Friday, December 30, 2011

मुआ स्वांग खूब रहा

कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं। शक्तिशाली लोकपाल विधेयक सर्वसम्मति से पास होगा। देश की संवैधानिक शक्तियों को काम करने दीजिए। राजनीति को बदनाम करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी। इस किस्म के तमाम वक्तव्यों के बाद गुरुवार की रात संसद का शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया। कौन जाने कल क्या होगा, पर हमारा राजनीतिक व्यवस्थापन लोकपाल विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाया। दूसरी ओर अन्ना मंडली की हवा भी निकल गई। इस ड्रामे के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि देश की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसा कानून नहीं चाहतीं। और उनपर जनता का दबाव उतना नहीं है जितना ऐसे कानूनों को बनाने के लिए ज़रूरी है। 

लोकपाल बिल को लेकर चले आंदोलन और मुख्यधारा की राजनीति के विवाद और संवाद को भी समझने की जरूरत है। आमतौर पर हम या तो आंदोलन के समर्थक या विरोधी के रूप में सोचते हैं। सामान्य नागरिक यह देखता है कि इसमें मैं कहाँ हूँ। लोकपाल कानून को लेकर संसद में चली बहस से दो-एक बातें उजागर हुईं। सरकार, विपक्ष, अन्ना-मंडली और जनता सभी का रुख इसे लेकर एक सा नहीं है। पर सामान्य विचार बनाने का तरीका भी दूसरा नहीं है। इसके लिए कई प्रकार टकराहटों का इंतजार करना पड़ता है। लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था। पता नहीं किसी ने उस पर ध्यान दिया या नहीं। उनका आशय था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। हम इस विधेयक को पास हो जाने दें और भविष्य में उसकी भूमिका को सार्थक बनाएं।

Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।

Saturday, December 24, 2011

एक अदद नौकरी की तलाश में भटकते युवा

युवा आबादी के लिहाज से भारत सबसे बड़ा देश है। इस बदलते देश के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण बात है। इतनी बड़ी युवा आबादी हमारे लिए बहुत उपयोगी है। देश का निर्णाण युवा हाथों से ही होता है। पर क्या हम अपनी इस सम्पदा का इस्तेमाल कर पा रहे हैं? युवा वर्ग चुस्त-दुरुस्त और ठीक से प्रशिक्षित है तो देश की शक्ल बदलने में देर नहीं लगेगी। पर यदि वह कुंठित, हताश और निराश है तो यह खौफनाक है। युवा पत्रकार गिरिजेश कुमार बेरोजगारी को लेकर कुछ सवाल उठा रहे हैं। 

पटना की अमृता बदहवासी में अपना मानसिक संतुलन खोकर बक्सर पहुँच गई। उसकी शिक्षक पात्रता परीक्षा नामक महापरीक्षा खराब चली गई थी। बाद में जी आर पी बक्सर की मदद से उसे उसके परिवार वालों को सौंपा गया। यह खबर अखबार के चौदहवें पन्ने पर बॉटम में एक कॉलम में आई। कुछ अख़बारों ने इसे ज़रुरी भी नहीं समझा। हालाँकि, सवाल यह नहीं है कि इस खबर को किस
पन्ने पर छपना चाहिए, या छपना चाहिए भी या नहीं? सवाल यह है कि रोजगार की एक संभावना युवाओं की मनोदशा को जिस तरह से प्रभावित कर रहा है, वह समाज के लिए कितना हितकर है? शिक्षा जैसी चीज़ अगर पेट पालने का ज़रिया बन जाए तो समाज को शिक्षित करने का मूल उद्देश्य का खोना लाज़िमी है। लेकिन बेरोज़गारी के आलम में वे लोग क्या करें जिनपर पेट और परिवार की जिम्मेदारी है, यह भी बड़ा सवाल है?

विदित हो कि बिहार सरकार ने सरकारी प्राथमिक और मध्य विद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा आयोजित की थी। जो क्रमशः 20 और 21 दिसंबर को समाप्त हो गयी। राज्य भर में 1380 परीक्षा केन्द्रों पर आयोजित इस परीक्षा में तक़रीबन 30 लाख परीक्षार्थी शामिल हुए थे।

Friday, December 23, 2011

कांग्रेस की इस युद्ध घोषणा में कितना दम है?

कांग्रेस का मुकाबला अन्ना हजारे से नहीं भाजपा और वाम मोर्चे से है। उसका तात्कालिक एजेंडा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में सफलता हासिल करना है। उम्मीद थी कि संसद के इस सत्र में कांग्रेस कुछ विधेयकों के मार्फत अपने नए कार्यक्रमों की घोषणा करेगी। पिछले साल घोटालों की आँधी में सोनिया गांधी ने बुराड़ी सम्मेलन के दौरान पार्टी को पाँच सूत्री प्रस्ताव दिया था, पर अन्ना-आंदोलन के दौरान वह पीछे रह गया। सोनिया गांधी अचानक युद्ध मुद्रा में नजर आ रहीं हैं।  क्या कांग्रेस इन तीखे तेवरों पर कायम रह सकेगी?

पिछले साल 19 दिसम्बर को सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भ्रष्टाचार के खिलाफ एकताबद्ध होने का आह्वान किया था। कांग्रेस महासमिति के बुराड़ी सम्मेलन में सोनिया गांधी ने जो पाँच सूत्र दिए थे, उनकी चर्चा इस साल शुरू के महीनों में सुनाई पड़ी, पर धीरे-धीरे गुम हो गई। अन्ना हजारे के आंदोलन के शोर में यह आवाज़ दबती चली गई। पिछले साल इन्हीं दिनों टूजी मामले में जेपीसी को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में टकराव चल रहा था। कांग्रेस को उस मामले में विपक्ष के साथ समझौता करना पड़ा। धीरे-धीरे पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में उतर आई। बुधवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सोनिया गांधी ने लोकपाल को लेकर अपने तेवर तीखे किए हैं। बीमारी से वापस लौटीं सोनिया गांधी का यह पहला महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य है।

Monday, December 19, 2011

भेड़ों की भीड़ नहीं जागरूक जनता बनिए

सब ठीक रहा तो अब लोकपाल बिल आज या कल संसद में पेश कर दिया जाएगा। साल खत्म होते-होते देश पारदर्शिता के अगले पायदान पर पैर रख देगा। और कुछ नए सवालों के आधार तैयार कर लेगा। समस्याओं और समाधानों की यह प्रतियोगिता जारी रहेगी। शायद अन्ना हजारे की टीम 27 को जश्न का समारोह करे। हो सकता है कि इस कानून से असहमत होकर आंदोलन के रास्ते पर जाए। पर क्या हम अन्ना हजारे के या सरकार के समर्थक या विरोधी के रूप में खुद को देखते हैं? सामान्य नागरिक होने के नाते हमारी भूमिका क्या दर्शक भर बने रहने की है? दर्शक नहीं हैं कर्ता हैं तो कितने प्रभावशाली हैं? कितने जानकार हैं और हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है? क्या हम हताशा की पराकाष्ठा पर पहुँच कर खामोश हो चुके हैं? या हमें इनमें से किसी प्लेयर पर इतना भरोसा है कि उससे सवाल नहीं करना चाहते?

Friday, December 16, 2011

बहुत हुई बैठकें, अब कानून बनाइए

सरकार पहले कहती है कि हमें समय दीजिए। अन्ना के अनशन की घोषणा के बाद जानकारी मिलती है कि शायद मंगलवार को विधेयक आ जाएगा। शायद सदन का कार्यकाल भी बढ़ेगा। यह सब अनिश्चय की निशानी है। सरकार को  पहले अपनी धारणा को साफ करना चाहिए। 

लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।

Monday, December 12, 2011

नीति-अनीति और सत्ता की राजनीति


अन्ना हजारे के आंदोलन का अगला चरण सत्ता की राजनीति के अपेक्षाकृत ज्यादा करीब होगा। राहुल गांधी चाहते तो इस सभा में जाते और वही घोषणा करते जो एक-दो दिन बाद सरकार करने वाली है तो कांग्रेस के लिए वह बेहतर होता। बहरहाल कांग्रेस का गणित कुछ और है। या वह इतना अस्पष्ट है कि कांग्रेस को भी समझ में नहीं आ रहा। पर चिन्ता का विषय है समूची राजनीति का विचार और नीति से दूर होते जाना। लोकपाल विधेयक से बड़ा भारी बदलाव नहीं हो जाएगा। खराबी जन-प्रतिनिधित्व कानून में है और सामाजिक व्यवस्था में भी। इसके लिए अलग-अलग किस्म की राजनीति की दरकार है। हमारी पहली ज़रूरत है राजनीति को वैधानिकता प्रदान करना। एक अरसे से यह अपराधियों के चंगुल में फँसी है। 

पिछले हफ्ते एक रोज पटना से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को अचानक रोक लिया गया। पता लगा कि कुछ सांसदों को प्रथम श्रेणी एसी की बर्थ नहीं मिल पाईं। ट्रेन से कुल 18 सांसद यात्रा करने वाले थे। उनमें से छह को प्रथम एसी में जगह मिल पाई। बाकी को सेकंड एसी में जगह दी गई है। ऐसा पहली बार हुआ। कुछ सासंदों की ट्रेन छूटी या कुछ देर से आए। संसदीय कार्यों में उनकी ठीक से शिरकत नहीं हो पाई। बहरहाल इसकी शिकायत रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से की गई। उन्होंने सासंदों से माफी माँगी। कुछ सरकारी अफसरों का तबादला किया गया। साथ ही रेलमंत्री ने आश्वासन दिया कि भविष्य में सासंदों के रिजर्वेशन का काम सीधे रेल बोर्ड से किया जाएगा। रेलमंत्री ने एक जानकारी यह भी दी कि सरकारी सर्कुलर है कि कोई नया डिब्बा लगाने के लिए तीन दिन पहले से सूचना होनी चाहिए। वह सूचना नहीं थी इसलिए नया डिब्बा नहीं लग पाया।

Sunday, December 11, 2011

सरकार बनाम सरकार !!!


लड़ाई राजनीति में होनी चाहिए सरकारों में नहीं
नवम्बर के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में हुई एक रैली में मायावती ने आरोप लगाया कि हमने केन्द्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता माँगी थी, पर हमें मिला कुछ नहीं। यही नहीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जो कुछ मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। संघ सरकार पर राज्य सरकार का करोड़ों रुपया बकाया है। इस तरह केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश के विकास को बंधक बना रही है। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी खस्ता हालत को देखकर इस कदर डरी हुई है कि उसके महासचिव राहुल गांधी दिल्ली में सारे काम छोड़कर उत्तर प्रदेश में ‘नाटकबाजी’ कर रहे हैं।

उधर राहुल गांधी ने बाराबंकी की एक रैली में कहा कि लखनऊ में एक हाथी विकास योजनाओं का पैसा खा रहा है। पिछले बीस साल से उत्तर प्रदेश में कोई काम नहीं हुआ है। देश आगे जा रहा है और उत्तर प्रदेश पीछे। राहुल गांधी का कहना है कि मनरेगा और शिक्षा से जुड़ी जो रकम उत्तर प्रदेश को मिली उसका दुरुपयोग हुआ। दो साल पहले संसद में पूछे गए एक सवाल में बताया गया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सबसे ज्यादा शिकायतें उत्तर प्रदेश से मिली हैं। हाल में केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संदीप दीक्षित ने कहा कि प्रदेश में मनरेगा के तहत 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला है। हाल में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी इसी किस्म के आरोप लगाए और इसकी सीबीआई जाँच की माँग भी की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने इस घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय पर सीधे आरोप लगाए हैं। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के घोटालों को लेकर सीएजी की कोई रपट भी जल्द आने वाली है। प्रदेश में तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्या के बाद से उत्तर प्रदेश की ग्रामीण स्वास्थ्य योजना को लेकर कांग्रेस पार्टी लगातार आलोचना कर रही है।

Friday, December 9, 2011

असमंजसों से घिरे समाज का ठंडा बस्ता

खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश का मामला भले ही स्थगित माना जा रहा हो, पर यह एक तरीके से होल्डबैक नहीं रोल बैक है। यह मानने का सबसे बड़ा कारण है इस स्थगन की समय सीमा का तय न होना। यूपीए सरकार के खाते में यह सबसे बड़ी पराजय है। यूपीए-1 के दौर में न्यूक्लियर डील को लेकर सरकार ने वाम मोर्चे के साथ बातचीत के कई दौर चलाने के बाद सीधे भिड़ने का फैसला किया था। ऐसा करके उसने जनता की हमदर्दी हासिल की और वाम मोर्चा जनता की नापसंदगी का भागीदार बना। इस बार सरकार विपक्ष के कारण बैकफुट पर नहीं आई बल्कि सहयोगी दलों के कारण उसे अपना फैसला बदलना पड़ा। अब दो-तीन सवाल हैं। क्या सहयोगी दल भविष्य में इस बात को स्वीकार कर लेंगे? आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के संदर्भ में कांग्रेस और बीजेपी लगभग एक जैसी नीतियों पर चलते हैं। क्या बीजेपी खुदरा बाजार में विदेशी पूँजी के निवेश पर सहमत होगी? क्या अब कोई फॉर्मूला बनेगा, जिसके तहत विदेशी निवेश को चरणबद्ध अनुमति दी जाएगी? और क्या अब उदारीकरण पूरी तरह ठंडे बस्ते में चला जाएगा?

Monday, December 5, 2011

बंद गली में खड़ी कांग्रेस



कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरदास दासगुप्त का कहना है कि रिटेल में एफडीआई के फैसले को स्थगित करने का फैसला भारत सरकार का है, बंगाल सरकार का नहीं। इसकी घोषणा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। दो रोज पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे थे कि यह फैसला सुविचारित है और इसे वापस लेने की कोई सम्भावना नहीं है। ममता बनर्जी ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का हवाला देकर कहा है कि जबतक इस मामले में सर्वानुमति नहीं होती यह फैसला स्थगित रहेगा। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार का दृष्टिकोण संसद में व्यक्त किया जाएगा। संसद का सत्र चल रहा है मैं कोई घोषणा नहीं कर सकता। बुधवार को पता लगेगा कि सरकार क्या कह रही है, पर लगता है कि यूपीए ने अपना मृत्युलेख लिख लिया है। क्या सरकार अपनी पराजय की घोषणा करने वाली है? मनमोहन सरकार के सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कार्यक्रमों में से एक के ठंडे बस्ते में जाने के राजनीतिक संदेश साफ हैं। इसके आगे के सुधार कार्यक्रम अब सामने आ भी नहीं पाएंगे।

Friday, December 2, 2011

रिटेल बाजार खुलने से आसमान नहीं टूट पड़ेगा

ऐसा नहीं कि हमारे खुदरा कारोबार में बड़े प्लेयर पहले से नहीं थे। बिग बाजार, स्पेंसर, मोर और ईजी डे के स्टोर पहले से खुले हुए हैं। ईज़ी डे का पार्टनर पहले से वॉलमार्ट है। दुनिया की कौन सी चीज़ हमारे उपभोक्ता को उपलब्ध नहीं है। फर्क अब यह पड़ेगा कि मल्टी ब्रांड स्टोर खोलने में विदेशी कम्पनियाँ भी सामने आ सकेंगी। परोक्ष रूप में भारती-वॉलमार्ट पहले से मौजूद है। क्या हम यह कहना चाहते हैं कि देशी पूँजी पवित्र और विदेशी पूंजी पापी है? बेशक हमें अपने उत्पादकों के हित भी देखने चाहिए। वॉलमार्ट अपनी काफी खरीद चीन से करके अमेरिकी उपभोक्ता को सस्ते में पहुँचाता है। हमारे उत्पादक बेहतर माल बनाएंगे तो वह भारतीय माल खरीदेगा। हमें उनसे नई तकनीक और अनुभव चाहिए। आप देखिएगा भारतीय कारोबारी खुद आगे आ जाएंगे। नए शहरों और छोटे कस्बों में इतना बड़ा बाजार है कि वॉलमार्ट उसके सामने बौना साबित होगा। वस्तुतः सप्लाई चेन का गणित है। यदि बिचौलिए कम होंगे तो माल सस्ता होगा और किसान को प्रतियोगिता के कारण बेहतर कीमत मिलेगी। इसके अलावा भी अनेक तर्क हैं। तर्क इसके विपरीत भी हैं, पर यह फैसला ऐसी आफत नहीं लाने वाला है जैसी कि साबित की जा रही है। हमें देखना यह चाहिए कि आर्थिक गतिविधियों का लाभ गरीबों तक पहुँचे। आर्थिक गतिविधियों को रोकने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। इन बातों के पीछे की राजनीति को भी पढ़ने की कोशिश करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने रिलायंस फ्रेश स्टोर नहीं खुलने दिए बाकी खुलने दिए। इससे क्या हासिल हुआ? और क्या साबित हुआ?

लगता है संसद का शीत सत्र भी हंगामों की भेंट चढ़ जाएगा। खुदरा कारोबार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सरकारी नीति के विरोध में खिंची तलवारें बता रही हैं कि इस मामले का समाधान जल्द नहीं निकलेगा। आर्थिक उदारीकरण के शेष बचे कदम उठाने की कोशिशें और मुश्किल हो जाएंगी। राजनीतिक भ्रम की यह स्थिति देश के लिए घातक है। उदारीकरण को लेकर हमारे यहाँ कभी वैचारिक स्पष्टता नहीं रही। दो दशक के उदारीकरण का अनुभव एक-तरफा संकटों और समस्याओं का भी नहीं रहा है। उसके दो-तरफा अनुभव हैं। इस दौरान असमानता, महंगाई और बेरोजगारी की जो समस्याएं उभरी हैं वे उदारीकरण की देन हैं या हमारी राज-व्यवस्था की अकुशलता के कारण हैं? इस राजनीतिक अराजकता में शामिल सभी दल किसी न किसी रूप में उदारीकरण की गंगा में स्नान कर चुके हैं, पर मौका लगते ही वे इसके विरोध को वैतरणी पार करने का माध्यम समझे बैठे हैं।