Sunday, March 2, 2014

‘नो उल्लू बनाविंग’ यानी ‘जनता जागिंग’

यानी इन दिनों एक विज्ञापन लोकप्रिय हो रहा है जिसकी एक लाइन है, चुनावों में चूना लगाविंग, नो उल्लू बनाविंग-नो उल्लू बनाविंग। यह बदलते वक्त का गीत है। अन्ना द्रमुक की महासचिव और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने पिछले मंगलवार को आम चुनाव के लिए पार्टी का घोषणापत्र जारी किया। इसमें जनता को मुफ्त लैपटॉप, मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, बकरियाँ, भेड़ें और गाय देने का वादा किया। छात्रों को मुफ्त साइकिलें और किताबें देने के अलावा बैंक में फिक्स्ड डिपॉजिट खुलवाने का वादा भी किया गया है। गरीब लड़कियों को विवाह के उपहार के रूप में सौर बिजली से युक्त घर और चार ग्राम सोना देने का आश्वासन भी है। घोषणापत्र में आर्थिक, राजनीतिक और विदेश नीति से जुड़ी बातें भी हैं, पर सबसे रोचक हैं मुफ्त की चीजें।
कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी ने कुछ सीटों पर निचले लेवल के कार्यकर्ताओं से परामर्श के आधार पर टिकट देने का फैसला किया है। टिकट वितरण की इस व्यवस्था को अमेरिकी राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी तय करने की व्यवस्था के आधार पर प्राइमरीज कहा गया है। इसी व्यवस्था के तहत हाल में दिल्ली प्रदेश के दफ्तर में सिर-फुटौवल की नौबत आ गई। दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर जनमत संग्रह करने वाली आम आदमी पार्टी के भीतर कई जगह बगावत की स्थिति है। कारण यह है कि पार्टी ने तमाम लोगों से प्रार्थना पत्र माँगे और उनपर विचार करने के पहले ही उन जगहों से प्रत्याशी भी घोषित कर दिए। टिकट पाने की सिर-फुटौवल तकरीबन हर पार्टी में है।
चुनाव में उतरने के पहले केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार हर तरह के लोक-लुभावन फैसले करने केस मूड में है। राहुल गांधी का दबाव है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी ताज़ा मुहिम के लिए छह कानूनों की जरूरत है। चूंकि संसद ने इन्हें पास नहीं किया, इसलिए इन्हें अध्यादेश के रूप में लाया जाए। शुक्रवार को हुई कैबिनेट में इस मामले पर विचार नहीं हो पाया। एक अंदेशा है कि राष्ट्रपति इन पर दस्तखत करने से हाथ खींच सकते हैं। वे कह सकते हैं कि पाँच साल तक बैठे रहे, अब ऐसी कौन सी जल्दी है? फिर भी सम्भव है कि कैबिनेट की विशेष बैठक में अध्यादेश लाने का फैसला हो जाए। लगता है कि सरकार का यह आखिरी फैसला होगा। सम्भव है कि रविवार को या अब किसी भी दिन चुनाव कार्यक्रम घोषित हो सकता है। आचार संहिता लागू होने के बाद अत्यंत आवश्यक फैसले ही लागू हो सकेंगे।
लोक-लुभावन वादों होड़ शुरू हो चुकी है। इस बार चुनाव आयोग का निर्देश है कि अवास्तविक वादे न करें। पर राजनीतिक दल क्या इस बात को आसानी से मान लेंगे? इक्कीसवीं सदी का यह तीसरा लोकसभा चुनाव है। माना जा रहा है कि यह चुनाव देश की दशा-दिशा बदलने का काम करेगा। पर क्या हमारे राजनीतिक दल के नए राजनीतिक यथार्थ की ओर देख पा रहे हैं? यह चुनाव कुछ बातों के लिए पिछले चुनावों से अलग होगा। हो सकता है कि चुनाव परिणाम आने के बाद के राजनीतिक दाँव-पेच पुराने हों, पर देश की जनता कुछ नया करने का इरादा रखती है। यह बात हाल में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों से नज़र आ चुकी है। आइए एक नज़र डालते हैं उन बातों पर जो आसमान पर लिखी हैं, पर जिन्हें राजनीतिक दल देखना नहीं चाहते।
केंद्रीय सत्ता की पराजय: यह चुनाव केंद्र में कांग्रेस सरकार के लिए भारी पराजय का संदेश लेकर आ रहा है। इस बात के अनेक अर्थ हैं। इसे एंटी इनकंबैंसी कह सकते हैं या भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति जनता की नाराज़गी। सन 1977 के बाद पूरे देश में लोकतांत्रिक तरीके से रोष व्यक्त करने का यह पहला मौका होगा। सन 77 में केवल उत्तर के राज्यों में यह नाराज़गी थी। इस बार पूरे देश में है। कांग्रेस का दावा है कि हमने जनता को जानकारी पाने और शिक्षा पाने का अधिकार दिया। ये दो अधिकार व्यवस्था में जनता की भागीदारी बढ़ाते हैं। ज़रूरत इस बात की थी कि इन दोनों अधिकारों के समांतर व्यवस्था की पारदर्शिता भी बढ़ती। राहुल गांधी जिन छह कानूनों को लागू कराना चाहते हैं, उन्हें लागू कराने की कामना थी तो अब तक वे क्या कर रहे थे? आजादी के 67 साल का अनुभव है कि देश में अपराधी और माफिया स्वच्छंद होते गए और ईमानदार अधिकारी असुरक्षित। जनता को जानकारी पाने का अधिकार मिलने के बाद से दो किस्म की खबरों की संख्या बढ़ी है। एक, इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए ब्लैकमेलिंग की या फिर आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की। देश में चालीस से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुईं हैं। दिल्ली की कुर्सी पर इस बार कौन बैठेगा, यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी महत्वपूर्ण यह बात कि जनता वास्तव में नाराज़ है।
नई ताकत युवा और महिलाएं: दिसम्बर 2012 में दिल्ली गैंगरेप के बाद आगे बढ़कर स्त्रियों और नौजवानों ने जिस प्रकार अपने गुस्से का इज़हार किया वह भारत के ही नहीं दुनिया के इतिहास में बेमिसाल था। दिल्ली में आम आदमी की सफलता के पीछे यह ताकत थी। कहा जा सकता है कि दिल्ली को समूचा भारत नहीं माना जा सकता। पर सच यह है कि दिल्ली में सड़कों पर उतरे युवा पूरे देश के प्रतिनिधि थे। वे केवल दिल्ली के नौजवान नहीं थे। महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी बढ़ रही है। उन्हें समझ में आ रहा है कि बदलाव का रास्ता राजनीति के गलियारों से होकर गुजरता है। उन्होंने खुद यह देखा कि विधायिका में महिलाओं के आरक्षण का मामला किस तरह से टलता रहा है। लोकसभा की 543 में से तकरीबन 350 सीटों पर युवा मतदाताओं की संख्या किसी भी उम्मीदवार को जिताने या हराने की स्थिति में है। लगभग 11 करोड़ नए मतदाता इस चुनाव में शामिल होने जा रहे है।

साफ-सुथरी राजनीति: किसी को यकीन नहीं होगा, पर यह एक नया यथार्थ है। देश में धार्मिक और जातीय आधार पर राजनीति अब ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलेगी। शिक्षा और जानकारी का प्रसार वोटर को जागरूक बनाने में कामयाब होगा। भले ही आज वह इस बात को अच्छी तरह न समझता हो कि असली सवाल हमारी जिंदगी और रोज़ी-रोटी से जुड़ा है। आपराधिक छवि के प्रत्याशियों की भारी पराजय भी इस चुनाव में देखने को मिले तो विस्मय नहीं होगा। यह सब इसलिए कि जनता की भागीदारी वास्तविक अर्थ में बढ़ रही है। वह अब अँगूठा छाप जनता नहीं बनना चाहती। सवाल है कि क्या इस बदलती जनता के अनुरूप राजनीति अपने को बदलने को तैयार है? इसका जवाब भी इन चुनावों में मिलेगा। इस बार सरकार कोई भी बने वह पहले दिन से ही जनता के दबाव में होगी।   

हरिभूमि में प्रकाशित

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