Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।


ढीला बनामचुस्त
पिछले साल चुनाव के ठीक पहले एनडीए ने यूपीए के दस साल के खिलाफ आरोप पत्र तैयार किया था और यूपीए ने अपनी उपलब्धियों को गिनाया था। लेकिन तब तक नज़र आने लगा था कि वोटर ने बदलाव का फैसला कर लिया है। एनडीए ने पिछले पाँच साल से लगातार यूपीए सरकार को भ्रष्ट साबित करने और मनमोहन सिंह के नेतृत्व को नाकारा साबित करने में कसर नहीं छोड़ी थी। इस माहौल के बनने के पीछे एक घटनाक्रम भी था। मीडिया में बार-बार टू-जी, थ्री-जी, सोनिया जी और राहुल जी का शोर था। विकल्प फिर भी सामने नहीं था। मई-जून 2013 में कोई कह नहीं सकता था कि कांग्रेस इतनी भारी हार और बीजेपी स्पष्ट बहुमत की ओर बढ़ रही है। तब तक नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने तक को लेकर संदेह था।

एक लिहाज से यूपीए का आखिरी साल एनडीए के लिए निर्णायक साबित हुआ। उसी दौर में नरेंद्र मोदी ने पूरी ताकत के साथ खुद को विकल्प के रूप में पेश किया। और वोटर ने मन बनाना शुरू कर दिया। सहयोगी घटक वाम मोर्चा के निरंतर विरोध के बावजूद यूपीए के पहले पाँच साल खराब नहीं गए थे। उसे 2009 के चुनाव में जो सफलता मिली वह भी अप्रत्याशित थी। उम्मीद थी कि यूपीए अगले पाँच साल में आर्थिक उदारीकरण के काम को गति प्रदान करेगा। पर यह हुआ नहीं, बल्कि टू-जी मामले ने उसे राजनीतिक दलदल में घसीट लिया।

सन 2010 में हमने कॉमनवैल्थ गेम्स का आयोजन किया। उसका उद्देश्य भारत की प्रगति को शोकेस करना था। वैसे ही जैसे सन 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक के मार्फत डीन ने किया था। पर हुआ उल्टा। कॉमनवैल्थ गेम्स हमारे लिए कलंक साबित हुआ। हमारे सारे निर्माण कार्य देर से पूरे हुए। इस मामले में बीजिंग ओलिम्पिक से हम अपनी तुलना नहीं कर सकते। चीन की व्यवस्था में सरकारी निर्णयों को चुनौती नहीं दी जा सकती। हमारे यहाँ अनेक काम अदालती निर्देशों के कारण भी रुके। इसमें पेड़ों की कटाई से लेकर ज़मीन के अधिग्रहण तक सब शामिल हैं। हम लंदन से अपनी तुलना करें। वहाँ भी हमारे जैसा लोकतंत्र है। पर लंदन ओलिम्पिक के दो साल पहले सारे स्टेडियम बन चुके थे। हम न चीन बने, न लंदन। दोष किसका था?

फीकी पड़ती मोदी-चमकार
नरेंद्र मोदी इस उम्मीद के साथ सामने आए थे कि वे इस ढीली व्यवस्था का विकल्प देंगे। उनका पहला साल बहुत आश्वस्त नहीं करता। बावजूद इसके उनके पास अभी चार साल बाकी हैं। खासतौर से महत्वपूर्ण होगा सन 2019 के चुनाव से पहले का सन 2018। शायद तब तक उनके पास राज्यसभा में भी यथेष्ट बहुमत होगा। पर आज वे एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। यहाँ से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरना शुरू हो गया है। इस बात को लेकर संशय है कि सरकार प्रो-फार्मर, प्रो-पुअर है या एंटी-फार्मर, एंटी पुअर। कांग्रेस पार्टी सरकार की नाकामियों के साथ-साथ उन तमाम विफलताओं को उजागर करेगी जिनकी वजह से देश का आम नागरिक परेशान है। आँकड़ों में महंगाई कम हुई है, पर अनाज, सब्जियों और दालों के भाव बढ़े हैं।

मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक है। पार्टी के भीतर और बाहर ऐसी छवि बन रही है कि सत्ता तीन-चार लोगों तक सीमित हो गई है। सारी शक्तियाँ पीएमओ में केंद्रित हो गई हैं। अनेक संस्थाएं बिना बॉस के चल रही हैं। पुरानी व्यवस्था तोड़ने पर जोर है। नई बनी नहीं है। पार्टी के काबिल लोग किनारे हैं। राजकोषीय घाटे के फेर में सरकार ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्च में कटौती की है। इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। ग्रामीण विकास विभाग, महिला और बाल विकास मंत्रालय और शिक्षा के बजट घटा दिए गए हैं।

पार्टी के भीतर असंतोष
यह बात अभी तक बाहर कही जा रही थी, पर अब यह बात अरुण शौरी ने कही है। अरुण शौरी इतने बड़े राजनेता नहीं हैं कि भाजपा की अंदरूनी राजनीति को प्रभावित कर पाएं, पर मीडिया और बौद्धिक जगत को प्रभावित करने की सामर्थ्य उनमें है। उनकी बातों से माहौल बनता है। उन्होंने कहा कि सरकार को मोदी, जेटली और शाह की तिकड़ी चला रही है। सरकार सुर्खियां बटोरने के प्रबंधन में ज्यादा लगी है। उन्हें शिकायत है कि आर्थिक नीतियों में मोदी सरकार उस किस्म का बदलाव नहीं ला सकी जिसकी अपेक्षा थी। साथ ही सरकार अल्पसंख्यकों के मन में 'बेचैनी' पैदा कर रही है। ईसाई संस्थानों पर हमलों की घटनाओं और ‘घर वापसी’ तथा ‘लव जिहाद’ जैसे अभियानों के कारण यह स्थिति बनी है।

यह बात पार्टी के भीतर कुछ दूसरे लोग भी कह रहे हैं। शौरी ने कहा कि मोदी का एक साल का शासन 'टुकड़ों में अच्छा' है। उनके प्रधानमंत्री बनने से विदेश नीति पर अच्छा असर पड़ा है। वे विदेशी मोर्चे पर मिली सफलता को भुना सकते हैं। मोदी के पहले मनमोहन सिंह भी कोशिश कर रहे थे कि वैश्विक मंच पर हमारी स्थिति बेहतर हो तो घरेलू मोर्चे पर सफलता मिलेगी। इस वक्त देश की समस्या है आर्थिक विकास का ठहर जाना। यह प्रवृत्ति सन 2008 की वैश्विक मंदी से पैदा हुई है। यूपीए के दूसरे दौर में अर्थ-व्यवस्था ढलान पर उतर गई। बहरहाल अब संकेतक बता रहे हैं कि इस साल से हालात सुधरेंगे, पर अभी तक अपेक्षित गति आ नहीं पाई है।

 सरकार की पहली वर्षगाँठ मनाने के पहले मोदी चीन यात्रा पर जाने वाले हैं। क्या वहाँ से वे कोई सकारात्मक संदेश लेकर आएंगे? खासतौर से क्या भारत में आर्थिक गतिविधियों को तेज करने में चीन की कोई भूमिका हो सकती है? पिछले साल सितम्बर में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की भारत यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच सहयोग का जो माहौल बना था उसकी तार्किक परिणति अब देखने को मिल सकती है। इस यात्रा के तत्काल बाद अमरनाथ यात्रा का नया रास्ता खुलेगा, जो प्रतीक रूप में नए रिश्तों की बुनियाद बनेगा।

और कांग्रेस का पलटवार
कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट है। वह पूरी ताकत से सरकार पर हमले करेगी। उसने सरकार के छह महीने पूरे होने नवम्बर में ही यू टर्न सरकार के नाम से अपना प्रचार साहित्य जारी किया था। पार्टी मीडिया में अपनी छवि को लेकर संवेदनशील हो गई है। उसने एक संबित पात्रा के मुकाबले 67 लोगों की प्रचार मंडली खड़ी कर दी है। लम्बे प्रवास से वापस लौटे राहुल गांधी ने किसान से केदारनाथ तक यात्राएं शुरू कर दी हैं। अब वे लोकसभा की सबसे आगे की सीट पर बैठने लगे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए दूसरे दलों के साथ मिलकर रणनीति बनाने को तैयार है।


इन बातों का असर भी होगा। बार-बार एक बात को कहने से माहौल बदलता है। यह पाठ कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी से ही सीखा है। 

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

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