Sunday, July 14, 2013

इस फजीहत से नहीं रुकेगा आतंकवाद

इसी हफ्ते गृहमंत्री सुशील शिंदे ने बताया कि नेशनल काउंटर टैररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) के गठन का प्रस्ताव पूरी तरह खत्म कर दिया गया है। उसे देश की राजनीति खा गई। इन दिनों इंटेलीजेंस ब्यूरो और नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी तथा सीबीआई के बीच इशरत जहाँ के मामले को लेकर जवाबी कव्वाली चल रही है। सीबीआई के ऊपर आपराधिक मामलों की जांच की जिम्मेदारी है। और खुफिया एजेंसियों के पास देश के खिलाफ होने वाली आपराधिक गतिविधियों पर नजर रखने की। दुनिया के किसी देश की खुफिया एजेंसी नियमों और नैतिकताओं का शत-प्रतिशत पालन करने का दावा नहीं कर सकती। इसीलिए खुफिया एजेंसियों के कई प्रकार के खर्चों को सामान्य लेखा परीक्षा के बाहर रखा जाता है। उनकी गोपनीयता को संरक्षण दिया जाता है। बहरहाल इस मामले में अभी बहस चल ही रही थी कि बोधगया में धमाके हो गए। वहाँ तेरह बम लगाए गए थे, जिनमें से दस फट गए। यह सब तब हुआ जब खुफिया विभाग ने पहले से सूचना दे रखी थी कि बोधगया ही नहीं अनेक बौद्ध स्थलों पर हमला होने का खतरा है।
एक साल से ज्यादा हो गया है म्यांमार में साम्प्रदायिक हिंसा चल रही है। वहाँ के मुसलमानों पर बौद्ध चरमपंथियों के आक्रमण जारी हैं। देश की राजधानी रंगून तक फसाद फैल चुके हैं। पिछले साल मुम्बई में मुसलमानों की एक रैली हिंसक हो गई थी, क्योंकि इंटरनेट पर किसी ने म्यांमार और असम की हिंसा को लेकर भड़काऊ तस्वीरें डाल दी थीं। बौद्ध धर्मस्थलों पर हमलों का अंदेशा तब से ही था। अंदेशा पहले से था और खुफिया एजेंसियों ने भी अंदेशा जताया था। फिर भी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया, नरेन्द्र मोदी ने बिहार के कार्यकर्ताओं से जो टेलीकांफ्रेस की उसका बोधगया में हुए इन सीरियल ब्लास्ट के बीच कोई संबंध तो नहीं है?  उसमें मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सबक सिखाने की धमकी दी थी। और अगले ही रोज ये धमाके हो गए। देर रात एक टीवी एंकर से उन्होंने कहा, जब भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि शायद पुणे बेकरी विस्फोट के दोषियों ने बोधगया मंदिर परिसर की रेकी की थी, तब मैने यह बात कही कि भाई जाँच होने दीजिए। पहले से अनुमान मत लगाइए। सवाल है कौन सा राजनीतिक दल किससे क्या कह रहा है? धमाके अब राजनीतिक रंग ले रहे हैं।
क्या रविशंकर प्रसाद ने इस मामले को राजनीतिक रंग दिया था? सम्भव है। पर इसी साल जनवरी में दिल्ली पुलिस ने यह जानकारी दी थी कि इंडियन मुजाहिदीन से जुड़े लोगों से पूछताछ से पता लगा था कि उनके संगठन ने महाबोधि मंदिर में संभावित हमले के लिए रेकी की थी। दिल्ली पुलिस ने वे गिरफ्तारियाँ आईबी द्वारा दी गई सूचना के आधार पर की थीं। उस जानकारी में बोधगया के अलावा हैदराबाद में धमाकों की योजना का पता भी लगा था। फरवरी में वहाँ धमाके हो गए। और अब जुलाई में बोधगया में भी हो गए। सवाल है हम कर क्या रहे थे? यह जानकारी बिहार पुलिस के पास थी। अभी तमाम जानकारियों को सामने आना बाकी है, पर इसमें दो राय नहीं कि महाबोधि मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था लचर थी।
रविशंकर प्रसाद एक राजनीतिक चश्मे से देखते हैं और दिग्विजय सिंह दूसरे से। पर एक सामान्य भारतीय को किस चश्मे से देखना चाहिए? पिछले साल मुम्बई और कोलकाता में मुसलमानों की रैलियाँ हुईं। मुम्बई के मुसलमान म्यामांर के रोहिंग्या मुसलमानों की हत्या पर उत्तेजित थे। कोलकाता में 19 मुस्लिम संगठनों ने बांग्लादेश के युद्ध अपराधियों के समर्थन में रैली निकाली। रैली का मुद्दा था, बांग्लादेश में "इस्लाम खतरे में है।" वास्तव में मुसलमानों की भावना को समझने की जरूरत है। उनके साथ हमदर्दी भी होनी चाहिए। मुसलमान नौजवानों को बिना आधार के धमाकों के नाम पर गिरफ्तार किया जाना हमारी अकुशलता की निशानी है। साथ ही उन्हें भावनाओं के सहारे भरमाने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। उनकी समस्या भी वही है जो दूसरे भारतीय नौजवानों की है। भारतीय मुसलमान को म्यांमार के नाम पर भड़काने वालों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे पाकिस्तान में शिया नागरिकों की हत्या से सहमत हैं? पाकिस्तान में अहमदियों को मुसलमान नहीं माना जाता। उन्हें मस्जिदें तक बनाने नहीं दी जातीं। क्या यह ठीक है?
बोधगया धमाकों के पीछे हमारी अकुशलता, सुरक्षा के प्रति बेरुखी और इस सवाल पर काफी गहराई तक हो रही राजनीति जिम्मेदार है। बोधगया में तेरह बम रखने वाला ग्रुप इतना छोटा नहीं रहा होगा कि अपने निशान भी छोड़कर न गया हो। उसके समन्वय के सूत्रों की पड़ताल करने लायक तकनीकी क्षमता हमारे पास है। पर क्या हमारी सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल ऊँचा है? जिस देश की राजनीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संजीदगी नहीं होगी, वहाँ अच्छे परिणामों का आशा नहीं की जानी चाहिए। फरवरी में जब हैदराबाद के बम धमाके जब हुए हैं तब हमारी संसद का सत्र चल रहा था। धमाकों की गूँज संसद में सुनाई भी पड़ी और खत्म हो गई। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आतंकी गतिविधियाँ फिलंहाल हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इन्हें पूरी तरह खत्म करने का दावा नहीं किया जा सकता, पर समाधान खोजा जा  सकता है।

न्यूयॉर्क और लंदन से लेकर मैड्रिड तक धमाकों के मंज़र देख चुके हैं। भारत के मुकाबले अमेरिका आतंकवादियों का ज़्यादा बड़ा निशाना है, पर 9/11 के बाद अमेरिका ने दूसरा मौका इसी साल अप्रेल में बोस्टन में धमाका-परस्तों को दिया। और उस मामले के तार दो दिन के भीतर खोज लिए। बेशक हम उतने समृद्ध नहीं। भौगोलिक रूप से हमारी ज़मीन पर दुश्मन का प्रवेश आसान है। इन बातों के बावज़ूद हमें खुले दिमाग से कुछ मसलों पर विचार करना चाहिए। तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद छह शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। दिल्ली हाईकोर्ट धमाकों में भी कोई बड़ी प्रगति नहीं हो पाई। हैदराबाद और अब बोधगया मुँह चिढ़ा रहे हैं। कृपया कुछ कीजिए। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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