Thursday, September 26, 2013

सुरक्षा के गले में राजनीति का फंदा

जनरल वीके सिंह को लेकर विवाद आने वाले समय में बड़ी शक्ल लेगा. जाने-अनजाने राजनीति ने रक्षा व्यवस्था को अपने घेरे में ले लिया है, जिसके दुष्परिणाम भी होंगे. हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परम्परा है. फिर भी यह विवाद के घेरे में आ रही है तो जिम्मेदार कौन है? क्या हम सीबीआई या किसी दूसरी जाँच एजेंसी की मदद से ऐसे मामलों की जाँच करा सकते हैं? हाल में इशरत जहाँ मामले को लेकर खुफिया एजेंसियों और जाँच एजेंसियों की टकराहट सामने आई है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं. यह सब क्या व्यवस्था को साफ करने में मदद करेगा या हालात और बिगड़ेंगे? जनरल वीके सिंह का मामला सन 2004 के बाद दिल्ली में बनी यूपीए सरकार के साथ शुरू हुआ है. उसके पहले एनडीए के शासन में रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत के बीच भी विवाद हुआ था, जिसकी परिणति विष्णु भागवत की बर्खास्तगी में हुई थी. वर्तमान विवाद सन 2005 में जनरल जेजे सिंह की थल सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के बाद शुरू हुआ. इसका प्रस्थान बिन्दु वही नियुक्ति है और इसके पीछे सेना के भीतर बैठी गुटबाजी है.


विवाद की ताजा लहर का केन्द्र सेना की खुफिया इकाई के साथ जोड़ी गई टेक्निकल सर्विस डिवीजन (टीएसडी) और उसका ऑफ एयर सर्विलांस उपकरण है, जिसे नवम्बर 2010 में सिंगापुर से खरीदा गया और जो मार्च 2012 में नष्ट कर दिया गया. यह उपकरण मोबाइल टेलीफोनों से होने वाली बातचीत को सुनने और उनका विश्लेषण करने का काम करता था. इसका इस्तेमाल खासतौर से जम्मू-कश्मीर में आतंकी कार्रवाइयों पर नजर रखने के लिए किया जाता था. पर सरकारी सूत्रों की ओर से अनौपचारिक रूप से आरोप लगाए गए कि इसका इस्तेमाल रक्षामंत्री के दफ्तर की जानकारी हासिल करने के लिए किया गया. यों रक्षामंत्री आमतौर पर लैंडलाइन का इस्तेमाल करते हैं, जिसे यह उपकरण टैप नहीं करता. बहरहाल ऐसा कहा गया कि कि सेना ने इस उपकरण का अनधिकृत रूप से इस्तेमाल किया. बताया जाता है कि देश की तमाम खुफिया एजेंसियाँ और राज्य सरकारें भी ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल कर रही हैं. किसी को इसके इस्तेमाल का कानूनी अधिकार नहीं है. यों भी देश के इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ जैसी खुफिया एजेंसियों के तमाम काम कानूनन अपारदर्शी होते हैं. दुनिया भर में चलने वाले कोवर्ट ऑपरेशन या तो गैर-कानूनी होते हैं या देश की कुछ व्यवस्थाओं को सार्वजनिक तफतीश के दायरे से बाहर रखा जाता है. बहरहाल जनरल वीके सिंह के हटने के बाद नए सैनिक प्रशासन ने इसके कामकाज की जांच सैन्य अभियानों के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया से कराई. जाँच रपट मार्च के आसपास तत्कालीन रक्षा सचिव और अब सीएजी शशिकांत शर्मा को सौंपी गई थी. इस रपट को लीक होने में छह महीने लगे वह भी 15 सितंबर को मोदी की रेवाड़ी रैली के फौरन बाद. खबर 20 सितंबर के अखबार में छपी है, पर यह रपट उस अखबार के पास 17 सितंबर को भी थी. अखबार ने लिखा है कि 17 सितंबर को जनरल वीके सिंह से सम्पर्क करने का प्रयास किया गया था. राजनीति का प्रश्न इसे किसने बनाया?

रपट के लीक होने के बाद जनरल वीके सिंह ने कहा, कश्मीर के सभी मंत्रियों को सेना पैसा देती है. इस बात को जितना महत्व उमर अब्दुल्ला ने दिया उतना ही हुर्रियत ने भी दिया. हालांकि जनरल सिंह का आशय था कि कश्मीर में सेना सामाजिक सौहार्द्र के लिए भी काम करती है. ''यह रिश्वत नहीं होती और न उस पैसे का इस्तेमाल निजी हित में या किसी राजनीतिक हित में हुआ है. ऑपरेशन सदभावना के लिए पैसा दिया गया और यह पैसा सरकारी अधिकारियों को कश्मीर में विकास के कामों को अंजाम देने के लिए दिया जाता था.'' उन्होंने यह भी कहा कि ''सीक्रेट यूनिट मेरी निजी सेना नहीं थी.. आज सीमा पर जो भी घटनाएं हो रही हैं, वे नहीं होतीं, अगर इसे ख़त्म नहीं किया गया होता.'' यह यूनिट रक्षामंत्री की सहमति और उनकी जानकारी में बनाई गई थी.

यह बात समझ में नहीं आती कि इस डिवीजन के जरिए जम्मू-कश्मीर की सरकार गिराने की साजिश क्यों रची गई। पिछले साल अप्रेल में इसी अखबार ने खबर छापी थी कि 16 जनवरी को सेना की दो इकाइयों ने देश की राजधानी की ओर कूच किया था, जिनमें से एक हरियाणा के हिसार में तैनात मेकेनाइड इंफेंट्री इकाई और दूसरी उत्तर प्रदेश के आगरा में तैनात 50 पैरा ब्रिगेड थी. पिछले दो साल से अटकलबाजियों ने सेना को राजनीतिक विवाद का हिस्सा बना दिया है. बहरहाल उस वक्त जनरल सिंह ही नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रक्षामंत्री एके एंटनी ने भी उस खबर को सनसनीखेज और निंदनीय घोषित किया था. पर इस बार खबर छपने के अगले दिन ही सरकार ने उसकी पुष्टि कर दी.  

मीडिया के पास संवेदनशील जानकारियाँ कहाँ से आती हैं? जिन दिनों जनरल वीके सिंह का विवाद चल रहा था उन्हीं दिनों यह खबर भी सुनाई पड़ी कि जनरल सिंह की याचिका दाखिल होने के पहले सेना ने रक्षा मंत्रालय के उच्चाधिकारियों के बीच की बातचीत को उन्हीं उपकरणों के मार्फत सुना था, जिन्हें लेकर अब विवाद खड़ा हुआ है. उसके कुछ समय पहले जनरल वीके सिंह ने आरोप लगाया था कि रक्षा गुप्तचर एजेंसी के एक रिटायर्ड अधिकारी ने उन्हें ट्रक का सौदा पास करने के बदले 14 करोड़ की रिश्वत देने की पेशकश की थी. यह मसला अदालत में है और सीबीआई की ओर से अब इसे खत्म करने की प्रक्रिया चल रही है. सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा जो लीक हो गया.


सेना के भीतर जाति, समुदाय, क्षेत्रीय और रेजिमेंट की पहचान के आधार पर गुट बन गए हैं. सुप्रीम कोर्ट में पूर्व नौसेना प्रमुख, एलएन रामदास, पूर्व निर्वाचन आयुक्त एन.गोपालास्वामी और तीन पूर्व जनरलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी जनरल विक्रम सिंह की नियुक्ति को रोका जाए. उनके अनुसार सेना के पूर्व प्रमुख जनरल जेजे सिंह ने उत्तराधिकार की प्रक्रिया में इस तरह से हेर फेर की है कि वीके सिंह के स्थान पर सेना प्रमुख का पद विक्रम सिंह को मिले. याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि जो आरोप लगाए गए हैं उससे जुड़े हुए कोई प्रमाण नहीं हैं. जनरल जेजे सिंह की नियुक्ति 1 फरवरी 2005 को हुई थी. उस वक्त तीन नाम और भी चर्चा में थे. माना जाता है कि जनरल दीपक कपूर जेजे सिंह के करीबी थे, जो उनके बाद सेनाध्यक्ष बने. वीके सिंह की उम्र विवाद दीपक कपूर के समय में उठा. सीएजी शशिकांत शर्मा की नियुक्ति को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. वे तब रक्षा सचिव थे, जब दिल्ली में फौजी कूच की अफवाहें थीं. याचिका में कहा गया कि सीएजी को ऑगस्टा-वेस्टलैंड, गोर्शकोव और टैट्रा ट्रक के सौदों की जांच करनी है. रक्षा सचिव के तौर कर शर्मा इन सभी सौदों में शामिल थे. याचिका दाखिल करने वालों में पूर्व चुनाव आयुक्त गोपाल स्वामी, पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल तहिलयानी और एडमिरल एल. रामदास और पूर्व सीएजी बी.पी. माथुर थे. रक्षा के मामलों में अतिशय गोपनीयता ठीक नहीं. बेहतर है कि जिस मामले की खबर लीक हुई है उसकी जाँच हो और जल्द से जल्द रपट जनता के सामने रखी जाए. जनरल सिंह को राजनीति में जाना चाहिए या नहीं, यह दूसरा सवाल है. यह पहली बार नहीं है कि कोई जनरल राजनीति में आया है, पर पहली बार विवाद इतना गहराया है.

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