Tuesday, May 5, 2015

पत्रकारों की सेवाशर्तें, वेतन और भूमिका

कुछ साल पहले मैने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखकर मीडिया में काम करने वालों से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी कि उनके संस्थान में सेवाशर्तें किस प्रकार की हैं। तब कुछ लोगों ने फोन से और कुछ ने मेल से जानकारी दी थी। पर यह जानकारी काफी कम थी। उन दिनों मैं इस विषय पर एक लम्बा आलेख लिखना चाहता था। यह काफी ब़ड़ा विषय है। इस विषय पर लिखते समय कम से कम चार तरह के दृष्टिकोणों को सामने रखा जाना चाहिए। एक, ट्रेड यूनियन का दृष्टिकोण, दूसरे मालिकों का नजरिया, तीन, सरकार की भूमिका और चार, पाठक का नजरिया। पाठक का नज़रिया इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दूसरे व्यवसायों से भिन्न है। यह कारोबार हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए सूचना और विचार का कच्चा माल तैयार करता है। इसमें पाठक एक महत्वपूर्ण कारक है।

सूचना और विचार की वस्तुनिष्ठता की जरूरत किसे है? सरकार और राज्य दो अलग-अलग संस्थाएं हैं, पर अक्सर हम इन्हें एक समझते हैं। सरकार की कामना प्रचार पाने और अपने बारे में नकारात्मक बातों को छिपाने में है। पर राज्य की भूमिका संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में है। प्रेस की स्वतंत्रता का सिद्धांत संविधान प्रदत्त है। पर यह केवल पत्रकार का अधिकार नहीं है। यह हमारे संविधान के अनुसार देश के नागरिकों को जानकारी पाने और विचार व्यक्त करने का अधिकार है। इस अधिकार को हासिल करने में पत्रकार की भूमिका है। इसी सिद्धांत पर पत्रकारिता से जुड़ी संस्थाओं को समय-समय पर राजव्यवस्था सुविधाएं मुहैया कराती है।

सवाल है किसे मिलें सुविधाएं? अंततः ये सुविधाएं मालिकों की सुविधाएं हैं। क्योंकि प्रेस की आज़ादी हमारी संवैधानिक व्यवस्था में 'मालिक की आज़ादी' है। जो अखबार या मीडिया का स्वामी है, उसकी आज़ादी। मालिक वही जिसने पूँजी लगाई है। पत्रकार उसका सेवक है। पत्रकारीय संस्थाओं के आंतरिक अंतर्विरोधों को सामान्य पाठक समझ नहीं पाता। वह अपनी भूमिका को भी नहीं समझता। ऐसा नहीं कि पूँजी के आधार पर खड़े हुए मीडिया ने किसी किस्म की भूमिका को निभाया नहीं है। जो भी भूमिका रही है वह इसी पत्रकारिता की रही है। पर बाज़ार आधारित इस पत्रकारिता ने कम से कम भारत में तमाम तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत में पूँजीवादी व्यवस्था 'क्रोनी कैपिटलिज्म' के रूप में सामने आई है। पूँजीवाद के सैद्धांतिक विचार यानी उदारवाद का विद्रूप। साम्यवादी व्यवस्था में प्रेस फ्रीडम का कोई मतलब नहीं। वह साहित्य की तरह केवल प्रचार का माध्यम है। लेनिन-परिभाषित यह राज-व्यवस्था माओ-विचार से मिलकर चीन के रूप में सामने है। उसमें भी विचार-सूचना और ज्ञान को लेकर विमर्श दिखाई नहीं पड़ता। पूँजीवादी और साम्यवादी दोनों व्यवस्थाएं अपने अंतर्विरोधों की शिकार हैं।

इस चर्चा को आगे बढ़ाने की जरूरत है। अपनी राय व्यक्त करने के पहले मैं सोशल मीडिया में इस विषय पर चल रही छिटपुट बातों को सामने लाना चाहूँगा। मैने इसकी शुरूआत फेसबुक पर अपने मित्र पुष्यमित्र के स्टेटस से की है। पुष्यमित्र व्यवसाय से पत्रकार हैं। उनकी दुविधा यह है कि वे अपने मीडिया को दुनियाभर के लोगों के मसले उठाते देखते हैं, पर पत्रकारों के वेतन से जुड़े मसलों पर खामोश पाते हैं। यह इस बात का प्रस्थान बिन्दु है। पहले आप पुष्य मित्र की राय पढ़ें। आप इस चर्चा को आगे बढ़ाना चाहें तो पुष्य मित्र के वॉल पर जाकर बात बढ़ाएं या आप यहाँ चाहें तो मेरे पास भेजें। मैं उसे यहाँ प्रकाशित करूँगा।

पुष्यमित्र की वॉल से
थोड़ी बड़ी रपट है, मगर मेरा अनुरोध है कि इसे अवश्य पढ़ें... क्योंकि यह हम पत्रकारों की खबर है और यह न किसी अखबार में है, न किसी न्यूज चैनल में आ सकी है. आप इसे पढ़ें और ठीक लगे तो शेयर भी करें, ताकि नहीं छपने के बावजूद यह खबर हर जगह पहुंच सके.
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यह खबर प्रिंट मीडिया से जुड़े तमाम पत्रकारों के लिए है जो पांच सौ, हजार, पांच हजार औऱ दस हजार की सैलरी में अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल उन अखबारों के लिए खर्च कर रहे हैं, जिन्हें उनकी एक रत्ती परवाह नहीं. हम ऐसे पत्रकार हैं जो अपनी किस्मत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमे की रिपोर्ट तक अपने अखबार में छाप नहीं सकते. न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया के हमारे साथी हमारी इन खबरों को सामने लाने की हैसियत में हैं. इसके अलावा यह खबर उन तमाम लोगों के लिए भी है, जो समझते हैं कि हर मीडियाकर्मी लाखों में खेल रहा है और इतना पावरफुल है कि दुनिया बदल सकता है... उन साथियों के लिए तो है ही, जिनका बयान है... वो बेदर्दी से सर काटें औऱ मैं कहूं उनसे हुजूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता... यह खबर 28 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया आयोग के प्रस्तावों को लागू नहीं किये जाने के विरोध में हम पत्रकारों द्वारा दायर अवमानना याचिका की सुनवाई की है... आप लोग इसे यह जानने के लिए भी पढ़ सकते हैं कि एक ओऱ जहां राहुल गांधी किसानों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनकी पार्टी के कपिल सिब्बल, सलमान खुरशीद, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे बड़े-बड़े नेता अखबार कर्मियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अखबार मालिकों की पैरवी कर रहे हैं... यह खबर आइएफडब्लूजे के सचिव राम यादव ने लिखी है औऱ मैंने उसका हिंदी अनुवाद किया है...
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तीन महीने में जांच कर बतायें, मजीठिया लागू हुआ या नहीं
राम पी यादव, सचिव आइएफडब्लूजी
सुप्रीम कोर्ट ने अखबार मालिकों द्वारा मजीठिया आयोग लागू किये जाने की वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए एक वर्चुअल एसआइटी(स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम) का गठन किया है जो तीन महीने में अपना आकलन कोर्ट में सौंपेगी.

कल(28 अप्रैल को) सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस रंजन गोगोई और एनवी रमन्ना के सामने कई अखबारों के कर्मचारियों द्वारा दायर अवमानना याचिकाएं पेश हुई थीं. माननीय जज ने इन अवमानना याचिओं के जवाब में अखबार मालिकों द्वारा काउंटर एफिडेविट दाखिल नहीं किये जाने को लेकर कड़ा ऐतराज जाहिर किया था. जस्टिस गोगोई के चेहरे पर खिन्नता साफ नजर आ रही थी और उन्होंने कहा कि अब आगे से कोई काउंटर एफिडेविट स्वीकार नहीं किया जायेगा. वस्तुतः अखबार मालिक अपने पक्ष में देश के महंगे वकीलों को हायर करके यह सोच लिया था कि वे न्याय को अपने पक्ष में मोड़ लेंगे. अखबार मालिकों के पक्ष में श्री कपिल सिब्बल, श्री सलमान खुर्शीद, श्री अभिषेक मनु सिंघवी, श्री दुश्यंत पांडे और श्री श्याम धवन जैसे वकीलों के नेतृत्व में सौ से अधिक वकील कोर्ट रूम में खड़े थे और अदालत कक्ष इनकी वजह से पैक्ड हो गया था. वे मालिकों के लिए वक्त खरीदना चाहते थे, मगर अदालत ने उन्हें थोड़ा भी वक्त देने से इनकार कर दिया.

आइएफडब्लूजे (इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट) के महासचिव और सुप्रीम कोर्ट के वकील परमानंद पांडेय से लीड पिटिशन नं 411/2014 टाइटल 'अभिषेक राजा व अन्य बनाम संजय गुप्ता' के संबंध में जिरह शुरू करने कहा. इस मुकदमे में जागरण प्रकाशन लिमिटेड के सीइओ श्री संजय गुप्ता कंटेम्पटर/प्रतिवादी हैं.
श्री पांडेय ने बहस की शुरुआत करते हुए अदालत का ध्यान दो स्पष्ट तथ्यों की ओर आकर्षित किया. पहला, कि अवमानना याचिकाएं दायर करने के बाद अखबारों के मालिकों ने कर्मचारियों को प्रताड़ित करने का सिलसिला शुरू कर दिया है. कर्मचारियों का मनमाने तरीके से स्थानांतरण, निलंबन और निष्कासन किया जा रहा है, ऐसा करते वक्त प्राकृतिक न्याय के आधारभूत सिद्धांतों की अवहेलना की जा रही है. न शो-काउज नोटिस जारी किये जा रहे हैं, न आंतरिक जांच की जा रही है और न ही कोई आरोप पत्र पेश किया जा रहा है. उन्होंने माननीय न्यायाधीश से अपील की कि इस संबंध में अखबार मालिकों और राज्य सरकारों को निर्देश जारी किया जाये ताकि कर्मचारियों की प्रताड़ना पर रोक लग सके.

दूसरा, जागरण प्रबंधन श्रम कानूनों की अवहेलना करने का आदी रहा है. अखबार में वेज बोर्ड लागू करने की बात तो छोड़ दें ये कर्मचारियों से संबंधित हर श्रम कानून का उल्लंघन कर रहे हैं.

फिर श्री पांडेय ने जोरदार तरीके से अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 2010 में जारी हुए इस वेज बोर्ड प्रस्तावों को चार साल से अधिक का वक्त बीत चुका है मगर प्रतिवादी ने अब तक वेज, अलाउंसेज और एरियर की राशि अखबार के कर्मचारियों को नहीं दी है. श्री पांडेय ने याचिकाकर्ताओं के सैलरी स्लिप माननीय न्यायाधीश के सामने पेश करते हुए कहा कि इन सैलरी स्लिपों से जाहिर है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले और बाद की सैलरी स्लिप की संरचना में कोई बदलाव नहीं किया गया है. इस बिंदु पर जस्टिस रमन्ना ने जानना चाहा कि क्या यह स्थित सिर्फ याचिकाकर्ताओं की है या ऐसा सभी कर्मचारियों के साथ हो रहा है. वकील परमानंद पांडेय ने माननीय न्यायालय से कहा कि यह कोई अकेला मामला नहीं है, ऐसा हरेक कर्मचारी के साथ हो रहा है. श्री पांडेय ने फिर कहा कि प्रतिवादी संजय गुप्ता ने अपने काउंटर एफिडेविट में स्वीकार किया है कि उनकी कंपनी के 738 कर्मचारियों ने लिखित तौर पर अपनी स्वीकृति देते हुए कहा है कि वे जागरण प्रकाशन लिमिटेड के मौजूदा वैतनिक ढांचे से संतुष्ट हैं. वे, इस वजह से वेज बोर्ड द्वारा प्रस्तावित वेतन और अलाउंसेज नहीं चाहते हैं'. माननीय बेंच ने इस पर अपना आश्चर्य व्यक्त किया. इसके बाद बेंच एक मिनट के लिए एक दूसरे के करीब आ गयी और फिर जस्टिस गोगोई ने श्री पांडेय से पूछा कि क्या यह स्थिति दूसरे राज्यों और दूसरे अखबारों में भी है, इस पर श्री पांडेय ने सहमति जाहिर की.

बेंच यह जानकर सन्न रह गयी कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी सरकारें क्यों सोती रहीं, जबकि उन्हें मालूम था कि अखबार प्रतिष्ठान वेज बोर्ड लागू करने के इस फैसले को लागू नहीं कर रहे. फिर बेंच ने राज्य सरकारों को निर्देश देने का फैसला किया कि वे बेज बोर्ड प्रस्तावों को लागू करायें. इस बिंदू पर, वरिष्ठ अधिवक्ता और एक अन्य अवमानना याचिका की पैरवी करने वाले वकील श्री कॉलिन गोंजाल्विस ने अदालत से कहा कि दिल्ली सरकार इस संबंध में कुछ करना चाह रही है. उन्होंने यह भी कहा कि वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का नियम 17बी सरकार को इस संबंध में आवश्यक कदम उठाने का अधिकार देता है.

श्री पांडेय ने अपनी जिरह में उल्लेख किया कि वेज बोर्ड के प्रस्तावों को लागू करने के बदले लगभग सभी प्रबंधन जिसमें जागरण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड भी है, जिसको लेकर अभी बहस चल रही है, वे वेज बोर्ड प्रस्ताव के धारा 20जे के पीछे छिपने की कोशिश कर रहे हैं. श्री पांडेय ने उल्लेख किया कि धारा 20जे वास्तव में उन कर्मचारियों के लिए है जो वेज बोर्ड प्रस्तावों से अधिक वेतन पा रहे हैं, न कि उन कर्मियों के लिए जो प्रस्ताव से काफी कम पा रहे हैं. इस बिंदू पर जागरण प्रबंधन की पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कपिल सिब्बल ने कहा कि धारा 20जे पूरी तरह वैध है, क्योंकि यह वेज बोर्ड प्रस्तावों का ही हिस्सा है.

बेंच एक बार फिर आपस में विमर्श करने लगी और फिर कहा कि हम राज्य सरकारों को निर्देशित कर रहे हैं कि वे स्पेशल ऑफिसरों की नियुक्ति करें जो इस मामले औऱ वेज बोर्ड प्रस्तावों को लागू किये जाने के मसले की जांच करें. इस बिंदू पर अखबार मालिकों की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता जैसे, श्री कपिल सिब्बल, श्री अभिषेक मनु सिंघवी, श्री श्याम दीवान अपने पैरों पर खड़े हो गये और बेंच से अनुरोध करने लगे कि अगर ऐसा हुआ तो यह इंस्पेक्टर राज की वापसी जैसा होगा. हालांकि बेंच ने उनके अनुरोध को सुनने से इनकार कर दिया और राज्य सरकारों को स्पेशल ऑफिसर नियुक्त करने का निर्देश जारी कर दिया, जो रिपोर्ट तैयार करेंगे और उसे सीधे सुप्रीम कोर्ट में भेजेंगे. इस तरह, सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अखबार कर्मचारियों के पक्ष में स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम गठित करने जैसा है.

श्री कपिल सिब्बल ने आम आदमी पार्टी द्वारा शासित दिल्ली सरकार के प्रयासों की भी आलोचना की इस पर एक वकील ने कहा कि आम आदमी पार्टी की सरकार निश्चित तौर पर कांग्रेस सरकारों से बेहतर काम करेगी. यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि वेज बोर्ड रिपोर्ट का नोटिफिकेशन तब हुआ था जब श्री कपिल सिब्बल और श्री सलमान खुरशीद आदि मनमोहन सिंह नीत केंद्रीय सरकार के कैबिनटे के सदस्य थे. अखबार मालिकों के पक्ष में खड़ी वकीलों की फौज में कांग्रेस के बड़े नेताओं की मौजूदगी से जाहिर हो जा रहा है कि उनकी पक्षधरता किस ओर है. यहां यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि श्री कपिल सिब्बल जहां जागरण प्रकाशन की पैरवी कर रहे हैं, वहीं उनके पुत्र अमित सिब्बल जो स्वयं एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं, वे दैनिक भास्कर की पैरवी कर रहे हैं.

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हैरत की बात है कि दुनिया का नंबर एक अखबार का दावा करने वाले हिंदी के एक बड़े अखबार के 7 सौ पत्रकारों ने अपने प्रबंधन को लिखकर दे दिया है कि हमें मजीठिया वेतनमान के मुताबिक मिलने वाली सैलरी और एरियर नहीं चाहिये... हम अपने हाउस से मिलने वाली सैलरी से संतुष्ट हैं... अगर जानता कि पत्रकारों की कौम इतनी कमजोर, लाचार और विवश होती है तो कभी इस फील्ड में नहीं आता.


एक सीनियर पत्रकार बता रहे हैं कि बिहार में 2002 तक पत्रकारों को वेज बोर्ड के हिसाब से वेतन मिलता था. तब श्रमजीवी पत्रकार संगठन के आंदोलन से ही वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू कर दी जाती थीं. सुप्रीम कोर्ट जाने की नौबत नहीं आती थी. 2002 में एक वेतन आयोग के लिए श्रमजीवी पत्रकार संगठन आंदोलन कर रहा था. तभी बिहार के उस वक्त शुरू हुई एक बड़े अखबार के पत्रकारों ने आंदोलनकारियों पर हमला कर दिया. वे कह रहे थे कि आंदोलन बंद करो, हमें वेज बोर्ड के हिसाब से वेतन नहीं चाहिये. खूब हो हंगामा हुआ, यूनियन के चार लोगों को उक्त अखबार के पत्रकारों ने बंधक बना लिया. तब से यूनियन कमजोर हो गयी और प्रबंधन हावी होता चला गया. पत्रकारों को वीआरएस देकर कांट्रैक्ट में लाने की परंपरा शुरू हुई. वह आज जिस स्थिति में पहुंच गयी है यह किसी से छुपा नहीं है... जिस अखबार के पत्रकारों ने अपने ही यूनियन वालों पर हमला किया उसकी पहचान किसी से छुपी नहीं है...

फेसबुक पर कल से लेकर आजतक में कई मित्रों ने इनबॉक्स और फोन में पूछा कि आप इतना सबकुछ खुलेआम लिखते हैं। आप नौकरी कैसे करते हैं। इस बात पर मुझे पिछले दिनों सर्कुलेट होने वाला वह चुटकुला याद आ गया जिसमें बताया गया था कि किसी को एक साथ करिअर और स्टैंड हासिल नहीं हो सकता। तो दोस्तों मैं यह साबित करना चाहता हूँ कि आप दोनों काम एक साथ कर सकते हैं। करिअर भी बना सकते हैं और मौका पड़ने पर स्टैंड भी ले सकते हैं। मैं अपनी नौकरी अपने तई पूरी ईमानदारी से करता हूँ मगर अपने हक के लिए आवाज उठाने में संकोच नहीं करता। पिछले कुछ सालों में प्राइवेट नौकरी में यह अनकहा नियम लागू हो गया है कि अगर आप कम्पनी के नियमों से या बॉस से असहमत हैं तो नौकरी छोड़ दें। मगर मेरा मानना है कि अगर आप सही हैं तो आप क्यों नौकरी छोड़ें। सामने वाले को अपना स्टैंड बदलने के लिए कहें। हक की मांग करें। नौकरी में रहते हुए अन्याय का प्रतिरोध करें। आपको कोई ऐसे ही नहीं हटा सकता। किसी को हटाने की एक प्रक्रिया होती है। पहले आरोप पत्र पेश किया जाता है। फिर सफाई का मौका दिया जाता है। इस फैसले के लिए कमिटी बनती है और वह फैसला करती है। आपको टर्मिनेशन लेटर दिया जाता है। इसके बाद भी आप न्याय के लिए अदालत की शरण में जा सकते हैं। इसलिए मित्रों नौकरी जाने के भय से सच को झूठ और रात को दिन न कहें। नौकरी ईमानदारी से करें मगर अपने हक के लिए आवाज उठाने में संकोच नहीं करें।

1 comment:

  1. mujhe to nahi lagta ki nyay milega.. dekhe

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