Sunday, May 14, 2017

घातक है स्टूडियो उन्माद

सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें कश्मीरी आतंकवादी दो पुलिस मुखबिरों को यातनाएं दे रहे हैं। साफ है कि इस वीडियो का उद्देश्य पुलिस की नौकरी के लिए कतारें लगाने वाले नौजवानों को डराना है। शुक्रवार की शाम यह वीडियो भारतीय चैनलों में बार-बार दिखाया जा रहा था। ऐसे तमाम वीडियो वायरल हो रहे हैं जो दर्शकों के मन में जुगुप्सा, नफरत और डर पैदा करते हैं। सोशल मीडिया में मॉडरेशन नहीं होता। इन्हें वायरल होने से रोका भी नहीं जा सकता। पर मुख्यधारा का मीडिया इनके प्रभाव का विस्तार क्यों करना चाहता है?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उद्भव के बाद से भारतीय समाचार-विचार की दुनिया सनसनीखेज हो गई है। सोशल मीडिया का तड़का लगने से इसमें कई नए आयाम पैदा हुए हैं। सायबर मीडिया की नई साइटें खुलने के बाद समाचार-विचार का इंद्रधनुषी विस्तार भी देखने को मिल रहा है। इसमें एक तरफ संजीदगी है, वहीं खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना मीडिया की नई शक्ल भी उभर रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 24 घंटे, हर रोज और हर वक्त कुछ न कुछ सनसनीखेज चाहिए।
इस सनसनीखेज आक्रामकता को भारत और पाकिस्तान के बिगड़ते रिश्तों की रोशनी में बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला है। जम्मू-कश्मीर में पुंछ के कृष्णा घाटी में दो भारतीय फौजियों की गर्दन काटने की खबर आई नहीं कि चैनल तय करने लगे कि भारत को इसका जवाब किस तरह देना चाहिए। कई चैनलों ने खबर दी कि भारत ने मुँहतोड़ जवाब देते हुए पाकिस्तान की दो चौकियों को पूरी तरह तबाह कर दिया है। यह भी कि इस कार्रवाई में पाकिस्तान के सात सैनिक मारे गए हैं। इस खबर का कोई आधिकारिक स्रोत नहीं था।

ऐसी खबरों से एक तरफ हमारा मजाक बनता है, दूसरे सेना पर अनावश्यक दबाव बनता है। अटकलों को दूर करने के लिए सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने गुरुवार को कहा कि सेना माकूल जवाब देगी। कब और किस तरह इसे अभी बताया नहीं जा सकता। जनरल रावत ने पत्रकारों से कहा, "आप भविष्य की योजना के बारे में पूछ रहे हैं। सेना भविष्य की योजना नहीं बताती। काम पूरा होने के बाद जानकारी दी जाती है।"

स्टूडियो में बैठे विशेषज्ञ घोषित कर रहे हैं कि युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वे बताते हैं कि किस तरह से डिप्लोमैटिक दबाव डालें या फौजी हमला करें। सिंधु-संधि को रद्द कर दें। नदियों का रुख बदल दें। एक के बदले सौ सिर काटें वगैरह-वगैरह। देश की नाराजगी समझ में आती है, पर युद्ध लड़ना मामूली बात नहीं है। सितम्बर में सेना ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का दावा किया था। उसे देश की राजनीति ने मजाक का विषय बना दिया। अब वही पार्टियाँ कह रहीं हैं कि सरकार चूड़ियाँ पहन ले।

यह भी एक तरह का उकसावा है। कांग्रेसी शासन में भारतीय सैनिकों की गर्दनें काटने की खबरें आईं थीं तब बीजेपी ने ऐसा ही बर्ताव किया था। उस वक्त गलती हुई थी तो आज आप भी वही करना चाहते हैं। राजनीतिक की प्रतिक्रिया समझ में आती है, पर मीडिया को क्या हुआ है? चैनलों के स्टूडियो वॉर रूम में तब्दील हुए जा रहे हैं। चैनल चर्चा में पाकिस्तानी विशेषज्ञों को शामिल करने का चलन भी बढ़ा है। उनकी उत्तेजक बातों से माहौल बिगड़ता है। क्या जरूरत है उन्हें बुलाने की?

चैनल जानबूझकर गरमा-गरमी का माहौल बनाते हैं। यह टीआरपी वॉर है। भारत-पाकिस्तान रिश्ते दो दिन में नहीं सुधर सकते, अलबत्ता सेकंडों में बिगड़ जरूर सकते हैं। यह बात पाकिस्तान के उस कट्टरपंथी दस्ते को मालूम है, जो ऐसी घटनाओं को अंजाम देता है, जिनसे खलिश पैदा हो। सन 2015 में उफा घोषणा के बाद पिछले साल जनवरी में जैसे ही विदेश सचिवों की बैठक के हालात बने पठानकोट हमला हो गया। फिर उड़ी में हमला हुआ। इधर पत्थरबाजी हो रही है। बैंक लूटने तथा फौजी छावनियों पर हमलों की घटनाएं बढ़ीं है। ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय सर्वानुमति की जरूरत होती है। जबकि हो उल्टा रहा है।

मीडिया को ऐसे में क्या करना चाहिए? देश के साथ खड़े होना है। पर राष्ट्रीय हित को एक घंटे की तूफानी बहस से निपटाया नहीं जा सकता। हम नीति-नियंता भी नहीं हैं। जानकारी का स्रोत सीमित है। जरूरी हुआ तो युद्ध भी होगा, पर इसका फैसला करने वाली मशीनरी को उसके नफे-नुकसान की बेहतर जानकारी है।

जहाँ तक सम्भव हो युद्ध को टालना ही चाहिए। टालना ही नहीं पाठकों और दर्शकों को युद्ध की भयावहता से परिचित भी कराना चाहिए। युद्ध को रूमानी न बनाएं। उसकी भयावहता का नक्शा भी खींचें। युद्धोन्माद भड़काना जिम्मेदार पत्रकारिता नहीं है। महीनों बल्कि सालों से हमारा मीडिया उन्माद की छाया में है। पाकिस्तानी मीडिया दो कदम आगे है। वहाँ से भी छींटाकशी हो रही है। सीमा पर ही नहीं, मीडिया के मैदान में भी युद्ध लड़ रहा है।

पिछले साल 28-29 सितम्बर की रात भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पार करके जिस रणनीति के तहत ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ किया था उसका लक्ष्य था पाकिस्तान को चेतावनी देना। पाकिस्तानी सेना ने इस संदेश को नहीं समझा और अपनी गतिविधियों को बढ़ा दिया। पिछले कुछ महीनों में कश्मीर घाटी में ढाई हजार से ज्यादा पत्थरबाजी की घटनाएं हो चुकी हैं। इन सब के पीछे कोई योजना है।

सैनिकों की गर्दन काटे से साफ है कि पाकिस्तानी सेना की कोशिश है कि भारत कोई ऐसी कार्रवाई करे, जिससे कश्मीर मामले को विश्व शांति के लिए खतरा बताते हुए उसका अंतरराष्ट्रीयकरण किया जा सके। ऐसे में हमारे जंगी-जुनून का पछाड़ें मारना पाकिस्तान के पक्ष में जाएगा। भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक से एक बात साफ की थी। हम ‘सॉफ्ट स्टेट’ नहीं हैं, जवाब भी देंगे। सम्भव है कि हम और बड़े स्ट्राइक करें। कैसे, कब और क्यों इसे सेना पर छोड़िए।

अंदेशा इस बात का है कि कश्मीर में अगले तीन-चार महीने भयंकर खूंरेज़ी के होंगे। अनंतनाग का चुनाव रद्द कर दिया गया है। फिलहाल कानून-व्यवस्था को काबू में करना पहली प्राथमिकता है। सवाल है कि पाकिस्तानी हरकतें जारी रहीं तो हमारे विकल्प क्या हैं? इन विकल्पों पर भी विचार कीजिए, पर यह चौराहों की चर्चा का विषय नहीं है। इनपर विचार करें, पर उन्मादी तरीके से नहीं। संजीदगी और समझदारी के साथ। संयत, संतुलित और समझदार समाज ही अपनी रक्षा कर सकता है।




हरिभूमि में प्रकाशित

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