Sunday, June 4, 2017

पशु-क्रूरता बनाम मांसाहार

राजनीति के चक्रव्यूह में घिरी सरकारी अधिसूचना

पर्यावरण मंत्रालय ने पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम के तहत जो अधिसूचना जारी की है, उसके निहितार्थ से या तो सरकार परिचित नहीं थी, या वह विरोध की परवाह किए बगैर वह अपने सांस्कृतिक एजेंडा को सख्ती से लागू करना चाहती है। अधिसूचना की पृष्ठभूमि को देखते हुए लगता नहीं कि सरकार का इरादा देशभर में पशु-वध पर रोक लगाने का है। सांविधानिक दृष्टि से वह ऐसा कर भी नहीं सकती। यह राज्य-विषय है। केन्द्र सरकार घुमाकर फैसला क्यों करेगी? अलबत्ता इस फैसले ने विरोधी दलों के हौसलों को बढ़ाया है। वामपंथी तबके ने बीफ-फेस्ट वगैरह शुरू करके इसे एक दूसरा मोड़ दे दिया है। इससे हमारे सामाजिक जीवन में टकराव पैदा हो रहा है।

पर्यावरण मंत्रालय ने संकेत दिया है कि हम इस मामले पर पुनर्विचार करने को तैयार हैं। पर इस विषय पर फैसला उच्चतम स्तर पर होगा। यानी प्रधानमंत्री फैसला करेंगे। संकेत यह भी है कि मवेशियों की सूची में से भैसों को हटाया जा सकता है। सरकारी अधिसूचना के अनुसार पशु बाजारों से मवेशियों की खरीद करने वालों को लिखित वादा करना होगा कि इनका इस्तेमाल खेती के काम में किया जाएगा, न कि काटने के लिए। इन मवेशियों में गाय, बैल, सांड, बधिया बैल, बछड़े, बछिया, भैंस और ऊंट शामिल हैं।

पूरी पाबंदी सम्भव नहीं

बेशक बीजेपी की राजनीति गोवंश-रक्षा से जुड़ी है, पर केन्द्र सरकार ने यह कभी नहीं कहा कि पशु-वध पर पूरी पाबंदी लगेगी। ऐसा कानूनन सम्भव भी नहीं है। 26 अक्तूबर 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न राज्यों में बनाए गए गोहत्या-निषेध से जुड़े कानूनों को संविधान सम्मत मान लिया था, पर पूर्ण पशुवध-निषेध को स्वीकार नहीं किया था। पर्यावरण मंत्रालय की 26 मई की अधिसूचना को मीडिया ने इस तरह पेश किया है, जैसे कि वध के लिए गाय और भैंसों की खरीद-फरोख्त पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। केवल बाजार के नियमन की कोशिश है।

नए नियमों के तहत मवेशियों की खरीद-फरोख्त से जुड़ी कागजी कार्रवाई बढ़ गई है। खरीदार और विक्रेता को अपना पहचान-पत्र और स्वामित्व का कागजी सबूत दिखाना होगा। मवेशियों की फिटनेस वगैरह की भी शर्तें हैं। अब केवल वही लोग पशु बाज़ार में ख़रीद-फ़रोख़्त कर सकेंगे, जो कृषि-भूमि के स्वामी होंगे। इन नियमों के अनुसार पशुओं के प्रति क्रूरता की व्यापक परिभाषा की गई है। इन नियमों को लागू करना आसान नहीं है, पर कोशिश नियमन की है। इनका जल्लीकट्टू जैसे पारम्परिक खेलों पर भी असर पड़ेगा।

बाजार का नियमन

सरकार की मंशा है कि गोश्त के व्यापारी मवेशियों को सीधे पशु-पालकों से खरीदें बाजार से नहीं। यह व्यवस्था कैसे चलेगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। पशुवध और मासांहार को लेकर चल रही बहस के अनेक आयाम हैं। पशुओं के प्रति क्रूरता, व्यक्ति के भोजन का अधिकार, मवेशी बाजार का नियमन और धार्मिक आस्था। पर समूची बहस पर राजनीति हावी हो गई है। केरल में सड़क पर युवक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने बैल की गर्दन काटी। आईआईटी मद्रास कैंपस में 'बीफ फेस्ट' हुआ। फिर खबर आई कि फेस्ट आयोजित करने वाले छात्र की पिटाई कर दी गई। वस्तुतः यह दो व्यक्तियों के बीच का झगड़ा था, जिसे मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया।  

जंतर-मंतर से लेकर चेन्नई और कोलकाता तक कई आंदोलनों ने सिर उठा लिया है। यह सच है कि पिछले कुछ महीनों से गोरक्षकों के नाम पर गुंडागर्दी बढ़ी है। इससे सरकार की छवि खराब हुई है। बीजेपी ने इस गतिविधि से अपना पल्ला झाड़ लिया है। पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कई बार कहा है कि इन घटनाओं के पीछे कोई साजिश भी हो सकती है। हो सकता है ऐसी घटनाएं करवाई जा रही हों। पर ये केवल वक्तव्य हैं। कथित गोरक्षकों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होने से गलतफहमियाँ बढ़ रहीं हैं।

ममता-वाम सुर मिले

केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने घोषणा की है कि हम केन्द्र के संशोधित अध्यादेश को लागू नहीं करेंगे। वे इस सिलसिले में मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने जा रहे हैं। उन्होंने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा भी कर दी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और पुदुच्चेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणसामी ने भी उनसे सुर मिलाए हैं। वाममोर्चे के साथ ममता बनर्जी के सुर आसानी से मिलते नहीं हैं। उन्होंने इसे केन्द्र-राज्य टकराव का विषय भी बनाया है।  

केन्द्रीय अधिसूचना का बीफ या पशु-वध रोकने से सीधा सम्बन्ध नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय ने अधिसूचना पर फिलहाल रोक लगा दी है। वहीं केरल हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि इस आदेश में हस्तक्षेप करने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह आदेश बड़े बाज़ारों में बड़े स्तर पर मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाने के लिए है। अदालत ने कहा कि लगता है कि लोग इस अधिसूचना को पढ़े बगैर इसका विरोध कर रहे हैं। यानी अदालतें भी इस अधिसूचना को अलग-अलग नजरिए से देख रही हैं।

राजनीतिक दलों का आरोप है कि 'बीफ' की आड़ में भारतीय जनता पार्टी समाज में फूट डालने की कोशिश कर रही है। उनका आरोप है कि 'बीफ' के सहारे ही भारतीय जनता पार्टी दक्षिण भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में है। प्रत्यक्ष रूप से सरकार का उद्देश्य पशुओं को क्रूरता से बचाना है, वधशालाओं के लिए मवेशियों के मौजूदा व्यापार को नियंत्रित करना नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने नेपाल के गढ़ीमाई महोत्सव के लिए भारत से पशुओं की हो रही तस्करी को रोकने के लिए 13 जुलाई, 2015 को आदेश पारित किया था। अदालत ने पशुधन बाजार के नियमों को अधिसूचित करने के निर्देश भी दिए थे। 12 जुलाई, 2016 को न्यायालय ने मंत्रालय को पशुओं के प्रति क्रूरता रोकथाम अधिनियम 1960 की धारा 38 के अधीन नियम बनाने के निर्देश दिए थे। इन नियमों के मसौदे को 16 जनवरी, 2017 को अधिसूचित किया  गया था, जिसमें प्रभावित होने वालों से अपनी आपत्ति और सुझाव देने का आमंत्रण किया गया था। सुझावों को शामिल करने के बाद इन नियमों को अंतिम रूप से 23 मई, 2017 को अधिसूचित किया गया।

इस अधिसूचना के उद्देश्य से हटकर यह अनुमान लगाया गया कि इरादा देशभर में पशुवध पर रोक लगाना है। कहा यह भी जा रहा है कि इसमें चालाकी से ऐसी व्यवस्था कर दी हई है कि गोवंश की खरीद-फरोख्त हो ही न सके। पर ये सब अभी दूर के अनुमान हैं। अधिसूचना के पीछे सुप्रीम कोर्ट में दायर दो याचिकाएं हैं। एक याचिका में भारतीय पशुओं की बांग्लादेश को होने वाली तस्करी पर रोक लगाने की माँग है। दूसरी नेपाल के गढ़ीमाई उत्सव में काटने के लिए भारी संख्या में अवैध रूप से पशुओं को ले जाने पर रोक के संदर्भ में है। गढ़ीमाई उत्सव में करीब हजारों भैंसों को काटा जाता है। इस याचिका का उद्देश्य पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना है। यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता गौरी मौलखी की और से दायर की गई है।

इन याचिकाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भारत-नेपाल सीमा की रक्षा करने वाले सशस्त्र सीमा बल के डायरेक्टर जनरल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई  थी। इस समिति ने सुझाव दिया कि 2006 के खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम के तहत पशुवध की अनुमति होनी चाहिए। ऐसे नियम बनने चाहिए, जिनके तहत केवल स्वस्थ मवेशियों की खरीद-फरोख्त सम्भव हो। इस सिलसिले में डीजी, एसएसबी ने सुझाव दिया कि उत्तराखंड शासन का दिसम्बर 2010 का आदेश मॉडल बन सकता है। उस आदेश के अंतर्गत मवेशी के मालिक को यह प्रमाणित करना होता था कि पशु मेले में बेचे जा रहे मवेशी का इस्तेमाल केवल कृषि-कार्य के लिए है। खरीदार को यह गारंटी देनी होती थी कि खरीदे गए पशु को छह महीने के पहले (यानी एक फसल के दौरान) नहीं बेचा जाएगा।

उत्तराखंड का आदेश गोवंश (गाय, बछड़े, बैल) पर लागू होता था, भैंसों पर नहीं। पर्यावरण मंत्रलय की अधिसूचना में भैंसों को इसलिए शामिल किया गया, क्योंकि नेपाल में बलि चढ़ाने के लिए उनकी तस्करी हो रही थी। गौरी मौलखी की याचिका उसे रोकने के लिए थी। इन सुझावों की प्रकृति पशु-वध के खिलाफ थी, क्योंकि इसमें कहा गया था कि अनुत्पादक मवेशियों को वध के लिए नहीं दिया जा सकता।

उत्तर प्रदेश का विवाद

भारत में मांसाहार अवैध नहीं है और न मांस का कारोबार। पर इसके साथ स्वास्थ्य और पर्यावरण के मसले जुड़े हैं, कई तरह की शर्तें भी। उनका पालन होना भी चाहिए। चूंकि हिन्दू धर्म और संस्कृति का शाकाहार से सम्बंध है, इसलिए इस मसले के सांस्कृतिक पहलू भी हैं। देश के अनेक राज्यों में गोबध निषेध है। इन अंतर्विरोधों के कारण दिनों उत्तर प्रदेश में मांस के कारोबार को लेकर विवाद खड़ा हुआ था। यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में बूचड़खानों पर कार्रवाई के पीछे स्पष्टतः राजनीतिक कारण थे। पर इसके पहले कार्रवाई न होने के पीछे भी राजनीतिक कारण थे।

राज्य में नई सरकार के काम संभालने के साथ ही बूचड़खाने बंद होने लगे। इससे गोश्त की कीमतें बढ़ीं और अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो गया। प्रदेश के मांस-व्यापारी हड़ताल पर चले गए। सरकार ने स्पष्ट किया कि वह पशु वध और गोश्त व्यापार की गैर-कानूनी गतिविधियों और बिना लाइसेंस की दुकानों को चलने नहीं देगी। हम सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेशों को लागू करने के लिए बाध्य हैं। 

शाकाहार बनाम मांसाहार

आम धारणा है कि भारत शाकाहारी देश है, पर यह बात पूरी तरह सही नहीं है। सन 2003 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य संगठन ने एक सर्वे किया था जिसके मुताबिक भारत में 42 फीसदी लोग शाकाहारी हैं। यानी भारत में मांसाहारी लोग 60 प्रतिशत के आसपास हैं। कई लोग ऐसे भी हैं जो मांसाहारी तो हैं लेकिन मंगलवार को मांस नहीं खाते या फिर गुरुवार को शाकाहारी बन जाते हैं।

पिछले साल देश के 21 बड़े राज्यों के 15 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों के बीच रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने एक सर्वे किया जिसके मुताबिक तेलंगाना में करीब 99 फीसदी लोग मांसाहारी हैं। पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर है जहां के 98।7 फीसदी पुरुष और 98।4 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं। इसके बाद आंध्र प्रदेश का नंबर है, जहां के 98।4 फीसदी पुरुष और 98।1 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं। झारखंड सातवें और बिहार आठवें नंबर पर है। उत्तर प्रदेश का नंबर 16वां है, जहाँ 55 फीसदी पुरुष और 50।8 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं।

राजधानी दिल्ली 14वें नंबर पर है, जहाँ 63।2 फीसदी पुरुष और 57।8 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं। सबसे कम मांसाहारी आबादी राजस्थान में है, जहाँ 26।8 फीसदी पुरुष और 23।4 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं। राजस्थान के बाद हरियाणा, पंजाब और गुजरात हैं। हरियाणा में 31।5 फीसदी पुरुष और 30 फीसदी महिलाएं, पंजाब में 34।5 फीसदी पुरुष और 32 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं। गुजरात में 39।9 फीसदी पुरुष और 38।2 फीसदी महिलाएं मांसाहारी हैं।

मांस के कारोबार में भी भारत पीछे नहीं है। वर्ष 2014-15 के दौरान भारत ने 24 लाख टन मीट निर्यात किया जो कि दुनिया में निर्यात किए जाने वाले मांस का 58।7 फीसदी है। विश्व के 65 देशों को किए गए इस निर्यात में सबसे ज्यादा मांस एशिया में (80 फीसद) व बाकी अफ्रीका को भेजा गया। वियतनाम अपने कुल मांस आयात का 45 फीसद हिस्सा भारत से मंगाता है। भारत का मांस सस्ता होता है क्योंकि यहां दूध न देने वाले या बूढ़े पशुओं का बध करते हैं, जबकि बाहरी देशों में मांस के लिए ही पशुओं को पाला जाता है, जिनके रखरखाव का खर्च काफी होता है।

गाय का महत्त्व

भारत के खेतिहर समाज में परम्परा से गाय बेहद महत्त्वपूर्ण प्राणी है। उसे पवित्रता का जो स्थान मिला है, उसे देखते हुए स्वतंत्रता से पहले ही सन 1940 में कांग्रेस की एक समिति ने देश के स्वतंत्र होने के बाद गोसंरक्षण को महत्त्वपूर्ण स्थान देने की सलाह दी थी। ऐसा माना जाता है कि संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद के हस्तक्षेप से संविधान में अनुच्छेद 48 जोड़ा गया, जिसमें राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के तहत ‘गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए’ के लिए राज्य को निर्देश दिए गए हैं।

पौराणिक कथा है कि सागर मंथन में सबसे पहले हलाहल निकला, जिसे शिव ने कंठ में धारण किया। इसके बाद निकली कामधेनु, जो सारी मनोकामनाओं को पूरा करती थी। कामधेनु महर्षि वशिष्ठ को दी गई, जिन्होंने उसके लिए अलग से गोलोक बनाया। कामधेनु ने जिस बछिया को जन्म दिया, उसका नाम था नंदिनी। गाय के साथ राम और कृष्ण दोनों की कहानियाँ जुड़ी हैं। वैद्य धन्वंतरि ने गाय के दूध, घी, दही, गोमूत्र और गोबर से प्रसिद्ध औषधि ‘पंचगव्य’ तैयार की।

हमारे खेतिहर समाज की संस्कृति गोसंवर्धन के इर्द-गिर्द विकसित हुई है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत अध्यापक सर मोनियर विलियम्स ने ‘संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी’ में काउ यानी गाय के 72 पर्यायवाची दिए हैं। इसे समझा जा सकता है कि गाय कितने रूपों में हमारे जीवन का हिस्सा रही है। इस सांस्कृतिक महत्त्व के इर्द-गिर्द एक राजनीति ने भी जन्म लिया है। यह राजनीति गाय-समर्थक है वहीं इस राजनीति के समांतर दूसरी राजनीति विकसित हो रही है।

महात्मा गांधी गो-रक्षा के पैरोकार थे, पर 25 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने गोबध को लेकर कुछ बातें कहीं थीं, जो गौर करने लायक हैं। उनकी सलाह थी कि जबरन कोई कानून किसी पर थोपा नहीं जा सकता। उन्होंने कहा, ‘मेरा गो-सेवा का व्रत बहुत पहले से लिया हुआ है, मगर जो मेरा धर्म है, वह हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों का भी हो, यह कैसे हो सकता है?’
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

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