Sunday, November 27, 2016

आम आदमी ने तो सहन किया...

नोटबंदी के खिलाफ विरोधी दलों ने आंदोलन खड़ा कर दिया है। उनका कहना है कि इस फैसले से आम आदमी की मुश्किलें बढ़ गईं हैं। मोटे तौर पर यह बात सच भी है। पर ये मुश्किलें किस प्रकार की हैं और कितनी हैं तथा कब तक चलेंगी, इसके बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। देवोत्थान एकादशी के बाद शादियाँ शुरू हो जाती हैं। जिन लोगों ने पहले से पैसे जमा करके रखे थे, उनके सामने दिक्कतें खड़ी हो गईं। जनवासे का इंतजाम, बैड की व्यवस्था, हलवाई का खर्चा और जेवरों की खरीदारी सारे काम नकदी से होते हैं। नेग-शगुन, पंडित जी को भी पैसे देने होते हैं।

यानी ज्यादातर काम नकदी से होते हैं। मकान की रजिस्ट्री कराने के लिए स्टाम्प नकद पैसे से मिलते हैं। गाँवों, कस्बों और बड़े शहरों में जीवन नकद पैसे की मदद से चलता है। गाँव में खाद, पशुओं का चारा, ट्रैक्टर, पानी और बीज की खरीदारी नकदी से होती है। हारी-बीमारी दवा-दारू नकदी से। परचूनी दुकानदार अपना माल नकदी से लेता है। ज्यादा से ज्यादा हफ्ते-दो हफ्ते का उधार चलता है। रिक्शे, टेम्पो का किराया नकदी से लिया-दिया जाता है। घरों की मरम्मत, पुताई, बढ़ई-लोहार का काम नकदी से। इसके अलावा रोजमर्रा की दूध, सब्जी वगैरह की खरीदारी नकदी से होती है।

इसलिए 9 नवम्बर को बैंक बंद रहने के बाद जब 10 नवम्बर को खुले तो सबसे पहले लोग पुराने नोट लेकर बैंकों की दिशा में भागे। उसके एक दिन बाद जब एटीएम खुले तो उनके आगे लाइन लग गई। पिछले ढाई हफ्ते का अनुभव बताता है कि बावजूद दिक्कतों के आम आदमी इस फैसले के खिलाफ नहीं है। विरोधी दलों को जनता की परेशानी का रुख मोड़ने में अभी तक कामयाबी नहीं मिली है।

सवाल है कि आम आदमी के सामने इतने दिक्कतें हैं तो वह परेशान क्यों नहीं हो रहा है? फसाद की खबरें नहीं हैं। कुछ जगहों पर लाइन में खड़े लोगों पर पुलिस वाले लाठियाँ चलाते देखे गए हैं। यह व्यवस्था की अमानवीयता है, पर आम आदमी फिर भी खड़ा है। गुरुवार को कांग्रेस ने राज्यसभा में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को खड़ा किया। उन्होंने कहा, यह नोटबंदी 'संगठित लूट व कानूनी डाके' का मामला है। साथ ही चेतावनी भी दी कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था में दो फीसदी की कमी आएगी।

कुछ समय पहले तक लोग जीडीपी का जिक्र होने पर कहते थे कि जीडीपी अमीरों के लिए होती है, गरीबों के लिए नहीं। इसमें दो राय नहीं कि अर्थ-व्यवस्था कुछ समय के लिए धीमी हो जाएगी। देखना यह है कि नकदी की कमी का दौर कितने समय तक चलता है। शादियाँ हो रहीं है। दूध मिलना बंद नहीं हुआ और न सब्जी का खरीदना रुका। संकट अभी है। कहा जा रहा है कि ट्रक ऑपरेटरों के पास नकदी नहीं है। डीजल नकदी से भरवाया जाता है। वे बंद हो जाएंगे तो खाद्य सामग्री का आवागमन रुक जाएगा। वह समय भी करीब आ रहा है। हालांकि पेट्रोल पम्प कार्ड से भुगतान लेते हैं और ऐसे ट्रक ऑपरेटर हैं, जो बैंक के माध्यम से काम करते हैं। फिर भी यह खतरा है।

दो हफ्ते की किल्लत के बाद नकदी की आवक बढ़ी भी है। इस दौरान एक गलतफहमी और दूर हुई। निम्न आय वर्ग के लोगों की बैंकिग प्रणाली से दूरी उतनी नहीं है, जितनी ऊँचे तबके की सायास दूरी है।  खासतौर से बिल्डरों, सर्राफों दलालों की। देश में करीब 80 करोड़ डैबिट और क्रेडिट कार्ड जारी हुए हैं। इनमें से तकरीबन 40 करोड़ प्रचलन में हैं। दिल्ली में काम करने वाले बिहारी मजदूर अपना पैसा बैंकों के मार्फत घर भेजते हैं। दूर दराज से पढ़ने आए बच्चों के पास कार्ड हैं। एटीएम के सामने लगी भीड़ में सबसे ज्यादा संख्या में छोटे कामगार, दस्तकार, कारीगर वगैरह ही हैं।

बैंकों में बड़े नोट जमा कराने वाले शुरुआती लोगों में सबसे बड़ी संख्या इनकी ही थी। अब जो लोग बैंकों में आ रहे हैं उनके पास लाखों की नकदी है। यह वह तबका नहीं है, जो नकदी पर निर्भर है। यह मझोला व्यापारी और उद्यमी है, जो टैक्स के दायरे से बचता रहा है। अभी करोड़ों की नकदी वाले भी हैं, जो बैंकों में प्रवेश के रास्ते बना रहे हैं। सरकार ने 50 फीसदी टैक्स के साथ नकदी को स्वीकार करने की जो नई योजना पेश की है, वह इनके मुख्यधारा में जोड़ सकने में कामयाब हुई तो सफलता मिलेगी।

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और 14वें वित्त आयोग के अध्यक्ष वाइ वी रेड्डी का कहना है कि देश में विमुद्रीकरण के लिए यह आदर्श समय था। जिस वक्त देश जीएसटी लागू करने जा रहा है विमुद्रीकरण वह बुनियादी बदलाव लेकर आएगा, जिसकी हमें जरूरत है। बगैर थोड़ी असुविधा के बड़े बदलावों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। रेड्डी के अनुसार काला धन केवल टैक्स से बचने, आय घोषित न करने या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने तक सीमित नहीं है। बल्कि यह गवर्नेंस का मसला है।

पहले दो हफ्तों में बैंकों के पास छह लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की राशि जमा हुई है। अभी यह कहाँ तक जाएगी, कहना मुश्किल है। मोटा अनुमान है कि 13 से 14 लाख करोड़ रुपए की धनराशि बड़े नोटों में है। बैंकों के डिपॉजिट बढ़ने से उनकी माली हालत बेहतर होगी। फिर ब्याज दरें नीचे आएंगी। अर्थ-व्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत है। इस वक्त दो फीसदी की गिरावट छह महीने बाद तेज प्रगति की वाहक बने तो इसमें क्या खराबी है?

इस साल के बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि टैक्स नेट में अभी 5.5 फीसदी कामगार आते हैं और ज़रूरी है कि आने वाले वर्षों में इनकी संख्या बढ़कर 20 फीसदी की जाए। वेतनभोगियों को इस दायरे में लाना आसान है, पर उद्यमियों और कारोबारियों को लाने में दिक्कतें है। नकदी पर चलने वाली व्यवस्था उन्हें बचाती है। भारत सरकार दुनिया में सबसे कम टैक्स वसूल पाने वाले देशों में है। हम टैक्स देने वालों को पूरी तरह कर ढाँचे के भीतर नहीं ला पाए हैं। भारत में जीडीपी का दस फीसदी से कुछ ज्यादा कर राजस्व मिलता है। इसे 20 फीसदी के आसपास होना चाहिए। और इसके लिए प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ कानूनी सुधारों की जरूरत है।

हरिभूमि में प्रकाशित

4 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति …. very nice article …. Thanks for sharing this!! 🙂

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  2. बहुत सुन्दर विश्लेषण। जो सोद्देश्य कैश में डील करते थे, उनको कैश की कमी से वास्तव में परेशानी होगी। जो मजबूरन या यूँ ही कैश में ही काम चलाते थे , वे विकल्पों की तरफ बढ़ने लगे है। डिजीटाइजेशन की तरफ बढ़ने का भी यही सरलतम और त्वरित मार्ग है। 13-14 लाख करोड़ के बड़े नोटों में से जो वापिस नही आयेंगे, उनमें से अधिकांश काला धन होने की सम्भावना है। हाँ, साठ प्रतिशत के दायरे में कुछ वापिस आ जाये, तो अच्छी बात है।
    आपके लेख हमेशा ज्ञानवर्द्धक होते हैं।

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  3. जनता को तो परेशानी है लेकिन विरोधजनता से ज्यादा राजनीतिक दलों को है उसके पीछे मूल कारण यह भी है कि काले धन का उपयोग करने वाले व रखने वाले लोगों में ये दाल खुद भी एक बड़ी भूमिका निबाह रहे हैं इनके पास पड़ा करोड़ों रुपया माटी हो गया है इसलिए उनको तकलीफ है उन्हें जनता के दर्द से कोई सरोकार नही है यह क्टु सत्य है

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