Monday, May 7, 2012

एक और झंझावात से गुजरता नेपाल


दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान और पाकिस्तान से लेकर बर्मा तक और मालदीव से नेपाल तक तकरीबन हर देश में राजनीतिक हलचल है। हालांकि बर्मा को भू-राजनीतिक भाषा में दक्षिण पूर्व एशिया का देश माना जाता है, पर वह अनेक कारणों से हमेशा हमारे करीब रहेगा। भारत इन सभी देशों के बीच में पड़ता है और इस इलाके का सबसे बड़ा देश है। पर हमारा महत्व केवल बड़ा देश होने तक सीमित नहीं है। इन सभी देशों की समस्याएं एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं।
सबसे बड़ी समस्या आर्थिक विकास से जुड़ी है। आर्थिक विकास के तार इन देशों की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं से जुड़े हैं। यह इलाका विचित्र विडंबनाओं से घिरा है। एक ओर यहाँ दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था काम करती है वहीं मानव विकास के मामले में यह इलाका दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है। हजारों साल पुरानी हमारी सभ्यता इस इलाके को एकता प्रदान करती है वहीं आपसी सहयोग के मामले में यह इलाका सबसे फिसड्डी है। इस इलाके में बना क्षेत्रीय सहयोग संगठन सार्क दुनिया का सबसे फिसड्डी सहयोग संगठन है। विडंबना यह भी है कि भारत के मीडिया को जितनी फिक्र अमेरिका की होती है उतनी अपने पड़ोस की नहीं। बहरहाल हम कोशिश करेंगे कि एक-एक कर पड़ोस के सभी देशों पर नज़र डाली जाए। पर सबसे पहले नेपाल की बात करनी चाहिए।

पिछले छह-सात साल से नेपाल भीषण राजनीतिक झंझावात झेल रहा है। नेपाल के नागरिकों को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि वे धीरे-धीरे क तार्किक परिणति की ओर बढ़ रहे हैं। उम्मीद इस महीने के अंत तक यह देश अपने लिए एक नए संविधान की रचना पूरी कर लेगा और फिर उसके एक साल के भीतर नए चुनाव के मार्फत नई सरकार बना लेगा। केवल सरकार ही नहीं पूरे देश का पुनर्गठन होने जा रहा है। देश में कितने प्रदेश होंगे, उनके नाम क्या होंगे और उनके तथा संघीय सरकार के रिश्ते किस प्रकार के होंगे वगैरह। पिछले गुरुवार की रात गुरुवार की रात सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के के मंत्रियों ने सरकार से इस्तीफा दे दिया। माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार गठित हो गई है, जो 27 मई के पहले नया संविधान लागू होने तक रहेगी। इसके बाद नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में एक और अंतरिम सरकार आएगी जो नई संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत चुनाव वगैरह का रास्ता खोलेगी। गुरुवार को हुई बैठक में बैठक में 27 मई तक की समय सीमा के अंदर नया संविधान लागू करने के लिए राष्ट्रीय एकता वाली सरकार के गठन के लिए पांच सूत्रीय समझौते पर सहमति हुई है। नई संवैधानिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री का सीधे निर्वाचन होगा या संसद उसे चुनेगी ऐसे सवालों पर फैसला भी अगले कुछ रोज में हो जाना चाहिए। नेपाल में मिश्रित व्यवस्था शब्द बहुत ज्यादा प्रचलन में है, पर यह मिश्रित क्या होगा अभी कोई समझ नहीं पा रहा है।

समझौते के मुताबिक संविधान का मसौदा तैयार होने के बाद नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनेगी जो एक साल के भीतर देश में संसदीय चुनाव कराएगी। संविधान का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया प्रधानमंत्री भट्टराई के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान ही पूरी होगी। संविधान लागू करने के लिए उसे राष्ट्रपति रामबरन यादव को सौंपे जाने के बाद भट्टाराई अपना पद छोड़ देंगे।

देश में इस वक्त चार प्रमुख राजनीतिक ताकतें हैं। ये हैं माओवादी, नेपाली कांग्रेस, कम्यनिस्ट पार्टी एमाले और मधेशी मोर्चा। ताजा सहमति पर माओवादी पार्टी के प्रमुख पुष्प दहल कमल उर्फ प्रचंड, नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला, एमाले के अध्यक्ष झाला नाथ खनल और मधेसी जन अधिकार मंच-जनतांत्रिक के बिजय कुमार गच्छादर ने हस्ताक्षर किए।

नेपाल में मई 2010 तक संविधान तैयार हो जाना चाहिए था, पर संविधान सभा का कार्यकाल चार बार बढ़ाया गया। अब नए संविधान को लागू करने के लिए 27 मई तक की समय सीमा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अवधि को और आगे न बढ़ाने का फैसला किया है। देश में 2006 में गृह युद्ध खत्म होने के बाद राजशाही की जगह गणतांत्रिक व्यवस्था लागू तो हो गई, पर अराजकता और अस्थिरता जारी रही। यह अराजकता प्रशासनिक स्तर पर है। वहीं माओवादियों की हथियारबंद सेना का सवाल लम्बे अरसे तक विवाद का विषय बना रहा। इन्हें छुट्टा छोड़ा नहीं जा सकता था। नेपाली सेना इन्हें जगह देने को तैयार नहीं थी। इनका राजनीतिक दृष्टिकोण और अनुशासन दिक्कत तलब बातें हैं। राजशाही के पतन के बाद इन्हें छोटी-छोटी छावनियाँ बनाकर उनमें रख दिया गया। हाल में इन छावनियों का सेना के साथ एकीकरण का फैसला किया गया है। सेना एक महत्वपूर्ण विषय है। माओवादी प्रधानमंत्री प्रचंड सिर्फ इसी कारण से सेनाध्यक्ष रुक्मांगद कटवाल को बर्खास्त करना चाहते थे और राष्ट्रपति रामबरन यादव ने ऐसा नहीं होने दिया।

देश के अलग-अलग वर्ग अपने लिए अलग राज्य माँग रहे हैं। हाल में दक्षिणी तराई के जनकपुर शहर में हुए धमाके देश के पुर्नगठन की समस्या की ओर इशारा कर रहे हैं। विस्फोट से हताहतों में वे लोग शामिल हैं जो मिथिला प्रांत की मांग कर रहे हैं। उस इलाके में मधेसियों की संख्या काफी हड़ी है। वे भारत से लगने वाले मैदानी इलाकों में मधेस प्रांत की मांग कर रहे हैं। देश के कई हिस्सों में आंदोलन, विरोध प्रदर्शन और यहां तक कि हड़तालें भी होती रहीं। लोग परस्पर विरोधी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। राजधानी काठमांडू में भी जातीयता के आधार पर प्रांत बनाने की मांग को लेकर प्रदर्शन हुए हैं। देश के सुदूर पश्चिम जनजीवन इसलिए ठप हो गया क्योंकि वहाँ की माँग है कि पुनर्गठन के दौरान उनके इलाके को छुआ न जाए। मुसलमान इस बात को लेकर आंदोलन कर रहे हैं कि नए संविधान में उनकी पहचान को सुरक्षित करने के लिए उपाय किए जाए। ब्राह्मण और क्षत्रिय माँग कर रहे हैं कि संविधान में उन्हें ‘हाशिए पर’ न डाला जाए।

देश को ढर्रे पर लाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका राजनीतिक दलों की है। वे आमराय बनाकर कई समस्याओं के समाधान खोज सकते हैं। पर पार्टियों के भीतर भी मतभेद हैं। माओवादी पार्टी में प्रचंड को नापसंद करने वाले नेता भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष मोहन बैदा किरण फिर से क्रांति शुरू करना चाहते हैं। उनका आरोप है कि पार्टी चेयरमैन प्रचंड ने अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ एक के बाद एक समझौते करके हमारे साथ “विश्वासघात” किया है। पूर्व माओवादी सैनिकों को नेपाली सेना के हवाले करने के काम को भी वे गलत मानते हैं। क्या यह तत्व पर्याप्त शक्तिशाली है? इसके लिए इस महीने के अंत तक इंतज़ार करना होगा। बहरहाल वहाँ अब हर दिन महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगले कुछ रोज घटनाक्रम तेजी से बदलेगा।  सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

कांतिपुर डॉट कॉम

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