Tuesday, March 11, 2014

रक्षा-विमर्श गम्भीर हो, सनसनीखेज़ नहीं

पिछले शुक्रवार और शनिवार को नौसेना के दो उत्पादन केंद्रों में दो बड़ी दुर्घटनाएं होने के बाद मीडिया में अचानक उफान आ गया. अभी तक कहा जा रहा था कि हमारे उपकरण पुराने पड़ चुके हैं. उन्हें समय से बदला नहीं गया है. इस कारण दुर्घटनाएं हो रहीं हैं. सबसे ताज़ा दुर्घटनाएं दो प्रतिष्ठित उत्पादन केंद्रों से जुड़ी हैं. परमाणु पनडुब्बी अरिहंत और कोलकाता वर्ग के विध्वंसक पोत सबसे आधुनिक तकनीक से लैस हैं. हालांकि दुर्घटना का कारण जहाज निर्माण केंद्र के रखरखाव से जुड़ा है, पर सवाल पूरी रक्षा-व्यवस्था को लेकर है. उससे पहले सवाल यह है कि हमारा मीडिया और सामान्य-जन रक्षा तंत्र से कितने वाकिफ हैं? क्या कारण है कि हमने इस तरफ तभी ध्यान दिया, जब दुर्घटनाएं हुईं? पिछले महीने संसद ने दो लाख चौबीस हजार करोड़ का अंतरिम रक्षा-बजट पास किया. बेशक यह अंतरिम बजट था, पर वह देश के आय-व्यय का लेखा-जोखा था. यह बगैर किसी गम्भीर विचार-विमर्श के पास हो गया. राजनीतिक में भी खोट है. 


भारत अपनी रक्षा-व्यवस्था के आधुनिकीकरण की योजना बना रहा है. इसके लिए अगले कुछ वर्षों में साढ़े सात लाख करोड़ रुपए के शस्त्रास्त्र का आयात किया जाएगा. हमारी रक्षा व्यवस्था 20 लाख से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष और एक करोड़ से ज्यादा लोगों को परोक्ष रूप से रोजगार देती है. इसके अलावा 20 से 25 लाख के बीच रिटायर्ड फौजी हमारे देश में हैं. पर क्या हमारा मीडिया सुरक्षा व्यवस्था के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर कभी बात करता है? उपरोक्त दो दुर्घटनाओं के तकरीबन दस दिन पहले मुंबई के नज़दीक किलो क्लास पनडुब्बी आईएनएस सिंधुरत्न हादसे की शिकार हुई थी, जिसमें दो अधिकारियों की मौत हो गई। इस घटना के बाद नौसेना प्रमुख एडमिरल डीके जोशी ने इस्तीफ़ा दे दिया था. पिछले कुछ महीनों में नौसेना में छोटे-बड़े एक दर्जन हादसे हो चुके हैं. इसकी शुरूआत पिछले साल अगस्त में मुंबई हार्बर में आइएनएस सिंधुरक्षक पनडुब्बी के साथ हुई थी. देर रात हुए कई धमाकों के बाद पनडुब्बी डूब गई. उस पर तैनात 18 अफसरों की मौत हो गई. उसे अभी तक समुद्र से निकाला नहीं जा सका है. इसके पहले लगभग एक दशक तक मिग-21 की दुर्घटनाओं को लेकर इसी किस्म की सनसनी फैली रही. दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि मिग-21 की जगह भरने के लिए हम जिस तेजस विमान को तैयार कर रहे थे, उसमें काफी विलंब हो गया.

हादसे और मौतें हृदय-विदारक होती हैं. इनमें सनसनी का तत्व होता है. हर हादसे का कारण होता है, उसे खोजा भी जा सकता है, खासतौर से नौसेना जैसे विशेषज्ञ संगठनों के पास कारणों का पता लगाने की बेहतरीन मशीनरी होती है. दुनिया की तमाम सेनाओं के भीतर हादसे होते रहते हैं. वे हमेशा बड़ी खबर नहीं बनते. भारतीय नौसेना की जिन एक दर्जन दुर्घटनाओं को गिनाया जा रहा है, उनमें आपसी रिश्ता नहीं है. इस किस्म की दुर्घटनाएं पहले भी होती रही हैं. उन्हें रिपोर्ट नहीं किया गया. जिस तरीके से मीडिया ने सिंधु रक्षक हादसे को टाइटैनिक से जोड़ा, वह भी सनसनीखेज़ है. इन मसलों पर गम्भीर पड़ताल के बजाय अल्लम-गल्लम बातें करना कम से कम सुरक्षा व्यवस्था के लिए अनुचित है.

सवाल नौसेनाध्यक्ष ने इस्तीफा क्यों दिया? दिया तो इतनी तेजी से स्वीकार क्यों किया गया? बताया जाता है कि सिंधुरक्षक की दुर्घटना के बाद सरकार दबाव में आ गई थी. पिछले साल नवम्बर में रक्षामंत्री ने नौसेना पर सीधे टिप्पणी कर दी थी. कहा जाता है कि रक्षामंत्री और नौसेनाध्यक्ष के बीच पर्याप्त संवाद नहीं था. इस इस्तीफे के पहले भारत के सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया ने 1959 में जब इस्तीफा दिया था तो उसके राजनीतिक कारण थे, जो 1962 के चीन-युद्ध में सामने आए. इससे पहले 1998 में राजग सरकार ने एडमिरल विष्णु भागवत को बरखास्त किया था. उस मामले राजनीतिक प्रशासन और सेना के बीच कुछ असहमतियाँ थीं. पिछले दो साल से जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच मतभेद के कारण कुछ कड़वी बातें सामने आईं हैं. इन बातों ने राजनीतिक शक्ल ले ली है, जो उचित नहीं. पर रक्षा प्रतिष्ठान और नागरिक प्रशासन के रिश्तों को लेकर कुछ तल्ख बातों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए.

भारतीय सेना के बारे आम सहमति है कि इसे गैर-राजनीतिक होना चाहिए. भारतीय राष्ट्र-राज्य की दो बड़ी उपलब्धियाँ हैं। एक, हमारा लोकतंत्र और दूसरे हमारी गैर-राजनीति सेना. आस-पास के देशों पर नज़र डालें तो इन उपलब्धियों पर हमें नाज़ होगा. इन दोनों बातों का आपसी रिश्ता है जिसे और बेहतर बनाया जाना चाहिए. पर ऐसा लगता है कि हम इस मामले में कहीं नादानी हो रही है. हाल में सरकार ने पूर्व सैनिकों के लिए एक रैंक-एक पेंशन की माँग मानी, पर सच यह है कि पिछले कुछ साल से फौजियों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट तक से फैसला होने के बावजूद उन्हें न्याय नहीं मिला था. अप्रैल 2008 से ये फौजी धरना-प्रदर्शन के रास्ते पर चले गए. ऐसा क्यों हुआ?

दुनिया भर में सैनिक मुख्यालय सरकार का हिस्सा होते हैं. केवल भारत में वह सरकार से बाहर की संस्था है. वह सरकार के पास विचारार्थ रिपोर्ट पेश करते हैं. सबसे ताकतवर राजनीतिक प्रशासन है, जो ठीक है. पर उससे भी ज्यादा ताकतवर है ब्यूरोक्रेसी. यह ऐसी संस्था है, जिसके पास अधिकार असीमित हैं और जिम्मेदारी शून्य. रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच एक और मशीनरी होती है. पनडुब्बी डूबे तो नौसेनाध्यक्ष का जिम्मेदारी लेना ठीक है, पर क्या यह जिम्मेदारी का अंत है? व्यवहारिक सच यह है कि राजनेता की दिलचस्पी अपने वोट में है. वह राजनीति में व्यस्त रहता है. ब्यूरोक्रेसी फाइलों पर सोई रहती है. जब हादसा होता है, तब सेना के अधिकारी याद आते हैं. पुराने उपकरणों को बदले जाने, नए उपकरण लाने, रक्षा-नीति, विदेश-नीति और आर्थिक-प्रबंधन का गहरा रिश्ता है. यह सब बातें राजनीति-प्रशासनिक दरवाजों से होकर गुजरती हैं. क्या आपने किसी सचिव को जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देते सुना है?

सच है कि हमारी सेनाओं के पास पुराने उपकरण हैं. अगस्त और फरवरी में जिन पनडुब्बियों के हादसे हुए वे क्रमशः 1988 और 1997 में कमीशन की गईं थीं. इनमें से एक की उम्र पूरी हो गई थी. पर यह अंतिम सच नहीं है. पुरानी पनडुब्बियाँ दुनिया भर की सेनाओं के पास हैं. उन्हें अपग्रेड किया जाता है. साथ ही समय रहते नई पनडुब्बियों-जहाजों तथा उपकरणों की व्यवस्था भी की जाती है. सन 2005 में भारत ने फ्रांस-स्पेन की स्कोर्पीन पनडुब्बी का करार किया था. इसके छह पनडुब्बी खरीदी जानी थीं और छह का निर्माण भारत में होना था. पहली पनडुब्बी 2012 में मिलनी थी. अभी तक नहीं मिली है. केवल पनडुब्बी की नहीं देश की तमाम रक्षा खरीद योजनाओं का यही हाल है. इससे एक ओर सेना दिक्कत में आती है और दूसरी और लागत बढ़ती जाती है. इस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है. पर सुरक्षा और उससे जुड़े सवालों पर गम्भीर विमर्श करें. सावधानी और सही तथ्यों के साथ. इसमें सनसनी न घोलें तो बेहतर.  
प्रभात खबर में प्रकाशित



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