Sunday, December 13, 2015

उल्टी भी पड़ सकती है कांग्रेसी आक्रामकता


सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।

संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?


पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?

पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस के नेताओं की ओर से दिए गए बयानों से यह भी लगता है कि पार्टी अभी निश्चय नहीं कर पाई है कि यह कानून मामला है या राजनीतिक समस्या है। उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे लेकर दो दिन में लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री कार्यालय पर हमला बोला है। उनका आरोप है कि इस मामले में कानूनी प्रक्रियाएं पीएमओ द्वारा संचालित की जा रही हैं।’ ऐसा कहने के बाद वे यह भी कहते हैं कि न्यायिक प्रणाली में हमारा भरोसा कायम है। यदि न्यायिक प्रणाली पर भरोसा है तो डर किस बात का? पीएमओ पर हमला करके क्या वे यह साबित नहीं कर रहे हैं कि उनकी पार्टी के शासन काल में ऐसी प्रक्रियाओं का सहारा लेती थी।

कांग्रेस एक गलती और कर रही है। कुछ साल पहले जब सुब्रह्मण्यम स्वामी भारतीय जनता पार्टी में शामिल नहीं हुए थे और उन्होंने हैरल्ड के मामले को उठाया था तब कहा गया था कि अदालत में क्यों नहीं ले जाते? पार्टी ने सन 2012 में कहा था कि जो लोग आरोप लगता हैं उन्हें साबित करना चाहिए। अब जब मामला अदालत में आ गया है तब ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि फँसाया गया है। यह मामला तब अदालत में दायर हुआ था जब यूपीए सरकार थी। फिर भी लगता है कि मोदी सरकार इसका फायदा उठा रही है तब भी सोनिया और राहुल गांधी को अदालत के सामने अपने आपको निर्दोष साबित करना होगा।

सोनिया और राहुल यह भूल कर रहे हैं कि जाने-अनजाने उन्होंने न्यायालय की निष्पक्षता पर प्रहार कर दिया है। कांग्रेस पार्टी को न्यायालय की गरिमा, संसदीय राजनीति और पार्टी पर वंशानुगत शासन के कम से कम तीन मामलों को साफ करना होगा। कुछ महीने बाद कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। पार्टी इनमें से कुछ राज्यों में बिहार जैसा महागठबंधन बनाना चाहती है। इस सिलसिले में नीतीश कुमार ने असम के बद्रुद्दीन अजमल और प्रफुल्ल कुमार महंत से बातचीत भी की है।

बिहार की विजय के बाद से पार्टी खुद को इस वक्त विजेता की मुद्रा में देख रही है। उसे लगता है कि मोदी का जादू खत्म हो रहा है। साथ ही जीएसटी पर सरकार की मनुहार के कारण उसके नेताओं का दिमाग आसमान पर है। उसे विपक्ष के कुछ नेताओं का समर्थन भी मिला है। पर पार्टी को समझना होगा कि जनता सब कुछ देखती है। वह केवल नारेबाजी पर विश्वास नहीं करती। वह सिद्धांत और व्यवहार की पवित्रता भी चाहती है।

राहुल गांधी के बयान से हटकर पार्टी के सीनियर नेताओं के बयानों पर गौर किया जाए तो साफ लगता है कि वे गर्दन फँस जाने के बाद इसे नया मोड़ देना चाहते हैं। अब राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि संसद का कामकाज हैरल्ड मामले के कारण नहीं, तीन मुख्यमंत्रियों के इस्तीफों की मांग को लेकर ठप किया जा रहा है। अचानक पार्टी संसद के मॉनसून सत्र की मनोदशा में आ गई है। ऐसा है तो सोनिया गांधी को ‘इंदिरा की बहू’ होने का दावा करने की जरूरत क्या थी? या राहुल को पीएमओ पर हमला करने की जरूरत क्या थी? आनन्द शर्मा के यह कहने की क्या जरूरत थी कि जीएसटी तो गया आसमान में उड़ान भरने।

शीत सत्र का यह हफ़्ता भी गया। अब व्यावहारिक रूप से सिर्फ एक हफ़्ता बाकी बचा है। लगता है कि कांग्रेस 19 दिसम्बर की पेशी को राजनीतिक मुद्दा बनाएगी और उस दिन की अदालती कार्रवाई के आधार पर संसद की भावी रणनीति तैयार करेगी। कांग्रेस जीएसटी को मजाक बना रही है। वह इस अंदाज में बात कर रही है कि जीएसटी सही है या गलत अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह गया है। आनन्द शर्मा ने कहा है कि जीएसटी के बगैर देश डूबा नहीं जा रहा है।

कांग्रेस के इस रुख का असर केवल जीएसटी पर ही नहीं पड़ेगा। भ्रष्टाचार निवारण और ह्विसिल ब्लोवर (संरक्षण) विधेयक भी संसद के सामने पड़ा है। कांग्रेस पार्टी अब इस बात पर जोर दे रही है कि इसे पास करने के बजाय संसदीय प्रवर समिति को सौंप दिया जाए। इस बीच कैबिनेट ने रियल एस्टेट (नियमन एवं विकास) विधेयक-2015 को स्वीकृति दे दी। देश में निर्माण गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए इस कानून की सख्त जरूरत है। इसमें देर करने से हमारे आर्थिक विकास पर विपरीत असर पड़ेगा।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस हफ्ते कहा था, ''इस बार संसद न चलने से गरीब का हक अटका पड़ा है। देश के सामने दो खतरे हैं। मनतंत्र और मनीतंत्र। मनतंत्र से देश नहीं चलता। मनीतंत्र से भी लोकतंत्र को बचाना होगा। जीएसटी जब होगा तो होगा, संसद तो चले।'' इसपर सोनिया गांधी ने कहा, "उन्हें जो कहना है, कहने दो।" संसद के सामने एक महत्वपूर्ण मुद्दा पाकिस्तान के साथ रिश्तों पर विचार-विमर्श का है। यह राष्ट्रीय महत्व का विषय है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस हफ्ते पाकिस्तान के दौरे से वापस आई हैं। संसद में उनका बयान होना चाहिए, ताकि देश को पता लगे कि वहाँ हुआ क्या।

कांग्रेस को साबित करना है कि वह राष्ट्रीय संदर्भों में सोचती है, पार्टी के नेताओं के व्यक्तिगत हित या अनहित के संदर्भ में नहीं। इसे साबित करना आसान काम नहीं है। केवल सड़कों पर शोर मचाने से यह सम्भव होता तो आज कांग्रेस की यह दशा नहीं होती।हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. केंद्र की वर्तमान भाजपा सरकार मोदी के करिश्‍में की वजह से सत्‍ता में नहीं है। असल में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का 10 साल का कार्यकाल इतना भ्रष्‍ट, बदरंग और खून चूसने वाला था कि जनता त्रस्‍त हो चुकी थी। कांग्रेस अपनी कमियों को छुपा कर यदि हमलावर होने का प्रयास कर रही है, तो उसके भविष्‍य के लिए यह ठीक नहीं है। कांग्रेस को केंद्र में वापसी में कुछ ज्‍यादा ही लंबा वक्‍त लगने वाला है।

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