Saturday, March 10, 2012

अखिलेश को सलाह


अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने की सुगबुगाहट के साथ ही उन्हें मीडिया ने सलाह देना शुरू कर दिया है। उन्हें फर्स्ट पोस्ट ने सलाह दी है कि राहुल द्रविड़ की तरह बैटिंग करना। महाभारत की तरह अखिलेश को पहला विरोध घर के भीतर से ही झेलना पड़ा है। आज इंडियन एक्सप्रेस के एसपी वर्सेज एसपी शीर्षक सम्पादकीय में अखिलेश को सलाह दी गई है कि कानून व्यवस्था को सुधारना होगा। सम्पादकीय में लिखा है कि  The emasculation of the superintendent of police was a defining feature of the last Mulayam government. In what has been described as its “goonda raj”, the independence and efficacy of the police administration was systematically chipped away to ensure political bosses held sway. For the aam aadmi, if he fell out of political favour, there was no recourse as the thana was virtually outsourced to ruling party toughies and strongmen. When Mayawati was voted to power in 2007, her mandate came riding not on the back of the innovative “social engineering” attributed to the BSP chief, but on the widely shared revulsion against a regime that

Friday, March 9, 2012

विदेशी टिप्पणियाँ

हाल के चुनाव परिणामों पर कुछ विदेशी पत्र-पत्रिकाओ में टिप्पणियाँ प्रकाशित हुईं हैं, उनमें से कुछ ने ध्यान खींचा है। इन्हें पढ़कर देखें। कृपया लिंक पर जाकर हर टिप्पणी को विस्तार से पढ़ें

A welcome slap in the face
After India’s equivalent of mid-term elections, prospects dim for Congress and economic reform. But Indian democracy is in rude health
Voters, too, seem to like it. Turnout soared everywhere. In UP it rose from 46% in 2007 to around 60%. Elsewhere it reached 80%. An extra 24m people voted in the five states. That undercuts populist supporters of Anna Hazare, an anti-graft campaigner, who last year suggested that elected politicians are discredited in India. It is encouraging, too, that women are ever keener to take part: in all five states, female voters substantially outnumbered males.

Thursday, March 8, 2012

उत्तर प्रदेश से रिकॉर्ड मुस्लिम विधायक

मुस्लिम राजनीति का अध्ययन करने वालों के लिए यह रोचक सूचना होगी। उत्तर प्रदेश विधानसभा में इस बार 69 मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं। यह संख्या पिछली बार (55) से ज्यादा है बल्कि अब तक का रिकॉर्ड है। अनुपात के रूप में कुल विधायकों में से 17.12 प्रतिशत विधायक मुसलमान हैं। इसका मतलब है कि प्रदेश की मुसलमान जनसंख्या के अनुपात में मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं। इनमें से 43 विधायक समाजवादी पार्टी के, 16 बसपा के, 3 पीस पार्टी के, 2 कौमी एकता दल के, 4 कांग्रेस के और एक विधायक इत्तेहाद-उल-मिल्लत का है।


चुनाव के सबक

हर चुनाव का कोई सबक होता है और हर चुनाव ऐतिहासिक होता है। पार्टियों का व्यवहार बताता है कि सबक कितनी ईमानदारी से लिया गया। इस बार के चुनाव में खास तौर से उत्तर प्रदेश में एंटी इनकम्बैंसी का फायदा लेने के लिए सिर्फ सपा ही तैयार नज़र आई, कांग्रेस और भाजपा कभी इस दौड़ में दिखाई नहीं दी। इसी बीजेपी का गोवा नेतृत्व सत्ता हाथ में लेने को तैयार नज़र आया। पंजाब में अमरेन्द्र सिंह भी विकल्प के रूप में आगे नहीं बढ़े। देश के चुनींदा अखबारों की सम्पादकीय टिप्पणियाँ दो बातों की ओर इशारा कर रही हैं। एक तो यह कि ये परिणाम कांग्रेस के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा दुखद हैं और दूसरे सत्तापक्ष के बराबर ही विपक्ष की भूमिका होती है। उसका काम है सत्ता की कमज़ोरियों पर से पर्दा उठाना। लोकतंत्र का काम तभी पूरा होता है। हिन्दू के सम्पादकीय में इस बात की ओर इशारा किया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की निगाह में इस चुनाव ने पहचान की राजनीति को परास्त किया है। कहना मुश्किल है कि सपा और बसपा ने इस संदेश को ग्रहण किया है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार समाजवादी पार्टी को अब कमान अखिलेश के हाथों में सौंप देनी चाहिए।

Wednesday, March 7, 2012

इस ‘जीत’ के पीछे है एक ‘हार’


दावे हर पार्टी करती है. पर सबको यकीन नहीं होता। समाजवादी पार्टी को यकीन रहा होगा, पर इस बात को खुलकर मीडिया नहीं कह रहा था। वैसे ही जैसे 2007 में नहीं कह पा रहा था। फिर भी यह चुनाव समाजवादी पार्टी की जबर्दस्त जीत के साथ-साथ बसपा, कांग्रेस और भाजपा की हार के कारण भी याद किया जाएगा। इन पराजयों के बगैर सपा की विजय-कथा अपूर्ण रहेगी। साथ ही इसमें भविष्य के कुछ संदेश भी छिपे हैं, जो राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनों के लिए हैं।

यह वोट बसपा की सरकार के खिलाफ वोट था। वैसे ही जैसे पिछली बार सपा की सरकार के खिलाफ था। जिस तरह मुलायम सिंह पिछली बार नहीं मान पा रहे थे लगता है इस बार मायावती भी नहीं मान पा रहीं थीं कि हार सिर पर मंडरा रही है। सरकार को बेहद मामूली काम करना होता है। सामान्य प्रशासन। उसके प्रचार वगैरह की ज़रूरत नहीं होती। और न आलोचनाओं से घबराने की ज़रूरत होती है। छवि को ठीक रखने के लिए सावधान रहने की जरूरत होती है।

Friday, March 2, 2012

कुदानकुलम में नादानियाँ

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की दो बुनियादी बातें थीं। पहली थी स्वतंत्रता और दूसरी आत्म निर्भरता। स्वतंत्रता का मतलब अंग्रेजों की जगह भारतीय साहबों को बैठाना भर नहीं था। स्वतंत्रता का मतलब है विचार-अभिव्यक्ति, आस्था, आने-जाने, रहने, सभाएं करने वगैरह की आज़ादी। इसमें लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिरोध की स्वतंत्रता बेहद महत्वपूर्ण है। सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास तब तक सम्भव नहीं जब तक नागरिक को प्रतिरोधी स्वर व्यक्त करने की आज़ादी न हो। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को जिस तरह कानूनी संरक्षण दिया गया है वह विलक्षण है, पर व्यवहार में वह बात दिखाई नहीं पड़ती। 1947 से आज तक यह सवाल बार-बार उठता है कि जनांदोलनों के साथ हमारी व्यवस्था और पुलिस जिस तरह का व्यवहार करती है क्या वह अंग्रेजी सरकारों के तरीके से अलग है?

सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के अनुयायियों पर हुए लाठी चार्ज की निन्दा करके और दिल्ली पुलिस पर जुर्माना लगाकर इस बात को रेखांकित किया है कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। उसके साथ छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। संविधान में मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी हैं, पर धारा 144 जैसे अधिकार सरकारों को खास मौकों पर निरंकुश होने का मौका देते हैं। रामलीला मैदान में सोते व्यक्तियों पर लाठी चार्ज बेहद अमानवीय और अलोकतांत्रिक था, इसे अदालत ने स्वीकार किया है। यह आंदोलन किस हद तक शांतिपूर्ण था या उसकी माँगें कितनी उचित थीं, यह विचार का अलग विषय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की भी मर्यादाएं हैं। आंदोलन के अराजक और हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर सरकारी मशीनरी की अराजकता तो और भी भयावह है।