Sunday, May 31, 2015

दिल्ली दंगल से हासिल क्या हुआ?

तकरीबन दो हफ्ते की जद्दो-जहद के बाद दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारियों का संग्राम अनिर्णीत है। दिल्ली सरकार ने विधान सभा का विशेष सत्र बुलाने, केंद्र की अधिसूचना को फाड़ने और उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करने के बाद अंततः स्वीकार कर लिया कि वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों के फैसलों पर उप-राज्यपाल की अनुमति ली जाएगी। यदि एलजी और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद होगा तो संस्तुति राष्ट्रपति को भेजी जाएगी। राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से फैसला करेंगे। यानी कुल मिलाकर जैसा केंद्र सरकार कहेगी वैसा होगा। यह भी लगता है कि अंतिम फैसला आने तक केंद्रीय अधिसूचना जारी रहेगी।

Wednesday, May 27, 2015

कहाँ ले जाएगा शिक्षा का ‘मार्क्सवाद’?

सीबीएसई की 12वीं कक्षा की परीक्षा में इस साल टॉप करने वाली दिल्ली एम गायत्री ने कॉमर्स विषयों में 500 में से 496 अंक (अथवा 99.2 प्रतिशत) हासिल देशभर में टॉप किया. यानी पाँच विषयों में उनके कुल जमा चार अंक कटे. नोएडा की मैथिली मिश्रा और तिरुअनंतपुरम के बी अर्जुन संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर रहे. इन दोनों को 500 में 495 अंक (99 प्रतिशत) प्राप्त हुए.

इसके पहले सीबीएसई की 10 वें दर्जे की परीक्षा के परिणाम आए थे. आईसीएसई तथा देश के अलग-अलग राज्यों की बोर्ड परीक्षा के परिणाम आ रहे हैं या आने वाले हैं. बच्चे उन ऊँचाइयों को छू रहे हैं, जिनसे ऊँचा पैमाना ही नहीं है. हर साल तमाम विषयों में बच्चे 100 में से 100 अंक हासिल कर रहे हैं. इन बच्चों की तस्वीरें इन दिनों मीडिया में छाई हैं. बधाइयों और मिठाइयों का बाज़ार गर्म है. इन परिणामों के साथ इंजीनियरी, मेडिकल और दूसरे व्यावसायिक कोर्सों की प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम आ रहे हैं.

Sunday, May 24, 2015

मोदी का पहला साल

इसे ज्यादातर लोग मोदी सरकार का पहला साल कहने के बजाय 'मोदी का पहला साल' कह रहे हैं। जो मोदी के बुनियादी आलोचक हैं या जो बुनियादी प्रशंसक हैं उनके नजरिए को अलग कर दें तो इस एक साल को 'टुकड़ों में अच्छा और टुकड़ों में खराब' कहा जा सकता है। मोदी के पहले एचडी देवेगौडा ऐसे प्रधानमंत्री थे , जिनके पास केन्द्र सरकार में काम करने का अनुभव नहीं था। देवेगौडा उतने शक्ति सम्पन्न नहीं थे, जितने मोदी हैं। मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने कुछ देशों की यात्रा भी की थी, पर पश्चिमी देशों में उनकी आलोचना होती थी। केवल चीन और जापान में उनका स्वागत हुआ था। पर प्रधानमंत्री के रूप से उन्हें वैदेशिक सम्बन्धों के मामले में ही सफलता ही मिली है। अभी उनकी सरकार के चार साल बाकी हैं। पहले साल में उन्होंने रक्षा खरीद के बाबत काफी बड़ा फैसले किए हैं। इतने बड़े फैसले पिछले दस साल में नहीं हुए थे। इसी तरह योजना आयोग को खत्म करने का बड़ा राजनीतिक फैसला किया। पार्टी संगठन में अमित शाह के मार्फत उनका पूरा नियंत्रण है। दूसरी ओर कुछ वरिष्ठ नेताओं का असंतोष भी जाहिर है।

मोदी सरकार का एक साल पूरा होने पर जितने जोशो-खरोश के साथ सरकारी समारोह होने वाले हैं, उतने ही जोशो-खरोश के साथ कांग्रेसी आरोप पत्र का इंतज़ार भी है। दोनों को देखने के बाद ही सामान्य पाठक को अपनी राय कायम करनी चाहिए। सरकार के कामकाज का एक साल ही पूरा हो रहा है, पर देखने वाले इसे ‘एक साल बनाम दस साल’ के रूप में देख रहे हैं। ज्यादातर मूल्यांकन व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी तक केंद्रित हैं। पिछले एक साल को देखें तो निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि निराशा और नकारात्मकता का माहौल खत्म हुआ है। पॉलिसी पैरेलिसिस की जगह बड़े फैसलों की घड़ी आई है। हालांकि अर्थ-व्यवस्था में सुधार के संकेत हैं, पर सुधार अभी धीमा है। 

Wednesday, May 20, 2015

दिल्ली का अस्पष्ट प्रशासनिक विभाजन, ऊपर से राजनीति का तड़का

जिस बात का अंदेशा था वह सच होती नज़र आ रही है. दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारों का विवाद संवैधानिक संकट के रूप में सामने आ रहा है. अंदेशा यह भी है कि यह लड़ाई राष्ट्रीय शक्ल ले सकती है. उप-राज्यपाल के साथ यदि केवल अहं की लड़ाई होती तो उसे निपटा लिया जाता. विवाद के कारण ज्यादा गहराई में छिपे हैं. इसमें केंद्र सरकार को फौरन हस्तक्षेप करना चाहिए. दूसरी ओर इसे राजनीतिक रंग देना भी गलत है. रविवार की शाम तक कांग्रेस के नेता केजरीवाल पर आरोप लगा रहे थे. टीवी चैनलों पर बैठे कांग्रेसी प्रतिनिधियों का रुख केजरीवाल सरकार के खिलाफ था. उसी शाम पार्टी के वरिष्ठ नेता अजय माकन ने इस संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी पर आरोप लगाकर इसका रुख बदल दिया है. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने केजरीवाल का समर्थन किया. लगता है कि सम्पूर्ण विपक्ष एक साथ आ रहा है. 

एक तो अस्पष्ट प्रशासनिक व्यवस्था ऊपर से अधकचरी राजनीति। इसमें नौकरशाही के लिपट जाने  के बाद सारी बात का रुख बदल गया है. खुली बयानबाज़ी से मामला सबसे ज्यादा बिगड़ा है. अरविन्द केजरीवाल को विवाद भाते हैं. सवाल यह भी है कि क्या वे अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नए विवादों को जन्म दे रहे हैं? विवाद की आड़ में राजनीतिक गोलबंदी हो रही है. क्या यह बिहार में होने वाले विवाद की पूर्व-पीठिका है? विपक्षी एकता कायम करने का भी यह मौका है. पर यह सवाल कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्य सरकार को क्या अपने अफसरों की नियुक्तियों का अधिकार भी नहीं होना चाहिए? क्या उसके हाथ बंधे होने चाहिए? चुनी हुई सरकार को अधिकार नहीं होगा तो उसकी प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी?  मौजूदा विवाद पुलिस या ज़मीन से ताल्लुक नहीं रखता, जो विषय केंद्र के अधीन हैं. 

Monday, May 18, 2015

राज्यसभा भी हमारी व्यवस्था का जरूरी हिस्सा है

भारतीय संविधान में राज्यसभा की ख़ास जगह क्यों?

  • 17 मई 2015

अरुण जेटली

राज्यसभा में विपक्ष से हलकान मोदी सरकार के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक साक्षात्कार में कहा कि जब एक चुने हुए सदन ने विधेयक पास कर दिए तो राज्यसभा क्यों अड़ंगे लगा रही है?
जेटली के स्वर से लगभग ऐसा लगता है कि राज्यसभा की हैसियत क्या है?
असल में भारत में दूसरे सदन की उपयोगिता को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी.
आखिरकार दो सदन वाली विधायिका का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि इतने बड़े और विविधता वाले देश के लिए संघीय प्रणाली में ऐसा सदन जरूरी था.
धारणा यह भी थी कि सीधे चुनाव के आधार पर बनी एकल सभा देश के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए नाकाफी होगी.

क्या राज्यसभा चुनी हुई नहीं?


राज्यसभा

ऐसा नहीं है. बस इसके चुनाव का तरीका लोकसभा से पूरी तरह अलग है.
इसका चुनाव राज्यों की विधान सभाओं के सदस्य करते हैं. चुनाव के अलावा राष्ट्रपति द्वारा सभा के लिए 12 सदस्यों के नामांकन की भी व्यवस्था की गई है.

Sunday, May 17, 2015

चीन के साथ संवाद

नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा का महत्वपूर्ण पहलू है कुछ कठोर बातें जो विनम्रता से कही गईं हैं। भारत और चीन के बीच कड़वाहट के दो-तीन प्रमुख कारण हैं। एक है सीमा-विवाद। दूसरा है पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों में भारत की अनदेखी। तीसरे दक्षिण चीन तथा हिन्द महासागर में दोनों देशों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा। चौथा मसला अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का है। भारत लगातार  आतंकवाद को लेकर पाकिस्तानी भूमिका की शिकायत करता रहा है। संयोग से पश्चिम चीन के शेनजियांग प्रांत में इस्लामी कट्टरतावाद सिर उठा रहा है। चीन को इस मामले में व्यवहारिक कदम उठाने होंगे। पाकिस्तानी प्रेरणा से अफगानिस्तान में भी चीन अपनी भूमिका देखने लगा है। यह भूमिका केवल इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि अफगान सरकार और तालिबान के बीच मध्यस्थता से भी जुड़ी है।   

Saturday, May 16, 2015

रिटेल में विदेशी पूँजी यानी विसंगति राजनीति की

यूपीए सरकार ने 2012 में कई शर्तों के साथ बहु-ब्रांड खुदरा में 51 फीसदी एफडीआई को अनुमति दी थी। उस नीति के तहत विदेशी कंपनियों को अनुमति देने या नहीं देने का फैसला राज्यों पर छोड़ दिया गया था। राजनीतिक हल्कों में यह मामला पहेली ही बना रहा। चूंकि यूपीए सरकार की यह नीति थी, इसलिए भारतीय जनता पार्टी को इसका विरोध करना ही था। और अब जब एनडीए सरकार यूपीए सरकार की अनेक नीतियों को जारी रखने की कोशिश कर रही है तो उसके अपने अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। पिछले साल चुनाव के पहले और जीतने के बाद एनडीए ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश के मामले पर अपने विचार को कभी स्पष्ट नहीं किया।  

Thursday, May 14, 2015

चीनी जादूनगरी से क्या लाएंगे मोदी?

अपनी सरकार की पहली वर्षगाँठ के समांतर हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के अनेक निहितार्थ हैं. सरकार महंगाई, किसानों की आत्महत्याओं और बेरोजगारी की वजह से दबाव में है वहीं वह विदेशी मोर्चे पर अपेक्षाकृत सफल है. चीन यात्रा को वह अपनी पहली वर्षगाँठ पर शोकेस करेगी. देश के आर्थिक रूपांतरण में भी यह यात्रा मील का पत्थर साबित हो सकती है. वैश्विक राजनीति तेजी से करवटें ले रही है. हमें एक तरफ पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है वहीं चीन और रूस की विकसित होती धुरी को भी ध्यान में रखना है.

Sunday, May 10, 2015

‘अन्याय’ हमारे भीतर है

सलमान खान मामले के बाद अपने संविधान की प्रस्तावना को एकबार फिर से पढ़ने की इच्छा है। इसके अनुसारः-
" हम भारत के लोग, ...समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
   सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। फेसबुक पर पनीले आदर्शों से प्रेरित लम्बी बातें फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया। इसमें गलत क्या किया?

Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Thursday, May 7, 2015

फुटपाथियों के लिए आप करते क्या हैं?

क्या कहा, हम भारत के नागरिक हैं?
बेशक  हैं। क्या नज़र नहीं आते?
 हम क्यों मानकर चलते हैं कि जिन लोगों के पास विकल्प नहीं हैं उन्हें फुटपाथ पर ही सोते रहना चाहिए? पर विकल्प तैयार करने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। क्या हर शहर ज़रूरतमंदों को रात में सोने और दो वक्त का भोजन निःशुल्क देने का इंतज़ाम नहीं कर सकता? गणित लगाएं तो यह काम इतना मुश्किल भी नहीं है। सामाजिक सुरक्षा और संरक्षण के लिए नागरिकों की पहल भी ज़रूरी है। 
इन दिनों फुटपाथ के बजाय सड़क
के बीच सोना ज्यादा सुरक्षित है।
मोटा अनुमान है कि देश में तकरीबन आठ करोड़ लोग बेघर हैं। एक अखबारी रपट के अनुसार 'गैर-सरकारी संस्थाओं के सर्वे में दिल्ली में बेघरों की संख्या 60 हजार से एक लाख के बीच है तो दिल्ली सरकार इनकी संख्या महज 15 हजार 400 बता रही है। आंकड़ों के इस घालमेल की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन हकीकत यह है कि दिल्ली में बने रैन बसेरों का उपयोग सरकारी लापरवाही की वजह से सही तरीके से नहीं हो पा रहा है।... सरकारी निर्देश के मुताबिक फुटपाथ से बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाना गैर सरकारी संस्थाओं की जिम्मेदारी है। कश्मीरी गेट में बने रैन बसेरे में सोने वाले तो दिन भर की कमाई चोरी होने का भी आरोप लगाते हैं। करीब 2 साल पहले तो दिल्ली सरकार ने बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी गैर-सरकारी संस्थाओं तथा पुलिस की पीसीआर वैन को दी थी। साथ ही सरकार इन रैन बसेरों पर पूरी तरह से निगरानी रखती थी। यही, वजह थी कि फुटपाथ पर सोने वाले रैन बसेरों में नजर आने लगे, जहां उनके लिए पानी, बिजली, चादर, कंबल व साफ-सफाई समेत तमाम सुविधाएं उपलब्ध थी। ' 

Tuesday, May 5, 2015

पत्रकारों की सेवाशर्तें, वेतन और भूमिका

कुछ साल पहले मैने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखकर मीडिया में काम करने वालों से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी कि उनके संस्थान में सेवाशर्तें किस प्रकार की हैं। तब कुछ लोगों ने फोन से और कुछ ने मेल से जानकारी दी थी। पर यह जानकारी काफी कम थी। उन दिनों मैं इस विषय पर एक लम्बा आलेख लिखना चाहता था। यह काफी ब़ड़ा विषय है। इस विषय पर लिखते समय कम से कम चार तरह के दृष्टिकोणों को सामने रखा जाना चाहिए। एक, ट्रेड यूनियन का दृष्टिकोण, दूसरे मालिकों का नजरिया, तीन, सरकार की भूमिका और चार, पाठक का नजरिया। पाठक का नज़रिया इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दूसरे व्यवसायों से भिन्न है। यह कारोबार हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए सूचना और विचार का कच्चा माल तैयार करता है। इसमें पाठक एक महत्वपूर्ण कारक है।

Monday, May 4, 2015

'स्क्रीन' के बंद होने पर विष्णु खरे का रोचक लेख

सिनेमा का साप्ताहिक अखबार 'स्क्रीन' भी  बंद हो गया. एक ज़माने में मुम्बई कारखाने से निकलने वाली ज्यादातर फिल्मों की सूचना तब तक खबर नहीं बनती थी, जबतक वह स्क्रीन में न छप जाए. स्क्रीन में कई-कई पेज के विज्ञापन देकर निर्माता अपने आगमन की घोषणा करते थे. बहरहाल समय के साथ चीजों का रूपांतरण होता है. अलबत्ता यह जानकारी 3 मई के नवभारत टाइम्स में विष्णु खरे के लेख से मिली. खरे जी का लिखा पढ़ने का अपना निराला आनन्द है. यह लेख नवभारत टाइम्स से निकाल कर यहाँ पेश है. लेख के अंत में वह लिंक भी है जो आपको अखबार की साइट पर पहुँचा देगा.
एक छपे रिसाले के लिए विलंबित मर्सिया                
विष्णु खरे 

आज से साठ वर्ष पहले अपने पैदाइशी कस्बे छिन्दवाड़ा में गोलगंज से छोटीबाज़ार जाने वाले रास्ते के नाले की बगल में एक नए खुले पान-बीड़ी के ठेले पर उसे झूलते देख कर मैं हर्ष विस्मित रह गया था. घर पर (एक दिन पुराना डाक एडीशन) ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ’इलस्ट्रेटेड वीकली’ और ‘धर्मयुग’ नियमित आते थे, हिंदी प्रचारिणी लाइब्रेरी में और कई हिंदी-अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाएँ देखने-पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त था, लेकिन वह अंग्रेज़ी अखबार-सा दीखनेवाला जो एक रस्सी से लटका फड़फड़ा रहा था, एक युगांतरकारी, नई चीज़ थी. क्या किसी दैनिक से लगनेवाले इंग्लिश साप्ताहिक का नाम ‘’स्क्रीन’’ हो सकता था ? और जिसके हर एक पन्ने पर सिवा फिल्मों, सिनेमा, उनके इश्तहार ,एक्टर, एक्ट्रेस, उनके एक-से-एक शूटिंग या ग़ैर-शूटिंग फोटो वगैरह के और कुछ न हो ? खुद जिसका नाम सेल्युलॉइड की रील के टुकड़ों की डिज़ाइन में छपा हुआ हो ? मुझे पूरा यकीन है कि उसे सबसे पहले हासिल करने के लिए जिस रफ़्तार से दौड़ कर मैं घर से चार आने लाया था उसे तब रोजर बैनिस्टर या आज ओसैन बोल्ट भी छू नहीं पाए होंगे.

Sunday, May 3, 2015

तबाही का भ्रष्टाचार से भी नाता है

अथर्ववेद कहता है, "धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू फिर से पैदा कर सके। तेरी जीवन-शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।" मनु स्मृति कहती है, जब पाप बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है। प्रकृति हमारी संरक्षक है, पर तभी तक जब तक हम उसका आदर करें। भूकम्प, बाढ़ और सूखा हमारे असंतुलित आचरण की परिणति हैं। अकुशल, अनुशासनहीन, अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी समाज प्रकृति के कोप का शिकार बनता है। प्रकृति के करवट लेने से जीव-जगत पर संकट आता है, पर वह हमेशा इतना भयावह नहीं होता। भूकम्प को रोका नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा सकता है।