Monday, September 7, 2015

नई संस्कृति का फूटता भांडा

शीना बोरा हत्याकांड को आप कई तरीकों से देख सकते हैं। इंद्राणी मुखर्जी के व्यक्तिगत रिश्तों से जुड़ी बातें लोगों का ध्यान सबसे ज्यादा खींच रही हैं। जबकि सबसे कम ध्यान उनपर जाना चाहिए। यह उनका व्यक्तिगत मामला है और इसे उछालने का हमें अधिकार नहीं है। यह केस एक सम्भावित हत्या तक केंद्रित हो तो इसका उस स्तर का महत्व है भी नहीं जितना दिखाया जा रहा है। पर इस सिलसिले में दो और बातें महत्वपूर्ण हैं। एक इस मामले की मीडिया कवरेज। दूसरे इस प्रकरण से जुड़े कारोबारी प्रसंग। इन दोनों को जोड़कर देखा जाए तो यह कहानी हमारी नई संस्कृति की पोल खोलती है।

यह प्रकरण आर्थिक उदारीकरण के बाद विकसित उस संस्कृति से जुड़ा है जिसे पेज थ्री कल्चर कहा जाता है। यह पेज थ्री जीवन केवल मनोरंजन, फैशन और जीवन शैली तक सीमित नहीं है। यह संस्कृति कारोबारी फैसलों, तिकड़मों, जोड़-तोड़ और दलाली से जुड़े है। ब्रिटेन में जन्मे पीटर मुखर्जी को वैश्विक मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने भारत में अपना कारोबार बढ़ाने के लिए चुना। भारत में उस वक्त प्राइवेट ब्रॉडकास्टिंग नया बढ़ता कारोबार था। पीटर ने भारतीय दर्शकों के लिए ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे शो पेश किए, जिन्होंने सफलता के झंडे गाड़े। सवाल है कि क्या इस कारोबारी विस्तार के पीछे तिकड़में भी थीं या हम अनावश्यक रूप से संदेह पैदा कर रहे हैं?
इस मामले को भारतीय मीडिया जिस तरह उछाला है वह भी विस्मय पैदा करता है। सनसनी, प्रेम और हत्या सामान्य जीवन को उद्वेलित करते हैं। तमाम साहित्य और सिनेमा इन प्रसंगों से अटा पड़ा है। सवाल है कि क्या हमारे पास सोचने का कोई विषय नहीं बचा। मीडिया पागलों की तरह इस कहानी की परतें क्यों छील रहा है? इस मसले की जाँच जारी है, इसलिए उसपर टिप्पणी करना गलत होगा। अलबत्ता इस प्रकरण के सहारे हमें भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक दिशा दिखाई पड़ रही है। हमें लगता था कि हमारे सोप ऑपेरा किसी कृत्रिम समाज की कहानी पेश कर रहे हैं। पर शायद असली समाज उससे आगे निकल गया है। इस कहानी के मुख्य किरदार सोप ऑपेरा के धंधे से भी जुड़े रहे हैं। क्या यह किसी नए समाज का आगमन है?
पीटर मुखर्जी के साथ जिस टीम ने देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति की बुनियाद डाली उसी मीडिया के प्रतिनिधि इस वक्त इस प्रसंग को उछाल रहे हैं। मीडिया की यह प्रतिक्रिया हैरतअंगेज है। मीडिया को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले पुलिस की जांच पूरी करने का इंतजार करना था। तकरीबन ऐसी ही प्रतिक्रिया आरुषी तलवार के मामले में हुई थी, जिसे लेकर आज भी तमाम बातें संदेह के घेरे में हैं। आरुषी की मौत के सात साल बाद भी मीडिया के तौर-तरीकों में कोई बदलाव नहीं है। उसने इस दौरान अपने लिए किसी किस्म की आचार संहिता नहीं बनाई। यह तब है जब मीडिया को अक्सर लानतें मिलती रहती हैं। मीडिया की सबसे खराब प्रवृत्ति है अपनी अदालत लगाना।
खराब ढंग से संचालित मीडिया अपनी ही जड़ें काट रहा है। वह अपनी साख गिराने का काम कर रहा है जिससे समूचा मीडिया कलंकित होगा। खतरा यह है कि इस आजादी की सीमा पार होने के बाद सरकारें और न्याय व्यवस्था मीडिया पर पाबंदी लगाने के रास्ते निकालना शुरू न कर दें। इस बात के समानांतर हमें अपने सांस्कृतिक पराभव पर भी नजर डालनी चाहिए। अचानक हमें अब लग रहा है कि पैसा-पैसा और सिर्फ पैसा इस संस्कृति नया मंत्र है।
क्या यह सांस्कृतिक पराभव आर्थिक रिश्तों में बदलाव की वजह से है? पिछले बीसेक साल में हमने कई बड़े आर्थिक घोटालों को खुलते हुए देखा है। इधर अचानक बेहद अमीर बनने की चाहत बढ़ी है। मेहनत और काबिलीयत के बजाय शॉर्टकटका चलन बढ़ा है। हमें किसी बात की फिक्र भी नहीं है। आज व्यथित होते हैं और कल भूल जाते हैं। पिछले बीस साल में हमने तीस से ज्यादा घोटालों का जिक्र सुना। हमें कितने याद हैं? हवाला, शेयर बाजार, दूरसंचार, टूजी, कॉमनवैल्थ गेम्स, कोयला खान और पिछले महीने तक व्यापम को लेकर हंगामा खड़ा हुआ और फिर भूल गए। यह विस्मृति लोप ज्यादा बड़ी बीमारी है।
क्या हमारी जरूरतें, प्राथमिकताएं और मूल्य बदल गए हैं? समृद्धि अपने साथ बेहतरीन साहित्य, संस्कृति और विचार को भी लेकर आती है। पर वह अमीरी मेहनत, कौशल और नवोन्मेष के सहारे आती है। फूहड़ अमीरी की देन गलीज संस्कृति ही हो सकती है जो हमारे सामने है। मूल्यों-मर्यादाओं से जुड़े वैचारिक और सांस्कृतिक तत्वों को लोप होना खतरनाक है। इस अमीरी के संरक्षण में हमारी कथित प्राचीनता भी शक्ल बदल चुकी है। तमाम फाइव स्टार धार्मिक गुरुओं के दरबार खुल गए हैं। ये मठ और दरबार दलालों और फिक्सरों की नई जमात तैयार कर रहे हैं। सरकारी ठेके, सरकारी अफसरों के तबादले, तरक्की-तनज्जली वगैरह-वगैरह के काम यहाँ से संचालित होते हैं।

इंद्राणी मुखर्जी का महत्वाकांक्षी होना गलत नहीं है। गलत है महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के गलत रास्तों का। क्या वजह है कि नई सेलिब्रिटी शक्लें प्रभावित नहीं करतीं? विडंबना है कि इस त्रासदी के व्यावसायिक दोहन की बातें शुरू हो गईं हैं। महेश भट्ट से लेकर राखी सावंत तक अपनी स्क्रिप्ट के साथ फिल्में बनाने के लिए तैयार हैं। उसकी वजह भी यही है कि मीडिया ने इसे लेकर सनसनी और रोमांच का माहौल बना दिया है। इससे फर्क यह पड़ा है कि तमाम महत्वपूर्ण मसले पीछे चले गए हैं। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था रूपांतरण के मोड़ पर खड़ी है। भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के मसले हैं, सीमा पर लगातार गोलाबारी हो रही है। बाढ़ और सूखे का एक साथ हमला है। और राष्ट्रीय अख़बार पाँच-पाँच पेज इस मामले को समर्पित कर रहे हैं। यह सांस्कृतिक भटकाव खतरनाक है।

हरिभूमि में प्रकाशित

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