Sunday, February 9, 2014

गले की फाँस बना तेलंगाना

संसद का यह महत्वपूर्ण सत्र तेलंगाना के कारण ठीक से नहीं चल पा रहा है। इसके पहले शीत सत्र और मॉनसून सत्र के साथ भी यही हुआ। तेलंगाना की घोषणा से कोई खुश नहीं है। कांग्रेस ने सन 2004 में तेलंगाना बनाने का आश्वासन देते वक्त नहीं सोचा था कि यह उसके लिए घातक साबित होने वाला है। इस बात पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है कि सन 2004 में कांग्रेस के प्राण वापस लाने में तेलंगाना की जबर्दस्त भूमिका थी। एक गलतफहमी है कि 2004 में भाजपा की हार इंडिया शाइनिंग के कारण हुई। भाजपा की हार का मूल कारण दो राज्यों का गणित था।

आंध्र और तमिलनाडु में भाजपा  के गठबंधन गलत साबित हुए। दूसरी और कांग्रेस ने तेलंगाना का आश्वासन देकर अपनी सीटें सुरक्षित कर लीं। सन 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुल 182 सीटें मिलीं थीं, जो 2004 में 138 रह गईं। यानी 44 का नुकसान हुआ। इसके विपरीत कांग्रेस की सीटें 114 से बढ़कर 145 हो गईं। यानी 31 का लाभ हुआ। यह सारा लाभ तमिलनाडु और आंध्र से पूरा हो गया। 1999 में इन दोनों राज्यों से कांग्रेस की सात सीटें थीं, जो 2004 में 39 हो गईं। इन 39 में से 29 आंध्र में थीं, जहाँ 1999 में उसके पास केवल पाँच सीटें थीं। कांग्रेस को केवल लोकसभा में ही सफलता नहीं मिली। उसे आंध्र विधानसभा के चुनाव में भी शानदार सफलता मिली, और वाईएसआर रेड्डी एक ताकतवर मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित हुए।

लगता है कि तेलंगाना और वाईएसआर रेड्डी की राजनीति इस बार कांग्रेस के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रही है। तेलंगाना की घोषणा पार्टी के लिए सेल्फगोल साबित हुई। प्रदेश की जनता, उसकी राजनीति और प्रशासन दो धड़ों में बँट चुका है। मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी इस फैसले से खुद को काफी पहले अलग कर चुके हैं। उन्होंने केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए तेलंगाना विधेयक को आंध्र विधानसभा से खारिज कराने के बाद वापस भेज दिया है। वे खुद दिल्ली में आंध्र के विभाजन के खिलाफ धरने पर बैठ चुके हैं। यह सुनिश्चित हो चुका है कि लोकसभा चुनाव के पहले यह राज्य बनेगा भी नहीं। यानी कि इसे लागू कराने की जिम्मेदारी आने वाली सरकार की होगी।

तेलंगाना बनना ही था तो दस साल पहले ही बना दिया जाता तो इतना बड़ा संकट पैदा नहीं हुआ होता। सन 2004 में तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल हुई। यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में तेलंगाना को शामिल किया गया। तब सरकार को लगा कि इतना काफी है। यानी सरकार में शामिल होकर टीआरएस और उसके नेता के चंद्रशेखर राव केंद्र में मंत्री बनकर खुश हैं। अब वे तेलंगाना का नाम भूल जाएंगे। पर तेलंगाना क्षेत्र की जनता के मन में यह राज्य इतनी गहराई से बैठ चुका था कि टीआरएस को यूपीए सरकार से हटना और आंदोलन का रास्ता पकड़ना पड़ा।

कांग्रेस ने दूसरी गलती नवम्बर 2009 में की, जब तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने के चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए तेलंगाना बनाने की घोषणा कर दी। चिदम्बरम ने वह वक्तव्य भी बगैर सोचे-समझे दिया था। इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए। उसकी रपट को लेकर आंध्र प्रदेश की हाईकोर्ट तक ने अपने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं।

इस फैसले की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह चुनाव को निगाह में रखकर किया गया है न कि राज्य की प्रशासनिक जरूरतों को देखकर। तेलंगाना क्षेत्र में विधानसभा की 294 में से 119 और लोकसभा की कुल 42 में से 17 सीटें हैं। राज्य बन भी गया तो हैदराबाद की खींचतान फिर भी कायम रहेगी। दस साल पहले यह फैसला हुआ होता तो अब तक सीमांध्र की राजधानी तैयार हो जाती। फिलहाल भौगोलिक सीमा में वर्तमान आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आएंगे। इसमें महबूब नगर, नलगोंडा, खम्मम, रंगारेड्डी, वारंगल, मेडक, निजामाबाद, अदिलाबाद, करीमनगर और हैदराबाद शामिल हैं। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना क्षेत्र से कांग्रेस को चुनाव में काफी सफलता मिली थी।

प्रदेश के 42 में से 17 सांसद कांग्रेस के हैं, इनमें से 12 तेलंगाना क्षेत्र से हैं। कांग्रेस की रणनीति है कि ये 12 सीटें तो उसे कम से कम मिल ही जाएं। कांग्रेस चाहती है कि जगनमोहन रेड्डी का विस्तार रायलसीमा के बाहर न होने पाए। उनका असर रायलसीमा के अनंतपुर, कुर्नूल, कडपा और चित्तूर जिलों में है। कांग्रेस की योजना रायल तेलंगाना बनाने की है, जिसमें रायल सीमा के दो जिले कुर्नूल और अनंतपुर भी शामिल होंगे। इससे जगनमोहन की ताकत दो राज्यों में बँट जाएगी। फिर ऐसी कोशिश भी होगी कि तेलुगु देसम पार्टी दोनों राज्यों में ज्यादा आगे न बढ़ पाए और बीजेपी को इस प्रक्रिया में कोई भी फायदा मिलने न पाए। कांग्रेस मजलिस इत्तहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) को भी अपने साथ रखने की कोशिश कर रही है।

आंध्र प्रदेश विधान सभा ने नया राज्य बनाने का प्रस्ताव खारिज कर दिया है। उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना तभी हुई थी जब उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश की विधानसभाओं ने प्रस्ताव पास किए थे। आंध्र में यह संभव नहीं हुआ क्योंकि जितना ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है उतना ही ताकतवर राज्य को वृहत् रूप में बनाए रखने का समैक्यांध्रा आंदोलन है। मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने हमेशा ही खुद को इस एटम बम से अलग करके रखा। बहरहाल आंध्र विधानसभा की टिप्पणी मिलने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस बिल को दुबारा पास कर दिया है। चूंकि भाजपा ने तेलंगाना बनाने का समर्थन किया है इसलिए संसद से यह प्रस्ताव पास होने में अड़चन नहीं है, पर तेलंगाना के भौगोलिक स्वरूप को लेकर दिक्कतें पैदा होंगी। पहले जानकारी मिली थी कि हैदराबाद को संघ शासित क्षेत्र माना जाएगा, पर अब कहा जा रहा है कि राज्यपाल के अधीन वहाँ की कानून-व्यवस्था होगी।

राज्य के गठन में अभी तमाम बाधाएं हैं। कृष्णा और गोदावरी नदियों के पानी का बँटवारा बेहद जटिल काम है. प्रशासनिक व्यवस्था, बिजलीघरों का वितरण, उद्योग व्यापार और शिक्षा संस्थाओं का संतुलन यह सब देखना होगा। राजनीतिक दृष्टि से तटीय आंध्र और रायलसीमा में कांग्रेस का जादू खत्म हो गया है। कांग्रेस को तेलंगाना क्षेत्र में कुछ हासिल हुआ भी तो वह नाकाफी होगा। लोकसभा चुनाव के बाद यदि केंद्र में यूपीए सरकार नहीं बनी तो इसका एक बड़ा कारण तेलंगाना होगा, जिसके लिए कांग्रेस अपने अलावा किसी दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती।

हरिभूमि में प्रकाशित

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