Thursday, December 31, 2015

ऐसी भी कोई शाम है, जिसकी सहर न हो

सुबह और शाम के रूपक हमें आत्म निरीक्षण का मौका देते हैं. गुजरते साल की शाम ‘क्या खोया, क्या पाया’ का हिसाब लगाती है और अगली सुबह उम्मीदों की किरणें लेकर आती है. पिछले साल दिसम्बर के अंत में यानी इन्हीं दिनों मुम्बई के कुछ नौजवानों ने तय किया कि कुछ अच्छा काम किया जाए. उन्होंने किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन को साफ-सुथरा बनाने का फैसला किया. शुरुआत एक गंदे किनारे से की. देखते ही देखते इस टीम का आकार बढ़ता चला गया. इस टीम ने इस साल इस स्टेशन की शक्ल बदल कर रख दी. उन्होंने न केवल स्टेशन की सफाई की, बल्कि दीवारों पर चित्रकारी की, रोशनी की और 100 पेड़ लगाए. गौरांग दमानी के नेतृत्व में वॉलंटियरों की इस टीम के सदस्यों की संख्या 500 के ऊपर पहुँच चुकी है.

बेंगलुरु की किशोरी निखिया शमशेर ने ‘बैग्स, बुक्स एंड ब्लैसिंग्स’ नाम से एक अभियान शुरू करके 2500 किताबें, 150 बैग, वॉटर बॉटल और काफी स्टेशनरी जमा करके एक अनाथालय के बच्चों को सौंपी. 67 वर्षीय गंगाधर तिलक अकेले दम पर हैदराबाद की सड़कों के गड्ढे भरने का काम कर रहे हैं. वे अब तक 1100 से ज्यादा गड्ढे भर चुके हैं. मुम्बई से साठे नगर की झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों को एक नाला पार करके स्कूल जाना पड़ता था. 17 वर्षीय ईशान बलबले ने अकेले दम पर बाँस का 100 लम्बी पुल आठ दिन में बनाकर इन बच्चों की पढ़ाई की राह आसान कर दी.

लखनऊ के जीपीओ के बाहर बैठकर टाइप करके रोजी कमाने वाले किशन कुमार की टाइप मशीन पुलिस ने उठाकर फेंक दी. इस मौके की तस्वीर एक फोटोग्राफर ने खींच कर ट्वीट कर दिया. देखते-देखते सोशल मीडिया जाग गया और किसी तरह से किशन कुमार का पता लगाया गया और लखनऊ के डीएम ने उन्हें जाकर एक नई मशीन दी. पुणे की 50 वर्षीय सुमन मोरे कूड़ा बटोरने का काम करती हैं. उन्होंने ‘कागद काच पत्र काश्तकारी पंचायत’ नाम से कूड़ा बटोरने वालों की संस्था बनाई है, जिसमें नौ हजार से ज्यादा सदस्य हैं. इस उपलब्धि के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने उन्हें जिनीवा में हुए एक सम्मेलन में विशेष रूप से आमंत्रित किया.

सामूहिक पहल, अकेले दम बदलाव की मुहिम शुरू करने और सामाजिक-साम्प्रदायिक सौहार्द की ऐसी सैकड़ों बल्कि लाखों खबरें देश के कोने-कोने से सुनाई पड़ी होंगी. बलात्कार, हत्याओं, आत्महत्याओं और साम्प्रदायिक दंगों की घटनाएं भी हुईं. मीडिया की कवरेज बताती है कि वक्त खराब है. इन जुझारू लोगों का हौसला बताता है कि निराश होने की कोई वजह नहीं है. हमारे पास ऐसे उपकरण नहीं हैं जो बताएं कि जीवन में नकारात्मक घटनाएं ज्यादा हैं या सकारात्मक. आपको क्या लगता है? खुद से सवाल पूछें क्या वास्तव में दुनिया तबाही की और बढ़ रही है? दुनिया पीछे नहीं जाएगी. उसे बेहतरी की ओर ही जाना है. अच्छाई और बुराई के बीच निरंतर चलते संग्राम में हम तभी बेहतरी हासिल कर पाएंगे जब उन लोगों के बारे में सोचेंगे जो इस दुनिया को बदलने की कोशिश में अकेले ही जुटे हैं.

दुनिया की इस वक्त सबसे बड़ी समस्या है गरीबी. इस साल संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन 2030 तक दुनिया से गरीबी दूर करने का संकल्प किया है. क्या ऐसा सम्भव होगा? बीसवीं सदी में दुनिया ने दो विश्व युद्ध देखे, पर सामाजिक और राजनीतिक समावेशी धारणाओं ने भी जन्म लिया. दुनिया के दो अरब लोगों को गरीबी और भूख से मुक्ति दिलाने की सामूहिक पहल भी पिछली सदी की देन है. सन 2001 में संयुक्त राष्ट्र ने मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स को अपनाया. सन 2015 इन्हें हासिल करने का लक्ष्य वर्ष था. बेशक सारे लक्ष्य पूरे नहीं हुए, पर वह सपना खत्म नहीं हुआ है. अब दुनिया पर्यावरण और विकास को जोड़कर देख रही है. इस साल पेरिस संधि इसका उदाहरण है.

दुनिया इस निश्चय की ओर बढ़ चली है कि एकबार हरेक इंसान को गरीबी के फंदे से निकाल देंगे तो दुबारा फिर कभी कोई गरीब नहीं होगा. संयोग से वैश्विक गरीबी का सबसे बड़ा केन्द्र भारत है. दुनिया से गरीबी खत्म करनी है तो इसकी शुरूआत भारत से ही करनी होगी. अब सारी दुनिया की निगाहें भारत पर हैं. सन 2015 में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था बना. सरकारी आँकड़ों के अनुसार चालू वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में हमारी अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि दर 7.2 प्रतिशत थी, जो पिछली बार की दर 7.5 से कुछ कम थी, पर अच्छे भविष्य का संकेत दे रही है. देश में विदेशी मुद्रा का भंडार 350 अरब डॉलर से ज्यादा का है जो जुलाई 2013 में 270 अरब डॉलर था. कुल मिलाकर विश्व बैंक और अन्य वैश्विक वित्त संस्थाओं को भारत की अर्थ-व्यवस्था के भविष्य में 7.5 से 8.00 फीसदी के बीच पहुँचने की आशा है.

केवल आर्थिक गतिविधियाँ सामाजिक कल्याण की गारंटी नहीं. पर सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों के लिए साधनों की व्यवस्था तभी होगी जब आर्थिक गतिविधियाँ तेज होंगी. इसमें लोकतांत्रिक प्रणाली की भूमिका भी है. लोकतांत्रिक प्रणाली के सक्रिय होने के लिए शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के कार्यक्रमों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है. भारत सरकार ने जापान के सहयोग से मुम्बई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने का फैसला किया है. सात साल में पूरी होने वाली यह परियोजना बदलते भारत का प्रतीक चिह्न बनेगी. अभी इस बात को लेकर बहस है कि ऐसी परियोजनाएं हमारे लिए उपयोगी हैं भी या नहीं. ऐसी ही बहस दिल्ली में मेट्रो शुरू होने के पहले चली थी. सच यह है कि अभी सार्वजनिक कल्याण के कार्यक्रमों की परिभाषा हम तय नहीं कर पाए हैं.

इस साल सितम्बर में हमारे मंगलयान कार्यक्रम की सफलता का एक साल पूरा हो गया. इस साल 27 अगस्त को स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी रॉकेट के सफल प्रक्षेपण के साथ भारत ने भारी अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण की राह में कदम रख दिए हैं. इसी साल इंडियन नेवीगेशनल सैटेलाइट सिस्टम का चौथा सैटेलाइट कक्षा में स्थापित हुआ. ऐसी उपलब्धियों की सूची लम्बी है. पर सवाल वही है कि जिस देश में आधे से ज्यादा लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है, उनके लिए अंतरिक्ष यात्रा का मतलब क्या है? पर क्या अंतरिक्ष कार्यक्रम रोकने से गरीबी दूर हो जाएगी? आज की शाम यह सोचने का मौका देगी कि कल की सुबह कैसी हो.

‘तूल-ए-गम-ए-हयात से घबरा न ऐ ‘जिगर’/ऐसी भी कोई शाम है, जिसकी सहर न हो’

प्रभात खबर में प्रकाशित

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