Sunday, April 12, 2015

एक और पाकिस्तानी नाटक

लाहौर हाईकोर्ट ने ज़की उर रहमान लखवी को रिहा कर दिया है। संयोग से जिस रोज़ यह खबर आई उस रोज़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस में थे। लखवी की रिहाई पर फ्रांस ने भी अफसोस ज़ाहिर किया है। अमेरिका और इसरायल ने भी इसी किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पर इससे होगा क्या? क्या हम पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग कर पाएंगे? तब हमें क्या करना चाहिए? क्या पाकिस्तान के साथ हर तरह की बातचीत बंद कर देनी चाहिए? फिलहाल लगता नहीं कि कोई बातचीत सफल हो पाएगी। पाकिस्तान के अंतर्विरोध ही शायद उसके डूबने का कारण बनेंगे। हमें फिलहाल उसके नागरिक समाज की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करना चाहिए, जो पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में बच्चों का हत्या को लेकर स्तब्ध है।


सवाल केवल लखवी की गिरफ्तारी का नहीं है। उसे जेल से रिहा करने का मतलब है अदालती नाटक का पटाक्षेप। उससे बड़ा नेता हाफिज सईद है, जो छुट्टा घूम रहा है। संयुक्त राष्ट्र तक ने उसके संगठन को आतंकवादी घोषित कर रखा है, पर पाकिस्तान सरकार की उसपर हाथ डालने की हिम्मत नहीं। अमेरिका ने जब से उसपर एक करोड़ डॉलर का इनाम घोषित किया है तब से उसके हौसले बढ़े हैं, कम नहीं हुए। सेना और न्यायपालिका भी उसके साथ हैं। सरकार का तयशुदा जवाब है कि हम हाफिज सईद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक गए, पर सबूतों के अभाव में कुछ भी सम्भव नहीं। आप हमें सबूत दीजिए। ज़की उर रहमान लखवी के खिलाफ भारत ने पाकिस्तान को जो सबूत दिए थे, उन्हें अदालत के सामने रखा ही नहीं गया। जिन सबूतों को रखा उनका स्रोत अदालत को नहीं बताया।

इन सबूतों को अदालत मानने से इंकार करती तो अमेरिकी सबूतों की कलई खुलती। लखवी के खिलाफ अजमल कसाब के बयानों के अलावा भारतीय और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा रिकॉर्ड की गई मोबाइल फोन बातचीत भी है। पाकिस्तानी न्याय-व्यवस्था लखवी की आवाज का नमूना तक हासिल नहीं कर पाई। जब निचली अदालत ने लखवी को जमानत पर छोड़ने का आदेश दिया तो सरकार ने ऊपर की अदालत में उसके खिलाफ अपील तक दायर नहीं की। ज़ाहिर है कि उसकी गिरफ्तारी को बढ़ाते जाने की कोशिशें केवल दिखावा थीं। सरकार चाहती थी कि वह रिहा हो जाए।

सच यह है कि वह जेल में सिर्फ नाम के लिए था। उसके पास अनेक कमरे थे। उसे टीवी, मोबाइल फोन, इंटरनेट और हर तरह की सुविधा दी गई थी। दिन भर उसके पास दर्जनों लोग आते-जाते थे। लश्कर का सीधा रिश्ता पाकिस्तानी सेना से है। इस संगठन को नवाज़ शरीफ का शुरू से आशीर्वाद प्राप्त है। शुरु के दिनों में लश्कर तालिबानियों के साथ अफगानिस्तान में सक्रिय रहा। फिर 1990 के बाद जब सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से निकल गए, तो हाफिज़ सईद ने अपने जेहादी मिशन को भारत के कश्मीर की तरफ़ मोड़ दिया।
कश्मीर में शुरुआती पाकिस्तानी रणनीति सीधे-सीधे सेना की मदद से कब्ज़ा करने की थी। सन 1948, 1965 और 1999 की लड़ाइयों में उसे विफलता मिली। नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने ‘नॉन-स्टेट एक्टर’ यानी जेहादियों का सहारा लेना शुरू किया। 13 दिसंबर 2001-संसद पर हमला, 28 अक्टूबर 2005-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर पर हमला, 29 अक्टूबर 2005-दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट, 7 मार्च 2006- वाराणसी में हमला, 11 जुलाई 2006- मुंबई की लोकल ट्रेन में सीरियल ब्लास्ट, अगस्त 2007-हैदराबाद के पार्क में धमाका और 26 नवंबर 2008 को मुम्बई हमला। इनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लश्कर का हाथ था।

26-11 के मुंबई हमले पर पाकिस्तान की तरफ़ से, आतंकवाद निरोधक अदालत में दायर की गई चार्जशीट में भारतीय सबूतों का मज़ाक उड़ाते हुए हाफिज़ सईद का नाम तक नहीं लिखा गया। इसमें लश्कर कमांडर ज़की उर रहमान लखवी का नाम दिया गया। उस मामले का अब तिया-पाँचा भी हो गया है। राजनयिक रूप से अब भारत क्या कर सकता है? फ्रांस ने इस रिहाई की निन्दा की है। अमेरिका ने तो लखवी के खिलाफ सबूत ही दिए थे। हाल में एक अमेरिकी अधिकारी ने कहा था कि अमेरिका ने लखवी और मुंबई आतंकी हमलों में शामिल अन्य लोगों के बारे में पाकिस्तान को जो सूचना दी है वह विश्वसनीय है।

अमेरिका को पाकिस्तान की असलियत का पता है। पहले वह जानते हुए भी अनजाना बनता था, पर सन 2011 में यह साबित होने के बाद कि ओसामा बिन लादेन उसका मेहमान था, पाकिस्तान दुनिया के सामने नंगा हो गया। पाकिस्तानी कट्टरपंथी धड़े को अदालती समर्थन मिलता है। यह कट्टरपंथ पाकिस्तानी राष्ट्रवाद है। दिफाए पाकिस्तान कौंसिल नाम के संगठन के तीन प्रमुख नेता हैं मौलाना समीउल हक़,  हाफिज़ सईद और आईएसआई के पूर्व डायरेक्टर जनरल हमीद गुल। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए लाहौर में हुई नमाज़ में हाईकोर्ट के जज भी शामिल थे। इसी हाईकोर्ट ने हाफिज सईद को मुम्बई मामले से बरी किया था। यह भी संयोग नहीं है कि सीआईए को लादेन के बारे में जानकारी देने वाले डॉ शकील अफरीदी को 33 साल की सजा देने वाली अदालत इसी न्यायपालिका का हिस्सा है।

इस कट्टरपंथ को हवा-पानी सेना के एक बड़े तबके से मिलता है। अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसेन हक्कानी के मामले में भी सेना और सुप्रीम कोर्ट का रुख सामने आ गया था। नवाज शरीफ की सरकार के पहले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार का टकराव लगातार इस कट्टरपंथी तबके से होता रहा। वहाँ की सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों से साबित किया है कि सेना वहाँ की सरकार के अधीन नहीं है। सवाल सिद्धांत का नहीं, विचारधारा का है। पिछले सत्ताईस साल में वहाँ की नागरिक सरकारों को गिराने में सबसे बड़ी भूमिका सेना की रही है। सन 1988 में बेनज़ीर भुट्टो की सरकार बनने पर आईएसआई के डीजी हमीद गुल ने एक इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद खड़ा कर दिया।


सवाल है हम क्या करें? अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर मामला उठाने के अलावा हमें अपनी सुरक्षा प्रणाली को मजबूत रखना चाहिए। पाकिस्तान का कट्टरपंथी जुनून उसे आर्थिक रूप से खोखला कर रहा है। वहाँ उभरता हुआ मध्यवर्ग भी है जो कट्टरपंथी रास्ते को नापसंद करता है। हमें उसके अंतर्विरोधों के खुलने का इंतज़ार करना चाहिए। विकासशील अर्थव्यवस्था भारत की ताकत है। हम अपनी इसी ताकत के सहारे अपनी अंतरराष्ट्रीय स्थिति को बेहतर बना सकते हैं। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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