Thursday, May 3, 2012

हाईस्पीड रेलगाड़ियाँ यानी तेज रफ्तार शहरीकरण




शहरीकरण समस्या है या समस्याओं का समाधान है? पहली बात यह कि आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र शहर हैं, गाँव नहीं हैं। दूसरे खेती में क्रांति के लिए भी औद्योगिक क्रांति की ज़रूरत है। खेती में विकास दर बढ़ भी जाए, पर गाँवों के विकास का रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। गाँवों से शहर आए लोग तमाम दिक्कतों से जूझने के बावजूद गाँव वापस नहीं जाना चाहते। पर शहरीकरण विषमता और तमाम समस्याएं लेकर आता है। हमें मानवीय चेहरे वाले शहरीकरण की ज़रूरत है, जो प्रदूषण मुक्त हो और जहाँ गरीबों को सम्मान और सुख से जीने के साधन मुहैया हों। 

सब ठीक रहा तो अब किसी भी समय दिल्ली से मेरठ, पानीपत और अलवर के लिए तेज गति से चलने वाली ट्रेनों के कॉरीडोर बनाने की योजना की शुरूआत हो सकती है।
भारत सरकार और एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने इस सिलसिले में काफी काम कर लिया है। इसे रीजनल रैपिड ट्रांसमिट सिस्टम का नाम दिया गया है। जिस तरह दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली शहर को भीतर से जोड़ा है उसी तरह यह दिल्ली को आसपास के छोटे शहरों से जोड़ेगी। देश के शहरी विकास की दिशा में यह एक बड़ा कदम होगा। इन ट्रेनों को सन 2016 तक शुरू करने की योजनी है। इन गाड़ियों की तकनीक अपेक्षाकृत सामान्य है, जैसी तकनीक हमारे पास पहले से मौजूद है। पर हम अब रेल परिवहन के बुलेट ट्रेन युग में प्रवेश करने जा रहे हैं। अगले दो तीन महीनों के भीतर नेशनल हाईस्पीड रेल अथॉरिटी बनाने की घोषणा भी हो जानी चाहिए। 300 किमी प्रति घंटा से ज्यादा की स्पीड से चलने वाली रेलगाड़ियाँ चलाने के लिए मेगा कार्यक्रम तैयार हो चुके हैं। इसके लिए छह कॉरीडोर चुने गए हैं। लखनऊ से दिल्ली की यात्रा दो घंटे के भीतर पूरी कराने वाली रेलगाड़ियाँ जिन्हें आम शब्दावली में बुलेट ट्रेन कहा जाता है इसी दशक में चलने लगेंगी।


दूसरे विश्व युद्ध में तबाह हो चुके जापान ने 1964 के ओलिम्पिक खेलों के मार्फत अपने पुनर्निर्माण को शोकेस किया था। जापानी समाज ने जबर्दस्त मेहनत की थी और नए निर्माण को बुलेट ट्रेन के प्रतीक के रूप में पेश किया था। तब से दुनिया के तमाम देशों में हाई स्पीड ट्रेन नेटवर्क विकसित हुए हैं। जर्मनी, फ्रांस और स्पेन की हाईस्पीड ट्रेन दुनिया भर में मशहूर हैं। इनके अलावा इंग्लैंड, बेल्जियम और इटली में भी ऐसी गाड़ियाँ चलती हैं। एशिया में चीन और ताइवान में ऐसी गाड़ियाँ चल रही हैं। चूंकि इतनी तेज गाड़ियाँ चलाने की तकनीक और आधार ढाँचा अलग किस्म का होता है और इसमें बहुत बड़ी पूँजी की जरूरत होती है इसलिए काफी तैयारी की ज़रूरत है। भारत में जिन छह कॉरीडोर को चुना गया है उसके लिए तकरीबन साढ़े तीन हजार किलोमीटर की नई लाइनों पर ये ट्रेन चलेंगी। चीन में 4326 किमी लम्बी लाइनों पर ऐसी गाड़ियाँ चल रहीं हैं और 6696 किमी पर काम चल रहा है। पर यहाँ बात रेलवे लाइनों की नहीं, शहरी विकास की है। भारत के पास इस वक्त करीब 64 हजार किमी का रेलवे नेटवर्क है जो दुनिया में तीसरे नम्बर का नेटवर्क है। देश के तमाम शहरों का विकास रेलवे स्टेशनों के साथ हुआ है। रेलवे न होता तो वे शहर भी न होते। 

दिल्ली-मेरठ कॉरीडोर बनने के बाद मेरठ से गाजियाबाद के बीच दस नए शहरों का विकास होगा। यहाँ नए पोस्ट ऑफिस, थाने, अस्पताल, स्कूल, बाजार, सिनेमाघर और मॉल बनेंगे। ये दस शहर आसपास के गाँवों से जुड़ेंगे। सड़कों का नया जाल बिछेगा। इसके समानांतर सड़क परिवहन का नया तंत्र विकसित होगा। और ऐसा ही आने वाले वर्षों में लखनऊ, भोपाल, पटना, जयपुर, रांची, रायपुर वगैरह के आसपास होगा। आर्थिक-सामाजिक विकास का नया नक्शा हमारे सामने है। शहरीकरण इसकी अनिवार्य परिणति है। दूसरा रास्ता है गाँव-गाँव विकास लेकर जाना। उसके लिए न तो साधन हैं और न ढाँचा उपलब्ध है। आर्थिक विकास के नए केन्द्र शहरों में हैं। ये शहर ही आसपास के गाँवों को सहारा देंगे। सन 2001 में देश की 28.6 करोड़ आबादी शहरों में रहती थी। सन 2011 में यह बढ़कर 37.7 करोड़ हो गई है। गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। विकास के लिए ज़रूरी आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र शहरों में विकसित हो रहे हैं। गाँव वे सुविधाएं मुहैया नहीं करा सकते जो व्यक्ति को चाहिए। और इतनी बड़ी जनसंख्या को जीवन के साधन मुहैया कराने के लिए खेती का सहारा अपर्याप्त होगा। ऐसा नहीं कि रातों-रात खेतिहर व्यवस्था खत्म होकर शहरी व्यवस्था शुरू हो जाएगी, पर उसकी दिशा यही है। उम्मीद है कि सन 2031 तक देश की तकरीबन 60 करोड़ आबादी शहरों में रहने लगेगी।

दिल्ली के आसपास के इलाके को एनसीआर कहा जाता है। नेशनल कैपीटल रीज़न। हाल में रियल्टी फर्म नाइट फ्रैंक का रपट थी कि यह एनसीआर देश का सबसे बड़ा आवास बाजार बन गया है। एनसीआर में बने भवनों की संख्या मुम्बई, चेन्नई, बेंगलुरु, कोलकता और हैदराबाद में बने कुल मकानों की तादाद से ज्यादा है। दुनिया भर में आर्थिक मंदी के बावजूद एनसीआर के सम्पत्ति बाजार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इस साल शुरू हुई नई परियोजनाओं में से 34 फीसदी अकेले ग़ाज़ियाबाद में हैं। इसके बाद गुड़गाँव और नोएडा का नम्बर है। नोएडा के आसपास काफी परियोजनाओं पर काम रुका हुआ है। भूमि अधिग्रहण को लेकर काफी मामले अदालतों तक गए हैं। बावजूद इसके नई परियोजनाओं में कमी नहीं है। रपट में कहा गया कि सन 2012 में ही 86000 नए आवास बाजार में आ गए हैं। मार्च 2012 तक कराब पाँच लाख मकान निर्माण के किसी न किसी चरण में थे। इन नए रेल कॉरीडोरों के बनने के बाद क्या होगा इसकी आप कल्पना करें। कमोबेश यही स्थिति देश के दूसरे शहरों के आसपास होगी। ज़रूरत इस बात की है कि इन शहरों के आधार ढाँचे में सुधार हो। परिवहन, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं बढ़ाई जाएं।

शहरीकरण की अपनी गति को देखें तो पाएंगे कि हम दुनिया से काफी पीछे हैं। अब भी हमारी तकरीबन 30 फीसदी आबादी शहरी है। चीन सहित ज्यादातर विकासशील देशों से हम इस मामले में पीछे हैं। पिछले दो साल हमने उत्तर प्रदेश के कई शहरों में नई सीवर लाइन पड़ने का काम देखा। सन 2005 में शुरू हुए जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूवल मिशन (जेएनयूआरएम) के अंतर्गत यह काम हुआ था। तमाम शहरों में इस किस्म के आधार ढाँचे को विकसित करने की ज़रूरत है। ज्यादातर शहरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था लगभग शून्य है। हर शहर मेट्रो चाहता है। अब चुनाव के वादों में मेट्रो बनाने का वादा सबसे ऊपर होता है। इससे स्थानीय निकायों की भूमिका भी बढ़ी है। जेएनयूआरएम के अनेक काम अब स्थानीय निकायों को मिलने वाले हैं। इससे शहरी गतिविधियाँ और बढ़ेंगी।

सन 1991-92 में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) में खेती का हिस्सा 29.4 फीसदी था जो 2011-12 में 14 फीसदी रह गया है। इसमे गिरावट आती जाएगी। इसकी वजह यह है कि आर्थिक गतिविधियों से जुड़े ज्यादातर नए काम गैर-खेतिहर हैं। खेती के तौर-तरीकों में भी बुनियादी स्तर पर बदलाव की ज़रूरत है। खासतौर से अनुसंधान के क्षेत्र में। हमारे यहाँ कृषि से जुड़ा वैज्ञानिक अनुसंधान कृषि विश्वविद्यालय कर रहे हैं। इन्हें बाजार से जोड़ने की ज़रूरत है। पर खेती का बाज़ार भी शहरों में ही है। शहरों में सिर्फ रहने के लिए मकान, अस्पताल और स्कूल ही नहीं चाहिए। वहाँ रोजगार के अवसर भी चाहिए। काफी अवसर शहरीकरण से जुड़े अवस्थापना के काम में होते हैं। लगातार होता निर्माण काफी आबादी को रोजगार देगा। ऊँचे स्तर पर इंजीनियरों, प्रबंधकों, डॉक्टरों और शिक्षकों के अलावा निचले स्तर पर मिकेनिकों, इलेक्ट्रीशियनों, ऑटोमोबाइल मिकेनिकों, प्लम्बरों, रेफ्रीजरेशन मिकेनिकों जैसे तमाम लोगों की जरूरत है। इसके लिए बड़ी संख्या में आईटीआई यानी इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट चाहिए।

शहरीकरण बड़ी संख्या में रोजगार पैदा करता है। वह औद्योगिक उत्पादों की माँग भी बढ़ाता है। उसमें तमाम दोष हैं। वह प्रदूषण पैदा करता है, अपराध बढ़ाता है, इंसान को अकेला कर देता है, सामाजिक-सांस्कृतिक दोष पैदा करता है। पर सामाजिक संचार, शिक्षा के प्रसार और नए मूल्यों का विस्तार भी शहरीकरण में छिपा है। परम्परा से सामंती अन्याय के शिकार सामाजिक वर्गों को अपनी नई पहचान बनाने और अपनी काबिलियत के सहारे आगे बढ़ने का मौका भी शहर देता है। पर हमारी दृष्टि गाँव और शहर के संदर्भ में नहीं होनी चाहिए। शहरों का विकास बदलाव का अनिवार्य हिस्सा है। हमें इस बदलाव को बेहतर तरीके से अंजाम देने की योजना बनानी चाहिए। हजारों साल पहले सभ्यताओं का विकास इसी तरह हुआ था जब घुमक्कड़ और शिकारी समुदायों ने किसी जगह टिककर रहना शुरू किया था। यह भी एक दौर है।
जनवाणी में प्रकाशित



2 comments:

  1. Bahut hi sulza hua lekh....accha laga...aap sahi kehte hai.

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  2. shahrikaran ek samsyaa hai par loktantra kai prayogo mai gaon bhi vikraal samsyaon se grasit hai ,

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