Tuesday, October 6, 2015

उवैसी करेंगे क्या भाजपा की मुश्किल आसान

डाक्टर मुज़फ़्फ़र हुसैन ग़ज़ाली उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे जीवन से जुड़े तमाम जरूरी सवालों पर लिखते हैं। केवल राजनीति पर नहीं। उनका यह लेख तकरीबन एक हफ्ता पुराना हो गया है। बावजूद इसके प्रासंगिक है। उनका लेख पूरी तरह उर्दू का लिप्यांतरण है, अनुवाद नहीं। मैं भविष्य में भी उनके लेख अपने ब्लॉग में लगाता रहूँगा। 

दो माह क़बल बिहार चुनाव के मुताल्लिक़ बी जे पी के अंदरूनी ज़राए ने कहा था देखते जाईए क्या-क्या होता है यहां बहुत सी कुंजियाँ हैं जिनका इस्तिमाल किया जाना बाक़ी है । माँझी का नाम ज़हन में आया और बात आई गई हो गई। इस वक़्त तक उवैसी की जानिब से बिहार जाने की कोई बात सामने नहीं आई थी। पिछले कुछ दिनों में सियासतदानों के इधर से उधर होने और पाला बदलने की ख़बरों ने इस वाक़िया की याद ताज़ा कर दी। बिहार इलैक्शन में असद उद्दीन उवैसी के उतरने के ऐलान के साथ ही इस का मतलब भी समझ आने लगा। 

पहले उन्होंने पूरे बिहार में उम्मीदवार उतारने का फ़ैसला किया था, लेकिन चुनाव की तारीख़ों का ऐलान होने के बाद उन्होंने सीमांचल में अपने उम्मीदवार खड़े करने का फ़ैसला किया । सीमांचल चार अज़ला अररिया , पूर्णिया , किशनगंज और कटीहार पर मुश्तमिल है ये मुस्लिम अक्सरीयती इलाक़ा माना जाता है । यहां40फ़ीसद से ज़्यादा मुस्लिम वोट हैं और हर इंतिख़ाब में फ़ैसलाकुन किरदार अदा करते हैं सीमांचल के दोनों तरफ़ वज़ीर-ए-आज़म नरेंद्र मोदी रैलीयां कर चुके हैं । यहां असैंबली की 24सीटें हैं ।2010के चुनाव में उनमें से 13बी जे पी को 4जनता दल (यू) 2लोक जन शक्ति पार्टी 3कांग्रेस एक आर जे डी और एक आज़ाद उम्मीदवार को मिली थी । इस मर्तबा बी जे पी 24सीटों को हासिल करने का दावा कर रही है।

असद उद्दीन उवैसी ने अपनी पार्टी की रियास्ती यूनिट का ऐलान करने के साथ ही सहाफ़ीयों को बताया कि वो इंतिख़ाब में सीमांचल के डीवलपमनट को मुद्दा बनाएंगे । उनका कहना था कि दफ़ा 371के तहत सीमांचल डीवलपमनट कौंसल के लिए इस इलैक्शन में मज़बूती से आवाज़ उठाई जाएगी। माना जा रहा है कि वो 371की बात करेंगे और दूसरे 370को निशाना बनाएंगे । सीमांचल में चुनाव 5अक्तूबर को सब से आख़िर में होना है । यहां 24सीटों पर चुनाव लड़ कर उवैसी पूरे इलैक्शन को मुतास्सिर करेंगे क्योंकि वो पूरे वक़्त बिहार में रहेंगे । यहां अगर पोलिंग पहले मरहला में होती तो क्या तब भी वो यहां से अपने उम्मीदवार उतारते शायद नहीं क्योंकि इस से उनका बहार आने का मक़सद पूरा नहीं होता ।दर असल वो चुनाव में आख़िर तक बने रहना चाहते हैं । एक तरफ़ वो अपने जज़बाती बयानों से मुस्लिम वोट काटेंगे तो दूसरी तरफ़ उनके रद्द-ए-अमल में अक्सरीयती वोट मुत्तहिद हो जाऐंगे । उवैसी फैक्टर महाराष्ट्र में अपना ये रंग दिखा चुका है । कांटे के चुनाव में उन्होंने सिर्फ दो सीटें जीती लेकिन नुक़्सान किस का हुआ और फ़ायदा किस को मिला ये सब जानते हैं ।

बी जे पी बिहार में करो या मरो की हालत में है।  वज़ीर-ए-आज़म नरेंद्र मोदी की पाँच रैलियां और दो सरकारी दौरे उस की ग़म्माज़ी करते हैं शायद इसी लिए यहां महाराष्ट्र तकनीक को अपना या गया है। महाराष्ट्र में कांग्रेस, एन सी पी के इत्तिहाद को तोड़ा गया फिर राम दास अठावले को अपने साथ मिलाया गया। छोटी और मुक़ामी पार्टीयों का महाज़ बनवाकर दो तिहाई सीटों पर उनके नुमाइंदे उतरवाए गए शिवसेना और प्रवीण तोगड़िया के लब-ओ-लहजा में बात करने वाले उवैसी को मैदान में लाया गया। फिर जो कुछ हुआ वो सब आपके सामने है। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने आते ही बोलने की आज़ादी पर पाबंदी लगाने का क़ानून पास किया किसी भी सियासी शख़्स के ख़िलाफ़ बोलने की वजह से अगर कशीदगी होती है तो बोलने वाले पर देश से बग़ावत का मुक़द्दमा चलेगा। दूसरे किसी भी सयासी शख़्स को बग़ैरसरकार की इजाज़त के किसी भी मुआमला गिरफ़्तार नहीं किया जाएगा CrPC में तबदीली की गई और तीसरे खाने पीने पर पाबंदी जिसकी शुरूआत बड़े के गोश्त पर रोक लगा कर की गई है। क्या बिहार के लोग उवैसी जैसे किसी शख़्स के बहकावे में आकर किसी ऐसी सरकार को लाना चाहेंगे जो उनकी आज़ादी को चैलेंज करे और ज़ुलम को खुली छूट दे।

हालाँकि अज़ीम इत्तिहाद के लोग खुल कर कुछ कहने से बच रहे हैं लेकिन उनके बयानों से ये ज़रूर ज़ाहिर हो रहा है कि एनसीपी, मुलायम सिंह का अज़ीम इत्तिहाद से नाता तोड़ कर पप्पू यादव के साथ इलैक्शन में उतरना हो या फिर उवैसी का बिहार में चुनाव लड़ना ये सब भाजपा करा रही है। भारतीय जनता पार्टी का बिहार इलैक्शन के लिए फ़िक्रमंद होना फ़ित्री है।लोक सभा के आंकड़े और सियासी मुबस्सिरीन बताते हैं कि भाजपा का बिहार में जीतना इंतिहाई दुश्वार है। मशहूर सहाफ़ी क़मर वहीद नक़वी के मुताबिक़ अगर हम एक पल के लिए मान लें कि बीजेपी और इस की मुआविन पार्टियों को बिहार वहाँ सभा चुनाव में भी कम अज़ कम इतने वोट मिलेंगे जितने उन्हें लोक सभा चुनाव में मिले थे तब भी गणित बीजेपी के ख़िलाफ़ है। तब बीजेपी, लोक जनशक्ति पार्टी और नैशनल लोक समता पार्टी को 38.77फ़ीसद वोट मिले थे। आज के अज़ीम इत्तिहाद की पार्टियों को तब कुल मिला कर 45.06 फ़ीसद वोट मिले थे। माँझी के बी जे पी के साथ आने से एक-आध फ़ीसद वोट का इज़ाफ़ा और कर लें तब भी ये वोट फ़ीसद चालीस से आगे नहीं बढ़ता। बहरहाल इस हिसाब से बीजेपी इत्तिहाद को 90-95सीटें और अज़ीम इत्तिहाद को 140-145मिली चाहिए।

बिहार में 20फ़ीसद मुस्लिम वोट हैं। दस सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की तादाद 50फ़ीसद से भी ज़्यादा हैं और 44सीटों पर उनका फ़ीसद 20से 50के बीच है । इस लिए तमाम पार्टीयां चाहती हैं कि मुस्लमानों के वोट उनके हक़ में पढ़ें। ये इतना बड़ा वोट बंक है कि अपनी बुनियाद पर एक सियासी पार्टी को खड़ा कर सकता है। गुजरात में 17फ़ीसद पटेल सरकार पर क़ाबिज़ हैं तो बिहार में मुस्लमानों की हिस्सादारी ज़्यादा क्यों नहीं हो सकती? मुस्लिम वोट का मुत्तहिद रहना बीजेपी के हक़ में नहीं है। ऐसा क़ियास है कि भाजपा ने इन वोटों को मुंतशिर करने की ज़िम्मेदारी पहले मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सैक्रेटरी की सतह के एक ज़िम्मेदार को सौंपी थी। उस वक़्त ये भी कहा जा रहा था कि बिहार में किसी मुस्लिम पार्टी का ऐलान हो सकता है। लेकिन वक़्त कम होने की वजह से शायद ये मुमकिन ना हो सका। उनकी सारी मेहनत छोटी पार्टियों का महाज़ बनाने तक महदूद हो कर रह गई।

हो सकता है असद उद्दीन उवैसी इस वोट बंक को देखते हुए अपनी ज़मीन तलाशने के लिए बिहार आए होें। एक सियासी पार्टी की हैसियत से वो मुल्क में कहीं भी इलैक्शन लड़ सकते हैं। लेकिन जिस तरह जिस वक़्त वो बिहार में दाख़िल हुए इस से यही शक होता है कि वो बीजेपी की मुश्किलों को आसान करेंगे और इस का ख़ाब पूरा। अगर वो एक या दो साल क़बल बिहार आए होते तो इस तरह के शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। बिहार में बीजेपी इत्तिहाद और अज़ीम इत्तिहाद के बीच सख़्त मुक़ाबला होने वाला है। मुस्लिम वोटों और आम वोटों को अज़ीम इत्तिहाद अपना मान रहा है ऐसे में उवैसी जो भी वोट काटेंगे वो अज़ीम इत्तिहाद के खाते के होंगे। दूसरी तरफ़ उनके जज़बाती भाषणों और मुस्लिम नवाज़ी से दूसरे कितने वोट छिटक जाऐंगे उस का अंदाज़ा लगाना अभी मुश्किल है ।
एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या उवैसी मुस्लिम मसाइल खासतौर पर शुमाली हिंद के मुसलमानों के मसाइल की वाक़फ़ीयत रखते हैं।क्या वो मुसलमानों को सियासी, मआशी और समाजी तौर पर ताक़तवर बनाना चाहते हैं। या महज़ मुसलमानों को इस्तेमाल करके कुर्सी पर बने रहना चाहते हैं। ये सवाल इस लिए भी उभरा है कि उवैसी बैंगलौर के म्यूंसिपल्टी इलेक्शन में अपने उम्मीदवार उतार चुके हैं। वहां उनके तमाम 27उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। यानी जुनूब के लोगों ने उनकी पालिसी को पसंद नहीं किया इस लिए उनके उम्मीदवारों को मुस्तर्द कर दिया। तमाम दानिशवरों और मुस्लिम जमातों बिशमोल जमात-ए-इस्लामी हिंद उवैसी के बिहार इलैक्शन में उतरने के हक़ में नहीं हैं। एक सवाल के जवाब में अमीर जमात-ए-इस्लामी हिंद ने कहा था कि अगर उवैसी साहिब सब के ( सैकूलर जमातों) साथ मिलकर चलते हैं तो उन्हें बिहार के इलैक्शन में उतरने पर कोई एतराज़ नहीं है ।

जानकारों का मानना है कि बिहार इलैक्शन में तरक़्क़ी, डेवलपमनट और ज़ाति मुद्दा बनेगा। बिहार के लोग उस का फ़ैसला करेंगे कि नतीश कुमार का दस साला दौरे हुकूमत वज़ीर-ए-आज़म मोदी के डेढ़ साल से अच्छा रहा या ख़राब। कहने के लिए दोनों के पास बहुत कुछ है एक तरफ़ मोदी के पास तरक़्क़ी के बलंद बाँग दावा हैं तो दूसरी तरफ़ नतीश कुमार का दस साल का दौर-ए-हकूमत। पसमांदा बिरादरियों की तरक़्क़ी की कहानी, नौजवानों को रोज़गार से जोड़ने की मिसालें और दलितों को बेहतर मवाक़े फ़राहम करने की कोशिशें। ऐसे में उवैसी साहिब कहाँ फ़िट होंगे ये देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि वो तो इस तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं जो रिज़र्वेशन का मुख़ालिफ़ है। आज़ादी के बाद से अब तक मुस्लिम लीग समेत एक दर्जन से ज़्यादा मुस्लिम सियासी पार्टियां वजूद में आईं लेकिन शुमाल में कोई भी अपनी जगह नहीं बना सकी क्योंकि मुस्लमानों ने उन्हें क़बूल नहीं किया।इस के मुख़्तलिफ़ पहलू हैं जिन पर तफ़सील से गुफ़्तगू और ग़ौर करने की ज़रूरत है। लेकिन एक बात वाज़िह है कि शुमाल में कोई भी संजीदा सयासी कोशिश नहीं की गई। इलैक्शन से ऐन पहले बरसाती घास की तरह सियासी पार्टी का उभरना वो भी किसी ख़ास मक़सद के लिए किसी ग़ैर की पुश्तपनाही से और इलैक्शन के बाद उस का वजूद बाक़ी ना रहना शुमाल के लोग उस का मुशाहिदा बार-बार कर चुके हैं।

बिहार के मुसलमानों पर उवैसी साहिब के आने से बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है कि वो उवैसी की पार्टी और उनके उम्मीदवारों को कितनी एहमीयत देते हैं उनकी बातों में आकर अपनी वोट की ताक़त ख़राब करते हैं या फिर समझदारी का सबूत देकर अपना वज़न बढ़ाते हैं। कभी कभी छोटी सी ग़लती की सज़ा लंबे अरसे तक भुगतनी पड़ती है। वैसे बिहार के लोग सियासी एतबार से दूसरी कई रियासतों के मुक़ाबले ज़्यादा समझ रखते हैं इस लिए ये उम्मीद कम है कि वो इस तरह के किसी बहकावे में आसानी से आएँगे, क्योंकि ये कोशशें ही बिहार में बीजेपी की मुश्किलों को आसान कर सकती हैं।

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