Monday, October 31, 2016

सपा के तम्बू में वर्चस्व का संग्राम

कुछ दिन पहले तक समाजवादी पार्टी पर वंशवाद का आरोप था। अब उसके भीतर प्रति-वंशवाद जन्म ले रहा है। बारह दूने आठ का यह नया पहाड़ा  वंशवाद का बाईप्रोडक्ट है। सवाल उत्तराधिकार का है। समझना यह होगा कि सन 2012 में जब मुलायम सिंह ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाया था तब वजह क्या थी और आज उन्हें अपने किए पर पछतावा क्यों है?

इस कहानी को महाभारत और रामायण के रूपकों के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। मुगल बादशाह अकबर और सलीम तथा औरंगजेब और शाहजहाँ के साथ भी। सारी कहानियाँ दरबारी क्लेश के कारणों को बताती है। यह भी दरबारी संग्राम है। यह कहानी जहाँ तक भी जाए, पर इतना तय है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की चुनाव के ठीक पहले फज़ीहत हो चुकी है। मुलायम सिंह ने अपने दम पर इस पार्टी को खड़ा किया और आज उनके परिवार के कम से कम 17 सदस्यों को केन्द्र या राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण ठिकानों पर पहुँचा दिया। बदले में फिर भी क्लेश ही मिला।
विडंबना है कि एक साल पहले मुलायम सिंह यादव ने बिहार में जिस महागठबंधन की मुखालफत की थी, मजबूरी में उनकी पार्टी उसपर वापस आ रही है। क्या यह दो पीढ़ियों का झगड़ा है? या अखिलेश की जल्दबाजी है, जिसके कारण पार्टी के पिछली पीढ़ी के नेता नाराज है? पिछले साढ़े चार साल में अखिलेश के ऊपर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का दबाव रहा है। मुलायम सिंह यादव ने सरकार की लगातार आलोचना की और ऐसे लोगों को सरकार में बनाए रखने का दबाव डाला जिनकी छवि अच्छी नहीं थी। झोल दोनों तरफ है। अखिलेश अपनी बेहतर इमेज चाहते थे, पर माने गए वे समाजवादी पार्टी के मनमोहन सिंह। अब उनका प्रतिशोध सामने आ रहा है।  
सवाल है कि क्या पार्टी चुनाव से पहले टूटेगी? टूटी तो उत्तर प्रदेश में सत्ता के समीकरण क्या बनेंगे और नहीं टूटी तो क्या होंगे? इसमें अखिलेश और शिवपाल यादव दो पक्ष हैं। सन 2017 के चुनाव में दोनों अपना वर्चस्व चाहते हैं। मुलायम चाहेंगे कि सब मिल-जुलकर चुनाव लड़ें, पर अखिलेश के प्रति उनके मन में खलिश है। वे उन्हें अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में देख रहे हैं।
अखिलेश साबित करना चाहते हैं कि वे पार्टी की परम्परागत राजनीति के साथ नहीं है। उनका विवाद शिवपाल यादव से था, पर इस चक्कर में पिता के प्रतिस्पर्धी बन गए हैं। इससे उनका कद तो बढ़ा, पर कितना और कब तक यह समय बताएगा। अखिलेश के प्रवेश के पहले से शिवपाल यादव खुद को मुलायम वारिस मान चुके थे। पर 2012 में अखिलेश ने बाजी मार ली, बावजूद शिवपाल के विरोध के। शायद वही खलिश अब तक कायम है। पर अब शिवपाल अपने ऊपर तनी बंदूक को मुलायम की तरफ मोड़ने में कामयाब हुए हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतने संशय हैं कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि चुनाव बाद क्या होगा। अब यहाँ चुनाव से पहले के गठबंधनों की बातें होने लगी हैं, जिससे कुछ समय पहले तक यहाँ की ज्यादातर पार्टियाँ बच रही थीं। बीजेपी, बसपा, सपा और कांग्रेस ने दावा किया था कि हम अकेले चुनाव में उतरेंगे। पर अब उत्तर प्रदेश अचानक बिहार की ओर देखने लगा है। बावजूद इसके कि पिछले साल बिहार में ही समाजवादी पार्टी ने महागठबंधन की आत्मा तो ठेस पहुँचाई थी।
अब उत्तर प्रदेश में पार्टी संकट में फँसी है तो महागठबंधन की बातें फिर से होने लगीं हैं। सवाल है कि क्या यह गठबंधन बनेगा? क्या यह कामयाब होगा?  कांग्रेस के सपा और बसपा के साथ तालमेल की बातें फिर से होने लगी हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह है सर्जिकल स्ट्राइक के कारण बीजेपी का आक्रामक रुख। कांग्रेस की दिलचस्पी अपनी जीत से ज्यादा बीजेपी को रोकने में है। और सपा की अपने को बचाने में। कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी सबका ध्यान मुस्लिम वोटर पर है। बीजेपी का भी। मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण से बीजेपी की प्रति-ध्रुवीकरण रणनीति बनती है। बीजेपी को रोकना है यह नारा मुस्लिम मन को जीतने के लिए गढ़ा गया है। इसमें सारा ज़ोर बीजेपी पर है। यह बात बीजेपी के समर्थक तैयार कर देती है।
एक अरसे से मुसलमान टैक्टिकल वोटिंग कर रहे हैं। पर उत्तर प्रदेश में वे कमोबेश सपा के साथ है। क्या इसबार उनके रुख में बदलाव आएगा? यानी जो प्रत्याशी बीजेपी को हराता नजर आए उसे वोट दें। क्या बसपा प्रत्याशियों का पलड़ा भारी होगा तो मुसलमान वोट उधर जाएंगे? यह सम्भव है। कांग्रेस की रणनीति क्या होगी? अमित शाह ने इटावा की रैली में कांग्रेस को वोट कटवा पार्टी कहा है। जो सपा या बसपा को फायदा देगी, पर जिसे अपनी कोई उम्मीद नहीं है।
कांग्रेस किंगमेकर बनना चाहती है। अनुमान है कि उत्तर प्रदेश में कोई पक्ष पूर्ण बहुमत लाने की स्थिति में नहीं है। यह लगभग वैसा ही विचार है जैसा सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले समाजवादी पार्टी का था। सन 2012 में मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालने के बजाय दिल्ली की राजनीति पर ध्यान देने का फैसला किया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि लोकसभा के त्रिशंकु रहने पर सपा किंगमेकर की भूमिका निभाएगी।
कांग्रेस और रालोद की रणनीति लगातार बदल रही है। अभी गुरुवार को राहुल गांधी ने कहा है कि हम सपा या बसपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करेंगे। पर दूसरी ओर शिवपाल यादव ने दिल्ली जाकर महागठबंधन की बातें करनी शुरू कर दी हैं। इन बातों में कांग्रेस के सलाहकार प्रशांत किशोर भी शामिल हैं। सवाल है कि अखिलेश यदि सपा से अलग हुए तो क्या कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होगी? और अलग नहीं हुए तब भी क्या महागठबंधन बनेगा? ‘अखिलेश फैक्टर की वजह से ही तो शिवपाल ने महागठबंधन की ओर रुख किया है।
इस दुविधा से बाहर दो पार्टियाँ हैं। बीजेपी और बसपा। बसपा के महागठबंधन में शामिल होने की सम्भावना नहीं है। पर उसकी निगाहें मुस्लिम वोट पर हैं। सपा के आसन्न पराभव को देखते हुए वह विकल्प के रूप में खड़ी है। शिवपाल यादव की पहल इस बात का संकेत है कि पार्टी टूट के कगार पर है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि मुलायम क्या अखिलेश को पूरी तरह त्यागने को तैयार हैं।








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