Sunday, February 23, 2014

तेलंगाना पर कांग्रेस का जोड़-घटाना

पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन की जद्दो-जहद को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति बेहद डरावने दौर से गुजरने वाली है। शोर-गुल, धक्का-मुक्की मामूली बात हो गई। लगातार तीन सत्रों पर तेलंगाना मुद्दा छाया रहा, जिसकी परिणति पैपर-स्प्रे के रूप में हुई। किसी ने चाकू भी निकाला। बिल को लोकसभा से पास कराने के लिए टीवी ब्लैक आउट किया गया। कई तरह की अफवाहें सरगर्म थीं। लगता नहीं कि हम इक्कीसवीं सदी में आ गए हैं। राहुल गांधी जिन भ्रष्टाचार विरोधी विधेयकों को पास कराना चाहते थे, वे इस तेलंगाना-तूफान के शिकार हो गए। किसी तरह से विसिल ब्लोवर विधेयक संसद से पास हो पाया है। सदा की भांति महिला विधेयक ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा। लोकसभा के सामने विचारार्थ रखे तकरीबन सत्तर विधेयक लैप्स हो गए।

भारत के संसदीय इतिहास में पन्द्रहवीं लोकसभा एक ओर अपनी सुस्ती और दूसरी ओर शोर-गुल के लिए याद की जाएगी। आंध्र की जनता के लिए क्या वास्तव में इतना बड़ा मसला था कि हम तमाम बड़े राष्ट्रीय सवालों को भूल गए? तेलंगाना बिल के पास होते ही मीडिया में कयास शुरू हो गए हैं कि इसका फायदा किसे मिलेगा। क्या यह सब कुछ चुनावी नफे-नुकसान की खातिर था? कांग्रेस पार्टी के लिए इस विधेयक को पास कराना जीवन-मरण का सवाल बन गया था। सवाल है कि यह सब सदन के आखिरी सत्र के लिए क्यों रख छोड़ा गया था? और अब जब यह काम पूरा हो गया है तो क्या कांग्रेस को तेलंगाना की जनता कोई बड़ा पुरस्कार देगी?

इधर-उधर हो रहे सर्वेक्षणों की मानें तो कांग्रेस को इस प्रकरण से कोई बड़ा चुनावी फायदा होने वाला नहीं। फायदा हुआ भी तो चंद्रशेखर राव के तेलंगाना राष्ट्र समिति को होगा। अभी तक कहा जा रहा था कि टीआरएस का कांग्रेस में विलय हो जाएगा। पर लगता है कि इसमें भी दिक्कतें हैं। तेलंगाना की जनता इस कदम के लिए कांग्रेस को श्रेय देगी या टीआरएस को? जब पहचान की राजनीति ही होनी है तो कांग्रेस में विलय करके अपनी पहचान खत्म क्यों की जाए? ऐसा कहा जा रहा है कि कांग्रेस की नजर इस इलाके की 17  लोकसभा सीटों पर है। सन 2009 के चुनाव में उसे 12 सीटें मिली थीं। तेलंगाना बनने के बाद क्या ये सीटें बढ़ेंगी? क्या टीआरएस अपना हिस्सा छोड़ देगी?

आंध्र के पुनर्गठन की प्रक्रिया भी अब शुरू होगी। प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल 2 जून तक है। लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव भी होंगे या नहीं होंगे, अभी स्पष्ट नहीं है। इतना तय है कि इन चुनावों पर विभाजन की छाया होगी। सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर राजनीति का साया पड़ेगा। सीमा के दोनों और की राजनीतिक ताकतें अलग-अलग होंगी। एक का समर्थक दूसरे का विरोधी होगा। तेलंगाना में कांग्रेस और टीआरएस बड़ी ताकत होंगी तो सीमांध्र में वाईएस जगनमोहन रेड्डी की अगुवाई वाली वाईएसआर कांग्रेस और तेलगुदेशम महत्वपूर्ण पार्टियाँ होंगी। टीडीपी का तेलंगाना क्षेत्र में भी प्रभाव है। पर वह भी अकेले कुछ नहीं कर सकती। जैसा कि अभी नजर आ रहा है उसका भाजपा के साथ गठबंधन होगा।

तेलंगाना-गठन के लिए कांग्रेस की व्यग्रता के पीछे के कारण भी समझ में आते हैं। कांग्रेस अभी दक्षिण के तीन राज्यों आंध्र, कर्नाटक और केरल में सत्तासीन है। महाराष्ट्र, हिमाचल, उत्तराखंड तथा पूर्वोत्तर में असम उसके पास है। इस साल के अंत तक महाराष्ट्र में भी चुनाव होने हैं। और वहाँ के बारे में भी कोई दावा करना मुश्किल है। खासतौर से यदि लोकसभा चुनाव के बाद यदि एनसीपी उसका साथ छोड़ दे तो कांग्रेस अचानक देश भर में सत्ताविहीन होने की स्थिति में आ जाएगी। केंद्र की कुर्सी उसके हाथ से निकलती दिखाई पड़ती है। लगता है कि सीमांध्र भी उसके हाथ से गया। ऐसे में कम से कम तेलंगाना की सत्ता हाथ में रहे। पर इसके लिए उसे टीआरएस से मोल-भाव करना पड़ेगा। पर सम्भावित पराभव को देखते हुए कांग्रेस को सहयोगी मिलना भी मुश्किल होगा। आंध्र के विभाजन के पार्टी की रणनीति दक्षिण भारत में जड़ें जमाने की थी। तेलंगाना का श्रेय लेने के लिए भाजपा ने भी अपना दावा पेश करना शुरू कर दिया है। टीडीपी के तेलंगाना नेता भी कांग्रेस को मजबूत नहीं होने देना चाहेंगे। यानी तेलंगाना को भी अभी कांग्रेस के कब्जे में नहीं मान लेना चाहिए।

संसद का अधिवेशन खत्म होने के साथ अब राजनीति मैदान में उतरेगी। क्या पार्टी किसी नए गठबंधन को तलाशेगी? और जीत का कोई नया मुहावरा गढ़ेगी? लगता नहीं कि कांग्रेस की झोली में अब हालात को बदलने वाला कोई जादुई चिराग बचा है। राहुल गांधी की सद्य सृजित आक्रामकता भी काम नहीं कर रही है। अलबत्ता आम आदमी पार्टी ने हरियाणा और उत्तर प्रदेश में उसके लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। कुछ महानगरों में भी उसके प्रत्याशी तैयार हो रहे हैं। आप कोई महाशक्ति बनकर भले ही न उभरे पर वह पलड़ा झुकाने वाली ताकत बनकर उभर सकती है। और आप से केवल कांग्रेस को ही नहीं भाजपा को भी खतरा है।  

हरिभूमि में प्रकाशित




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