Saturday, November 23, 2013

तेन्दुलकर तो निर्विवाद हैं, पुरस्कार नहीं

18 अगस्त 2007 को जब दशरथ मांझी का दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के सामने आई थी। पर न तब और न आज किसी ने कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे एलीटिस्ट मन में यह बात नहीं आती। इन पुरस्कारों का इतिहास देखें तो लगता है कि तेन्दुलकर का सम्मान गलत नहीं है।

जाने-अनजाने सचिन तेन्दुलकर देश की पहचान हैं। उनकी प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए हैं। यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे  देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी या नहीं। ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे और उस दौर में थे जब हमें आत्मविश्वास की ज़रूरत थी। फिर भी वे लोकप्रियता के उस शिखर पर नहीं थे, जिसपर आज सचिन तेन्दुलकर हैं। वह संस्कृति और वह समाज ऐसी लोकप्रियता देता भी नहीं था। ध्यानचंद के जन्मदिन को हम राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाते हैं। तमाम खेल प्रेमी नहीं जानते कि 29 अगस्त उनकी जन्मतिथि है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय खेल पुरस्कार देते हैं।


सचिन को लोकप्रिय बनाने वाली एक पूरी कारोबारी मशीनरी है। यह मशीनरी अपेक्षाकृत देर से हरकत में आई है। वे सन 1991 के बाद बदले नए भारत की तस्वीर के सितारे हैं। यह भारत आने वाले समय में दुनिया का महत्वपूर्ण देश बनने वाला है। सच यह है कि वे लोकप्रिय हैं। हमारे समाज ने ध्यानचंद को इतना लोकप्रिय क्यों नहीं बनाया कि वे 1955 में ही भारत रत्न होते? भारत रत्न महात्मा गांधी भी नहीं बने। वे नेहरू से छोटे नेता भी नहीं थे। सचिन तेन्दुलकर को लोकप्रिय बनाने वाला और ध्यानचंद को लोकप्रियता के शिखर पर न लाने वाले राज-समाज के बारे में बात करिए। क्रिकेट उस स्तर का वैश्विक खेल भी नहीं कि सचिन को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों की सूची में रखा जा सके। पर वे जो भी हैं हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि हैं। वे लोकप्रिय हैं तो इसमें उनका क्या दोष? अच्छी बात यह है कि खिलाड़ियों को भारत रत्न सम्मान भी मिलने लगा। सचिन के साथ वैज्ञानिक सीएनआर राव को भी भारत रत्न मिला है, पर उनके नाम को लेकर विवाद नहीं है। क्यों नहीं है?

पर यह दावा नहीं होना चाहिए कि हमारा समाज प्रतिभा का सम्मान करता है। हाल के वर्षों में चंद्रयान से लेकर मंगलयान तक की सफलताओं का झंडा सरकार फहराना चाहती है तो फहराए। पर यह साबित किया जाना चाहिए कि ये इनाम अंग्रेज सरकार के खिताबों जैसे नहीं हैं। सचिन ने सम्मानित होने की इच्छा नहीं रखी थी, बल्कि यह कामना कम से कम दो साल पहले सरकार के शीर्ष स्तर पर जन्म ले चुकी थी। सन 2011 में तत्कालीन खेल मंत्री अजय माकन ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि भारत रत्न पुरस्कार की पात्रता में खिलाड़ियों को भी शामिल किया जाए। सरकार ने उस साल नवम्बर में इस सिफारिश को मंजूर करते हुए अधिसूचना ज़ारी की थी। पर तब बात उठी कि ध्यानचंद क्यों नहीं, सचिन क्यों? हाल में खेल मंत्री ने सरकार को पास सिफारिश भी भेजी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए। फैसला सचिन के नाम पर हुआ। अब यह बहस खत्म है कि ध्यानचंद को सम्मान मिलना चाहिए कि नहीं। वह मिले भी तो वैसे ही होगा, जैसे महात्मा गांधी को अब भारत रत्न दें।  

क्रिकेट लम्बा और उबाऊ खेल था। यह खत्म हो जाता अगर ऑस्ट्रेलिया के मीडिया-टायकून कैरी पैकर ने इसे नई परिभाषा न दी होती।1975 में पहले विश्व कप के लिए आठ टीमें जुटाना मुश्किल था। दक्षिण एशिया में यह लोकप्रिय था, पर 1983 की विश्व कप प्रतियोगिता शुरू होने तक कोई नहीं कहता था कि भारत चैंपियन होगा। उस सफलता के बाद रंगीन टीवी प्रसारण और देश में नई आर्थिक नीति के बाद उभरे मध्य वर्ग और उसकी मसाला संस्कृति ने क्रिकेट खिलाड़ियों को नई पहचान दी। सचिन इसमें सबसे आगे रहे। इस विचार से ध्यानचंद निरर्थक हैं। भीड़ उन्हें पहचानती नहीं, भले ही वे महान खिलाड़ी थे। हमने इस भीड़ को उनकी महानता से परिचित ही नहीं कराया।

बालाजी राघवन/एसपी आनंद बनाम भारतीय संघ (1995) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये पुरस्कार हैं खिताब नहीं। अदालत ने यह भी कहा कि समानता के सिद्धांत का मतलब यह नहीं कि मेरिट को मान्यता न दी जाए। इस फैसले में अनुच्छेद 51-ए (मौलिक कर्तव्य) का ज़िक्र किया गया, जो नागरिकों से व्यक्तिगत और सामूहिक कार्य के क्षेत्रों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने का आह्वान करता है। हालांकि अदालत ने पुरस्कार देने के मानदंडों को श्रेष्ठ बनाने और कुल मिलाकर अधिक से अधिक 50 पुरस्कार देने की सलाह दी। पर शायद ही कभी यह संख्या 100 से नीचे रहती हो।

राजेन्द्र प्रसाद पर अपनी नर्स को और राजीव गांधी पर अपने स्कूल-प्रिंसिपल को पद्मश्री देने का आरोप लगा। यह भी कि राजीव ने तमिल वोट पाने की खातिर एमजी रामचंद्रन को भारत रत्न दिलाया। भीमराव आम्बेडकर को भारत रत्न मिलने पर वीपी सिंह पर दलित वोट की राजनीति का आरोप लगा। जैल सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह पर अपने चिकित्सकों को पुरस्कार देने के आरोप लगे। सन 2010 में अमेरिका में होटल चलाने वाले संत सिंह छटवाल को जब पद्मभूषण मिला तब भी वह विवाद का विषय बना। कम्युनिस्ट नेता सत्यपाल डांग ने सन 2005 में जब पद्मभूषण सम्मान लौटाया तब उन्होंने उसकी गरिमा गिरने के साथ-साथ इस बात का ज़िक्र भी किया कि लोग अपने नाम के पहले पद्मश्री, पद्मभूषण वगैरह लगाते हैं, जो नैतिक और कानूनी रूप से गलत है।
आचार्य जेबी कृपालानी ने सन 1969 में ऐसे सम्मानों को खत्म करने के लिए लोकसभा में निजी विधेयक पेश भी किया। वह पराजित हो गया। इसके एक साल पहले हृदय नारायण कुंजरू ने भारत रत्न देने की सरकारी पेशकश को ठुकराया था। सरकारी प्रतिनिधियों को अनुमान नहीं था कि संविधान सभा के सदस्य के रूप में उन्होंने ऐसे पुरस्कारों का विरोध किया था। सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने पुरस्कारों की अधिसूचना रद्द कर दी। पर 1980 में निजाम बदलने पर उसे फिर से लागू कर दिया गया।

संविधान का अनुच्छेद 18(1) कहता है राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान (एकैडमिक ऑर मिलिटरी डिस्टिंक्शन) के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।संविधान सभा में प्रोफेसर केटी शाह ने अनुच्छेद 12 का समर्थन किया था, जो बाद में अनुच्छेद 18 बना। आमराय थी कि अंग्रेज सरकार की तरह खिताब और उपाधियाँ सरकार नहीं देगी। संविधान सभा की राय थी कि सरकार को खिताब देने ही नहीं चाहिए। क्या इन पुरस्कारों को सेना और विद्या से जुड़ी श्रेष्ठता से जोड़ा जा सकता है? सन 1955 में सरकारी आदेश के रूप में इन्हें शुरू किया गया था। संविधानविद एचएम सीरवाई के अनुसार भरोसा नहीं होता कि पद्मश्री या पद्मभूषण या पद्म विभूषण विद्या संबंधी अन्य सम्मानों जैसे हैं। शुरुआती दौर में काफी वाजिब लोग सम्मानित होते थे। अब तो लाइन लगती है। सवाल तेन्दुलकर का नहीं है, पुरस्कार की साख का है।  




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