Monday, May 29, 2017

बजने लगे 2019 के चुनावी ढोल

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होते ही नेपथ्य में सन 2019 के ढोल बजने लगे हैं। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धुर पूर्वोत्तर जाकर देश के सबसे लंबे नदी पुल ढोला-सादिया सेतु का उद्घाटन करके यह संदेश दिया कि देश के हर कोने पर अब बीजेपी खड़ी है। गुवाहाटी की रैली में उन्होंने कहा, हमारी सरकार के लिए हिन्दुस्तान का हर कोना दिल्ली है। यह रैली एक तरह से 2019 के चुनाव प्रचार का प्रस्थान बिन्दु है। इसमें मोदी ने अपनी सारी उपलब्धियों को एक सूत्र में पिरोया था।
यह सिर्फ संयोग नहीं था कि शुक्रवार को ही दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विरोधी दलों के नेताओं को लंच-पार्टी में एकत्र किया। यह लंच प्रकट रूप में राष्ट्रपति चुनाव के लिए विरोधी दलों की ओर से एक प्रत्याशी के बारे में विचार करने के इरादे से आयोजित था, पर वस्तुतः यह 2019 के चुनाव में एक मोर्चा बनाने की शुरुआती पहल है। एक ही दिन के दो राजनीतिक आयोजनों की सरगर्मी से माहौल में तेजी आ गई है।
सोनिया गांधी ने जो बैठक बुलाई थी, उसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शामिल नहीं हुए। उनकी पार्टी की ओर से शरद यादव आए थे। पहली नजर में इस अनुपस्थिति के खास राजनीतिक अर्थ नजर नहीं आते। यों भी राष्‍ट्रपति चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होने के बाद सोनिया गांधी से मुलाकात करने वाले सबसे पहले नेताओं में नीतीश कुमार थे। कयास तब लगे, जब शुक्रवार को ही खबर आई कि नीतीश कुमार पीएम मोदी की तरफ से शनिवार को लंच के निमंत्रण पर दिल्ली आ रहे हैं।

नरेंद्र मोदी ने मॉरिशस के प्रधानमंत्री के सम्मान में लंच का आयोजन किया, जिसमें शामिल होने के लिए नीतीश कुमार को भी आमंत्रित किया गया था। नीतीश का पीएम की दावत में जाना नहीं, सोनिया की दावत में न जाना ध्यान खींचता है। पर्यवेक्षक मानते हैं कि सोनिया गांधी के भोज में नीतीश का नहीं जाना और प्रधानमंत्री के भोज में 24 घंटे के  अंदर जाने की सहमति देना मामूली बात भी नहीं है। संभव है कि वे अपने सहयोगी लालू यादव के साथ सार्वजनिक मंच पर नजर नहीं आना चाहते हों। बहरहाल यह अटकलों का बाजार है, जिसे गर्म रखने के लिए कोई न कोई वजह होनी चाहिए।  

पिछले तीन साल में सरकार से जनता की अपेक्षाएं कितनी पूरी हुईं, इसे लेकर तमाम किस्म की राय हैं। पर यह भी जाहिर है कि मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में कमी नहीं आई है। यहाँ तक कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शुक्रवार को जनता से बेहतर संवाद करने के लिए प्रधानमंत्री उनकी तारीफ की। उन्होंने कहा कि मोदी जनता से कुछ वैसा ही संवाद करते हैं जैसा जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी करते थे। सवाल यह है कि मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ कितना ऊपर जाएगा? साथ ही जनता की अपेक्षाएं कहाँ तक जाएंगी? क्या जनता उनसे कभी जवाब नहीं माँगेगी?

मोदी समर्थकों का कहना है कि वे 2019 के बाद 2024 का चुनाव भी जीतेंगे। अनुमान के पीछे दो कारण हैं। एक उनकी उम्र अभी इतनी है कि वे अगले दसेक साल तक राजनीति में सक्रिय रह सकते हैं। दूसरे उनके सामने कोई  और कोई नेता नजर नहीं आ रहा है। गठबंधन, महागठबंधन से जातीय-साम्प्रदायिक गणित तो बनेगा, जैसा बिहार में हुआ, पर उससे किसी मजबूत राजनीति की बुनियाद नहीं पड़ेगी।  

मोदी ने अपनी राजनीति के महत्वपूर्ण दौर को पूरा कर लिया है और आर्थिक सुधारों का मैदान काफी हद तक साफ कर लिया है। वे उस दौर में देश का नेतृत्व कर रहे हैं जब भारत का महाशक्ति के रूप में रूपांतरण हो रहा है। इसी दौर में चीन के आर्थिक विकास की गति क्रमशः धीमी होती जाएगा। अगले एक दशक में भारत की अर्थ-व्यवस्था यदि 8-9 फीसदी की दर से विकास करती रही तो हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी ताकत होंगे। इसके लिए भारत को राजनीतिक स्थिरता चाहिए।

जुलाई से जीएसटी लागू होने के बाद अर्थ-व्यवस्था में तेजी आने की आशा है। खबर है कि सन 2016 में भारत में 62.3 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ है, जो किसी भी देश में हुए निवेश में सबसे ज्यादा है। पिछले साल देश में अनाज का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। इस साल भी अन्न का सकल उत्पादन 27.3 करोड़ टन से ज्यादा होने की आशा है। पिछले तीन साल से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं अगले दो साल। मोदी के लिए ही नहीं उनके विरोधियों के लिए भी, क्योंकि उसके बाद वे कुछ नहीं कर पाएंगे। इसलिए अगले दो साल यह देखना होगा कि यह प्रतिद्वंद्विता किस दिशा में जाएगी। 

अगले दो साल में अलग-अलग मैदानों पर होने वाली गतिविधियाँ राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेगी। पहली गतिविधि है चुनावों की। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनावों की गतिविधियाँ शुरू हो चुकी हैं। इसका गणित एनडीए के पक्ष में है, पर विपक्ष इस चुनाव को एकतरफा नहीं जाने देगा। राष्ट्रपति चुनाव के बाद साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं। अगले साल छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे। यहाँ भी बीजेपी और कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी। मोटे तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इन छह विधानसभाओं के चुनाव देश के चुनावी माहौल की जानकारी देंगे।

अगले लोकसभा चुनाव के साथ ही तेलंगाना और आंध्र प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव भी होंगे। उन चुनावों का महत्व राजनीतिक गठजोड़ के लिहाज से है। तमिलनाडु में प्रवेश के लिए बीजेपी की कोशिश होगी कि अन्नाद्रमुक के साथ रिश्ता बने। जयललिता के निधन के ठीक पहले कांग्रेस भी प्रयास कर रही थी कि उसका अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन हो जाए।

अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी का सबसे ज्यादा ध्यान दक्षिण भारत पर होगा। दक्षिण के पाँच में से तीन राज्यों में उसे प्रवेश मिला है, पर तमिलनाडु और केरल उसकी पकड़ में नहीं हैं। पाँचों राज्यों की 129 सीटों में से 2014 में उसे केवल 21 सीटें मिलीं थीं। फिलहाल उसकी रणनीति 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने की होगी। पार्टी ने वहाँ से बीएस यदुरप्पा को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करके अपनी राजनीति को अभी से स्पष्ट कर दिया है। कर्नाटक से संकेत मिलेगा कि मोदी के लिए 2019 कैसा होगा। 
हरिभूमि में प्रकाशित

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