Monday, June 25, 2012

तख्ता पलट बतर्ज पाकिस्तान-पाकिस्तान


सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

पाकिस्तान में इन दिनों अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कोई कहता है कि फौज टेक ओवर करेगी। दूसरा कहता है कि कर लिया। युसुफ रज़ा गिलानी से शिकायत बहुत से लोगों को थी, पर जिस तरीके से उन्हें हटाया गया, वह बहुतों को पसंद नहीं आया। कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें हटाने में फौज की भूमिका भी है। भूमिका हो या न हो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सहयोगी दल एमक्यूएम ने कुछ दिन पहले ही कहा था कि फौज को बुला लेना चाहिए। फिलहाल सवाल यह है कि मुल्क में जम्हूरियत को चलना है या नहीं। बहरहाल राजा परवेज़ अशरफ को चुनकर संसदीय व्यवस्था ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है। इसके पहले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मख्दूम शहाबुद्दीन को इस पद के लिए प्रत्याशी बनाया था। पर अचानक एक अदालत ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वॉरंट जारी कर दिया और प्रत्याशी बदल दिया। क्या यह सिर्फ संयोग था? इस विषय पर कुछ देर बाद बात करेंगे।


राजा परवेज़ देश के पच्चीसवें प्रधानमंत्री हैं। 65 साल में बमुश्किल पन्द्रह साल चले जम्हूरी निज़ाम में 25 वज़ीरे आज़म। भारत में इसके मुकाबले 16 प्रधानमंत्री हुए है। वह भी तब जबकि 15 अगस्त 1947 से अब तक नागरिक सरकार रही है। पाकिस्तान के पूरे लोकतांत्रिक इतिहास पर नज़र डालें वहाँ 14 अगस्त 1947 से 7 अक्तूबर 1958 तक सात प्रधानमंत्री आए और गए। पहले प्रधानमंत्री की हत्या हुई। उसके बाद नाम के ही प्रधानमंत्री हुए। भारत का संविधान 1949 में तैयार होकर 1950 में लागू भी हो गया, पर पहले पाकिस्तानी संविधान को लागू होने में नौ साल लगे। 1956 में लागू होने के दो साल बाद राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने फौजी शासन लागू कर दिया। यह दुनिया में अपने किस्म अनोखा कारनामा था। नागरिक सरकार का राष्ट्रपति कह रहा था कि लोकतंत्र नहीं चलेगा। इस कारगुजारी का इनाम तीन हफ्ते के भीतर जनरल अयूब खां ने इस्कंदर मिर्ज़ा को बर्खास्त करके दिया और खुद राष्ट्रपति बन गए। फौजी हुकूमत के पहले कदम।

पाकिस्तान का पहला संविधान दो साल में रफा-दफा हो गया। सन 1962 में दूसरा और फिर 1973 में तीसरा संविधान बनाया गया जो आज लागू है। कट्टरपंथी ताकतों ने असुरक्षा का माहौल बना रखा है। हालांकि आज़ादी के बाद से भारत की व्यवस्था अद्वितीय नहीं रही, पर भूमि सुधार, ज़मींदारी उन्मूलन, स्थानीय निकायों का विकास, स्त्री अधिकार और सामाजिक न्याय वगैरह के रास्ते पर जाने की कोशिश तो की। और इसके लिए लोकतांत्रिक प्रणाली और चुनाव को माध्यम बनाया। पाकिस्तान ने इसकी कोशिश नहीं की बल्कि लोकतंत्र को बेहूदा चीज़ साबित करने की कोशिश की।

हालांकि पाकिस्तान इस वक्त कट्टरपंथ की जकड़ में है और दुनिया के सबसे खतरनाक इलाकों में उसका शुमार है, पर वहाँ की सिविल सोसायटी का क्रमिक विकास भी हो रहा है। पाकिस्तान की तमाम दिक्कतें जम्हूरियत से जुड़े उसके खराब अनुभवों के कारण है। उसके पहले वास्तविक आम चुनाव 1970 में हुए, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग को बहुमत मिला। अवाम ने अपना काम कर दिया, पर जम्हूरियत को यह मंज़ूर नहीं हुआ। हालांकि मुल्कको तोड़ने की तोहमत भारत पर लगती है, पर बड़ी ज़िम्मेदारी तो राजनीति की थी। हाल के सुप्रीम कोर्ट प्रकरण के पीछे नवाज़ शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग(एन) और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ हैं। इन दोनों पार्टियों को गिलानी की गर्दन ज़रूरत थी। उन्होंने यह नहीं देखा कि कौन सी परम्परा पड़ रही। करप्शन मुल्क की सियासत के ज़र्रे-ज़र्रे में है। बेनज़ीर भुट्टो और ज़रदारी पर आरोप हैं, नवाज़ शरीफ और उनके परिवार पर भी हैं। नवाज़ शरीफ भाग्यशाली हैं वर्ना जिस तरह ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी दी गई थी उसी तरीके से उन्हें भी मिल सकती थी। उम्र कैद तो हो ही गई थी।

लोकतंत्र समय के साथ मज़बूत होता है। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ जब भी लोकतंत्र आया तो उसे चलने नहीं दिया गया और जितनी बार फौजी सरकार आई न्यायपालिका ने कभी गैर-कानूनी करार नहीं दिया। युसुफ रज़ा गिलानी को पद से हटाने का आदेश देने वाली अदालत में मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार चौधरी समेत अनेक जज ऐसे हैं, जिन्होंने परवेज़ मुशर्रफ की फौजी सरकार को वैधानिक करार दिया था। आज अचानक सुप्रीम कोर्ट अपने उत्साह का प्रदर्शन कर रहा है। तकरीबन छह हजार सुओ मोटो मामलों की सुनवाई उसने शुरू कर दी है। इतने ऊँचे स्तर पर नैतिकता और ईमानदारी के प्रदर्शन के साथ व्यावहारिकता का प्रदर्शन भी होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यों के पीठ ने युसुफ रज़ा गिलानी को तौहीने अदालत का दोषी पाया, पर पद से हटने की निर्देश नहीं दिया। उस वक्त लगा कि अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र को सांकेतिक रूप से कहने के बाद इसे छोड़ दिया है। यह स्वाभाविक था। अनेक फैसले जनता को करने हैं, उसे करने दो। उस फैसले के बाद अचानक तीन जजों की बेंच ने प्रधानमंत्री को पद से हट जाने का आदेश दे दिया। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री को इस तरह हटाए जाने का मामला कम से कम आधुनिक लोकतंत्र में अजूबा है। पर पाकिस्तान अजब देश है।

नए प्रधानमंत्री के लिए नाम तय करते वक्त राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने अपनी पार्टी के सांसदों की बैठक में कहा था कि अदालत ने नए प्रधानमंत्री से कहा कि स्विट्ज़रलैंड में ज़रदारी के खिलाफ मुकदमे खोलने के लिए चिट्ठी लिखें तो यह बात नहीं मानी जाएगी। मतलब यह कि लड़ाई खत्म होने वाली नहीं है। और लड़ाई व्यक्तिगत नहीं संवैधानिक संस्थाओं के बीच है, जो देश के लिए शुभ लक्षण नहीं। क्या यह इफ्तिकार चौधरी की व्यक्तिगत लड़ाई है? शायद कट्टरपंथियों को लोकतंत्र नहीं सुहाता। उसके मुकाबले उन्हें फौज अच्छी लगती है।

अदालती अवमानना के मामले से पाकिस्तानी फौज का कोई रिश्ता नहीं, पर पिछले एक साल के घटनाक्रम को देखें तो यह ज़रूर समझ में आएगा कि फौज को कुछ बातें नागवार गुज़री हैं। ओसामा बिन लादेन की हत्या के कारण पाकिस्तान के फौजी प्रतिष्ठान को धक्का लगा था। सीआईए ने इस ऑपरेशन की खबर आईएसआई को नहीं दी और इस बात को अच्छी तरह प्रचारित किया। अमेरिका को समझ में आने लगा था कि सेना और नागरिक सरकार के बीच रिश्ते खराब हैं। और फिर एक दिन खबर आई कि अमेरिका स्थित पाकिस्तानी राजदूत हुसेन हक्कानी अमेरिकी प्रशासन तक इस आशय की चिट्ठी पहुँचाना चाहते हैं कि फौजी तख्ता पलट का खतरा है, मदद करो। बात में कितना दम था पता नहीं, पर सेना के दबाव में राजदूत को हटा दिया गया। इस बीच किसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका जाल दी। सेनाध्यक्ष परवेज कियानी और आईएसआई चीफ जनरल अहमद शुजा पाशा ने अदालत में जाकर दस्तावेज पेश भी किए। अदालत ने इस मामले पर सरकार की बार-बार खिंचाई की।

टकराव का इमकान तभी हो गया था जब प्रधानमंत्री गिलानी ने एक चीनी अखबार से कहा कि कहा कि सेनाध्यक्ष ने अदालत में खड़े होने के लिए हमसे अनुमति नहीं ली। इस साल के शुरू में जब रक्षा सचिव नईम खालिद लोधी ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर कहा कि सेनाध्यक्ष हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते तो प्रधानमंत्री ने इस काम को न सिर्फ ‘ग्रॉस मिसकंडक्ट’ कहा बल्कि उन्हें पद से हटा दिया। इसके बाद आईएसआई चीफ शुजा पाशा भी हटाए गए। यानी नागरिक सरकार अपने अधिकार क्षेत्र को लेकर दृढ़ता पूर्वक खड़ी होने लगी है। और यह बात फौजी जनरलों के गले नहीं उतर रही है। इसीलिए इन दिनों पाकिस्तान में यह चर्चा है कि तख्ता पलट हो सकता है। परवेज़ अशरफ के पहले पीपीपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मख्दूम शहाबुद्दीन थे। जिस दिन उनके नाम की घोषणा हुई उसी दिन उनके खिलाफ एक अदालत से वॉरंट ज़ारी हो गया। यह मुकदमा एंटी नारकोटिक्स फोर्स की ओर से दायर किया गया था जिसका प्रमुख सक्रिय फौजी अधिकारी होता है। इसलिए अंदेशा पैदा होता है। और यह समझ में आता है कि रिश्तों में गाँठ पड़ चुकी है। बाकी वक्त बताएगा।

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