Monday, August 29, 2011

कैसा संवाद संकलन?


27 के इंडियन एक्सप्रेस में श्रीमती मृणाल पांडे का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें हिन्दी अखबारों के संवाददाताओं को विज्ञापन लाने के काम में लगाने का जिक्र है। हिन्दी अखबारों की प्रवृत्तियों पर इंटरनेट के अलावा दूसरे मीडिया पर बहुत कम लिखा जाता है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कुछ लोगों ने कहा कि हमारी भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है। ज्यादातर लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा। पर क्या मीडिया इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं है? और मीडिया का कारोबारी नज़रिया उसे जन-पक्षधरता से दूर तो नहीं करता? बिजनेस तो इस व्यवस्था का हिस्सा है ही। 

मीडिया का कारोबारी चेहरा न तो हाल की उत्पत्ति है और न वह भारत में ही पहली बार उजागर हुआ है। संयोग से हाल में ब्रिटिश संसद ने न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड को लेकर उसके मालिक रूपर्ट मर्डोक की जैसी घिसाई की उससे इतना भरोसा ज़रूर हुआ कि दुनिया के लोग किसी न किसी दिन इस तरफ ध्यान देंगे। अब हम मीडिया शब्द का इतना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं कि पत्रकारिता शब्द भूलते जा रहे हैं। मीडिया में कारोबार शामिल है। पत्रकारिता शब्द में झलकता है लिखने-पढ़ने का कौशल और कुछ नैतिक मर्यादाएं।


सूचना-प्रसारण दुनिया का शुरूआती औद्योगिक उत्पाद है। 1454 में मूवेबल टाइप के आविष्कार के फौरन बाद अखबारों, पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन शुरू हो गया था। उसी दौरान यूरोप में साक्षरता की दर बढ़ी जैसा आज भारत में हो रहा है। अखबारों के प्रसार के साथ उनका पहला टकराव ताकतवर सामंतों और बादशाहों से हुआ। वह दौर लोकतंत्र के उदय का था। सन 1834 की बात है। इंग्लैंड के राजा  विलियम चतुर्थ ने लॉर्ड मेलबर्न की ह्विग सरकार को बर्खास्त कर दिया और टोरी आर्थर वेलेज़ली ड्यूक ऑफ वेलिंगटन और उसके बाद रॉबर्ट पील से सरकार बनाने को कहा। राजनीति की दशा खराब थी। उस दौर में लंदन टाइम्स का सम्पादक टॉमस बार्नेस देश का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था, क्योंकि उसकी आवाज सुनी जाती थी। चुनाव आसन्न थे। राजनेता समर्थन लेने उसके पास गए। बार्नेस ने कुछ शर्तों के साथ रॉबर्ट पील के लिए घोषणापत्र लिखा। हालांकि 1835 के चुनाव में पील की पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर सकी, पर एक सम्पादक के सम्मान का पता ज़रूर लगता है। यह सम्मान दुनिया के तमाम देशों में परिलक्षित हुआ है।

हमारे यहाँ शुरूआती पत्रकार सामाजिक नेता भी थे। स्वतंत्रता के बाद तीन दशक तक उनका सम्मान कायम रहा। 1975 में इमर्जेंसी के दौरान पहली बार भारतीय पत्रकारों का सत्ता के कठोर पक्ष से सामना हुआ। इसमें सबसे पहले झुके बड़े प्रकाशन समूह। संयोग है कि हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार इमर्जेंसी के फौरन बाद हुआ।   विस्तार जारी है, पर उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। इस पत्रकारिता के ब्लैक एंड ह्वाइट दोनों पक्षों को देखने और समझने की ज़रूरत है। धवल पक्ष प्रकाशन तकनीक, पाठक संख्या, प्रसार क्षेत्र वगैरह-वगैरह से जुड़े है। इस कर्म ने बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार भी दिया, पर पत्रकार के सम्मान, पत्रकारिता के मूल्यों और संज़ीदगी में गिरावट आई है।

मृणाल जी ने अखबारों में संवाददाताओं को विज्ञापन-संकलन में जोतने की जिस प्रवृत्ति का उल्लेख किया है, वह छोटे अखबारों की देन नहीं है। बड़े अखबारों की देन है। जिले और तहसील का अफसर बड़े अखबार के नाम  से दबता है। फिर चूंकि यह मसला शुद्ध कारोबार और कमीशन का है इसलिए बढ़  रहा है। यह न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड  जैसा अपराध भी नहीं है, इसीलिए छिपा रहता है। राजनेताओं को भी प्रचार चाहिए, सो वे या तो मालिकों के सम्पर्क में रहते हैं या मैनेजरों के।

एक ज़माना था अखबारों के दफ्तरों में एक अदृश्य दीवार होती थी। यह दीवार सम्पादकीय और बिजनेस विभागों के बीच थी। बर्लिन की दीवार के बाद गिरी यह सबसे महत्वपूर्ण दीवार है, गोकि उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ी।  नरेगा के मजदूर से भी कम पैसा देने वाली व्यवस्था हिन्दी पत्रकार को कितना सम्मानित मानती है वह जाहिर है। पत्र मालिकों को साख चाहिए भी नहीं। धंधा चाहिए। अंग्रेजी पत्रकारिता का भी यही हाल है। अलबत्ता वहाँ का पत्रकार अपर-लोअर केस में कॉपी बनाने के बदले हिन्दी पत्रकार से कई गुना ज्यादा पैसा लेता है। और उससे कई गुना ज्यादा पैसा सेल्स और मार्केटिंग का सद्यः नियुक्त एक्जीक्यूटिव लेता है।

इसके बारे में कौन, कब और कैसे सोचेगा पता नहीं। मीडिया का मौजूदा कारोबारी मॉडल उसकी साख को बहुत जल्द रसातल पर ले जाएगा। बेशक इस दौरान अखबारों का प्रसार बढ़ेगा। पर धीरे-धीरे अखबार वैसे ही बेजान हो जाएंगे जैसे आजकल सुबह अखबार के साथ रखे रंगीन विज्ञापनी पर्चे होते हैं। अखबार रहें या न रहें, पत्रकारिता की जरूरत हमेशा रहेगी। पत्रकारिता तभी सम्भव है जब कोई कारोबारी मॉडल पत्रकारिता के बारे में सोचे। अखबार निकालने के लिए आर्थिक ताकत भी चाहिए और सिंडीकेटों-माफियाओं से भिड़ने की शक्ति भी। वह ताकत जो फक्कड़ों में होती है या बादशाहों में। सम्भव है कि कोई कारोबारी समूह इस बात को समझे तो वह दीर्घकालीन साख कायम करके बेहतर कारोबार कर सकता है। या मीडिया की ओनरशिप को पूरी तरह समझा जाए और नए ढंग की ओनरशिप सामने आए।

 मृणाल जी के लेख के अंश यहाँ पेश हैं। पूरा लेख पढ़ने के लिए  लिंक पर क्लिक करें


Mrinal Pande


On Sunday, August 22, while the Anna andolan was at its peak, the city supplement in one of the biggest multi-edition Hindi dailies in India carried a whole page of classified advertising that extended support for the fasting Anna Hazare and his people, in its local pages. Smiling engagingly in the ads, leaders from small-town and rural India could be seen all across the classified section, extending their heartfelt support to Cause Anna and nestling cosily next to ads for reducing fat, increasing male potency and height. Almost all the ads carried the mugshots and mobile phone numbers of those that had paid for the insertions (one such worthy was even wearing a Main Anna Hoon T-shirt). Close examination revealed the ad-givers to be local builders, heads of religious trusts, educational bodies, regional organisations for migrant workers from Bihar and social workers heading various sanghs and sangathans to save Bharat (Bharat Bachao), and various RWAs.

Queries from colleagues and a bit of Internet surfing revealed that the gatherers of such ads are mostly stringers engaged by the dailies — whose main job today is not to gather news and rush it to the nearest “modem centre” servicing the area, but to identify untapped sources of ad revenue in rural and semi-rural areas . Come any major festival from Chhatth to Ganesh Chaturthi, Rakhi to Independence or Republic Day, and they are handed wads of coupons (parchees) and ordered to coax, cajole or threaten the local leader wannabes and money-lenders into paying for insertions that extend their good wishes (shubh kaamnayein) or fulsome praise (shat shat abhinandan) to their fellow citizens. Their remunerations as news-gatherers may be laughable (did you know, for example, that some of the largest Hindi newspapers in Bihar today pay those manning their “modem centres” around Rs 4,000 per month, while comparable wages for the MNREGA work in the state are Rs 5,400?), but the percentile bonuses from ad-gathering are burgeoning each day. With such bounty available, along with the clout a media ID gets you in small-town India, young men and women are queuing up to be picked up as unaccredited stringers.

The ultimate aim, you see, is no longer to gather news professionally and inform and educate the readers, but to beef up the bottomline and please the ad companies and the shareholders. Until this is understood and effectively addressed, no fervent pleas from the public or media bodies, or even that much-battered institution called the Parliament, will make a real difference to the multi-faceted phenomena that has been subject to casual scrutiny under the one-size-fits-all label of “paid news”.




3 comments:

  1. Nice post .

    ब्लॉगर्स मीट वीकली (6) Eid Mubarak में आपका स्वागत है।
    इस मुददे पर कुछ पोस्ट्स मीट में भी हैं और हिंदी ब्लॉगिंग गाइड की 31 पोस्ट्स भी हिंदी ब्लॉग जगत को समर्पित की जा रही हैं।

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  2. नये ढंग की ओनरशि‍प, नये तरीके के कानून... शायद ये नहीं कुछ और ही बात इन सबका समाधान हे।
    पढ़ि‍ये नई कवि‍ता : कवि‍ता का वि‍षय

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  3. आज पत्रकारिता में छोटे शहरो कस्बो के अधिकांश पत्रकार सिर्फ संवाद का काम करते जो पूरी तरह से अप्रक्षित है , जीने अख़बार मालिक विज्ञापन लेन और और अपनी अखबार की कापिया बेचने के लिए इस्तेमाल करता है |इन्हें क्या मिलाता है ये सब जानते है महानगरो में बैठे पत्रकार भी इनकी आलोचना तो करते है सायद ही कभी इन्हें उप्पेर उठाने के इन्हें उसी हल में रखने में पत्रकारिता की चर्चा तक सिमित है | हम सभी को मिलकर सोचना होगा की इन्हें कैसे आगे नहीं तो तो स्तर गिरता ही जायेगा
    दिल्ली में बैठे लोग चर्चा करते रहेगे

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