Monday, November 5, 2012

राहुल, रिफॉर्म और भैंस के आगे बीन





गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को इस रैली से फायदा होगा, पर इससे नुकसान भी कुछ नहीं होने वाला। पार्टी के पास अब आक्रामक होने के अलावा विकल्प भी नहीं बचा था। उसकी अतिशय रक्षात्मक रणनीति के कारण पिछले लगभग तीन साल से बीजेपी की राजनीति में प्राण पड़ गए थे, अन्यथा जिस वक्त आडवाणी जी को हटाकर गडकरी को लाया गया था, उसी वक्त बीजेपी ने अपना भविष्य तय कर लिया था। रविवार को जब कांग्रेस रामलीला मैदान में रैली कर रही थी, तब दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी कुछ व्यापारियों के साथ भैस के आगे बीन बजा रहे थे। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी ने जो स्टैंड लिया है वह नकारात्मक है सकारात्मक नहीं। हमारी राजनीति में कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है। ज़रूरत इस बात की है कि सकारात्मक राजनीति हो। बहरहाल कांग्रेस को खुलकर अपनी बात सामने रखनी चाहिए। यदि राजनीति इस बात की है कि तेज आर्थिक विकास हमें चाहिए ताकि उपलब्ध साधनों को गरीब जनता तक पहुँचाया जा सके तो इस बात को पूरी शिद्दत से कहा जाना चाहिए। गैस के जिस सिलेंडर को लेकर हम बहस में उलझे हैं, उसका सबसे बड़ा उपभोक्ता मध्य वर्ग है। शहरी गरीब आज भी महंगी गैस खरीदते हैं, क्योंकि उनके पास केवाईसी नहीं है। घर के पते का दस्तावेज़ नहीं है। वे अपने नाम कनेक्शन नहीं ले सकते हैं और मज़बूरन छोटे सिलंडरों में बिकने वाली अवैध गैस खरीदते हैं। राहुल गांधी ने जिस सिस्टम की बात कही है, वह वास्तव में गरीबों का सिस्टम नहीं है। आम आदमी की पहुँच से काफी दूर है। पिछले साल दिसम्बर में सरकार ने संसद में Citizen's Charter and Grievance Redressal Bill 2011 पेश किया था। यह बिल समय से पास हो जाता तो नागरिकों को कुछ सुविधाओं को समय से कराने का अधिकार प्राप्त हो जाता। अन्ना हजारे आंदोलन के कारण कुछ हुआ हो या न हुआ हो जनता का दबाव तो बढ़ा ही है। यह आंदोलन व्यवस्था-विरोधी आंदोलन था। कांग्रेस ने इसे अपने खिलाफ क्यों माना और अब राहुल गांधी वही बात क्यों कह रहे हैं?

सवाल करने वालों का कहना है कि पिछले 65 साल में ज्यादातर कांग्रेस ही सत्ता में रही है, तो क्या यह उसकी विफलता नहीं है? यहाँ से कांग्रेस कह सकती है कि बदलाव की पहल भी हमने की है। पंचायत राज, जानकारी पाने का अधिकार, ग्रामीण रोज़गार कार्यक्रम, शिक्षा का अधिकार और अब आने वाले वक्त में खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने में महत्वपूर्ण पहल कांग्रेस की रही है। कांग्रेस के बाद जिस पार्टी ने केन्द्र में सबसे ज्यादा राज किया वह है बीजेपी। इस बदलाव में बीजेपी का योगदान भी है। सर्वशिक्षा अभियान, राष्ट्रीय राजमार्गों का कार्यक्रम और आर्थिक सुधार के तमाम कार्यक्रम एनडीए के शासनकाल में आए। राजनीतिक रूप से गठबंधन सरकार को चलाने में भी बीजेपी का रिकॉर्ड कांग्रेस से अच्छा रहा, पर 2004 में पराजय के बाद बीजेपी ने कभी ऐसी कोशिश नहीं की कि वह दुबारा दिल्ली की गद्दी पर बैठे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक की दिलचस्पी जिस राष्ट्रवाद में है, उसमें अंग्रेजी राज के खिलाफ ज़िन्ना की भूमिका की तारीफ करना पाप है। पार्टी ने अपने सामाजिक बेस को सायास छोटा कर रखा है।  बहरहाल कॉमनवैल्थ गेम्स के साथ घोटालों की झड़ी लगने के साथ ही बीजेपी को किसी कोशिश के बगैर उपहार मिल गया। पर यह राजनीति नकारात्मक है।

राहुल गांधी को भाषण देने की कला नहीं आती और मनमोहन सिंह आम सभा और सेमिनार की वक्तृता को एक जैसा समझते हैं। तलफ्फुज़ की खामियों के बावज़ूद सोनिया गांधी इन दोनों से ज़्यादा प्रभावशाली लगती हैं, तो इसके दो कारण हैं। एक, उन्हें अपने नेतृत्व को लेकर पूरा आत्मविश्वास है और दूसरे एक लम्बे अनुभव के बाद उन्हें देश की राजनीति की समझ पैदा हो गई है। देश की राजनीति में इस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई वक्ता नहीं है जो बीस-बीस सेकंड लम्बे पॉज़ देकर अपनी बात कहे। आम आदमी से उसकी भाषा में बात करने का सलीका कांग्रेस के वर्तमान नेताओं को नहीं है, फिर भी 4 नवम्बर की रैली लगातार परास्त होती कांग्रेस में फिर से नई जान फूँकने में कामयाब है। और इसके दूरगामी परिणाम होंगे।

अरुण जेटली गलतफहमी में हैं कि कांग्रेस जन-विरोधी नीतियों को सही साबित कर रही है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियाँ लोक-लुभावन  मौकों पर चूकती नहीं। कांग्रेस की यह रैली एफडीआई के समर्थन में थी तो यह सफल नहीं थी, क्योंकि आर्थिक सवालों पर मनमोहन सिंह की बात सिर्फ अर्थशास्त्रियों के विमर्श का विषय हो सकती है। उनकी बात आम जनता को समझ में नहीं आती। जनता और मीडिया दोनों को ड्रामा चाहिए। यह रैली राजनीतिक थी। इसमें जनता की भागीदारी देखने वाले नासमझ हैं। इसमें कांग्रेस कार्यकर्ता थे, वे भी सरकारी मदद से आए थे। रैली का उद्देश्य कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना था, तो यह एक हद तक सफल थी। पर उद्देश्य कांग्रेस के मैनेजमेंट को परखना भी था। अरसे बाद कांग्रेस ने रैली की। अरसे बाद सोनिया गांधी ने दिल्ली के मंच से अपने विरोधियों को ललकारा।

पिछले कुछ समय से संकट से घिरी कांग्रेस ने पहले तृणमूल कांग्रेस को रास्ता दिखाकर अपने आत्मविश्वास और जोखिम उठाने की क्षमता को दिखा दिया था। फिर फटाफट कई फैसले किए। लगातार होते हमलों ने पार्टी को सोच-विचार के मोड में डाला। इन हमलों का परिणाम है कि पार्टी अब लड़ने की मुद्रा में है। इसका फायदा अगले लोकसभा चुनाव में मिलेगा या नहीं कहना मुश्किल है, पर इसके अलावा रास्ता भी नहीं था। आर्थिक व्यवस्था को चलाने के लिए जो निर्णय किए जाएंगे वे हमेशा लोकप्रिय नहीं होंते। सरकार ने सब्सिडी कम करने का जो फैसला किया है, वह न करके पेट्रोल के दाम घटा दिए जाते तो क्या समस्या का समाधान हो जाता?  आर्थिक उदारीकरण से कोई पार्टी नहीं बच सकती। हाँ अनियमितताओं और कॉरपोरेट घरानों को मुफ्त में मिली सुविधाओं को उचित नहीं ठहराया जा सकता। पर इस मामले में कांग्रेस के रिकॉर्ड के साथ बीजेपी के कामकाज की तुलना करें तो उसकी कमीज़ में भी दाग हैं।

यह तथ्य है या नहीं, पर जनता की समझ यही है कि राजनीति की कोठरी में कोयले ही कोयले हैं। बेहतर है पहले जनता के सामने अपनी छवि सुधारी जाए। राहुल गांधी सिस्टम की बात करते हैं, पर पहले उन्हें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि आम आदमी की पहुँच उन तक बने। कांग्रेस में नम्बर बढ़वाने की संस्कृति भी है। रविवार की रैली में गुलाबी पगड़ियाँ हुड्डा जी की व्यवस्था का दावा पेश कर रही थीं। इसका उन्हें फायदा मिलेगा या नुकसान कहना मुश्किल है। क्योंकि इस पार्टी में श्रेय लेने की कोशिश को पसंद नहीं किया जाता।अलबत्ता रैली में हरिय़ाणा और राजस्थान के मुकाबले उत्तर प्रदेश से आवक कम थी। इससे ज़ाहिर है कि सत्ता में रहना कितना ज़रूरी है। पर क्या हरियाणा और राजस्थान की चाभी क्या जनता ने हमेशा के लिए कांग्रेस को दे दी है?

यह रैली कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ा सकती है। मीडिया में पार्टी को चर्चा का विषय बना सकती है और बीजेपी को एक्सपोज़ भी कर सकती है, पर जनता के बीच कांग्रेस को लोकप्रिय बनाने का काम नहीं कर सकती। उसके लिए एकदम ज़मीनी स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। कांग्रेस की इस रैली में सरकारों की मदद से जितने लोग आए थे उससे ज्यादा लोग पिछले महीने एकता परिषद के बैनर तले ग्वालियर से दिल्ली की ओर पैदल चले आ रहे थे। जयराम रमेश ने आगरा पहुँच कर आश्वासन देकर उस यात्रा को वापस करा दिया। यदि वह यात्रा पूरी होती तो दिल्ली में 4 नवम्बर को ही ऐसी रैली होती जिसमें जनता की भागीदारी वास्तविक होती। वह रैली  पूड़ी-सब्जी के पैकेट, फ्री बस पर बैठकर दिल्ली की सैर करने वालों की रैली नहीं होती।

सच यह भी है कि दिल्ली की सरकार सत्याग्रह यात्राओं या नर्मदा बचाओ जैसे प्रतिरोधी आंदोलनों के सहारे नहीं चलतीं। उसके लिए कांग्रेस, बीजेपी, वाममोर्चे या दूसरी पार्टियों को ही आगे आना होगा। इस राजनीति में जबर्दस्त पाखंड है। इस पाखंड को दूर करने की ज़रूरत है। साथ ही मीडिया में इन सवालों पर खुली बहस भी होनी चाहिए। सिर्फ गाली-गलौज से काम भी नहीं चलता। 

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