Sunday, July 19, 2015

‘डायपर-छवि’ से क्या बाहर आ पाएंगे राहुल?

भारतीय राजनीति में इफ्तार पार्टी महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि के रूप में अपनी जगह बना चुकी है। इस लिहाज से सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में मुलायम सिंह और लालू यादव का न जाना और राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में नरेंद्र मोदी का न जाना बड़ी खबरें हैं। बनते-बिगड़ते रिश्तों और गोलबंदियों की झलक पिछले हफ्ते देखने को मिली। पर शुक्रवार को राहुल गांधी के नरेंद्र मोदी पर वार और भाजपा के पलटवार से अगले हफ्ते की राजनीति का आलम समझ में आने लगा है। साफ है कि कांग्रेस अबकी बार भाजपा पर पूरे वेग से प्रहार करेगी। पर अप्रत्याशित रूप से सरकार ने भी कांग्रेस पर भरपूर ताकत से पलटवार का फैसला किया है। इस लिहाज से संसद का यह सत्र रोचक होने वाला है।

राहुल गांधी का स्वर पिछले कुछ महीनों में बदला है। उनकी वरीयताएं भी बदली हैं। अब वे सवर्ण हिंदू वोटों पर भी ध्यान दे रहे हैं। केदारनाथ यात्रा कर आए हैं। जयपुर में मेट्रो रेल के लिए तोड़े जा रहे मंदिरों को बचाने के लिए हिंदू संगठनों से पहले कांग्रेस मैदान उतर आई। राहुल गांधी किसानों की राजनीति पहले ही कर रहे हैं। उनका कहना है, किसान की एक इंच जमीन नहीं जाने दूँगा। आम आदमी पार्टी की देखा-देखी वे दिल्ली में रेहड़ी-ठेले वालों के बीच गए। दिल्ली नगर निगम के बकाया वेतन-भुगतान को लेकर वे कर्मचारियों के बीच गए। पूर्व सैनिकों के ‘एक रैंक, एक पेंशन’ आंदोलन को समर्थन दिया और छोटी आवासीय योजनाओं में मकान खरीदने वालों के पक्ष में सवाल उठाए।

राहुल की भावी योजना छोटे कारखानों के मजदूरों के पक्ष में धरना-प्रदर्शनों की है। बिहार की महागठबंधन राजनीति में फिलहाल कांग्रेस ने पहल की है। वह ‘गरीब आदमी पार्टी’ बनकर उभरना चाहती है। जैसे सन 1971 में इंदिरा गांधी उभरी थीं। कांग्रेस की कोशिश है कि सेक्युलर राजनीति की धुरी भी वही बने। इफ्तार पार्टी में इसबार कार्यकर्ताओं की भीड़ सोनिया से ज्यादा राहुल की मेज के इर्द-गिर्द थी। राहुल ने वहाँ कहा, 'प्रधानमंत्री बोलें या न बोलें, मैं इस बार संसद में जरूर बोलूंगा और एक से ज्यादा बार बोलूंगा।’ मोटे तौर पर राहुल ने कांग्रेस के मनोबल को गिरने से रोका है। पर क्या इससे पार्टी की वापसी सम्भव है?

राहुल ने राजस्थान में किसानों के बीच कहा कि कांग्रेस पार्टी, किसान, मजदूर और देश के लोग नरेंद्र मोदी के 56 इंच के सीने को 5.6 इंच का बना देंगे। इसपर बीजेपी के सचिव सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा कि राहुल गांधी जैसा व्यवहार करते हैं उससे लगता है कि वे डायपर पहनने वाले बच्चे हैं, जिससे उन्हें बाहर आने की जरूरत है। क्या वास्तव में देश उन्हें अभी ‘डायपर बेबी’ मानकर चलता है? क्या उनकी पहचान ‘डायपर-छवि’ टूट पाएगी? क्या वे परिपक्व राजनेता साबित होंगे?

राहुल की सफलता बहुत कुछ भाजपा की रणनीति पर भी निर्भर करेगी। इसकी झलक दो दिन बाद शुरू होने वाले संसद के मॉनसून सत्र में मिलेगी। व्यापमं घोटाले, ललितगेट, कालाधन और सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना सहित विभिन्न मुद्दों भाजपा आक्रामक पलटवार कैसे करेगी? क्या वह भूमि अधिग्रहण विधेयक और जीएसटी वगैरह पर अपने पक्ष में फैसला करा पाएगी? इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या अन्य विपक्षी दलों को कांग्रेस के साथ एकजुट होने से भाजपा रोक पाएगी? इसकी पहली झलक 20 जुलाई को होने वाली सर्वदलीय बैठक में दिखाई पड़ेगी।

पहले खबरें थीं कि विपक्ष के हंगामे के अंदेशे के कारण सम्भवतः सरकार इस सत्र की अवधि कम कर दे। पर इससे नकारात्मक संदेश जाता और सरकार बचाव की मुद्रा में होती। पर संसदीय मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की 24 जून को हुई बैठक में तय किया गया कि विपक्ष के हमले का सदन पटल पर बराबर जवाब दिया जाएगा। इसी वजह से सत्र को संक्षिप्त नहीं करने का सोच-समझकर फैसला किया गया। यह भी तय किया गया है कि जरूरत पड़ने पर अवधि को एक हफ्ते के लिए बढ़ाया जा सकता है।

कांग्रेस की रणनीति चार राज्यों के भाजपा क्षत्रपों पर निशाना बनाने की है। इनमें शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह पर सीधे आरोप हैं। महाराष्ट्र के देवेंद्र फड़नबीस को पंकजा मुंडे तथा विनोद तवाडे के कारण घेरा गया है। पर कांग्रेस की रणनीति में भी झोल हैं। घोटालों के आरोपों को लेकर सोनिया और राहुल सामने नहीं आते। यह काम दिग्विजय सिंह, रणदीप सुरजेवाला, चिदम्बरम, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और जयराम रमेश वगैरह को सौंपा गया है। सोनिया, राहुल और प्रियंका महत्वपूर्ण मौकों पर नेपथ्य में चले जाते हैं? विश्व योग दिवस पर ये तीनों अज्ञातवास पर थे।

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पार्टी सोनिया, प्रियंका और राहुल को पीछे रखती है। गरीबी, धर्म निरपेक्षता और पूँजीवाद के सैद्धांतिक प्रसंगों पर ही वे बोलते हैं। जैसे ही वे भाजपा के ‘भ्रष्टाचार’ शब्द का उच्चारण करते हैं उनपर पलटवार होता है। यही वजह है कि भाजपा ने व्यापमं को कांग्रेस के समय की देन साबित करने का फैसला किया है। पार्टी की फौरी रणनीति भाजपा को कलंकित करने की है। पर दीर्घकालीन उद्देश्य केंद्र में वापसी का है। इसके लिए उसे राज्यों में अपनी गिरती दीवारों को बचाना होगा। सम्भव है कि बिहार में भाजपा हार जाए, पर कांग्रेस को क्या मिलेगा?

सन 2016 में केरल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी, असम और बंगाल में चुनाव हैं। इनमें केवल असम और केरल में उसकी दावेदारी है। दोनों जगह हार का खतरा भी है. जबकि पार्टी को सफलता के शिखरों की तलाश है। वे अभी तक नजर नहीं आते हैं। सन 2017 के विधानसभा चुनावों में वह गोवा, पंजाब, और गुजरात में बाजी पलट सके, उत्तराखंड, हिमाचल में सत्ता कायम रखे और उत्तर प्रदेश में स्थिति बनाए रखे तो केंद्र की लड़ाई में उसका हक बनेगा, वरना नहीं। 2018 में कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ उसके लिए बड़ी चुनौती साबित होंगे। अभी वह राज्यसभा में अपनी बढ़त के कारण भाजपा को अर्दब में रखने में कामयाब है, पर उसकी यह बढ़त अगले डेढ़-दो साल और काम आएगी। इस दौरान जमीनी स्तर पर संगठन को टूटने से बचाने का काम भी उसे करना है। सवाल है कि क्या राहुल इतने परिपक्व हो चुके हैं कि पार्टी को मँझधार से निकाल सकें? इसकी झलक संसद के इस सत्र में देखने को मिलेगी।

1 comment:

  1. राहुल को डायपर -छवि से बाहर आने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा , भा ज पा भी पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से सम्भलने की कोशिश कर रही है ,जैसे जैसे कार्यकाल बढ़ता जा रहा है , वैसे वैसे उस पर भी दबाव बढ़ रहा है इसलिए अब आसानी से राहुल कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति भी इसमें पिछले दरवाजे से बाधक रही है व रहेगी

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