Sunday, October 29, 2017

‘मदर इंडिया’ के साठ साल बाद का भारत


फिल्म मदर इंडिया की रिलीज के साठ साल बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है। चैनल का कहना था कि 60 बरस बाद हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं। गाहे-बगाहे आज भी ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जिन्हें देखकर शर्मिंदगी पैदा होती है। सवाल है कि क्या देश की जनता भी इन बातों से आँखें मूँदना चाहती है?


महबूब खान की मदर इंडिया उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं। यदि मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो मदर इंडिया देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म है। क्या वजह है इसकी? आजादी के बाद के पहले दशक के सिनेमा की थीम में बार-बार भारत का बदलाव केंद्रीय विषय बनता था। इन फिल्मों की सफलता बताती है कि बदलाव की चाहता देश की जनता के मन में थी, जो आज भी कायम है।


प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों की तरह इस फिल्म की कथावस्तु की तमाम बातें आज भी सच हैं। हम निराश होकर कह सकते हैं कि देश में कुछ भी नहीं बदला। पर मदर इंडिया निराशा नहीं आशा लेकर आई थी। उसकी कथावस्तु सकारात्मक थी। फिल्म की शुरुआत नई नहर के उद्घाटन से होती है, जिसके सहारे राधा अपने अतीत में चली जाती है। यह कहानी गरीबी से और हालात से परेशान राधा के संघर्ष को बयान करती है। साथ ही उसका सामना गाँव के सूदखोर सुक्खी लाला से होता है।

विडंबना है कि इस फिल्म का शीर्षक अमेरिकी लेखिका कैथरीन मायो की किताब मदर इंडिया से लिया गया था, जो भारतीय समाज और संस्कृति की आलोचना के रूप में सन 1927 में लिखी गई थी। इस किताब के खिलाफ भारत में गुस्से की लहर थी। महात्मा गाँधी ने भी इस किताब की आलोचना की थी। महबूब ने इस फिल्म का नाम रखने के पहले सरकार से इसकी अनुमति ली थी, क्योंकि तबतक यह नाम भारत माँ का समानार्थी नहीं बना था। महबूब ने इसे समानार्थी बनाया। उन्हें इस फिल्म की प्रेरणा अमेरिकी लेखिका पर्ल एस बक की कृतियों द गुड अर्थ (1931) और द मदर (1933) से मिली थी।

इस फिल्म के पहले महबूब ने 1940 में अपनी फिल्म औरत में इस थीम को अपनाया था। बहरहाल यह फिल्म भारतीय स्त्री के ताकतवर चित्रण और गाँव के सामंती शोषण की कहानी कहती है। सन 1957 में यह फिल्म जिस नए भारत के आगमन का संदेश दे रही थी, क्या वह साठ साल बाद वह साकार हो पाया है? मदर इंडिया के कई रूपक और प्रतीक आज के भारत में देखे जा सकते हैं, पर यह कहना भी ठीक नहीं कि पिछले साठ में कुछ भी नहीं बदला है। और सब ठीक रहा तो आने वाले वक्त में कहानी बदलेगी।


बहुत कुछ बदला भी है सत्तर साल में

आप किसी से भी बात करें तो उसके पास सवालों की लम्बी सूची मिलेगी। अक्सर हम घूम-फिरकर इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इस देश में अब कुछ नहीं हो सकता। हम कहते हैं, सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती है। यह एक प्रकार का सामाजिक स्वीकारोक्ति है। हम हताश होकर अपना मजाक उड़ाते हैं। पर हम विचलित हैं, हारे नहीं हैं। सच यह है कि भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए सत्तर साल काफी नहीं होते। खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका हो।

पिछले सत्तर साल में हमारे पास निराशा के सैकड़ों कारण हैं तो उम्मीदों की भी कुछ किरणें हैं। विकास हुआ, संपदा बढ़ी, मोबाइल कनेक्शनों की धूम है, मोटरगाड़ियों के मालिकों की तादाद बढ़ी, हाउसिंग लोन बढ़े और आधार जैसे कार्यक्रम को सफलता मिली। फिर भी हमारा मन निराश और हताश है। यह गुस्सा, खीझ और बेचैनी सब बेवजह नहीं है। सन 2011 में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। वह आंदोलन हमारी खामियों और उन्हें दूर करने की कोशिशों का अच्छा उदाहरण है। तबसे अबतक हम कई तरह की बहसों में उलझे हुए हैं।

‘बुनियाद को हिलाने और सूरत को बदलने की चाहत’ आज के भारत का मंतव्य है। उसके लिए जिन संस्थाओं और व्यवस्थाओं की जरूरत है, वे अभी पूरी तरह विकसित नहीं हैं। दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के विरोध में जिस तरह से लोग निकलकर बाहर आए थे, वह इशारा करता था कि हम हालात से नाराज़ हैं। इंडिया गेट पर लगातार लगी रही उस भारी भीड़ में सबसे बड़ी संख्या नौजवानों की थी, खासतौर से लड़कियों की। यह नई पीढ़ी ही बदलाव का संदेश लेकर आ रही है।

हमारी उपलब्धियाँ

पिछले सत्तर साल की अपनी उपलब्धियों की सूची बनाएंगे तो लोकतंत्र का नाम सबसे ऊपर होगा। लोकतंत्र के साथ उसकी संस्थाएं और व्यवस्थाएं दूसरी बड़ी उपलब्धि है। तीसरी बड़ी उपलब्धि है राष्ट्रीय एकीकरण। इतने बड़े देश और उसकी विविधता को बनाए रखना आसान नहीं है। चौथी उपलब्धि है सामाजिक न्याय की परिकल्पना। पिछले कई हजार साल में भारतीय समाज कई प्रकार के दोषों का शिकार हुआ है। उन्हें दूर करने के लिए हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर से ऐसे औजारों को विकसित किया, जो कारगर हों। पाँचवीं उपलब्धि है आर्थिक सुधार। छठी है शिक्षा-व्यवस्था। और सातवीं, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास। हम मंगलग्रह तक पहुँच चुके हैं। यह सूची और भी लम्बी हो सकती है।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत की आजादी के पहले संदेह प्रकट किया था। उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी। सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे। वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे। सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा।’ चर्चिल का यह भी कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है। वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य रेखा कोई देश नहीं है।

चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है। टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। आधुनिक भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि है, चर्चिल को गलत साबित करना। राजनेताओं के बारे में उनकी बातें सच लगतीं हैं। यह जिम्मेदारी जनता की है कि अपने नेताओं पर दबाव बनाए। पर आज का भारत केवल एक भौगोलिक पहचान भर नहीं है। राष्ट्रीय एकीकरण हमारी बड़ी उपलब्धि है। यह प्रक्रिया अभी जारी है।

हमारी चुनाव प्रणाली

हमारी सफलता और विफलता चुनाव प्रणाली के इर्द-गिर्द है। लोकतंत्र हमारी बड़ी उपलब्धि है और चुनाव उसका सबसे महत्वपूर्ण जरिया है। सन 2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने उठाया था। उसका सवाल था कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल था। जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?

पत्रिका ने एक सरल जवाब दिया कि जो काम छोटी अवधि के लिए होते हैं, उनमें भारत के लोग पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं। वही सरकारी कर्मचारी अपने रोजमर्रा कार्यों में इतने अनुशासन से काम नहीं करते, पर जब वे चुनाव संचालित करते हैं तो बड़ी मुस्तैदी से जुटते हैं। इसके अलावा भारतीय जनगणना दुनिया की सबसे बड़ी प्रशासनिक गतिविधि है, जो सफलता के साथ हो रही है। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में लंबे अरसे से यह काम नहीं हो पाया है। अब यह काम सेना की मदद से किया जा रहा है।

जनगणना के अलावा भारत ने पहचान पत्र आधार बनाने का काम सफलता के साथ किया है। पर वह काम सरकारी कर्मचारियों ने नहीं बाहरी लोगों ने किया। हमने साठ के दशक में हरित क्रांति की। नब्बे के दशक में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की क्रांति हुई। हालांकि हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बहुत अच्छी नहीं है, पर हमारे चिकित्सकों का दुनिया भर में सम्मान है। धीरे-धीरे भारत विकासशील देशों में चिकित्सा और स्वास्थ्य का हब बनता जा रहा है।

राजनीति ने हमें जोड़ा है और तोड़ा भी है। हमारे सबसे समझदार लोग राजनीति में हैं और सबसे बड़े अपराधी भी। आदर्श और पाखंड दोनों इसमें हैं। उसमें अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य दिए हैं। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन। आमराय का बनना हमारे लोकतंत्र का विशेष गुण है। यही बात हमें रास्ते पर लाएगी।

वैश्विक लोकतंत्र की धुरी

अपने आसपास के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल में लोकतांत्रिक पर खतरा बना रहता है। इन देशों में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम भी है तो इसका एक बड़ा कारण भारतीय लोकतंत्र का धुरी के रूप में बने रहना है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।

इतने बड़े देश के रूप में हमारे पास संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के उदाहरण हैं। अमेरिका को कई राष्ट्रीयताओं ने मिलकर बनाया। हमने कई राष्ट्रीयताओं को टूटकर अलग होने से बचाया। रूस का सोवियत अनुभव सफल नहीं रहा। सोवियत संघ टूटने के बाद भी विघटन अभी चल ही रहा है। पहले जॉर्जिया और अब यूक्रेन के रूप में यूरोप की स्थानीय मनोकामनाएं सामने आ रहीं है। मध्य एशिया की राष्ट्रीयताओं पर रूसी दबाव है। चीन के पश्चिमी इलाकों में राष्ट्रीय आंदोलन जोर मार रहे हैं। चूंकि वह लोकतंत्र की डोर से बँधा देश नहीं है, इसलिए वे खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं। हान और मंडारिन संस्कृति के बीच का भेद भी चीन में है।

गठबंधन की राजनीति ने इस लोकतांत्रिक एकीकरण को बेहतर शक्ल दी है। एक समय तक देश के शासन पर केवल कांग्रेस का वर्चस्व था। उस वक्त भी दक्षिण भारत से के कामराज जैसे ताकतवर नेता थे, पर हम दक्षिण के नेताओं और राजनीति पर ध्यान देने की कोशिश नहीं करते थे। पर गठबंधन की राजनीति दक्षिण के नेताओं को उत्तर से परिचित कराने में कामयाब रही। इसके कारण ही एचडी देवेगौडा देश के प्रधानमंत्री बने या पूर्णो संगमा को लोकसभा अध्यक्ष के रूप में हमने देखा।

गरीबी का फंदा

भारत में गरीबी एक अनबूझ पहेली है। राजनीतिक दलों के लिए यह सफलता का फॉर्मूला है। सन 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे की मदद से भारी बहुमत के साथ जीतकर आईं थीं। उसके 46 साल बाद आज भी गरीबी हटाओ आकर्षक नारा है। हमारा पहला लक्ष्य है लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकालना। पर यह रेखा क्या है और क्या होनी चाहिए? और इसका निर्धारण कैसे होगा? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों के बीच बहस है। मोटे तौर पर माना जाता है कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी आई है। विश्व बैंक के अनुसार 1993 में भारत में गरीबी की रेखा के नीचे 45.3 फीसदी आबादी थी, जो 2004 में 37.2 फीसदी, 2009 में 29.8 फीसदी और 2011 में 21.9 फीसदी रह गई।

फिल्म मदर इंडिया आजादी के दस साल बाद बनी थी। तब हम नए भारत के सपने देख रहे थे। आज सारी दुनिया का ध्यान गरीबी को खत्म करने पर है। सन 2005 की अपनी बेस्ट सेलिंग किताब द एंड ऑफ पोवर्टी में अर्थशास्त्री जेफ्री सैक्स ने दावा किया था कि यदि अमीर देश सन 2005 से 2025 तक 195 अरब डॉलर हर साल मदद देने को तैयार हो जाएं तो इस समयावधि में यह समस्या पूरी तरह खत्म हो जाएगी।

विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि गरीबी का समाधान सिर्फ रुपये फेंक देने से नहीं होगा। गरीबी केवल पैसे की तंगी का नाम नहीं है। वह एक फंदा (ट्रैप) है, जिसमें व्यक्ति के स्वास्थ्य, शिक्षा और समझदारी की भूमिका भी है। सन 2015 के अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता प्रोफेसर एंगस डीटन लम्बे अरसे से गरीबी के सवाल से जूझ रहे हैं। उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं। उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की के कारण विषमता भी पैदा होगी, पर यदि यह विकास बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता।

एंगस डीटन और ज्याँ द्रेज़ ने दिखाया कि भारत में पिछले 25 साल में लोगों का भोजन कम से कम होता जा रहा है। डीटन के अनुसार भारतीय बच्चों की ऊँचाई कम होने की वजह है जीवन के शुरुआती वर्षों में पोषण की कमी। इस दौरान ही मस्तिष्क का विकास होता है। उनके और कोलम्बिया विवि के पूर्व प्रोफेसर और नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया के बीच इस बात को लेकर बहस भी चली कि भारतीय बच्चों की हाइट कम होने के पीछे कुपोषण है या जेनेटिक कारण हैं।

पुअर इकोनॉमिक्स के लेखक अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो का कहना है कि नाटा होना दक्षिण एशिया की जेनेटिक विशेषता नहीं है। इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बच्चे कॉकेशियन और ब्लैक बच्चों की तुलना में नाटे होते हैं। पर पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक सम्पर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती-पोते उसी कद के हो जाते हैं जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे।

पिछले पंद्रह साल से दुनिया संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी लक्ष्यों के लिए काम कर रही थी। ये लक्ष्य पूरे नहीं हो पाए। अब संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास का एजेंडा-2030 पास किया है। इधर विश्व बैंक ने दावा किया है कि दुनिया में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या एक अरब से कम हो रही है। यह भी कि सन 2030 तक गरीबी का फंदा पूरी तरह टूट जाएगा। डीटन ने नोबेल पुरस्कार की घोषणा होने के बाद कहा, मेरी गणना के अनुसार स्थितियाँ बेहतर हो रहीं हैं, पर बहुत ज्यादा काम बाकी है।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

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