Friday, December 9, 2011

असमंजसों से घिरे समाज का ठंडा बस्ता

खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश का मामला भले ही स्थगित माना जा रहा हो, पर यह एक तरीके से होल्डबैक नहीं रोल बैक है। यह मानने का सबसे बड़ा कारण है इस स्थगन की समय सीमा का तय न होना। यूपीए सरकार के खाते में यह सबसे बड़ी पराजय है। यूपीए-1 के दौर में न्यूक्लियर डील को लेकर सरकार ने वाम मोर्चे के साथ बातचीत के कई दौर चलाने के बाद सीधे भिड़ने का फैसला किया था। ऐसा करके उसने जनता की हमदर्दी हासिल की और वाम मोर्चा जनता की नापसंदगी का भागीदार बना। इस बार सरकार विपक्ष के कारण बैकफुट पर नहीं आई बल्कि सहयोगी दलों के कारण उसे अपना फैसला बदलना पड़ा। अब दो-तीन सवाल हैं। क्या सहयोगी दल भविष्य में इस बात को स्वीकार कर लेंगे? आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के संदर्भ में कांग्रेस और बीजेपी लगभग एक जैसी नीतियों पर चलते हैं। क्या बीजेपी खुदरा बाजार में विदेशी पूँजी के निवेश पर सहमत होगी? क्या अब कोई फॉर्मूला बनेगा, जिसके तहत विदेशी निवेश को चरणबद्ध अनुमति दी जाएगी? और क्या अब उदारीकरण पूरी तरह ठंडे बस्ते में चला जाएगा?


जैसा कि लग रहा है सभी पार्टियों का ध्यान फिलहाल पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के चुनावों पर है। कम से कम कांग्रेस, बीजेपी, सपा, बसपा और अकाली दल इस वक्त चुनाव को मोड में हैं। अकाली दल एफडीआई के पक्ष में रहा है, पर इस वक्त बीजेपी के दबाव में उसने अपना समर्थन वापस ले लिया। पर उसे अपने किसान वोटर के बीच इस सवाल का जवाब देना होगा। भाजपा का बड़ा आधार शहरी व्यापारी है, पर केवल शहरी व्यापारियों की पार्टी नहीं है। भाजपा उदारीकरण के विरोध में नहीं बोल रही है, बल्कि इस नीति के विश्लेषण पर जोर दे रही है। उदारीकरण के तमाम पहलू हैं। मसलन बीजेपी राजमार्गों के विस्तार कार्यक्रम की गति धीमी करने से नाराज है। नागरिक उड्डयन इन्फ्रास्ट्रक्चर में विदेशी निवेश के सवाल भी बाकी हैं। भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा के प्रश्न भी सामने खड़े हैं। दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से किए गए वादे भी पूरे होने हैं।

हाल में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा कि अतिशय लोकतंत्र हमेशा स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह बात दिल्ली में कही गई थी और पृष्ठभूमि में रिटेल में एफडीआई का मामला था इस लिए सहज ही समझ में आता है कि आशय भारत का लोकतंत्र है। ऐसा कहा जाता है कि चीन में आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें सरकार मनमर्जी फैसले कर सकती है। किसी किस्म का राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। इसी तरह सिंगापुर में हुई आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। सिंगापुर में आज भी छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं। राजनीति सिर्फ थोड़े से लोगों तक सीमित है। हमारे यहाँ लोकतंत्र काफी बिखरा हुआ है। वह इतना बिखर गया है कि किसी काम को होने नहीं देता। गठबंधन की राजनीति ने इस बिखराव को और बढ़ा दिया है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इस परिस्थिति की कल्पना नहीं की थी।

क्या यह हमारी राजनीतिक संस्कृति के कारण है? या सत्तारूढ़ दल की अपरिपक्वता के कारण? या जनता के अज्ञान के कारण? नासमझ और लोभी मीडिया बिजनेस के कारण? या कई प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक समूहों की उपस्थिति के कारण? जवाब जो भी है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारा समाज जैसा भी है, वैसी ही व्यवस्था होगी। और व्यवस्था के हिसाब से समाज भी बदलेगा। हर फैसले या गलती का एक सबक होता है। महत्वपूर्ण है सबक सीखना। कई दशक के अनुभव के बाद हमने भी समाधान के फॉर्मूले तैयार किए हैं। और हर संकट का समाधान भी निकलता रहा है।

सबसे बड़ा अनुभव यह है कि महत्वपूर्ण फैसले बैकरूम बातचीत के बाद ही लागू होते हैं। इस बातचीत में कई तरह के व्यक्ति और संस्थाओं की शिरकत होती है। इस विमर्श में ज्यादा खुलकर विचार व्यक्त किए जाते हैं और अक्सर दुश्मन नज़र आने वाले एक-दूसरे को रास्ता बताते हैं। सत्ता की बैकरूम बातचीत के अलावा जनता के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान भी इस बातचीत को बढ़ाता है। हाल की घटनाओं को देखें तो लगता है कि दोनों किस्म के संवाद में हम गच्चा खाते हैं। एफडीआई रिटेल का कार्यपालिका का फैसला मामूली फैसला नहीं था। और यह फैसला स्टेकहोल्डरों की कंसेसस से होना था तो इसका इलहाम अब क्यों हुआ? एक ओर प्रधानमंत्री घोषणा करते हैं कि फैसला बदला नहीं जाएगा। दूसरी ओर बंगाल की मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि फैसला स्थगित कर दिया गया। कौन ज्यादा ताकतवर है? हर पार्टी अंक बटोरना चाहती है। उसके अस्तित्व का सवाल है।

जीवन में हम बेहद आदर्शवादी हैं। गांधी के नाम की कसमें खाते हैं। करीब जाने पर मोहभंग होता है। अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन से हमने अपनी पूरी राजनीतिक-प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था ली। उस पर चलते हैं और उसे कोसते भी हैं। हर बात में ईस्ट इंडिया कम्पनी नज़र आती है। अपने आप को उतना ही कमजोर मानते हैं, जितना चार सौ साल पहले थे। हमें वैश्विक बदलाव की दिशा को समझना चाहिए। रिटेल में एफडीआई की आलोचना सुनकर लगता है कि इसमें सारा पाप ही पाप है। समूचा वैश्वीकरण पाप भरा है। भारतीय मध्य वर्ग का उदय भी पाप है। सबको गरीब रहना चाहिए। सारे देश को केवल गाँव होना चाहिए। इसके विकल्प में आ रही व्यवस्था को हम ऊँची इमारतों, रोशनियों और चमक-दमक के रूप में देखते हैं। देश का हर मुख्यमंत्री अपने शहर को सिंगापुर बनाने का दावा करता है। पर व्यावहारिक रूप में वह आर्थिक खुलेपन का विरोधी होता है।

अभी हम समझ नहीं पाए हैं कि हमें खेतिहर समाज बने रहना है या शहरीकरण होना है। औद्योगीकरण की जरूरत है या नहीं। इसमें पूँजी की क्या भूमिका होगी? यह पूँजी सरकारी क्षेत्र में हो या प्रइवेट क्षेत्र में दोनों में क्या फर्क है? वैश्विक पूँजीवाद किधर जा रहा है। हम चौड़े-चौड़े हाइवे बनाना चाहते हैं। किसलिए? उनपर बड़े ट्रक और गाड़ियाँ हीं चलेंगी। हर शहर अपने यहाँ मेट्रो चलाना चाहता है। मेट्रो चलेगी तो रिक्शे वालों का क्या होगा? दिल्ली में ऑटो चालकों को विलेन के रूप में दर्शाने वाले लोग क्यों नहीं मानते कि वे भी हमारी तरह के इंसान हैं। हमने कोऑपरेटिव सेक्टर में दूध डेयरियाँ बनाईं। इससे छोटे दूधियों का कारोबार तो गया। इन दिनों देश में जो महंगाई है उसमें सबसे बड़ी भूमिका इन डेयरियों की हैं। उनके दाम पेट्रोल के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़े हैं। आटा चक्कियाँ गईं। उन्हें चलाने वाले संगठित नहीं हैं। मझोले व्यापारी संगठित हैं। छोटे और बड़े कारोबार का द्वंद वैश्विक परिघटना है। वॉलमार्ट का इतिहास देखें तो चार दशक पुराना है। एक पिद्दी सी संस्था इतनी बड़ी बन गई। एक बड़े संगठन की बड़ी ताकत होती है। पर बड़े संगठन के दोष भी होते हैं। इस दौरान दुनिया में तमाम बड़े संगठन धराशायी भी हुए हैं। देसी और विदेशी पूँजी का चरित्र अलग-अलग होता है यह समझ पूरी तरह सही नहीं है। कई अंतर्विरोधी बातों पर गौर करने की ज़रूरत है। जैसे समाजवाद के आदर्श हैं वैसे ही पूँजीवाद के आदर्श भी हैं। पर जैसे समाजवाद के व्यहार में दोष हैं उसी तरह क्रोनी कैपीटलिज्म भी एक सत्य है। कई बार हम सिद्धांत के तर्क देते हैं और कई बार व्यवहार के।

फिलहाल हम राज्य के मार्फत काम कर रहे हैं। उसके समाजवादी व्यवहार को हमने देखा। अब उसके पूँजीवादी स्वरूप को देख रहे हैं। इस दौरान इसका रूपांतरण या संश्लेषण भी हो रहा है। कोई व्यवहार शुद्ध नहीं है। इस रूपांतरण में हमारी और आपकी भूमिका है। आने वाली कई पीढ़ियों की भूमिका होगी। इतिहास का बस्ता ठंडा नहीं गरम होता है।

1 comment:

  1. सटीक अभिव्यक्ति...सहमत हूँ ... आभार

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