Monday, June 4, 2012

जीवन और समाज से टूटी राजनीति

हिन्दू में केशव का कार्टून
देश के हालात पर नज़र डालें तो निराशा नज़र आएगी। दो साल पहले तक हम आर्थिक विकास को लेकर मगरूर थे। आम जनता की परेशानियों की ओर न तो सरकार का ध्यान था और न राजनीतिक दलों का। यों भी राजनीति का विचारों और कार्यक्रमों से रिश्ता टूट चुका है। अब सिर्फ जोड़-तोड़ का गणित है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा चुनाव जीतने का कौशल माने रखता है। दूसरे यह राजनीति घूम फिर कर कुछ परिवारों का खेल बन गई है। एक अरसे से हम क्षेत्रीय दलों के उभार को देख रहे हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति ने इसकी शुरूआत की थी। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश के अलावा हिमाचल और उत्तराखंड को छोड़ दें तो आपको तकरीबन हर प्रदेश में क्षेत्रीय क्षत्रपों का राज दिखाई पड़ेगा। इसका क्या मतलब है और क्या इसमें हमारे लिए दीर्घकालीन संदेश छिपे हैं? और जिस तरीके से आर्थिक नीतियों में लुका-छिपी का खेल चल रहा है उसकी परिणति क्या है? हमें अक्सर एक शब्द सुनाई पड़ता है इन्क्ल्यूसिव ग्रोथ। यह क्या है और क्या इसे हासिल करने वाली राजनीति विकसित हो पाई है?

सत्तर के दशक में जब पंजाब में आनन्दपुर साहब प्रस्ताव को लेकर शिरोमणि अकाली दल ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों का विस्तार किया था, तब यह एक वैचारिक मसला था। भारतीय संघ में केन्द्र और राज्यों की भूमिका क्या हो, इसे लेकर बहस थी। देश की विशालता और बहुलता को देखते हुए हमें मजबूत केन्द्र की ज़रूरत थी और राज्यों की भागीदारी की भी। कांग्रेस के पराभव की शुरूआत 1967 के चुनाव से हो गई थी, पर 1977 के पहले उसके समांतर कोई राजनीतिक शक्ति राष्ट्रीय स्तर पर विकसित नहीं हो पाई। 1977 में भी जनता पार्टी के नाम से जो गठबंधन सामने आया उसके पास कोई तयशुदा विचार नहीं था। केवल जनता की नाराज़गी का संबल था। देखते ही देखते यह जमावड़ा बिखर गया। उसके बाद 1989 में फिर से एक गैर-कांग्रेस सरकार बनी, पर वह भी अंतर्विरोधों से भरी थी। कांग्रेस का वास्तविक विकल्प 1998 में सामने आया जब जॉर्ज फर्नांडिस ने गैर-कांग्रेसी ताकत के रूप में भाजपा को चिह्नित किया, बावजूद बाबरी मस्जिद को गिराने के कारण बिगड़ी हुई छवि के। एनडीए की सरकार 2004 तक चली। और 2004 में एनडीए सरकार हारी तो उसकी तमाम वजहों में से एक उदारीकरण की नीतियों को लेकर नकारात्मक प्रचार भी था। एनडीए के जाने के बाद वे नीतियाँ खत्म नहीं हो गईं, बल्कि आजतक जारी हैं।

सन 1991 से 2004 तक देश की सरकारें उन दो महत्वपूर्ण परिवारों के प्रभाव क्षेत्र के बाहर थीं, जो आज देश की राजनीति के सबसे बड़े कारक हैं। एक, नेहरू गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बेशक बीजेपी-नीत सरकार थी, पर वह एक दौर था जब देश की भगवा ब्रिगेड एक व्यापक राजनीति के तकाज़ों के कारण अपने साम्प्रदायिक नख-दंत छिपाकर रखने को मज़बूर थी। एनडीए ने 2004 के चुनाव में तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के गठबंधनों को करते वक्त सावधानी बरती होती तो शायद परिणाम कुछ और होते। बहरहाल हम घूम-फिरकर 1991 के हालात की ओर वापस लौट रहे हैं। आर्थिक नीतियों और राजनीति के संदर्भ में भी। हालांकि विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति काफी बेहतर है, पर नीतियों के मामले में या तो अब हमें एक और छलांग लगानी है या वापस जाना है। दोनों के लिए जिस ताकतवर राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति की ज़रूरत है, वह गायब है। सन 1991 में उदारीकरण की नीति हमारा सायास निर्णय नहीं था। एक कमजोर राजनीतिक शक्ति की पहल थी।

बहरहाल इस वक्त सवाल यह है कि जब केन्द्र में कांग्रेस पार्टी कमज़ोर हो रही है तब उसकी जगह लेने के प्रयास में कोई पार्टी या गठबंधन क्यों सामने नहीं आता? आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों बीजेपी की मुम्बई में हुई कार्यकारिणी की बैठक का मुख्य विषय यह नहीं था कि मौके का फायदा कैसे उठाया जाए, बल्कि नरेन्द्र मोदी का आगमन था। क्या यह बीजेपी का भावी राजनीति की दिशा है? पर सवाल केवल बीजेपी का नहीं है। पिछले बीस साल में हमारी अर्थ व्यवस्था ने अपने हितों को पूरा करने के लिए हर तरह के हथियारों से लैस एक ताकतवर कॉरपोरेट सेक्टर तैयार कर लिया है। भारत की आर्थिक-विकास कथा अभी कम से कम एक-डेढ़ दशक तक और लिखी जाएगी। और इस दौरान सफलताओं के नए क्षितिज खुलेंगे, साथ ही घोटालों की नई-नई कहानियाँ भी सुनाई पड़ेंगी। नियमन, नियंत्रण और कानून बाद में बनते हैं। पहले उनकी ज़रूरत पैदा होती है। इस ज़रूरत की पहचान करना और व्यवस्थित करना राजनीति का काम है। इस लिहाज से राष्ट्रीय राजनीति के लिए यह चुनौतियों की बेला है।

चुनौती की इस बेला में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों पर नज़र डालें तो साफ दिखाई पड़ता है कि दोनों की दिलचस्पी चुनौतियों से निपटने में नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि 1984 में भाजपा के सिर्फ दो सांसद जीतकर आए थे। आज तो हम नौ राज्यों में सत्तारूढ़ हैं। संसद के दोनों सदनों में हमारी उपस्थिति अच्छी है, फिर भी पार्टी के भीतर का मूड उत्साह से भरा नहीं है। आडवाणी जी को अपनी वेदना सार्वजनिक रूप से क्यों व्यक्त करनी पड़ी? पार्टी के भीतर क्या विमर्श का कोई मंच नहीं है? पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का काम नरेन्द्र मोदी, बीएस यदुरप्पा, वसुन्धरा राजे और संजय जोशी वगैरह-वगैरह की नाराज़गी दूर करना रह गया है। पार्टी के तबेले में लतिहाव है। और कांग्रेस में निरुत्साह। देश की अर्थ-व्यवस्था संकट में है और वित्त मंत्री अपने काम से मुक्त होकर राष्ट्रपति भवन के लॉन में विश्राम करना चाहते हैं।

तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ परिवारवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। हाल में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक लम्बे अरसे बाद इंग्लैंड के दौरे पर गए तो पार्टी में उनकी पीठ पीछे बगावत हो गई। हालांकि बगावत जल्द दबा दी गई, पर इससे क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर चल रहे लोकतंत्र पर रोशनी भी पड़ती है। लगता है पूरी व्यवस्था परिवार केन्द्रित है। इन दिनों कांग्रेस पार्टी आंध्र में अपने पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर के परिवार से दो-चार हो रही है। 12 जून को आंध्र में नेल्लोर लोकसभा और 18 विधानसभा सीटों के उपचुनाव हैं। इनमें 16 सीटें वे हैं जो वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन करने वाले विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के कारण खाली हुई हैं। अंदेशा इस बात का है ज्यादातर सीटें जगनमोहन रेड्डी की पार्टी को मिलेंगी। वाईएसआर परिवार को सोनिया गांधी ने ही बढ़ावा दिया। अब वाईएसआर की छवि "गरीबों के मसीहा" से ज्यादा भ्रष्ट नेता की है। किसने बनाया उन्हें नेता?

तमिलनाडु की दोनों पार्टियाँ परिवार केन्द्रित या व्यक्तिवादी हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस केवल एक नेता के सहारे है। महाराष्ट्र में शिवसेना पारिवारिक पार्टी है। आंध्र में तेदेपा भी पारिवारिक पार्टी ही है। पंजाब में अकाली दल उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा और बिहार में जदयू काफी हद तक व्यक्ति या परिवार केन्द्रित पार्टियाँ हैं। जब तक ये लोकप्रिय हैं उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती। राजनीति में ऐसे परिवार हर देश में होते रहे हैं, पर हमारे यहाँ स्थिति कुछ फर्क है। अक्सर यह राजनीति पारिवारिक झगड़ों की शक्ल लेती है। जैसा पंजाब में मनप्रीत बादल और महाराष्ट्र में राज ठाकरे के साथ हुआ। क्या यह राजनीति आधुनिक भारत की महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती है?

क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय सवालों को लेकर आती हैं। हाल में एनसीटीसी के मसले को लेकर ममता बनर्जी के नेतृत्व में क्षेत्रीय पार्टियों ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। इस बगावत के पीछे सामने-सामने तो क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल थे, पर व्यावहारिक राजनीति दबाव की थी। भाजपा के नरेन्द्र मोदी ने अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं की शुरुआत एनसीटीसी के प्रश्न से ही की। उन्होंने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता को साथ लेकर इस सवाल को राष्ट्रीय प्रश्न बना दिया और एनसीटीसी का मामला ठंडे बस्ते में चला गया। ऐसा ही कुछ खुदरा बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को लेकर हुआ। अब तक केन्द्र सरकार की हिम्मत इसे वापस लाने की नहीं है। तमिलनाडु में कुडानकुलम नाभिकीय बिजलीघर का मामला भी इसी प्रकार की क्षेत्रीय राजनीति के दबाव में है। इस मामले के पर्यावरण और पुनर्स्थापना से जुड़े मसले भी हैं, पर उनके बारे में कोई गम्भीर विमर्श नहीं हो पाता है। सन 1991 में हमने उदारीकरण की जो राह पकड़ी उसपर साजर्वजनिक विमर्श नहीं हुआ और आज भी वह विमर्श अनुपस्थित है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की भारतीय राजनीति को इसके बारे में सोचना चाहिए।
स्वतंत्र भारत में प्रकाशित

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