Tuesday, April 7, 2015

सार्वजनिक स्वास्थ्य राजनीति का विषय बनाइए, राजनीतिबाज़ी का नहीं

आप कहेंगे कि राजनीतिबाज़ी और राजनीति में फर्क क्या है? हमें जो राजनीति दिखाई पड़ती है वह ज्यादातर राजनीतिबाज़ी है। इसमें सिद्धांत कम, मौकापरस्ती ज्यादा है। सत्ता पर यह पार्टी रहे या वह रहे, इससे तबतक कोई फर्क नहीं पड़ता जबतक सार्वजनिक विमर्श मूल्य-आधारित नहीं होता। अचानक हम तम्बाकू पर चर्चा शुरू होती देखते हैं और फिर उसे किसी दूसरी चर्चा शुरू होने पर खत्म होते भी देखते हैं। इसके मूल में सार्वजनिक स्वास्थ्य नहीं, मौकापरस्त राजनीति है। तम्बाकू का सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम एक अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़े हैं। पर केवल तम्बाकू ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है। शराब, नमक, चीनी, कोल्ड ड्रिकं, फास्ट फूड, चिकनाई और पर्यावरण में फैला ज़हर भी खतरनाक है। बड़ा सच यह है कि कैंसर और एचआईवी के मुकाबले सर्दी-ज़ुकाम और कुपोषण से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा है। इन सबके  इलाज और नियमन पर विचार किया जाना चाहिए। भारत का अनुभव है कि तम्बाकू उत्पादों पर खौफनाक तस्वीरें छापने पर ही जनता का ध्यान अपने स्वास्थ्य पर जाता है। वह तभी विचलित होती है जब परेशान करने वाली तस्वीरें देखती है। इन सवालों पर केंद्रित राजनीति हमारे यहाँ विकसित नहीं है। जनता के साथ-साथ हमें अपनी राजनीति को शिक्षित करने की जरूरत भी है।

इस बात को लेकर बहस करने का कोई मतलब नहीं है कि तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकर है या नहीं। भारत में बीड़ी को लेकर कोई शोध नहीं हुआ है तो कराइए। इससे जुड़े कारोबार के सामाजिक प्रभावों पर भी अध्ययन होना चाहिए। पर सच यह है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं हैं। इसी कारण तम्बाकू को लेकर चल निकली बहस सेहत से जुड़ी चिंताओं के बजाय राजनीतिक खेमेबाज़ी में तब्दील हो रही है। तम्बाकू लॉबी की ताकत जग-ज़ाहिर है। पर लॉबी सिर्फ तम्बाकू की ही नहीं है। इन लॉबियों पर नकेल डालने वाले समाज की स्थापना के बारे में सोचिए।

तम्बाकू के सेवन के खिलाफ सोलहवीं सदी से किसी न किसी रूप में अभियान चल रहे हैं। दुनिया के ज्यादातर धर्मों ने इसके सेवन को गलत कहा है, फिर भी इसका सेवन बदस्तूर जारी है। अलबत्ता तम्बाकू उत्पादों के रैपर पर भयावह और विचलित करने वाली तस्वीरों का असर पड़ा है। इन अभियानों के कारण इसके सेवन में कमी भी आई है। पर वर्तमान बहस जन-जागरूकता पर कम राजनीति पर ज्यादा केंद्रित होने के कारण अपने उद्देश्यों से भटक रही है।
तम्बाकू को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन का वैश्विक अभियान है और इस अंतरराष्ट्रीय संधि पर हमारे देश ने भी हस्ताक्षर किए हैं। पर तम्बाकू ही अकेला बड़ा खतरा नहीं है। शराब, चीनी, नमक, चिकनाई, कोल्ड ड्रिंक और फास्ट फूड भी खतरनाक हैं। इनका सेवन हो सकता है तम्बाकू से कम हो, पर खतरनाक तो है। क्या वक्त नहीं आ रहा है कि हम मिठाई, नमकीन के पैकेटों पर भोजनालयों के बाहर, बल्कि ज्यादा फैट वाले दूध और मक्खन के पैकेटों पर भी वैधानिक चेतावनियों की व्यवस्था करें? खासतौर से चीनी और नमक आने वाले समय में खतरनाक बनकर सामने आने वाले हैं।
संयोग है कि तम्बाकू पर यह बहस तब शुरू हुई है जब हम अगले महीने विश्व तम्बाकू विरोधी दिवस मनाने जा रहे हैं। देश में तम्बाकू विरोधी अभियान का चेहरा बनीं सुनीता तोमर का इसी 1 अप्रैल को निधन हुआ तब इस बहस को एक आधार मिला। कैंसर की शिकार सुनीता तोमर ने मौत से दो दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इस बात पर नाराजगी जताई थी कि बीजेपी के एक सांसद और तम्बाकू अधिनियम के प्रावधानों पर विचार करने वाली संसदीय समिति के प्रमुख दिलीप गांधी कह रहे हैं कि तम्बाकू से कैंसर के रिश्ते को प्रमाणित करने वाला कोई अध्ययन भारत में नहीं हुआ। हाल में गांधी ने स्वास्थ्य मंत्रालय को पत्र लिखकर कहा था कि तंबाकू और सिगरेट के पैकेटों पर कैंसर की चेतावनी देने वाले नारे को बड़े साइज में छापने के निर्णय को टाला जाए। संयोग यह भी है कि हाल में प्रधानमंत्री ने अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ नशा मुक्ति की बात की थी। इस नशा मुक्ति में धूम्रपान भी शामिल है।
सुनीता उन 10 लाख भारतीयों में शामिल थीं जो हर साल तम्बाकू के कारण अपनी जान गँवाते हैं। भारत में तम्बाकू के खिलाफ यों तो एक अरसे से आंदोलन चल रहा है, पर पिछले एक दशक से इसे ज्यादा ताकत मिली है। खासतौर से 27 फ़रवरी 2005 को हुए तम्बाकू नियंत्रण पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की संधि (एफसीटीसी) के बाद से हम एक वैश्विक अभियान का हिस्सा बने हैं। यह अपने किस्म की पहली वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य संधि है। इस पर 168 देशों के हस्ताक्षर हैं। इसमें शामिल देशों ने ऐसे कानून बनाने का संकल्प किया है जिनमें कार्यस्थलों, सार्वजनिक परिवहन और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर रोक लगाई जाएगी। कुछ देशों ने तम्बाकू उत्पादों की पैकेजिंग पर वैधानिक चेतावनियों को लगाना अनिवार्य कर दिया है। कई देशों में इन पैकेटों पर धूम्रपान के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े रेखाचित्रों को शामिल किया गया है। कनाडा में सिगरेट के पैकेट में धूम्रपान छोड़ने की विधियों को समझाया जाता है।
वैश्विक स्तर पर इतने प्रयासों के बावजूद तम्बाकू उत्पादों के प्रयोग में प्रभावशाली कमी नहीं आई है। अलबत्ता अमेरिका और कुछ अन्य यूरोपीय देशों में तम्बाकू विरोधी विज्ञापनों के प्रभाव पर किए गए अध्ययनों से पता लगा है कि धूम्रपान को रोकने में मदद मिली है। यह कमी पश्चिमी देशों में है, जहाँ जागरूकता का स्तर यों भी भारत जैसे पिछड़े देशों के मुकाबले बेहतर है। भारत में तम्बाकू का सेवन सिगरेट के अलावा बीड़ी और दूसरे परम्परागत तरीकों से होता है। तम्बाकू का आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में औषधि के रूप में भी इस्तेमाल होता है। यह भी कहा जाता है कि तम्बाकू से जुड़े कारोबार में लाखों लोग लगे हैं उनकी रोजी पर चोट लगेगी।
ये सब बातें आंशिक रूप से सही होने के बावजूद यह साबित नहीं करतीं कि तम्बाकू का सेवन होना चाहिए। सच है कि दुनिया भर में तम्बाकू, शराब और जुए की लॉबियाँ काफी ताकतवर हैं। जन-जागरूकता की कमी उनकी ताकत को बढ़ाती है। इसलिए ध्यान उस दिशा में होना चाहिए। जबरदस्ती किसी को भी तम्बाकू का प्रयोग करने से नहीं रोका जा सकता। व्यक्ति को तम्बाकू के दुष्प्रभावों को लेकर जागरूक करना जरूरी है। दूसरे जो लोग तम्बाकू और शराब वगैरह से छुटकारा पाना चाहते हैं उनकी पहुँच में तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र की सुविधा भी होनी चाहिए।
पाँच साल पहले देश में सिगरेट, बीड़ी और गुटके के पैकेट पर कैंसर के वीभत्स और डरावने चित्रों की शुरुआत हुई है। तम्बाकू कम्पनियों ने उस वक्त भी इन तस्वीरों का विरोध किया था। उसके पहले तक पैकेट पर कर्क (कैंसर) के चित्र छपते थे। पर उसका प्रभाव इसलिए नहीं था कि लोगों को लगता था कि बिच्छू का मतलब है तेज तम्बाकू। तम्बाकू जानलेवा है, यह इन तस्वीरों से ही समझ में आया। इस चेतावनी को लागू होने में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। अदालती हस्तक्षेप के कारण चेतावनी लागू हुई। पश्चिमी देशों में जहाँ सामान्य चित्र काम कर जाते हैं, हमारे जैसे देशों में उनसे ज्यादा खतरनाक चित्रों की जरूरत है।
अभी तक पूरे पैकेजिंग क्षेत्र के 40 प्रतिशत हिस्से में ये चित्र हैं। सिगरेट और अन्य तम्बाकू उत्पाद (पैकेजिंग और लेबलिंग) अधिनियम-2008 में संशोधन के बाद इनका विस्तार 85 फीसदी हिस्से में करने की व्यवस्था है। जितना भी अध्ययन हुआ है उससे पता लगा है कि भारत में लिखित चेतावनी के मुकाबले चित्रों के मार्फत दी गई चेतावनी ज्यादा असर करती है। इसके अलावा विज्ञापनों और फिल्मों में भी ऐसी भयावह तस्वीरों को देने की सिफारिश की जा रही है। रैपर के 85 प्रतिशत हिस्से पर चेतावनी की अधिसूचना भी केंद्र सरकार ने जारी कर दी थी। लेकिन 1 अप्रैल से लागू होने वाले इस नियम को सरकार ने स्थगित कर दिया। इसे स्थगित करने की सिफारिश जिस संसदीय समिति ने की उसके सदस्य इलाहाबाद के बीजेपी सांसद श्यामाचरण गुप्ता भी हैं।
श्यामाचरण गुप्ता खुद तम्बाकू व्यवसाय से जुड़े हैं। क्या ऐसे लोगों को ऐसी संसदीय समिति का सदस्य होना चाहिए जो उनके कारोबारी मसलों पर विचार कर रही है? इस सवाल के साथ कई तरह के राजनीतिक मसले जुड़े हैं। यह पहला मौका नहीं है जब किसी संसदीय समिति में ऐसे सदस्य शामिल हैं जिनके कारोबारी हित हैं। अतीत में ऐसी समितियाँ बनती रहीं हैं, जिनमें सम्बद्ध कारोबार के लोग शामिल रहे। पन्द्रहवीं लोकसभा में भाजपा के पीबी कोरे, जेडीएस के एमएएम रामास्वामी और कांग्रेस के डीआर मेघे स्वास्थ्य से सम्बद्ध स्थायी समिति के सदस्य बनाए गए, हालांकि वे मेडिकल कॉलेजों के प्रबंधन का हिस्सा थे। वित्तीय कारोबार से जुड़े राजीव चन्द्रशेखर और उद्योगपति विजय दरडा वित्तीय समिति के सदस्य थे। किंगफिशर एयरलाइंस के मालिक विजय माल्या नागरिक उड्डयन समिति के सदस्य थे।
यह मसला केवल कांग्रेस बनाम भाजपा तक सीमित नहीं है। संसदीय समिति में केवल भाजपा के सदस्य ही नहीं हैं। भारतीय बीड़ी उद्योग तम्बाकू विरोधी अभियान को नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के खिलाफ विदेशी साजिश साबित करना चाहता है। यह भी गलत है। बेहतर हो कि बीड़ी के स्वास्थ्य पर प्रभाव को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान किया जाए। यदि तम्बाकू का सेवन देश के स्वास्थ्य के लिए अहितकर है तो उसे इसलिए चलाए रखने का कोई औचित्य नहीं है कि वह कितने लोगों को रोजी देता है। हमें वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए। यह उद्योग रोजगार देकर अर्थ-व्यवस्था कि जितनी मदद कर रहा है उतना ही सामाजिक नुकसान स्वास्थ्य सेवा पर खर्च बढ़ाकर कर रहा है। जीवन और स्वास्थ्य ज्यादा बड़ी जरूरत है।

1 comment:

  1. बेमतलब के और बहुत मुद्दे हैं , हमारे नेताओं के पास,जिन पर अनावश्यक बहस की जाती है , जनहित की बातों पर विचार करने व एक दूसरे की टांग खींचने से ही इनको फुर्सत नहीं है , सब नेताओं को एक ही कुदरत ने एक ही मिटटी से बनाया है , बस उन्हें पार्टी अलग अलग दे दी हैं

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