Saturday, May 16, 2015

रिटेल में विदेशी पूँजी यानी विसंगति राजनीति की

यूपीए सरकार ने 2012 में कई शर्तों के साथ बहु-ब्रांड खुदरा में 51 फीसदी एफडीआई को अनुमति दी थी। उस नीति के तहत विदेशी कंपनियों को अनुमति देने या नहीं देने का फैसला राज्यों पर छोड़ दिया गया था। राजनीतिक हल्कों में यह मामला पहेली ही बना रहा। चूंकि यूपीए सरकार की यह नीति थी, इसलिए भारतीय जनता पार्टी को इसका विरोध करना ही था। और अब जब एनडीए सरकार यूपीए सरकार की अनेक नीतियों को जारी रखने की कोशिश कर रही है तो उसके अपने अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। पिछले साल चुनाव के पहले और जीतने के बाद एनडीए ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश के मामले पर अपने विचार को कभी स्पष्ट नहीं किया।  


केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने पिछले मंगलवार को एकीकृत एफडीआई नीति जारी की, जिसमें बहु-ब्रांड खुदरा में 51 फीसदी एफडीआई को इस शर्त के साथ बरकरार रखा गया है कि 'इस नीति के क्रियान्वयन का फैसला राज्य सरकारों को करने की आजादी होगी।' सरकार कहना चाहती है कि हमने अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के अनुकूल बनाया है। ऐसा कहने के प्रयास में उसने अपनी विसंगति को भी जाहिर कर दिया। सरकार का आशय था कि मल्‍टी ब्रांड रिटेल के अलावा डिफेंस, कंस्ट्रक्शन, बीमा, मेडिकल डिवाइसेस को एफडीआई के लिए खोल दिया है। रिटेल में विदेशी निवेश को पाप की तरह पेश करने के बाद पुण्य कैसे कहा जा सकता है?

इसे सरकार का यू-टर्न कहने के बजाय दुविधा कहना बेहतर होगा। नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राएं विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ाने की कोशिश का हिस्सा हैं। राजनीतिक कारणों से भाजपा ने इसका विरोध किया। अब यह उसके ही गल पड़ गई है। लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा खुलकर इसका विरोध करती थी। 7 मार्च 2013 को तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित खुदरा कारोबारियों के सम्मेलन में कहा, भाजपा सत्ता में आई रिटेल में एफडीआई की अधिसूचना को वापस ले लिया जाएगा। नरेंद्र मोदी ने भी इसी आशय की बातें ट्वीट की थीं। पर सरकार बनने के बाद अधिसूचना को वापस नहीं लिया गया। लगता नहीं कि इसे वापस लिया जाएगा।

सन 2012 के फैसले को लागू करने के बारे में केवल कांग्रेस शासित राज्यों ने ही सहमति जताई थी। अब कई राज्यों में सरकार बदलने के बावजूद कागजों पर राज्यों का रुख नहीं बदला है। हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान और आंध्र प्रदेश का नाम उन राज्यों की सूची में है, जो विदेशी निवेश के पक्ष में हैं। महाराष्ट्र, हरियाणा और राजस्थान में अब भाजपा की सरकार है, जबकि पहले कांग्रेस की सरकार थी। आंध्र प्रदेश में भाजपा के सहयोग से तेलुगु देशम की सरकार है। दिल्ली में कांग्रेस की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार है। हालांकि आप ने स्पष्ट किया है कि वह विदेशी निवेश के समर्थन में नहीं है, पर उसने इस बारे में विस्तार से नहीं बताया कि उसने अपने विरोध से केंद्र को अवगत कराया या नहीं। इसी तरह राजस्थान सरकार के रुख का भी पता नहीं।

अन्य समर्थक राज्य हैं हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, मणिपुर और असम। इनमें जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी जगह कांग्रेस की सरकार है। यह मामला इतना पेचीदा हो चुका है कि विदेशी कम्पनियों की हिम्मत निवेश करने की बाकी नहीं बची। वॉलमार्ट ने तभी अपने हाथ खींच लिए थे। विदेशी निवेश होने वाला नहीं है, पर सरकारी दस्तावेज में इसका उल्लेख होने से यह बहस फिर से शुरू हो गई है। संयोग से यह मसला तब उठा है जब बहस ई-कारोबार में विदेशी निवेश पर केंद्रित है। पिछले साल दशहरे-दीपावली के मौके पर 'बिग बिलियन डे' सेल से फ्लिपकार्ट ने सबसे बड़ी बिक्री का नया रिकॉर्ड ही नहीं बनाया बल्कि पहले 10 घंटे में एक अरब हिट का नया रिकॉर्ड भी कायम किया। उस परिघटना ने भारतीय रिटेल कारोबार के पंख लगा दिए हैं।

लगता यह है कि ई-बाज़ार ज्यादा बड़ा चुनौती के साथ खुलने जा रहा है। हाल में ई-कॉमर्स में विदेशी निवेश के सवाल पर एक केंद्रीय मंत्री ने जवाब दिया था, 'तकनीक को कौन रोक सकता है। संयोग से ई-कारोबार में विदेशी निवेश को लेकर गुरुवार को हुई बैठक में काफी गरमा-गरमी रही। अमेज़न और ई-बे जैसी विदेशी कम्पनियाँ इस बात के पक्ष में हैं कि इसमें विदेशी निवेश की अनुमति दी जाए। ई-कारोबार की चौकीदारी पक्की तरह नहीं हो पाई और इसमें 100 फीसदी विदेशी निवेश सम्भव है। पिछले एक साल में इस कारोबार में नाटकीय तेजी आई है।

ई-कारोबार के मार्फत हो या रिटेल बाजार में नई तकनीक का इस्तेमाल हो, भारतीय माल के बाजार का विस्तार करने की सम्भावना अभी काफी है। बेशक देश में चीनी माल का ढेर लग गया है, पर देशी माल का बाजार भी तो तैयार हो रहा है। इसके समांतर लॉजिस्टिक्स (परिवहन) का एक बड़ा कारोबार खड़ा हो रहा है। फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी भारतीय कम्पनियाँ विदेशी कम्पनियों को टक्कर दे रहीं हैं। हाल में ई-कारोबार को टक्कर देने के लिए भारतीय रिटेल उद्योग ने भी कमर कसी है। देखना होगा कि वह पर्याप्त पूँजी की व्यवस्था कर पाता है या नहीं। सवाल है ई-कारोबार में विदेशी निवेश सम्भव है तो सामान्य खुदरा कारोबार ने क्या बिगाड़ा है?

खुदरा बाजार में एफडीआई की कहानी बड़ी रोचक है। नवम्बर 2011 में यूपीए सरकार ने अचानक मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी पूँजी निवेश को अनुमति देने का फैसला किया। जितनी तेजी से सरकार ने फैसला किया उतनी ही तेजी से बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस फैसले को वापस लेने की घोषणा कर दी। बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी को इसका अधिकार नहीं था, पर उन्होंने घोषणा की। भारतीय राजनीति का वह रोचक प्रहसन था।

इस प्रहसन का दूसरा रूप भारतीय जनता पार्टी के विरोध के रूप में देखने को मिला। मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की अवधारणा का श्रेय एनडीए को भी जाता है। 14 मई 2002 को अपने एक नोट में तत्कालीन वाणिज्य और उद्योग मंत्री मुरासोली मारन ने रिटेल कारोबार में 100 फीसदी विदेशी पूँजी निवेश की वकालत की थी। सन 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले जारी एनडीए के विज़न डॉक्यूमेंट में रिटेल में 26 फीसदी एफडीआई का समर्थन किया गया था। अप्रेल 2004 में तत्कालीन वित्तमंत्री जसवंत सिंह ने एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में कहा था, लोग कहते हैं कि केंटकी (केएफसी) की वजह से ढाबे खत्म हो जाएंगे, पर सच यह है कि ढाबों ने केंटकी का अस्तित्व संकट में डाल दिया है। कोका-कोला और पेप्सी के आने के बाद भी भारतीय शर्बत जिन्दा हैं। भारत को इतना कम मत आँको।

जैसे ही यूपीए ने एफडीआई की बात की, एनडीए ने उसका विरोध शुरू कर दिया। उदारीकरण से जुड़े कानूनों को लेकर यह विसंगति बार-बार दिखाई पड़ती है। दूसरी ओर यूपीए के भीतर भी विसंगति है। आर्थिक सुधारों को लेकर सोनिया गांधी ने जनता के बीच जाकर कभी कुछ नहीं कहा। उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई, जिसकी अधिकतर सलाहों से उनकी ही सरकार सहमत नहीं रही। पार्टी के आर्थिक और राजनीतिक विचारों में तालमेल नहीं था। नवम्बर 2011 में रिटेल में एफडीआई को लेकर मुँह की खाने के बाद यूपीए सरकार ने 2012 में इस फैसले को लागू किया।


देश का कुल खुदरा बाज़ार तकरीबन 500 अरब डॉलर का है। इसमें से मामूली सा कारोबार संगठित क्षेत्र में है। ज्यादातर कारोबार छोटे दुकानदारों के हाथों में है। सरकारी घोषणा के बावजूद विदेशी कम्पनियाँ सामने नहीं आईं। वे कुछ और छूट पाना चाहती थीं, पर भारतीय राजनीतिक स्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं थीं। मनमोहन सिंह सरकार विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के इरादे से खुदरा कारोबार में एफडीआई का समर्थन कर रही थी। यह कदम पूरी तरह फेल हो गया। दूसरी ओर एनडीए सरकार ने इस फैसले का विरोध करने के बावजूद इस अधिसूचना को वापस नहीं लिया। शायद उसका संदेश भी विदेशी निवेशकों तक गलत जाता। बेहतर हो कि देश के राजनीतिक दल ऐसे सवालों को राजनीति का विषय बनाने के बजाय आम सहमति तैयार करें। 
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

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