Sunday, May 11, 2014

इस हार के बाद कांग्रेस का क्या होगा?

कांग्रेस का चुनाव प्रचार इस बार इस बात पर केंद्रित था कि हमें जिताओ, वर्ना मोदी आ रहा है। पिछले 12 साल में कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को 'भेड़िया आया' के अंदाज़ में खड़ा किया है। कांग्रेस ने अपनी सकारात्मक राजनीति को सामने लाने के बजाय इस राजनीति का सहारा लिया। जहाँ उसे जाति का लाभ मिला वहाँ जाति और जहाँ धर्म का लाभ मिला वहाँ धर्म का सहारा भी लिया। पश्चिमी देशों के मीडिया में कांग्रेस की इस अवधारणा को महत्व मिला। बावजूद इन बातों के क्या कांग्रेस चुनाव में हार रही है? इस बात को अभी कहना उचित नहीं होगा। सम्भव है भारतीय मीडिया के सारे कयास और अनुमान गलत साबित हों। अलबत्ता यह लेख इस बात को मानकर लिखा गया है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी पराजय से रूबरू होने जा रही है। ऐसा होता है तब कांग्रेस क्या करेगी? बेशक ऐसा नहीं हुआ और कांग्रेस विजयी होकर उभरी तो हमें अपनी समझ का पुनर्परीक्षण करना होगा। पर यदि वह हारी तो उन बातों पर विचार करना होगा जो कांग्रेस के पराभव का कारण बनीं और यह भी कि अब कांग्रेस क्या करेगी। 

पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था। उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे। नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है। उनकी सारी बातों की गहराई पर जाने की ज़रूरत नहीं होती, पर उन्होंने इस बात को कई बार कहा, इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते थे। यह भी कि इस बार के चुनाव परिणाम क्या कहने वाले है।

चुनाव का आखिरी दौर कल पूरा हो जाएगा और कल शाम ही प्रसारित होने वाले एक्ज़िट पोलों से परिणामों की झलक मिलेगी। फिर भी परिणामों के लिए हमें 16 मई का इंतज़ार करना होगा। अभी तक के जो आसार हैं और मीडिया की विश्वसनीय, अविश्वसनीय जैसी भी रिपोर्टें हैं उनसे अनुमान है कि कांग्रेस हार रही है। हार भी मामूली नहीं होगी। तीसरे मोर्चे वगैरह की अटकलें हैं। इसीलिए इस चुनाव के बाद कांग्रेस का क्या होने वाला है, इस पर नज़र डालने की ज़रूरत है। संकट केवल लोकसभा का नहीं है। सीमांध्र और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव-परिणाम भी 16 मई को आएंगे। इस साल महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव भी होंगे। यानी कांग्रेस के हाथ से प्रादेशिक सत्ता भी निकलने वाली है।


सन 2012 के नवम्बर में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव समन्वय समिति बनाई थी। इसके अलावा सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, एके एंटनी, अहमद पटेल और पी चिदम्बरम का एक कोर ग्रुप है। पार्टी ने एके एंटनी के नेतृत्व में चुनाव पूर्व गठबंधनों के लिए एक सब-ग्रुप बनाया था। जनवरी 2013 में पार्टी ने जयपुर में चिंतन शिविर किया था, जिसमें चिंतन नहीं केवल राहुल गांधी को बेटन थमाने का काम हुआ। सच यह है कि नाम की इन तमाम कमेटियों की पिछले डेढ़-दो महीने से बैठकें नहीं हुईं हैं। पार्टी के पूर्व निर्धारित वॉर रूम में सन्नाटा है। उसके बजाय राहुल गांधी के 12 तुगलक रोड स्थित आवास से पूरी चुनाव प्रक्रिया का संचालन हुआ। इसमें शामिल लोग अपेक्षाकृत नए हैं। इन्हें राहुल गांधी का निकटवर्ती प्रभामंडल कह सकते हैं। कांग्रेस की विजय या पराजय का श्रेय इस बार राहुल गांधी को ही मिलना है। प्रियंका और सोनिया समेत राहुल। 

सन 1977 में भारी पराजय के बाद 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का पुनर्जन्म हुआ। तब कोई वैकल्पिक ताकत तैयार नहीं थी। सन 1989 में वैकल्पिक ताकत ने जन्म लिया, पर उसके अंतर्विरोध थे। इसलिए 1991 में बेटन फिर कांग्रेस के हाथ में था। हाँ तब पहली बार नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से कांग्रेस की सत्ता बाहर निकल आई। उसके बाद कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन सन 1999 में था, जब उसे 114 सीटें मिलीं। उस वक्त सोनिया गांधी निकल कर बाहर आईं। इस जादू ने कुछ समय के लिए काम किया। पार्टी कार्यकर्ता का उत्साह वापस आया। संयोग से एनडीए के अंतर्विरोध उजागर हुए और 2004 में कांग्रेस को सफलता मिली और यूपीए सरकार बनी। उसके बाद से पार्टी ने भविष्य के बारे में विचार करना बंद कर दिया।

कांग्रेस जब संकट में होती है, तो वह सोचना शुरू करती है। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 के शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा जा सकता है। अलबत्ता यह कहना मुश्किल है कि उस शिविर से कांग्रेस ने किसी सुविचारित रणनीति को तैयार किया। कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया। गठबंधन की राजनीति करने के बावजूद यूपीए-2 सरकार पर उसके सहयोगी दल लगतार उपेक्षा का आरोप लगाते रहे।

इस बार पराजय हुई तो शायद कांग्रेस फिर चिंतन शुरू करेगी। शायद कोई जाँच कमेटी बने। शायद कोई रिपोर्ट फिर आए। इसके पहले एके एंटनी कम से कम दो रिपोर्टें चुनाव में मिली पराजयों के बाबत तैयार चुके हैं। इनकी सिफारिशों में कम से कम दो बातें महत्वपूर्ण थीं। पार्टी में भीतरी स्तर पर चुनाव कराके संगठन को मजबूत किया जाए और विधानसभा तथा लोकसभा के लिए कम से कम तीन से छह महीने पहले प्रत्याशियों का नाम तय कर दिया जाए। राहुल गांधी की बातों से लगता है कि वे पार्टी में संरचनात्मक बदलाव चहते हैं, पर व्यावहारिक सच यह है कि इस बार जब चुनाव तकरीबन उनकी पूरी कमान में हुए तब भी पैराट्रुपर प्रत्याशियों को टिकट मिले। पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी हुई। चूंकि पार्टी केवल नेहरू-गांधी परिवार के सहारे चलना चाहती है, इसलिए प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े कद के नेताओं का अभाव है। यह पार्टी देश में तभी तक प्रभावशाली थी, जब उसके पास क्षेत्रीय क्षत्रप थे।

सवाल है कि अब क्या किया जा सकता है? जवाब है पार्टी का रूपांतरण। संगठनात्मक स्तर पर ऊर्जावान नेताओं की नियुक्ति। यानी एक और कामराज योजना की जरूरत है। पर आज की समस्या 1963-64 जैसी नहीं है, बल्कि उसके उलट है। 10 अगस्त 1963 को कांग्रेस महासमिति ने कामराज योजना को मंजूरी दी थी। के कामराज उस वक्त मद्रास के मुख्यमंत्री थे। 1962 के चीनी हमले के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू व्यक्तिगत रूप से व्यथित थे। वे बीमार भी रहने लगे थे। पार्टी में उनकी जगह लेने वालों की मनोकामनाएं उजागर हो रही थीं। नेहरू के व्यक्तिगत करिश्मे से कांग्रेस तीन चुनाव जीत चुकी थी, पर लगभग हर राज्य में बड़े नेताओं के बीच रस्साकशी चलने लगी थी। सरकारी कुर्सी पर सबकी निगाहें थीं। कमराज प्लान नेहरू जी की मंजूरी से आया जिसके तहत छह केन्द्रीय मंत्रियों और छह राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफे दिए।

1967 के चुनाव में गैर-कांग्रेसवाद के नारे का पहला असर दिखाई पड़ा। कई राज्यों में संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनीं। गठबंधन राजनीति का पदार्पण हुआ। जवाहर लाल नेहरू 1951 से 54 तक पार्टी अध्यक्ष भी रहे। पार्टी पर उनका नियंत्रण था, पर कांग्रेस के पास प्रदेश स्तर पर ऊँचे कद वाले नेता थे। और जिस नेता का पार्टी पर प्रभाव होता वह मुख्यमंत्री भी होता था या मुख्यमंत्री तय करता था। तब से अब में काफी फर्क है। श्रीमती इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच पार्टी के संसदीय दल के नेता पद के लिए हुए चुनाव ने हमेशा के लिए इस पार्टी को विभाजित कर दिया। नेहरू युग तक में कांग्रेस में आमराय बनाने का एक मिकेनिज्म था, जिसमें छोटा कार्यकर्ता भी शामिल था। अब वह नहीं है। पहिया वापस घुमाने की कोशिश भी की जाए तो उसमें काफी वक्त लग जाएगा। तब कांग्रेस को क्या करना चाहिए?  आज पार्टी क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए बसपा, सपा, राजद, राकांपा, डीएमके वगैरह पर आश्रित है। भाजपा के पास क्षेत्रीय स्तर पर बड़े नेता हैं। कांग्रेस के सामने नेतृत्व और विचार का संकट है। और यह संकट मामूली नहीं है।



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