Wednesday, November 20, 2013

गठबंधनों का गड़बड़झाला


लालू यादव से किसी टीवी चैनल के एंकर ने कहा, आपकी तो रीजनल पार्टी है. लालू बोले रीजनल नहीं ओरीजनल पार्टी है. लालू प्रसाद ने जवाब क्या सोचकर दिया था पता नहीं, पर इतना तय है कि वे भारत की ग्रासरूट राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस लिहाज से उनकी राजनीति ओरीजनल है. वे इस वक्त परेशानी से घिरे हैं, पर यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि उनकी राजनीति खत्म हो गई. उसका एक नया दौर शुरू हुआ है. तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह लालू यादव भी सन 2014 के चुनाव के बाद देश में बुनी जाने वाली राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. वे खुद चुनाव लड़ें या न लड़ें.

गठबंधन भारतीय राजनीति का मूल तत्व है. चाहे वह 1962 तक की कांग्रेस के एकछत्र शासन की राजनीति हो या यूपीए-2 की गड़बड़झाला राजनीति. इस राजनीति के तमाम गुण-दोष हैं. इसके साथ विचार-दर्शन और सिद्धांत हैं और शुद्ध मतलब-परस्ती भी. इसके अंतर में सम्प्रदाय और जाति के कारक हैं जो इसे संकीर्ण बनाते हैं, पर क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के दर्शन भी इसी के मार्फत होते हैं. हाँ, इन गठबंधनों में विचारधारा कम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या गुटबाजी हावी रहती हैं. गठबंधनों के कारणों के तफसील में जाएंगे तो यही बात उजागर होगी.

कांग्रेस पार्टी खुद में एक गठबंधन है. और उसकी धड़ेबाजी ही पहली गैर-कांग्रेसी सरकारें बनाने में मददगार हुई. सन 1967 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होने के पहले उत्तर प्रदेश कांग्रेस में दो बड़े गुट थे. चन्द्रभानु गुप्त और कमलापति त्रिपाठी. एक तीसरा गुट निवृत्तमान मुख्यमंत्री सुचेता कृपालानी का भी बन गय़ा था. कमलापति त्रिपाठी चुनाव हार गए और सुचेता कृपालानी दिल्ली चली गईं तो सिर्फ चन्द्रभानु गुप्त बचे. चुनाव में कांग्रेस को 425 में से 199 सीटें मिली थीं. सीबी गुप्त ने विपक्ष को गठबंधन बनाने का मौका नहीं दिया और सरकार बना ली. वह सरकार तीन हफ्ते के भीतर गिर गई. चौधरी चरण सिंह ने पार्टी छोड़ी और यूपी की राजनीति में अस्थिरता का एक नया दौर शुरू हुआ.

बिहार में 16 महीने में चार मुख्यमंत्री बदले गए. 85 विधायकों ने पाले बदले कई ने चार-चार बार पार्टियाँ बदलीं. यहाँ 1967 के चुनाव के बाद कांग्रेस विधायक दल के नेता के लिए महेश प्रसाद सिन्हा और विनोदानंद झा के बीच मुकाबला हुआ, जिसमें झा एक वोट से परास्त हो गए. हालांकि कांग्रेस को 318 में से 128 सीटें मिलीं थीं और उसकी सरकार बनने की आशा नहीं थी, फिर विनोदानंद झा और उनके 34 समर्थकों ने घोषणा की कि महेश प्रसाद सिन्हा सरकार बनाने की कोशिश करेंगे तो हम उनका साथ नहीं देंगे. बंगाल में अजय मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी. यह एक टूटता गठबंधन था. इसके बाद दलबदल का एक महासंग्राम चला, जो तमाम कानून बनाए जाने के बावजूद किसी न किसी रूप में जारी है.

लोकतंत्र, संवैधानिकता और संघवाद हमारे समाज पर आरोपित अवधारणाएं हैं. वे हमारी जमीन पर विकसित नहीं हुईं हैं. आधुनिकीकरण की पश्चिमी परिभाषा का रूपांतरण परम्परागत समाज के भीतर ही हो सकता है. हमारी संसदीय राजनीति के बीजदेश ब्रिटेन की वर्तमान सरकार एक अटपटे गठबंधन के सहारे है. पर वह सफल है और बताती है कि गठबंधन का मतलब टकराव और नोंक-झोंक नहीं है जैसाकि हमने अपने यहाँ देखा. उनके पास लोकतांत्रिक संस्थाओं का अपेक्षाकृत सुपरिभाषित इतिहास है इसलिए वह समाज संकट का समाधान कर लेता है. हमें समाधान खोजने में समय लगता है. 

गठबंधन सन 1967 में भी उतनी नई बात नहीं थी, जितना हम मानते हैं. सन 1952 से 1967 के पहले तक देश में गठबंधनों के चार उदाहरण मिलते हैं. सन 1952 में त्रावणकोर-कोचीन में, जिसे आज हम केरल कहते हैं, कांग्रेस और त्रावणकोर तमिलनाडु कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. कांग्रेस ने प्रजा समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए यह गठबंधन किया था. त्रावणकोर तमिलनाडु कांग्रेस की माँग थी कि त्रावणकोर जिले के तमिलभाषी दक्षिणी हिस्से को तमिलभाषी मद्रास राज्य में शामिल किया जाए. बहरहाल वह सरकार भी छह महीने में गिर गई. केरल में अस्थिरता 1965 तक जारी रही. 1965 के चुनाव में भी त्रिशंकु विधानसभा बनने के बाद देश में पहली बार कोई विधान सभा गठित होने के पहले ही भंग कर दी गई.

केरल के अलावा 1967 के पहले पेप्सू (नया पंजाब), आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में भी गठबंधन बने और टूटे. बावजूद इसके कि केन्द्र में पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का मजबूत शासन था. नेहरू की कामराज योजना क्षेत्रीय क्षत्रपों को काबू में करने के लिए ही थी. कांग्रेस का क्षय हो रहा था और 1967 में गैर-कांग्रेसवाद नाम से नई अवधारणा ने जन्म लिया. चुनाव के फौरन बाद या कुछ समय बाद आठ राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं. संयुक्त विधायक दल और वाम मोर्चा की अवधारणा उसके बाद ही विकसित हुई.

सन 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार भी एक प्रकार का गठबंधन था जो दो साल के भीतर टूट गया. सन 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी जनता दल सरकार भी भीतर से कई मोर्चों में बँटी हुई थी. सन 1991 से 1996 तक पीवी नरसिंह राव की अल्पसंख्यक कांग्रेस सरकार राजनीतिक कौशल से जुटाए गए बाहरी समर्थन के सहारे चल पाई. अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा एक नई केन्द्रीय ताकत सामने आई. पर यह पार्टी 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से 1998 तक अछूत रही. उससे गठबंधन के लिए शिवसेना के अलावा कोई पार्टी सामने नहीं आई. गैर-कांग्रेसवाद के समर्थक जॉर्ज फर्नांडिस ने और बाद में अकाली दल ने भाजपा को सहारा दिया और अंततः राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के समांतर एक ताकत तैयार हुई. इस दौरान एक तीसरे मोर्चे का प्रयोग भी हुआ, जो जड़ें नहीं जमा पाया है. अब तक का अनुभव है कि गठबंधन चलाने के लिए सबल केन्द्रीय दल चाहिए. इस लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए और एनडीए ही दो गठबंधनों के रूप में अभी तक सामने आए हैं। क्षेत्रीय स्तर पर सन 1977 में छह पार्टियों ने बंगाल में मिलकर वाम मोर्चा बनाया, जो एक माने में इस वक्त मौज़ूद गठबंधनों में सबसे पुराना है. 1977 में उसमें कम्युनिस्ट पार्टी शामिल नहीं थी, क्योंकि इमर्जेंसी में वह कांग्रेस के साथ थी और सीपीएम उसके खिलाफ. 1980 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मोर्चे के साथ तालमेल किया और 1982 के चुनाव में बाकायदा इसमें शामिल होकर चुनाव लड़ा. वाम मोर्चा त्रिपुरा में इसी नाम से और केरल में वाम लोकतांत्रिक गठबंधन के नाम से प्रसिद्ध है. पर यह मोर्चा तीन राज्यों तक सीमित है.

भारतीय जनता पार्टी ने सन 1996 की तेरह दिन की सरकार बनाने के बाद समझ लिया था कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा. और इसके लिए उसने राम मंदिर का अपना लक्ष्य छोड़ दिया. कांग्रेस पार्टी को सन 1969 में महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता एसके पाटिल ने सलाह दी थी कि आप अब गठबंधनों के बारे में सोचना शुरू कीजिए. और ये गठबंधन चुनाव-पूर्व होने चाहिए. पर कांग्रेस ने गठबंधन को गम्भीरता से नहीं लिया. इस साल जनवरी में कांग्रेस ने जब जयपुर शिविर लगाया तब लगता था कि पार्टी इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने वाली है. वह शिविर राहुल गांधी के हाथों में बेटन थमाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाया. पिछले पाँच दशकों में कांग्रेस का वह चौथा चिंतन शिविर था. इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे. 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था. सितंबर 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी. वहाँ कांग्रेस ने तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए. सन 2003 के शिमला शिविर में गठबंधन की ओर झुकाव हुआ इसका लाभ 2004 की जीत के रूप में मिला. पर कांग्रेस का मूलमंत्र नेहरू-गांधी परिवार से जुड़े रहना है. पिछले साढ़े नौ साल के यूपीए राज में कांग्रेस गठबंधन को कोसती रही.

जनता भी पार्टी एक प्रकार का गठबंधन था, जनता दल भी. राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा भी गठबंधन थे जो साल, डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चले. इनके बनने के मुकाबले बिगड़ने के कारणों पर भी ध्यान देना चाहिए. पिछले दो-तीन साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है. इस उम्मीद ने लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार पैदा कर दिए हैं. लोकतंत्र पश्चिम से आया है, पर क्षत्रप शब्द हमने दिया है. हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता के साथ क्षेत्रीय सूबेदार भी जुड़े हैं. यह बहुलता किसी एक दल या समूह की दादागीरी कायम नहीं होने देती. यह इस राजनीति की ताकत है और कमज़ोरी भी.

तीसरे मोर्चे की अवधारणा नब्बे के दशक की है जब कांग्रेस के बरक्स भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में खड़ी हो गई और इन दोनों से अलग एक तीसरे मोर्चे की ज़रूरत महसूस हुई. इसकी पहल में वाम मोर्चा का हाथ भी था. सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा. चुनाव से पहले इस मोर्चे के सदस्यों की संख्या 102 थी जो चुनाव को बाद 80 रह गई. तीसरे मोर्चे के सूत्राधार अब फिर प्रयत्नशील हैं. पर मोटी समझ कह रही है कि इस बार चुनाव के बाद ही गठबंधन बनेंगे.

राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नज़र नहीं आती. यह सही है कि राष्ट्रीय दलों की ताकत घटी है. सीटों और वोटों दोनों मामलों में सन 1996 के बाद से यह गिरावट देखी जा सकती है. पर यह इतनी नहीं घटी कि उनकी जगह कोई तीसरा मोर्चा ले सके. अब भी दो तिहाई सीटें और वोट राष्ट्रीय दलों को मिलते हैं. सरकार बनाने के लिए कांग्रेस या भाजपा की या तो मदद लेनी होगी या दोनों में से किसी का समर्थन करना होगा. दूसरी बात यह कि चुनाव पूर्व कोई भी गठबंधन हो, सरकार बनाने का मौका आते ही वह टूट जाएगा.

ज्यादातर पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर नहीं बनी हैं. हम इन्हें व्यक्तियों के नाम से जानते हैं. बसपा के बजाय मायावती का नाम लेना ज्यादा आसान है. ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव, राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक, कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं को नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं. इनकी संरचना में फर्क हो सकता है. मसलन मायावती जितनी आसानी से फैसले कर सकती हैं उतनी आसानी से नीतीश कुमार नहीं कर सकते, पर महत्व क्षत्रप होने का है. कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ ऐसी हैं जो केवल एक नेता के असर में नहीं हैं, पर उनके बारे में भी कहा नहीं जा सकता कि चुनाव के बाद उनकी भूमिका क्या हो. जैसे कि असम गण परिषद या तेलंगाना राष्ट्र समिति. सामाजिक-सांस्कृतिक और क्षेत्रीय संरचनाओं में भी बदलाव आ रहा है.

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या तकरीबन साढ़े अठारह फीसदी है,जबकि असम में तकरीबन तीस फीसदी. असम विधान सभा चुनाव में पिछली बार मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने सफलता हासिल करके मुसलमानों के अपने राजनीतिक संगठन का रास्ता साफ किया. पर उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की तकरीबन एक दर्जन पार्टियाँ खड़ी हैं. यह बात रास्ते खोलने के बजाय बंद करती है. इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के जुलाहे और पसमांदा मुसलमान भी हैं. असम और केरल की तरह यूपी के मुसलमान एक  ताकत नहीं हैं.

राजनीतिक गणित ऐसा है कि कुछ पार्टियाँ एक साथ नहीं आएंगी. ममता बनर्जी होंगी तो सीपीएम नहीं होगी. मायावती होंगी तो मुलायम दूर रहेंगे. लालू और नीतीश एक साथ नहीं आएंगे. कांग्रेस और बीजेपी का गठबंधन नहीं होगा. डीएमके और जयललिता एक साथ नहीं आएंगे. एक इस मोर्चे में होगा तो दूसरा दूसरे मोर्चे में जाएगा. इन्हें बनाने के मजबूत वैचारिक कारण अनुपस्थित हैं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अनेक हैं.

गठबंधन बनेंगे तो उनके गठन के सूत्र भी बनेंगे. यूपीए-1 ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया था. उसके पहले एनडीए ने समन्वय समिति की अवधारणा दी थी. गठबंधन की वैश्विक प्रवृत्तियों को देखें तो यह काम आसान नहीं है. सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया. बावजूद इसके वहाँ भी बगावत होती रहती है. सन 2015 में दोनों पार्टियों को अलग-अलग चुनाव लड़ना है इसलिए वहाँ अगले साल के बाद असहमतियाँ दिखाई पड़ने लगेंगी. हमारी सामाजिक विविधता भी अनेक राजनीतिक समूह बनने का कारण है. सम्भव है कल दो बड़े दलों के बीच गठबंधनों की गुंजाइश बने. हम कल्पना नहीं करते कि कभी कांग्रेस और भाजपा का गठबंधन बन सकता है. या दो विपरीत साम्प्रदायिक समूहों में आधार रखने वाली पार्टियाँ गठबंधन करेंगी, जबकि गठबंधन की बुनियाद ही अलग-अलग समूहों को प्रतिनिधित्व देने पर निर्भर करती है. बहरहाल गठबंधनों का अजब-गजब गड़बड़झाला है, पर रास्ता इनके बीच से ही निकलेगा.
प्रभात खबर के दीपावली विशेषांक 2013 में प्रकाशित

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