Sunday, July 5, 2015

तकनीकी क्रांति की सौगात

नरेंद्र मोदी सरकार के ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम की उपयोगिता पर राय देने के पहले यह जानकारी देना उपयोगी होगा कि सरकार प्राथमिक कृषि उत्पादों के लिए एक अखिल भारतीय इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग पोर्टल शुरू करने की कोशिश कर रही है। यह पोर्टल शुरू हुआ तो एक प्रकार से एक अखिल भारतीय मंडी या बाजार की स्थापना हो जाएगी, जिसमें किसान अपनी फसल देश के किसी भी इलाके के खरीदार को बेच सकेगा। ऐसे बाजार का संचालन तकनीक की मदद से सम्भव है। ऐसे बाजार की स्थापना के पहले सरकार को कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) कानून में बदलाव करना होगा।

देश में कृषि उत्पाद सीधे किसान से नहीं खरीदे जा सकते। उसके लिए राज्यों में मंडियाँ बनी हैं। वहाँ से भी हरेक को खरीदारी की इजाजत नहीं है। इसके लिए लाइसेंस लेना होता है। एक मंडी का लाइसेंस पूरे प्रदेश की मंडियों से खरीदारी का अधिकार नहीं देता। लाइसेंस प्रणाली के साथ कई तरह की जटिलताएं जुड़ी हैं। इसका उद्देश्य किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाना है, पर व्यवहार में होता इसका उल्टा है। बहरहाल देश भर में खेती का एक बाजार खोलने के पहले किसी एक राज्य के भीतर ही एक बाजार बन जाए तो बड़ी क्रांति हो जाएगी। कृषि उत्पाद के वितरण पर पाबंदियाँ हैं और मंडियों का प्रभुत्व है। हालांकि इस दिशा में सुधार आसान नहीं है, पर तकनीक इस सुधार को शक्ल दे सकती है।

पिछले साल देश में ई-रिटेल के कारोबार में अचानक उछाल आया। अभी तक परिधान और इलेक्ट्रॉनिक्स, खासतौर से मोबाइल फोन ही इस माध्यम से खरीदे जा रहे थे, पर अब आलू-गोभी भी इंटरनेट पर बिक रहे हैं। इससे उपभोक्ता को चुनने की आजादी और वैरायटी मिल रही है। एक साइट पर कोई चीज 100 रुपए की मिल रही है तो दूसरी साइट उसी चीज को 95 में देने को तैयार है और ऐसे ‘एप’ हैं जो आपको बताते हैं कि इससे सस्ता कहाँ मिल रहा है।

आपको अब अपने बैंक की ब्रांच में बहुत कम जाना पड़ता है, टेलीफोन का बिल जमा करने के लिए लाइन में लगना नहीं पड़ता, प्रतियोगी परीक्षा में ऑनलाइन टेस्ट होता है और हाथों-हाथ परिणाम मिल जाता है वगैरह। पिछले डेढ़-दो दशक में मोबाइल फोन के कारण आए बदलाव को हमने अपनी आँखों से देखा है।  यह बदलाव है, इसकी खामियाँ भी हैं, पर फायदे कम नहीं हैं। अब हम छोटे-मोटे स्टिंग ऑपरेशन खुद करने लगे हैं। व्यवस्था के दोषों को बाहर निकालने में हम सफल हो रहे हैं।

यह सामाजिक-मंथन अभी लम्बा चलेगा। महत्वपूर्ण है इसमें तकनीक का सहारा। सन 1986 में सेंटर फॉर रेलवे सिस्टम (सीआरआईएस-क्रिस) की स्थापना हुई, जिसने यात्रियों के सीट रिज़र्वेशन की प्रणाली का विकास किया। हालांकि इस सिस्टम को लेकर अब भी शिकायतें हैं, पर तीन दशक पहले की और आज की रेल यात्रा में बुनियादी बदलाव आ चुका है। अब आप ट्रेन में ही नहीं बस, टैक्सी और ऑटो भी अपने मोबाइल फोन की मदद से बुला सकते हैं।

पिछले बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए कहा कि यह तकनीक सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लेकर आएगी। उन्होंने इसके लिए कोल ब्लॉक्स की नीलामी का उदाहरण दिया। नीलामियों और सरकारी सौदों में आज भी गोपनीयता की काली चादर पड़ी है। डिजिटल तकनीक इसे काफी सीमा तक पारदर्शी बनाने में मददगार साबित हो रही है।

तमाम तरह के सरकारी ठेकों की प्रक्रिया अब खुले में आ रही है। सम्पत्तियों का पंजीकरण डिजिटाइज होता जा रहा है। दफ्तरों में बाबुओं के हाथ में सब कुछ नहीं रहा। कार्य-कुशलता बढ़ी है। पासपोर्ट बनाने में तमाम धांधलियाँ हैं, पर आप कम से कम अपने काम की प्रगति कम्प्यूटर पर देख सकते हैं। कई तरह के फॉर्म आप कम्प्यूटर पर हासिल कर सकते हैं और उन्हें जमा भी कर सकते हैं। पारदर्शिता के साथ-साथ तकनीक ने आपका समय भी बचाया है।

जब यह तकनीक इतनी मददगार है तो फौरन लागू क्यों नहीं की जाती? इसके दो-तीन बुनियादी कारण हैं। हमारे पास इतने साधन नहीं हैं कि एक साथ यह सुविधा लागू की जा सके। सारे देश में इंटरनेट का जाल बिछाने लायक केबल या वायरलेस नेटवर्क ही नहीं है। नेशनल ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क प्रोग्राम लक्ष्य से तीन-चार साल पीछे चल रहा है। दुनियाभर में इंटरनेट की स्पीड पर नजर रखने और उसकी रिपोर्ट जारी करने वाली अकामाई टेक्नोलॉजीज के अनुसार दुनिया और औसत स्पीड 3.9 एमबीपीएस है। जबकि भारत में यह औसत 2.00 है। चीन का औसत 3.8 है। इंडोनेशिया (3.7) और वियतनाम (2.5) जैसे देश भी हमसे ऊपर हैं। सबसे अच्छा औसत दक्षिण कोरिया का है जहाँ यह 25.3 है।

स्पीड तो बाद की बात है। हमारी सबसे बड़ी समस्या गरीबी की है। खाने को नहीं है, कम्प्यूटर क्या लेंगे। पर जिनकी हैसियत है भी वे या तो कम्प्यूटर की उपयोगिता नहीं जानते या उसका इस्तेमाल नहीं समझते। डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत तीन दिशाओं में काम होगा। पहला इसके लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना, दूसरे कई तरह की सेवाओं को डिजिटल आधार पर उपलब्ध कराना और तीसरे कम्प्यूटर लिटरेसी बढ़ाना। अभी तक साक्षरता को जरूरी माना जाता था। अब कम्प्यूटर साक्षरता जरूरी साबित होने वाली है।

भारतीय भाषाओं में नेट सर्फिंग तेजी से बढ़ी है, पर वह वैश्विक प्रवृत्तियों से काफी पीछे है। अलबत्ता एक बात स्पष्ट है कि इस तकनीक पर लोग पैसा लगाने को तैयार हैं, क्योंकि उसमें रिटर्न भी है। देश के उद्योगपति इस परियोजना के लिए तकरीबन साढ़े चार लाख करोड़ रुपए लगाने जा रहे हैं।

सरकार ने ढाई लाख गाँवों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने की योजना बनाई है। सभी स्कूलों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने का विचार है। इसके लिए शुरू में ढाई लाख स्कूलों में फ्री वाई-फाई होगा। सरकार के अनुसार देश के हर शहर और गांव तक ये सुविधा तीन साल में पहुंच जाएगी।

किसान को बारिश से लेकर बीज तक की जानकारी इंटरनेट पर मिलेगी। मोबाइल पर पुलिस, मोबाइल पर बैंक, मोबाइल पर टेंडर, मोबाइल पर ही कोर्ट कचहरी जैसी हर सुविधा देने का दावा किया गया है। यह कोई काल्पनिक दावा नहीं है। दुनिया के विकसित देशों में ये सुविधाएं उपलब्ध हैं। केवल तकनीक से चमत्कार नहीं हो जाएगा। अंततः बदलाव इंसानों में होना चाहिए और इंसानों की मदद से होना चाहिए। यानी सबसे बड़ी जरूरत चेतना जगाने की है। हाल के वर्षों में सोशल मीडिया ने विचार-विमर्श का नया मंच तैयार किया है। उसका विस्तार हो साथ ही उसका ठीक से नियमन हो तो डिजिटल क्रांति का यह दौर भारत के लिए सौगातें लेकर आएगा। हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. बिलकुल सही विश्लेषण किया है आपने, प्रारम्भिक स्तर पर हम अभी इतने तैयार नहीं है कि इन सब का लाभ उठा सके , न तो इतने शिक्षित हैं न मूलभूत सुविधाएँ ग्राम व शहर स्तर पर उपलब्ध हैं , इसलिए इतना लाभ नहीं मिलेगा जितनी अपेक्षा की जा रही हैं

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