भ्रामक नामकरण पर किसीको बड़ी आपत्ति नहीं थी। दिल्ली के अखबार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल-पंजाब-हरियाणा तक जाकर बिकते थे। इन इलाकों के वे पाठक जिनकी दिलचस्पी स्थानीय खबरों के साथ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों में होती थी, इन्हें लेते थे। ऐसे ज्यादातर अखबार अंग्रेज़ी में थे। हिन्दी में नवभारत टाइम्स ने लखनऊ, पटना और जयपुर जाकर इस रेखा को पार तो किया, पर सम्पादकीय और व्यापारिक स्तर पर विचार स्पष्ट नहीं होने के कारण तीनों संस्करण बंद हो गए। लगभग इसके समानांतर हिन्दुस्तान ने पहले पटना और फिर लखनऊ में अपनी जगह बनाई।

नवभारत टाइम्स के संचालकों ने उसे चलाना नहीं चाहा तो इसके गहरे व्यावसायिक कारण ज़रूर होंगे, पर सम्पादकीय दृष्टि से उसका वैचारिक भ्रम भी जिम्मेदार था। पाठक ने शुरूआत में उसका स्वागत किया, पर उसकी अपेक्षा पूरी नहीं हो पाई। नवभारत टाइम्स की विफलता के विपरीत हिन्दुस्तान का पटना संस्करण सफल साबित हुआ। संयोग है कि एक दौर ऐसा था जब पटना से नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान दोनों प्रकाशित होते थे। हिन्दुस्तान ने स्थानीयता का वरण किया। प्रदीप के उत्तराधिकारी के रूप में हिन्दुस्तान को बेहतर स्पेस मिला। पर प्रदीप का आधार बहुत व्यापक नहीं था। हिन्दुस्तान ने काफी कम समय में अपना लोकल नेटवर्क बनाया। प्रायः सभी प्रमुख शहरों में दफ्तर बनाए। वहाँ से खबरें संकलित कर मुजफ्फरपुर, भागलपुर और रांची जैसे प्रमुख शहरों के संस्करण छपकर आए तो पाठकों ने उनका स्वागत किया।

राजस्थान पत्रिका ने उदयपुर, बीकानेर और कोटा जैसे शहरों में प्रेस लगाकर संस्करण शुरू किए। उत्तर प्रदेश में आगरा के अमर उजाला ने पहले बरेली से संस्करण शुरू किया। कानपुर का जागरण वाराणसी में आज के गढ़ में प्रवेश कर गया और सफल हुआ। जवाब में आज ने कानपुर संस्करण निकाला। अमर उजाला मेरठ और कानपुर गया। मध्य प्रदेश में नई दुनिया के मुकाबले भास्कर और नवभारत ने नए संस्करण शुरू करने की पहल की। खालिस्तानी आंदोलन के दौरान पंजाब केसरी ने तमाम कुर्बानियाँ देकर पाठक का मन जीता। रांची में प्रभात खबर नए इलाके में ज़मीन से जुड़ी खबरें लेकर आया। उधर नागपुर और औरंगाबाद में लोकमत का उदय हुआ। ये अखबार ही आज एक से ज्यादा संस्करण निकाल रहे हैं। अभी कुछ नए अखबारों के आने की संभावना भी है।

आठवें, नवें और दसवें दशक तक संचार-टेक्नॉलजी अपेक्षाकृत पुरानी थी। सिर्फ डाक और तार के सहारे काम चलता था। ज्यादातर छपाई हॉट मेटल पर आधारित रोटरी मशीनों से होती थी। इस मामले में इंदौर के नई दुनिया ने पहल ली थी। पर उस वक्त तक ट्रांसमीशन टेलीप्रिंटर पर आधारित था। इंटरनेट भारत में आया ही नहीं था। नब्बे के दशक में मोडम एक चमत्कारिक माध्यम के रूप में उभरा। अस्सी के दशक में भारतीय ऑफसेट मशीनें सस्ते में मिलने लगीं। संचार की तकनीक में भी इसके समानांतर विकास हुआ। छोटे-छोटे शहरों के बीच माइक्रोवेव और सैटेलाइट के मार्फत लीज़ लाइनों का जाल बिछने लगा। सूचना-क्रांति की पीठिका तैयार होने लगी।

हिन्दी अखबारों के ज्यादातर संचालक छोटे उद्यमी थे। पूँजी और टेक्नॉलजी जुटाकर उन्होंने अपने इलाके के अखबार शुरू किए। ज्यादातर का उद्देश्य इलाके की खबरों को जमा करना था। राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित ज्यादातर बड़े प्रकाशन अंग्रेजी अखबार निकालते थे। हिन्दी अखबार उनके लिए दोयम दर्जे पर थे। इसके विपरीत हिन्दी इलाके की छोटी पूँजी से जुटाकर निकले अखबार के पास सूचना संकलन के लिए बड़ी पूँजी नहीं थी। पत्रकारीय कौशल और मर्यादा को लेकर चेतना नहीं थी। वह आज भी विकसित हो पाई है, ऐसा कहा नहीं जा सकता। पत्र स्वामी के इर्द-गिर्द सेठ जी वाली संस्कृति विकसित हुई। पत्रकार की भूमिका का बड़ा हिस्सा मालिक के हितों की रक्षा से जुड़ा था। ऐसे में जो पत्रकार था वही विक्रेता, विज्ञापन एजेंट और मैनेजर भी था। स्वाभाविक था कि संचालकों की पत्रकारीय मर्यादाओं में दिलचस्पी वहीं तक थी जहाँ तक वह उनके कारोबार की बुनियादी ज़रूरत होती।

खबर एक सूचना है, जिसका साँचा और मूल्य-मर्यादा ठीक से परिभाषित नहीं हैं। विचार की अवधारणा ही हमारे समाज में अधकचरी है। हिन्दी इलाके की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक संरचना भीषण अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। पाठक भी नया है। उसे सूचना की ज़रूरत है। उस सूचना के फिल्टर कैसे होते हैं, उसे पता नहीं। अचानक दस-पन्द्रह वर्ष में मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ इसलिए ट्रेनिंग की व्यवस्था भी विकसित नहीं हो पाई। ऐतिहासिक परिस्थितियों में जो सम्भव था वह सामने है। जो इससे संतुष्ट हैं उनसे मुझे कुछ नहीं कहना, पर जो असंतुष्ट हैं उन्हें रास्ते बताने चाहिए।

हिन्दी अखबारों का कारोबारी मॉडल देसी व्यपारिक अनुभवों और आधुनिक कॉरपोरेट कल्चर की खिचड़ी है। दूसरे शब्दों में पश्चिम और भारतीय अवधारणाओं का संश्लेषण। हिन्दी अखबारों में कुछ समय पहले तक लोकल खबरों को छापने की होड़ थी। आज भी है, पर उसमें अपवार्ड मोबाइल कल्चर और जुड़ गया है। सोलह से बीस पेज के अखबार में आठ पेज या उससे भी ज्यादा लोकल खबरों के होते हैं। इसमें सिद्धांततः दोष नहीं, पर लोकल खबर क्रिएट करने के दबाव और जल्दबाज़ी में बहुत सी निरर्थक सामग्री प्रकाशित होती है। इसके विपरीत एक पनीली आधुनिकता ने और प्रवेश किया है। इसकी शुरुआत भाषा में अंग्रेजी शब्दों के जबरन प्रवेश से हुई है। पुरानी हिन्दी फिल्मों में जॉनी वॉकर हैट लगाए शहरी बाबू बनकर आता था तकरीबन उसी अंदाज़ में आधुनिकता गाँवों और कस्बों में आ रही है। यह जल्द गुज़र जाएगी। इसका अगला दौर अपेक्षाकृत गम्भीर होगा। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा की होगी।

शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति जब अपने ज्ञान का इस्तेमाल करेगा तो स्वाभाविक रूप से उसकी दिलचस्पी जीवन के व्यापक फलक को समझने में होगी। अभी ऐसा लगता है कि हमारा समाज ज्ञान के प्रति उदासीन है। यह भी अस्थायी है। वैचारिक-चेतना के लिए वैश्विक गतिविधियों से जुड़ाव ज़रूरी है। मीडिया इसकी सम्भावनाएं बढ़ा रहा है। आज की स्थितियाँ अराजक लगतीं हैं, पर इसके भीतर से ही स्थिरता निकल कर आएगी। अखबारों और खबरिया मीडिया की खासियत है कि इसे अपनी आलोचना से भी रूबरू होना पड़ता है। यह आलोचना व्यापक सामाजिक-विमर्श का हिस्सा है। इनके बीच से ही अब ऐसे मीडिया का विकास होगा जो सूचना को उसकी गम्भीरता से लेगा। उच्छृंखल और लम्पट मीडिया का उदय जितनी तेजी से होता है, पराभव भी उतना तेज़ होता है। इंतज़ार करें और देखें।

Sunday, October 17, 2010

पाकिस्तान में क्या हो रहा है?

पाकिस्तान के राष्ट्रपति भवन में बैठक
पाकिस्तान में पिछले कुछ दिन से न्यायपालिका और सरकार के बीच तनाव चल रहा है। पिछले हफ्ते गुरुवार की रात सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी ने अचानक सभी जजों की एक बैठक बुलाई। इसमें अंदेशा ज़ाहिर किया गया कि सरकार जजों की बर्खास्तगी वापस लेने के आदेश को खत्म करने जा रही है। ऐसा गलत होगा। दरअसल दिन में टीवी चैनलों पर यह खबर चल रही थी कि सरकार जजों की बहाली का आदेश वापस लेने जा रही है।

चीफ जस्टिस की टिप्पणियाँ अखबारों में छपने के बाद सूचना मंत्री क़मर ज़मां कैड़ा और कानून मंत्री बाबर आवान ने अगले रोज़ स्पष्ट किया कि सरकार की ऐसी मंशा नहीं है। कानून मंत्री ने थोड़ा कड़ाई से कहा कि सरकार को गिराने की कोशिशें की जा रहीं हैं। सामने से सीधी-सादी नज़र आ रहीं चीज़ों के पीछे कुछ गहरी बातें दिखाई पड़ रही हैं। राष्ट्रपति ज़रदारी  को हटाने की मुहिम चलरही है। इसमें अदालत भी सक्रिय है।

चीफ जस्टिस इफ्तिकार चौधरी इन दिनों जनता के छोटे-छोटे मामलों पर सुनवाई करके कभी किसी पुलिस अफसर की तो कभी किसी मंत्री की घिसाई कर रहे हैं। इससे वे लोकप्रिय भी हुए हैं। यह भी सच है कि उनकी बहाली मुस्लिम लीग(नवाज़) की अगुवाई में चले आंदोलन के बाद हुई थी।

पाकिस्तान को लोकतंत्र वैसा ही नहीं है जैसा भारत में है। वहाँ अभी राजनैतिक और संवैधानिक संस्थाएं जन्म ले रहीं हैं। राजनीति वहाँ बदनाम शब्द है, भारत की तरह। सेना की वहाँ राजनैतिक भूमिका है। चीफ जस्टिस की टिप्पणी के बाद राष्ट्रपति भवन में जो बैठक हुई उसमें सेनाध्यक्ष अशफाक परवेज़ कियानी भी शामिल थे। सेना की इस भूमिका पर हमें आश्चर्य हो सकता है, पर पाकिस्तान पहला देश नहीं है, जहाँ राजनीति में सेना की भूमिका है। इंडोनेशिया और बर्मा हमारे पड़ोसी हैं। वहाँ भी सेना की भूमिका है।

आसिफ अली ज़रदारी पर भ्रष्टाचार के अनेक मामले थे। परवेज़ मुशर्रफ ने उन मामलों को एक आदेश जारी कर खत्म कर दिया। इधर सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को खत्म कर दिया। अब ज़रदारी की गर्दन नापने की कोशिश हो रही है। राष्ट्रपति होने के नाते अभी यह सम्भव नहीं है। किसी न किसी वजह से ऐसा माना जा रहा है कि इफ्तिखार चौधरी न्यायिक सक्रियता को या तो सीमा से ज्यादा खींच रहे हैं या राजनीति में शामिल हो रहे हैं।

आज यानी रविवार को प्रधानमंत्री सैयद युसुफ रज़ा गिलानी देश को संबोधित करने जा रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कई बातें हुईं हैं। एक अंदेशा है कि सेना कहीं सत्ता न संभाल ले। उधर परवेज़ मुशर्रफ ने राजनीति में आने की घोषणा कर दी है। वे अभी विदेश में हैं। इफ्तिखार चौधरी उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं। वहाँ की अदालतों में भी भ्रष्टाचार है। कट्टरपंथी लोग लोकप्रिय हैं। जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं, पाकिस्तान में वे सम्मानित राष्ट्रवादी हैं। उन्हें अदालतों से भी मदद मिलती है। हफीज़ सईद के मामले में आप देख चुके हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय प्रसारण के बाद मामला सुलट जाएगा, पर हालात को देते हुए लगता है कि कोई नया मसला उभरेगा। ज़रूरत इस बात की है कि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे और उसके बाद चुनाव हों और नई सरकार बने। लोकतंत्र की सारी प्रक्रियाएं कई बार सम्पन्न होती हैं तभी वह शक्ल लेता है। बहरहाल ताज़ा मामले पर  डॉन का आज का सम्पादकीय पढ़ेः-



















                                                     Crisis at the SC



BEFUDDLING, bemusing, bizarre — however you described it, it may still not do full justice to what transpired between Thursday evening and Friday afternoon. An alleged ‘plot’ by the government to send the Supreme Court packing was breathlessly released into the 24hour TV-news cycle Thursday evening. The report rapidly metastasised and within hours the SC swung into late-night action and announced a full-court hearing for Friday morning. The government has now been ordered to conduct an inquiry into the circumstances surrounding the news reports and to affix responsibility — the court having made clear it believes there is some truth to the allegations.

Three players are involved in this sordid tale of rumour and intrigue, and all need to reflect on their behaviour. First, the media. That there are tensions between the government and the superior judiciary is undeniable, and if a news organisation has a story of public interest regarding the perceived judiciary-executive ‘clash’ then it has a right, even a duty, to broadcast or publish the story. But there are journalistic responsibilities, too, and those include needing to be reasonably sure of the veracity of allegations that are to be made public. And when the allegations have the potential to irreparably rupture relations between two institutions of the state, the journalistic re sponsibilities increase manifold. Were the appropriate and necessary steps taken to ensure the reports aired on Thursday night reflected the factual position? Was the manner of the coverage in keeping with the ethics of a profession that is supposed to strive to report the news, not make the news?

Next, the judiciary. To be sure, given recent history and the personal price many of the judges of the SC have paid to create an independent judiciary, to some extent it is understandable the justices may feel a heightened sense of pressure and threat to their position. However, a judiciary is supposed to add to the dignity and poise of the state, not add to a sense of national political crisis. Setting aside the matter of intention for a moment, it seems fairly obvious the chances of a government-sponsored move to disband the entire SC succeeding are quite remote. So middle-of-thenight meetings and fullcourt emergency benches are perhaps unnecessary, there being less disruptive ways and means available to the court to ensure its independence.

Finally, the government. Would it harm the government to once in a while take the high road? With emotions running high in the SC yesterday, the responsible, stability-enhancing thing to have done was reassure the court. Alas, common sense appears to be in short supply in Islamabad.


Friday, October 15, 2010

हमारी खेल-संस्कृति

कॉमनवैल्थ खेल खत्म होने के बाद अब पूरे आयोजन की समीक्षा का दौर है। आयोजन की गड़बड़ियों और घोटालों को लेकर अभी हंगामा शुरू होगा। उसपर चर्चा करने के बजाय मैं दूसरे मामलों पर बात करना चाहूँगा।

1.क्या हम खेल के अच्छे आयोजक हैं? कॉमनवैल्थ खेल के उद्घाटन और समापन समारोहों पर न जाएं। प्रतियोगिताओं की व्यवस्थाओं और खेल के स्तर पर ध्यान दें। किसी भी वज़ह से भारत की छवि पहले से खराब थी। ऊपर से हमारे सारे निर्माण कार्य देर से पूरे हुए।

कुछ लोग चीन से हमारी तुलना करते हैं। चीन की व्यवस्था में सरकारी निर्णयों को चुनौती नहीं दी जा सकती। हमारे यहाँ अनेक काम अदालती निर्देशों के कारण भी रुके। इसमें पेड़ों की कटाई से लेकर ज़मीन के अधिग्रहण तक सब शामिल हैं। तब हम लंदन से अपनी तुलना करें। वहाँ भी हमारे जैसा लोकतंत्र है।

हमारे पास दिल्ली मेट्रो का अनुभव था। उसके निर्माण में शुरुआती अड़ंगों के बाद सुप्रीम कोर्ट की कुछ ऐसी व्यवस्थाएं आईं कि विलम्ब नहीं हुआ। मेट्रो के कुशल प्रबंधकों ने उसके कार्यान्वयन में कभी देरी नहीं होने दी। उन्होंने अपनी कुशलता और समयबद्धता को रेखांकित करने का बार-बार प्रयास किया। कॉमनवैल्थ खेलों के साथ इस किस्म की कुशलता या पटुता को रेखांकित करने की कोशिश नहीं की गई।

मेरा अनुभव है कि हम जब पूरे समुदाय को चुनौती देते हैं तो सब खड़े होकर काम को करने के लिए आगे आते हैं। कॉमनवैल्थ खेलों को संचालित करने वालों ने प्रेरणा देने या लेने की कोई कोशिश नहीं की। यह हमारी पूरी व्यवस्था से जुड़ी बात है। निर्माण कार्यों में हेराफेरी हुई या नहीं इसपर मैं कुछ नहीं कहना चाहूँगा। उसके बारे में  जानकारियाँ आने वाले समय में काफी आएंगी।

हमारा खेल प्रदर्शन कैसा रहा? पहले के मुकाबले कहीं बेहतर रहा। लगभग हर खेल में बेहतर था, पर खासतौर से एथलेटिक्स, तीरंदाज़ी, शूटिंग और जिम्नास्टिक का उल्लेख होना चाहिए। हॉकी में हमारी टीम बेहतरीन खेली। फाइनल का स्कोर वास्तविक कहानी नहीं कहता है। पहली बार भारतीय टीम ने फिटनेस के लेवल को सुधारा है। खेल में खिलाड़ियों के साथ-साथ पीछे काम करने वाले डॉक्टर, फिज़ियो और कोच की भूमिका होती है।  इसमें कापी सुधार हुआ है। कोच ब्रासा कहते हैं कि भारतीय टीम को मनोवैज्ञानिक की ज़रूरत है। मैं उनसे सहमत हूँ। भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मानसिक रूप से हारी।

भारत सरकार ने कॉमनवैल्थ खेलों के लिए खिलाड़ियों की तैयारी पर खर्च करने के लिए 800 करोड़ रुपए दिए थे। इनमें से 500 करोड़ ही खर्च हो पाए। यह भी अकुशलता है। बहरहाल यह सब सीखने की बातें हैं। इतना स्पष्ट है कि खेल की संस्कृति पूरे समाज के मनोबल को बढ़ाने का काम कर सकती है। दूसरे यह कि हमारी अकुशलता खेल में हमारी विफलता के रूप में व्यक्त होती है।


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Medalists in CWG 2010 From Wikipedia

[edit]Gold Medalists

Medal↓Name↓Sport↓Event↓Date↓
1 GoldAbhinav Bindra & Gagan NarangShootingMen's 10m Air Rifle (Pairs)October 5
1 GoldAnisa Sayyed & Rahi SarnobatShootingWomen's 25m Pistol (Pairs)October 5
1 GoldRavinder SinghWrestlingMen's Greco-Roman 60 kgOctober 5
1 GoldAnil KumarWrestlingMen's Greco-Roman 96 kgOctober 5
1 GoldSanjay KumarWrestlingMen's Greco-Roman 74 kgOctober 5
1 GoldYumnam Renubala ChanuWeightliftingWomen's 58kgOctober 6
1 GoldKatulu Ravi KumarWeightliftingMen's 69kgOctober 6
1 GoldAnisa SayyedShootingWomen's 25m Pistol (Single)October 6
1 GoldOmkar SinghShootingMen's 50m Pistol IndividualOctober 6
1 GoldRajender KumarWrestlingMen's Greco-Roman 55 kgOctober 6
1 GoldGagan NarangShootingMen's 10m Air Rifle IndividualOctober 6
1 GoldVijay Kumar & Gurpreet SinghShootingMen's 25m Rapid Fire Pistol (Pairs)October 7
1 GoldOmkar Singh & Gurpreet SinghShootingMen's 10m Air Pistol (Pairs)October 7
1 GoldGeeta Singh PhogatWrestlingWomen's freestyle 55 kgOctober 7
1 GoldAlka TomarWrestlingWomen's freestyle 59 kgOctober 8
1 GoldAnita TomarWrestlingWomen's freestyle 67 kgOctober 8
1 GoldDeepika KumariDola Banerjee & Bombayala Devi LaishramArcheryWomen's recurve teamOctober 8
1 GoldOmkar SinghShootingMen's 10m Air Pistol (Singles)October 8
1 GoldGagan Narang & Imran Hassan KhanShootingMen's 50m Air Rifle 3 Position (Pairs)October 8
1 GoldVijay KumarShootingMen's 25m Rapid Fire pistol IndividualOctober 8
1 GoldVijay Kumar & Harpreet SinghShootingMen's 25m centre fire pistol (Pairs)October 9
1 GoldGagan NarangShootingMen's 50m Rifle 3 Pos IndividualOctober 9
1 GoldNarsingh Pancham YadavWrestlingMen's freestyle 74 kgOctober 9
1 GoldYogeshwar DuttWrestlingMen's freestyle 60 kgOctober 9
1 GoldDeepika KumariArcheryWomen's recurve individualOctober 10
1 GoldHarpreet SinghShootingMen's 25m centre fire pistol IndividualOctober 10
1 GoldRahul BanerjeeArcheryMen's recurve individualOctober 10
1 GoldSushil KumarWrestlingMen's freestyle 66 kgOctober 10
1 GoldSomdev DevvarmanTennisMen's SinglesOctober 10
1 GoldKrishna PooniaAthleticsWomen's Discus ThrowOctober 11
1 GoldHeena Sidhu & Annu Raj SinghShootingWomen's 10m Air Pistol (Pairs)October 12
1 GoldManjeet KaurSini JoseAshwini Akkunji & Mandeep KaurAthleticsWomen's 4×400m (Relay)October 12
1 GoldSubhajit Saha & Achanta Sharath KamalTable TennisMen's doublesOctober 13
1 GoldSuranjoy SinghBoxingMen's Flyweight 52 KgOctober 13
1 GoldManoj KumarBoxingMen's Light Welterweight 64 KgOctober 13
1 GoldParamjeet SamotaBoxingMen's Light Super heavyweight +91 KgOctober 13
1 GoldAshwini Ponnappa & Jwala GuttaBadmintonWomen's DoublesOctober 14
1 GoldSaina NehwalBadmintonWomen's SinglesOctober 14

[edit]Silver Medalists

Medal↓Name↓Sport↓Event↓Date↓
2 SilverNgangbam Soniya ChanuWeightliftingWomen's 48kgOctober 4
2 SilverSukhen DeyWeightliftingMen's 56kgOctober 4
2 SilverOmkar Singh & Deepak SharmaShootingMen's 50m Pistol (Pairs)October 5
2 SilverTejaswini Sawant & Lajjakumari GauswamiShootingWomen's 50m Rifle 3 Positions(Pairs)October 5
2 SilverRahi SarnobatShootingWomen's 25m Pistol (Single)October 6
2 SilverAbhinav BindraShootingMen's 10m Air Rifle (Singles)October 6
2 SilverAsher Noria & Ronjan SodhiShootingMen's Double trap (Pairs)October 6
2 SilverManoj KumarWrestlingMen's Greco-Roman 84 kgOctober 6
2 SilverRitul ChatterjeeJignas Chittibomma & Chinna Raju SritherArcheryMen's compound teamOctober 7
2 SilverRonjan SodhiShootingMen's Double trap IndividualOctober 7
2 SilverNirmala DeviWrestlingWomen's freestyle 48 kgOctober 7
2 SilverAshish KumarGymnasticsMen's VaultOctober 8
2 SilverManavjit Singh Sandhu & Mansher SinghShootingMen's Trap (Pairs)October 8
2 SilverBabita KumariWrestlingWomen's freestyle 51 kgOctober 8
2 SilverMouma DasPoulomi Ghatak & Shamini KumaresanTable TennisWomen's teamOctober 8
2 SilverBadminton Mixed TeamBadmintonMixed teamOctober 8
2 SilverSania MirzaTennisWomen's singlesOctober 9
2 SilverVijay KumarShootingMen's 25m centre fire pistol IndividualOctober 10
2 SilverAnuj KumarWrestlingMen's freestyle 84 kgOctober 10
2 SilverJoginder KumarWrestlingMen's freestyle 120 kgOctober 10
2 SilverVikas Shive GowdaAthleticsMen's Discuss ThrowOctober 10
2 SilverPrajusha MaliakkalAthleticsWomen's Long JumpOctober 10
2 SilverHarwant KaurAthleticsWomen's Discus ThrowOctober 11
2 SilverTejaswini SawantShootingWomen's 50m Rifle Prone (Singles)October 12
2 SilverSamresh Jung & Chandrasekhar ChaudharyShootingMen's 25m Standard Pistol (Pairs)October 12
2 SilverHeena SidhuShootingWomen's 10m Air Pistol (Singles)October 13
2 SilverMen's Hockey TeamHockeyMen's HockeyOctober 14

[edit]Bronze Medalists

Medal↓Name↓Sport↓Event↓Date↓
3 BronzeSandhya Rani DeviWeightliftingWomen's 48kgOctober 4
3 BronzeVS RaoWeightliftingMen's 56kgOctober 4
3 BronzeSunil KumarWrestlingMen's Greco-Roman 66 kgOctober 6
3 BronzeDharmender DalalWrestlingMen's Greco-Roman 120 kgOctober 6
3 BronzePrasanta KarmakarSwimmingMen's 50 m freestyle ParaOctober 6
3 BronzeBheigyabati ChanuJhano Hansdah & Gagandeep KaurArcheryWomen's compound teamOctober 7
3 BronzeAshish KumarGymnasticsMen's FloorOctober 7
3 BronzeSudhir KumarWeightliftingMen's 77kgOctober 7
3 BronzeSuman KunduWrestlingWomen's freestyle 63kgOctober 7
3 BronzeRahul BanerjeeTarundeep Rai & Jayanta TalukdarArcheryMen's recurve teamOctober 8
3 BronzeGurpreet SinghShootingMen's 25m rapid fire pistol IndividualOctober 8
3 BronzeKavita RautAthleticsWomen's 10,000mOctober 8
3 BronzeHarminder SinghAthleticsMen's 20 kilometres walkOctober 9
3 BronzeSuma Shirur & Kavita YadavShootingWomen's 10 m Air Rifle (Pairs)October 9
3 BronzeSharath Kamal AchantaArputharaj Anthony & Abhishek RavichandranTable TennisMen's teamOctober 9
3 BronzeLaishram Monika DeviWeightliftingWomen's 75kgOctober 9
3 BronzeLeander Paes & Mahesh BhupatiTennisTennis Men's DoubleOctober 9
3 BronzeDola BanerjeeArcheryWomen's recurve individualOctober 10
3 BronzeJayanta TalukdarArcheryMen's recurve individualOctober 10
3 BronzeManavjit Singh SandhuShootingMen's Trap IndividualOctober 10
3 BronzeAnil KumarWrestlingMen's freestyle 55 kgOctober 10
3 BronzeSania Mirza & Rushmi ChakravarthiTennisTennis Women's DoublesOctober 10
3 BronzeTejaswini Sawant & Meena KumariShootingWomen's 50 metre rifle prone pairsOctober 11
3 BronzeSeema AntilAthleticsWomen's Discus ThrowOctober 11
3 BronzeAmandeep SinghBoxingMen's Light Flyweight 49 kgOctober 11
3 BronzeJai BhagwanBoxingMen's Lightweight 60 kgOctober 11
3 BronzeDilbagh SinghBoxingMen's Welterweight 69 KgOctober 11
3 BronzeVijender SinghBoxingMen's Welterweight 75 KgOctober 11
3 BronzeSathi GeethaSrabani NandaPriya PK & Jyothi ManjunathAthleticsWomen's 4×100m (Relay)October 12
3 BronzeRahamatulla MollaSuresh SathyaShameer Manzile &Mohd. Abdul Najeeb QureshiAthleticsMen's 4×100m (Relay)October 12
3 BronzeRenjith MaheswaryAthleticsMen's Triple JumpOctober 12
3 BronzeKashinath NaikAthleticsMen's Javelin ThrowOctober 12
3 BronzeSamresh JungShootingMen's 25m Standard Pistol SinglesOctober 13
3 BronzeParupalli KashyapBadmintonMen's SinglesOctober 13
3 BronzeMouma Das and Poulomi GhatakTable TennisWomen's DoublesOctober 14
3 BronzeSharath Kamal AchantaTable TennisMen's SinglesOctober 14