Monday, April 15, 2013

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।
जेडीयू का मोदी विरोध मूलतः एक खास तरह की कबायद का हिस्सा है, जिसे भारत में सिद्धांत की राजनीति कहा जाता है। देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद का विरोध, समाजवाद और लोकतांत्रिक मूल्य कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। इन चार-पाँच सिद्धांतों के सहारे चार-पाँच सौ पार्टियाँ खड़ी हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के सैद्धांतिक आधार हैं। सबसे बड़ा सिद्धांत है मौकापरस्ती। वाम मोर्चा निजी पूँजी-विरोधी राजनीति करता है। पर जब बंगाल में आर्थिक तबाही सिर के ऊपर पहुँची तो वहाँ की सरकार ने वही सब किया जो मोदी के गुजरात में होता है। और ममता बनर्जी ने वाममोर्चा की रीति-नीति से ही उसे परास्त किया। यह भी संयोग है कि टाटा का कारखाना सिंगुर से हटा तो गुजरात में उसे जगह मिली।

पिछले दिनों फिक्की-महिलाओं को संबोधित करने के बाद नरेन्द्र मोदी की टीवी-18 के कार्यक्रम में राघव बहल के साथ लम्बी बातचीत हुई। राघव बहल ने कहा कि मोदी देश में अकेले राजनेता हैं जो मानते हैं कि सरकार का आकार छोटा होना चाहिए और उसे जीवन के तमाम क्षेत्रों से हट जाना चाहिए। यह धारणा केवल मोदी की नहीं है। सन 1991 में जो आर्थिक बदलाव हुआ उसके पीछे की मूल धारणा यही थी। पर वह बदलाव भारतीय राजनीतिक चिंतन का परिणाम नहीं था। कम से कम कांग्रेस के चिंतन के ठीक विरोधी काम वह हुआ था। आज भी कांग्रेस मनरेगा, भोजन का अधिकार, कैश ट्रांसफर और भूमि अधिग्रहण कानून के जिस स्वरूप को तैयार कर ही है वह मूलतः उस विचार के उलट है, जिस पर सरकार जा रही है। सिद्धांत और व्यवहार की यह खाई जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिलेगी। नरेन्द्र मोदी और भाजपा का राजनीतिक-आर्थिक दर्शन भी वही नहीं है, जो हम देख रहे हैं।

कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक-राजनीतिक दर्शन में अंतर खोज पाना मुश्किल काम है। राहुल गांधी ने कहा स्त्रियों का सशक्तीकरण होना चाहिए। मोदी ने कहा, हमने किया। राहुल ने कहा, सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। भाजपा ने कहा, हमारी राय भी यही है। पेट्रोलियम की कीमतों को खुले बाजार के हवाले करने का फैसला भाजपा ने किया था। कांग्रेस उसे अब लागू करने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस ने उदारीकरण शुरू किया। भाजपा ने उसे बढ़ाया। अंतर क्या है? भाजपा का सहारा हिन्दुत्व है और कांग्रेस का सामाजिक बहुलता। इस लिहाज से जेडीयू को कांग्रेस के साथ होना चाहिए। जेडीयू कहती है कि भाजपा किसी सेक्युलर व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करे। उसका आशय आडवाणी जी से है। पर आडवाणी जी पर तो बाबरी मस्जिद गिराने की तोहमत है, जिसकी प्रतिक्रिया में देशभर में दंगे हुए थे। उसकी नज़र में वे मोदी से ज्यादा सेक्युलर हैं।

नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने में भाजपा को भी संकोच है। पर पार्टी के भीतर उनका विरोध इस आधार पर नहीं है कि उनके राजकाज में ग्यारह साल पहले भयानक दंगा हुआ था, जिसमें भारी संख्या में मुसलमानों की हत्या हुई थी। विरोध व्यक्तिगत है, सैद्धांतिक नहीं। सन 1994 में जब जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार जनता दल से हटकर समता पार्टी बना रहे थे, तब उनकी धारणा थी कि जनता दल जातिवादी राह पर चला गया है। वह जनता दल के भीतर की व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा थी, कोई वैचारिक आधार नहीं था। वह लालू यादव के बढ़ते वर्चस्व की प्रतिक्रिया थी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जनता दल के सामाजिक आधार पर कब्जा कर चुके थे। यह सच है कि दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने भाजपा को जबर्दस्त ताकत दी। वह ताकत हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण से मिली थी। उस ध्रुवीकरण की काट मे जातीय राजनीति उभरी थी।

ओबीसी के उदय ने समाजवादी राजनीति को नई शक्ल दे दी। भाजपा के हिन्दुत्व ने उसे आंशिक सफलता दी थी, पूरी नहीं। भाजपा की रणनीति कांग्रेस का स्थान लेने की है। पर अपने कट्टर हिन्दुत्व के कारण वह यह जगह नहीं ले पाई। यह जगह लेने के लिए उसने एनडीए का सहारा लिया और मंदिर की माँग को स्थगित किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय क्रिकेट टीम को पाकिस्तान दौरे को मंजूरी देकर शिवसेना की कट्टरता को खुट्टल किया और कांग्रेस की उदार चादर खुद ओढ़ ली। सन 1967 में देश में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का उदय हुआ। इसके मूल विचारकों में राम मनोहर लोहिया भी थे। उस वक्त बनी संविद सरकारों में जनसंघ भी शामिल था। सन 1977 की जनता सरकार में भी वह था। और 1989 तक भाजपा किसी न किसी रूप में गैर-कांग्रेस राजनीति का हिस्सा थी। कांग्रेस को सत्ताच्युत करने के कई फॉर्मूले थे। मंडल, कमंडल और समाजवाद। कांग्रेस ने भी इन तीनों को किसी न किसी रूप में अपनाने की कोशिश की। अयोध्या में ताला तो कांग्रेस ने ही खुलवाया। शिलान्यास भी करवाया। कुर्सी पाने का तरीका कोई भी हो देश की हर पार्टी सिद्धांत से पीछे नहीं हटना चाहती। पर यह सिद्धांत दिखावा है। व्यावहारिक कारण कुछ और होते हैं।

दिसम्बर 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा कलंकित पार्टी थी। कोई उसके साथ नहीं आना चाहता था। ऐसे में जॉर्ज फर्नांडिस ने भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में चुना। सन 1996 के लोकसभा चुनाव में समता पार्टी ने भाजपा के साथ सहयोग किया था। पर 30 अक्टूबर 2003 को जनता दल, लोकशक्ति पार्टी और समता पार्टी ने मिलकर जब जनता दल युनाइटेड बनाया तब वह मूलतः लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के विरोध में था। जैसे-जैसे क्षेत्रीय छत्रप उभरेंगे, स्थानीय स्तर पर ध्रुवीकरण की ज़रूरत बढ़ेगी। इसीलिए अब दलित और ओबीसी राजनीति में भी ध्रुवीकरण हो रहा है। इसका कोई सैद्धांतिक दर्शन नहीं है। यह देश की अपनी विशिष्ट सामाजिक स्थिति का परिणाम है। कांग्रेस विरोध के अलावा राजद-विरोध भी जेडीयू की राजनीति का केन्द्रीय सिद्धांत है। राजद-एलजेपी को हराना अकेले नीतीश कुमार के बस की बात नहीं है। जेडीयू और एनडीए गठबंधन की विसंगति को इसी रोशनी में देखना चाहिए। बिहार में एनडीए टूटेगा तो राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण तेजी से होगा। साथ ही नरेन्द्र मोदी का प्रवेश हो जाएगा। क्या नीतिश कुमार ऐसा चाहते हैं? यह टूट केवल हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण नहीं करेगी, बल्कि ओबीसी राजनीति को भी उधेड़ देगी। अचानक कई समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे। नीतीश कुमार अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे केवल अपने मोदी-विरोध को दर्ज कराना चाहते हैं, सो करा दिया।

एक सम्भाना है कि जेडीयू का कांग्रेस से गठबंधन हो जाए। शायद यूपीए सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे दे। पर क्या इससे एनडीए टूट जाएगा? पहले यह देखना होगा कि दोनों साथ-साथ क्यों हैं? नीतीश कुमार और शरद यादव ने भाजपा का साथ देने का फैसला उस वक्त किया था, जब उसकी कमीज पर साम्प्रदायिकता के ताजा छींटे लगे थे। बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुए ज्यादा समय बीता नहीं था। सन 1996 के चुनाव में शिवसेना और हरियाणा विकास पार्टी के अलावा समता पार्टी का ही भाजपा के साथ तालमेल था। तब तक एनडीए बना भी नहीं था। यह साथ क्या सिर्फ नरेन्द्र मोदी के कारण टूट जाएगा?सच यह है कि भाजपा भी मोदी के नाम की घोषणा करने की स्थिति में नहीं है। उसे कम से कम कर्नाटक के चुनाव परिणाम का इंतज़ार करना होगा। यों भी मोदी के ‘गवर्नेंस’ और ‘ग्रोथ’ के फॉर्मूले पर पार्टी जा रही है, 2002 के दंगों के सहारे नहीं। एनडीए ने अपने सहयोगी दलों की इच्छा के अनुसार राम मंदिर को अपने एजेंडा से बाहर रखा है। जेडीयू ने मोदी विरोध का जो झंडा बुलंद किया है वह उसके गले की हड्डी बनता उसके पहले ही मामला टल गया। सम्भव है चुनाव के ठीक पहले यह मामला फिर उठे। अलबत्ता इस बार लोकसभा चुनाव में चुनाव-पूर्व के गठबंधनों के मुकाबले चुनाव-बाद के गठबंधन ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे। उसके बाद भारतीय राजनीति में सिद्धांतवादिता की पोल खुलेगी। देखते रहिए चुनाव तक।

Photo: Finally the govt finds a solution for drought-hit India!
सतीश आचार्य का कार्टून
हिन्दू में केशव का कार्टून

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