Sunday, December 11, 2016

संसदीय गरिमा को बचाओ

राहुल गांधी कहते हैं, सरकार मुझे संसद में बोलने नहीं दे रही। मैं बोलूँगा तो भूचाल आ जाएगा। और अब प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि मुझे बोलने नहीं दिया जाता। उधर पीआरएस के आँकड़ों के अनुसार संसद के शीत सत्र में लोकसभा में 16 और राज्यसभा में 19 फीसदी काम हुआ है। लोकसभा में जो भी काम हुआ उसका एक तिहाई प्रश्नोत्तर के रूप में है। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर हो ही नहीं पाए। लोकसभा ने इस दौरान आयकर से जुड़ा एक संशोधन विधेयक पास किया, जो केवल 10 मिनट में पास हो गया। यह सत्र 16 दिसंबर तक चलना है। सोमवार और मंगल को अवकाश हैं। अब सिर्फ तीन दिन बचे हैं।
संसद के न चलने की वजह केवल विपक्ष नहीं है। इसमें सरकार की भी भूमिका है। संसदीय गरिमा की रक्षा करना दोनों की जिम्मेदारी है। सुनाई पड़ रहा है कि सरकार और विपक्ष के बीच बचे हुए समय के सदुपयोग पर सहमति बनी है, पर सच यह है कि काफी कीमती समय बर्बाद हो गया है। एक बौद्धिक तबक़ा कहता है कि राजनीति में शोर है तो उसे दिखाना और सुनाना भी चाहिए। सड़क पर शोर है तो संसद में क्यों नहीं? शोर के सांकेतिक अर्थ महत्वपूर्ण हैं। पर यदि वह पूरे के पूरे सत्र को बहा ले जाए तो उसका कोई मतलब भी नहीं रह जाता। और वह शोर निरर्थक हो जाता है और संसद भी।  
सरकार इस साल बजट जल्द लाना चाहती है ताकि अगले साल की वित्तीय गतिविधियाँ समय से पहले शुरू हो सकें, पर लगता है राजनीति को इसमें दिलचस्पी नहीं है। सामान्यतः राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी आम तौर पर राजनीतिक पर टिप्पणी नहीं करते हैं। पर इस हफ्ते एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने जो कहा उस पर सभी दलों को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा, "प्रदर्शन के लिए आप कोई दूसरी जगह जा सकते हैं, लेकिन अपना काम तो कीजिए। आप चर्चा के लिए चुने गए हैं। काम करने के लिए संसद भेजे गए हैं। आपको अपना वक्त अपनी जिम्मेदारियां निभाने में लगाना चाहिए।"
राष्ट्रपति ने एक और महत्वपूर्ण बात कही। सामान्यतः अल्पमत सदस्यों की शिकायत होती है कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा है, पर राष्ट्रपति ने इस बार उन्हें फटकारा और कहा, आप बहुमत की आवाज दबा रहे हैं। सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचों बीच आता है, नारेबाजी करता है, कार्यवाहियां रोकता है और ऐसे हालात पैदा करता है कि अध्यक्ष के पास सदन की कार्यवाही स्थगित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है।...सदस्यों को वित्तीय मामलों पर चर्चा और काम करना चाहिए। बार-बार हंगामा करके आप दिखाना चाहते हैं कि आप जख्मी हैं, नाराज हैं।
इस वक्त देश के सामने तीन-चार बड़े सवाल उपस्थित थे, जिनपर हमारी संसद को विचार करना चाहिए। क्या वजह है कि संसद और जंतर मंतर में कोई फर्क नहीं रह गया है? धरना प्रदर्शन ही महत्वपूर्ण है तो फिर संसद की जरूरत ही क्या है? एक दिन पहले लालकृष्ण आडवाणी ने भी ऐसी ही नाराजगी जाहिर की थी। देश के सामने इस वक्त सबसे बड़ा सवाल नोटबंदी और काले धन का है। पिछले एक महीने से जनता परेशान है। इस सवाल पर सकारात्मक बहस संभव थी।
जनता की परेशानियों को दूर करने के लिए विपक्ष के पास सुझाव हैं तो उन्हें सामने आना चाहिए। ऐसा होता दिखाई नहीं पड़ता है। लोकसभा में तो यही तय नहीं हो पाया कि चर्चा किस नियम के तहत हो। यानी चर्चा महत्वपूर्ण नहीं रह गई। दूसरा सवाल पाकिस्तान की ओर से लगातार हो रही आतंकी गतिविधियों का है। राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनय से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण इस वक्त उठने चाहिए। कश्मीर में अराजकता खत्म नहीं हुई है। हम इधर राजनीतिक स्कोर सेटल कर रहे हैं, वहीं आतंकवादी उड़ी और नगरोटा जैसे हमले कर रहे हैं। तीसरे जीएसटी लागू करने के पहले उससे जुड़े प्रश्नों का और अर्थ-व्यवस्था से जुड़े बुनियादी सवालों का है।
पिछले साल संसद के मॉनसून और शीत सत्र में कांग्रेस ने छापामार रणनीति का सहारा लिया था। और लगता है कि पार्टी ने इसे जारी रखने का मन बना लिया है। क्या उसे इसका फायदा मिलेगा? पार्टी कहती है कि बीजेपी ने भी अपने मौके पर इस रणनीति का सहारा लिया था। आंदोलन करना या हंगामा करना भी किसी सवाल को उठाने का तरीका है। पर यह तरीका तभी इस्तेमाल में लाना चाहिए, जब सारे विकल्प खत्म हो चुके हों। हंगामा या शोर शराबा, संसदीय परंपरा का आखिरी विकल्प होता था, पर आज यह आम हो गया है। तकरीबन पूरे सत्र को हंगामे की भेंट चढ़ा देना उचित नहीं है। जनता ने आपको इस काम के लिए नहीं भेजा है। बीजेपी ने कभी इस रणनीति का सहारा लिया था तो जनता के पास उसे सज़ा देने का विकल्प है। आपके पास कोई संजीदा संदेश है तो उसे सामने रखिए।
राष्ट्रपति ने अपनी बात इस साल दूसरी बार जोर देकर कही है। इस साल फरवरी में बजट सत्र का आरंभ करते हुए उन्होंने याद दिलाया था कि ‘लोकतांत्रिक मिज़ाज का तकाजा बहस एवं विमर्श है, न कि विघ्न और व्यवधान।’ उन्होंने सांसदों से अनुरोध किया कि वे सहयोग एवं मेलजोल की भावना से अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करें। उन्होंने कहा था कि हमारी संसद जनता की आकांक्षा को व्यक्त करती है। लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए। ये बातें उन्होंने क्यों कहीं? संसदीय अभिभाषण सरकार की नीति-वक्तव्य था, फिर भी इसमें कहीं न कहीं राष्ट्रपति का व्यक्तिगत संदेश भी शामिल था। अब संसद के बाहर उन्होंने जो बात कही है वह और ज्यादा कड़वी और विचारोत्तेजक है।
कांग्रेस की कमान धीरे-धीरे राहुल गांधी के हाथों में जा रही है। राहुल को लगता है इस बार नोटबंदी पर जनता की दुखती रग को पकड़कर पार्टी खुद को मजबूत कर सकती है। उन्हें इसका अधिकार है, पर मर्यादा का पालन करना भी उनकी जिम्मेदारी है। मर्यादा की राजनीति में समय लगता है, पर वही अंततः टिकाऊ होती है। अब भी समय है। नोटबंदी पर पूरी चर्चा होनी चाहिए। विपक्ष को अपनी बात पूरी ताकत से कहनी चाहिए साथ ही प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को भी अपनी बात रखने का पूरा मौका मिलना चाहिए। जनता ने पिछले एक महीने में काफी कुछ सहन किया है। अब वह भी चाहती है कि नोटबंदी की सार्थकता या निरर्थकता पर अच्छी बहस हो ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।


हरिभूमि में प्रकाशित

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