Friday, June 16, 2017

अंतर्विरोधों की शिकार आम आदमी पार्टी

कुमार विश्वास और अरविंद केजरीवाल के बीच अविश्वास की अदृश्य दीवार अब नजर आने लगी है. पिछले शनिवार को राजस्थान के कार्यकर्ताओं की सभा में कुमार विश्वास ने जो कुछ कहा, वह पार्टी हाई कमान को तिलमिलाने भर के लिए काफी था. दिल्ली नगर निगम के चुनाव के बाद से कुमार विश्वास पार्टी के साथ अपने मतभेदों को व्यक्त कर रहे हैं. उन्होंने हाल में एक मीडिया इंटरव्यू में पार्टी के ट्वीट कल्चर पर भी टिप्पणी करते हुए कहा, जो लोग ट्विटर को देश समझते हैं, वे ही देश को ट्विटर समझते हैं.
हाल में पार्टी में हुए फेरबदल के बाद कुमार विश्वास को राजस्थान का प्रभार दिया गया है. वहाँ अगले साल विधानसभा चुनाव हैं. राजस्थान इकाई की पहली बैठक में घोषणा की गई कि पार्टी अरविन्द केजरीवाल के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ेगी. बैठक में यह भी कहा गया कि पार्टी महारानी हटाओ अभियान के बजाय पानी, बिजली और बेहतर स्वास्थ्य जैसे मसलों को लेकर चुनाव लड़ेगी. दिल्ली का वर्चस्ववाद नहीं चलाया जाएगा. कार्यकर्ता ही प्रदेश के फैसलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे वगैरह.

बुधवार को केजरीवाल खेमे के दिलीप पांडेय ने एक खबर का लिंक लगाते हुए ट्वीट किया, भैया, आप कांग्रेसियों को खूब गाली देते हो, पर कहते हो कि राजस्थान में वसुंधरा के ख़िलाफ़ नहीं बोलेंगे? ऐसा क्यों?’ ट्विटर सवालों की यह राजनीति आम आदमी पार्टी की विशेषता है. पर केजरीवाल ने पिछले कुछ समय से नरेंद्र मोदी को लेकर कोई बड़ा बयान नहीं किया है और न कोई ट्वीट किया है. हाल में कपिल मिश्रा ने जब से उनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं, वे अपेक्षाकृत खामोश हैं.
बाहरी शांति बता रही है कि भीतर कहीं हलचल है. पिछले तीनेक साल में पार्टी ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों से कुछ इस अंदाज में पंगा लिया है कि दोनों ने उसे सबक सिखाने का मन बना लिया है. इधर चुनाव में मिली दो-तीन हारों ने इसके वैचारिक अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया. कुमार विश्वास ने पार्टी के राष्ट्रवाद-विरोधी रुख की आलोचना की. सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के सवाल भी आए. इस बीच कपिल मिश्रा ने बगावत कर दी. इन दोनों पर भाजपा से हमदर्दी रखने का आरोप है.
कुछ समय पहले अमानतुल्ला खां ने कुमार विश्वास को बीजेपी और आरएसएस का एजेंट बताया था. उसके बाद अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया, कुमार विश्वास मेरा छोटा भाई है.’ पिछले मंगलवार को कुमार विश्वास ने एनडीटीवी से एक साक्षात्कार के दौरान कहा, हम रिश्तेदार नहीं है....हम सभी एक मकसद के लिए कार्य कर रहे हैं.
पिछली 26 मई को जब बीजेपी अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने पर जश्न मना रही थी, सोनिया गांधी ने विरोधी दलों की बैठक बुलाई. इसमें आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को निमंत्रित नहीं किया गया. मोदी पर करारे वार करने वाले केजरीवाल का नाम सोनिया जी क्यों भूल गईं? इस सवाल का स्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं है.
आम आदमी पार्टी ज्यादातर उन राज्यों में चुनाव लड़ रही है, जहाँ कांग्रेस पार्टी, बीजेपी को सीधी चुनौती दे रही है. यह कांग्रेस के स्पेस को ही काट रही है. उसके साथ सहयोग करना गलत होगा. पार्टी ने भाजपा-विरोधी स्पेस को हासिल करने के लिए ऐसी शब्दावली को अपनाया, जो भाजपा-विरोधी है.
सोनिया गांधी को शायद यह बात भी समझ में आ रही है कि हाल के वर्षों में कांग्रेस को जितनी चोट नुकसान नरेंद्र मोदी ने दी है तकरीबन उतना ही नुकसान केजरीवाल ने भी पहुँचाया है. कांग्रेस की इमेज बिगाड़ने में बुनियादी भूमिका अन्ना आंदोलन की है, जो वास्तव में केजरीवाल की देन था. सन 2010 में टूजी और कॉमनवैल्थ घोटालों को सूत्र बनाकर 2011 में अन्ना आंदोलन चला. पर इसे अन्ना ने शुरू नहीं किया था. वे तो कवर थे, जिन्हें बाद में लाया गया.
30 जनवरी 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान से जंतर-मंतर तक जो रैली निकली थी उसका नेतृत्व श्री श्री रविशंकर, अरविन्द केजरीवाल, किरन बेदी, प्रशांत भूषण, शांति भूषण, महमूद मदनी, मेधा पाटकर, स्वामी अग्निवेश आदि कर रहे थे. उस रैली में भीड़ थी, पर उसकी मीडिया कवरेज वैसी नहीं थी जैसी अप्रैल में अन्ना के शामिल होने के बाद हुई.
आरोप यह भी है कि उस आंदोलन को परोक्ष रूप से संघ परिवार का समर्थन भी हासिल था. दिल्ली में होने वाली रैलियों की व्यवस्था, पूरियों के पैकेट, पेयजल वगैरह के पीछे किसी न किसी रूप में संगठनात्मक व्यवस्था थी. बहरहाल उस आंदोलन ने कांग्रेस का गणित बिगाड़ा सो बिगाड़ा, उसकी छवि का फ़ालूदा बना दिया. वह भ्रष्टाचार की प्रतीक बनकर रह गई. अन्ना गए, आंदोलन गया, पर वह एक नई पार्टी को जन्म दे गया.
कुमार विश्वास जिन बातों को उठा रहे हैं, वे आम आदमी पार्टी के अंतर्विरोधों की तरफ इशारा कर रहीं हैं. पार्टी में 'सॉफ्ट राष्ट्रवादी' से लेकर 'अति-वामपंथी' हर तरह के तत्व हैं. विचारधारा के स्तर पर उसकी कोई स्थिर नीति नहीं है. अन्ना हजारे का आंदोलन जब चल रहा था तब मंच से 'वंदे मातरम' का नारा भी लगता था, जो अब कांग्रेस के मंच से भी नहीं लगता.
जैसे-जैसे आम आदमी पार्टी का विस्तार हुआ, उसकी राष्ट्रवादी राजनीति सिकुड़ती गई. उसने समय के साथ नारों और कार्यक्रमों को अपना लिया. पार्टी नेतृत्व में लगातार टकराव से यह बात भी उजागर हुई कि एकता बनाए रखने वाला कोई मजबूत परिपक्व धागा पार्टी के पास नहीं है. उसने केजरीवाल को ब्रांड बनाने की कोशिश शुरू कर दी.
कुमार विश्वास कुछ समय से पृष्ठभूमि में थे. उन्होंने दिल्ली नगर निगम में प्रचार नहीं किया. उन्हें पंजाब के चुनाव प्रभार में भी नहीं भेजा गया या वे नहीं गए. दिल्ली में निगम का प्रचार बंद होने और वोट पड़ जाने के बाद वे मुखर हुए. उन्हें दिखाई पड़ने लगा कि पार्टी अब ढलान पर है. पर मामला केवल कुमार विश्वास तक सीमित नहीं है. वे अकेले नहीं हैं.

No comments:

Post a Comment