Sunday, December 24, 2017

भ्रष्टाचार का पहाड़ खोदने पर चूहे ही क्यों निकलते हैं?

सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले से क्या निष्कर्ष निकालें कि टू-जी घोटाला हुआ ही नहीं था? या अभियोजन पक्ष घोटाला साबित नहीं कर पाया? इधर लालू यादव को चारा घोटाले से जुड़े एक और मामले में दोषी पाया गया है। आपराधिक मामलों को राजनीतिक मोड़ कैसे दिया जाता है, वह इस मामले में देखें। उनके समर्थकों ने उन्हें नेलसन मंडेला घोषित कर दिया है। कांग्रेस पार्टी ने भी लालू का समर्थन जारी रखने का फैसला किया है।उधर डीएमके ने ए राजा का शॉल पहनाकर अभिनंदन करना शुरू कर दिया है। लगता है उन्होंने कोई बड़ा पवित्र कार्य कर दिया है। अनुभव बताता है कि हमारे देश में जब कोई बड़ा आदमी फँसता है तो पूरी कायनात उसे बचाने को व्याकुल हो जाती है। 
इसके विपरीत टू-जी फैसले के कुछ दिन पहले दिल्ली की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने कोयला घोटाले का फैसला सुनाया था। इसमें कोयला झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को तीन साल की सजा सुनाई गई। कोड़ा के अलावा पूर्व कोयला सचिव एच सी गुप्ता, झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव अशोक कुमार बसु और एक अन्य को आपराधिक षडयंत्र और धारा 120 बी के तहत दोषी माना गया और तीनों को तीन-तीन साल की सजा सुनाई गई है। सच यह है कि इसमें फँसे लोग राजनीति के लिहाज से कम प्रभावशाली हैं। उनसे छोटे लोग और आसानी से सिस्टम में फँसते हैं और सबसे छोटे लोग देश की जेलों के आम-निवासी हैं। 

आजादी के बाद से अब तक का अनुभव है कि भ्रष्टाचार के मामले तकनीकी पहलुओं में दफन हो जाते हैं। आम जनता इनकी बारीकियों को नहीं समझती। चालाक वकीलों और धूर्त राजनेताओं को व्यवस्था की आड़ मिलती है। हम दो-एक महीने खबरों का पीछा करते हैं, फिर भूल जाते हैं। पूरे सिस्टम में छेद भरे पड़े हैं। बेईमानों को इन छिद्रों का लाभ मिलता है। निराश होने के लिए हमारे पास तमाम कारण हैं, पर उम्मीद की किरणें भी हैं। इसी व्यवस्था ने लालू यादव, ओम प्रकाश चौटाला, मधु कोड़ा, जे जयललिता और शशिकला को दोषी साबित किया है। यह संख्या छोटी है, पर है तो सही।
सवाल फिर वही है, टू-जी घोटाला नहीं था, तो क्या था? यह मामला अब ऊँची अदालत में जाएगा। हाल के वर्षों में कई मामलों में अदालतों के फैसले अपील करने पर पूरी तरह बदले हैं। टू-जी मामले में भी अदालत ने माना कि कट ऑफ डेट बदलना अनियमितता थी। कलाइनार टीवी को मिले 200 करोड़ रुपयों की ट्रेल के दस्तावेजी सबूत भी उपलब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों वाली बेंच ने फरवरी 2012 में इसी से जुड़े मामले में कहा था कि राष्‍ट्रीय महत्‍व की संपत्ति को मामूली दामों पर देकर तकरीबन तोहफा ही दे दिया गया। तब कैसे मान लें कि यह घोटाला नहीं था?
इस मामले पर राजनीतिक निहितार्थ हावी हैं। डीएमके और यूपीए दोनों इसे नैतिक विजय के रूप में पेश कर रहे हैं। यह नैतिक विजय है या पड़ताल-प्रणाली की पराजय? इस मुकदमे से ऐसे व्यापार समूह भी जुड़े थे, जिनके सत्तारूढ़ दलों से रिश्ते हैं? कहा यह भी जा रहा है कि बीजेपी और डीएमके के बीच सम्भावित राजनीतिक गठजोड़ इसके पीछे है। हम बहुत जल्दी साजिशों की कल्पना करने लगते हैं। हमें इस फैसले को ठीक से पढ़ना चाहिए, फिर समझने की कोशिश करनी चाहिए कि भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले आखिर में ढाक के तीन पात साबित क्यों होते हैं?
जिन दिनों सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हो रही थी, तब अदालत में राडिया-टेपों का जिक्र आया था। जस्टिस जीएस सिंघवी की अध्यक्षता वाली बेंच ने राडिया टेप की बातचीत के आधार पर कोई कार्रवाई न करने के लिए सरकारी एजेंसियों को फटकार लगाई थी। अदालत ने सीबीआई से कहा था कि वह सभी 5800 बातचीतों को सुने और उनकी जाँच करे। टेलीफोन के टेप संयोग से सार्वजनिक जानकारी में आ गए थे। आप सोचिए न जाने कितने वार्तालाप हैं, जिन्हें टेप नहीं किया जा सका।
पूर्व प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उन दिनों ए राजा के तौर-तरीकों पर आपत्ति व्यक्त की थीं। उन्होंने गठबंधन की मजबूरियों का जिक्र भी किया था। नई आर्थिक नीतियों ने पुराने तरीके के भ्रष्टाचार को कम किया है तो उसकी जगह नए तरीके के भ्रष्टाचार ने ली है। यह भी कहा जाता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होने लगे तो दिल्ली और मुम्बई के कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स जेलों में तब्दील हो जाएंगे। पर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था एक खास गति से ही चलेगी। हाल में पाकिस्तान में नवाज शरीफ को वहाँ की व्यवस्था ने बाहर कर दिया। चीन में तो पता भी नहीं चलता और व्यक्ति को मौत की सजा दे दी जाती है।
टू-जी मामले पर चर्चा चल ही रही है कि शुक्रवार को बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदर्श हाउसिंग मामले में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए राज्यपाल विद्यासागर राव द्वारा सीबीआई को दी गई अनुमति को खारिज कर दिया। उनके पूर्ववर्ती राज्यपाल के शंकरनारायणन ने यह अनुमति नहीं दी थी। अदालत के अनुसार इस दौरान सीबीआई ने कोई नया तथ्य पेश नहीं किया है, इसलिए पिछले राज्यपाल के फैसले को बदलने की कोई जरूरत नहीं थी। पिछले राज्यपाल यूपीए के समय के थे और 2016 में अनुमति देने वाले राज्यपाल एनडीए के दौर के। 
पिछले दो-ढाई दशक का इतिहास घोटालों का इतिहास है। सूची बनाएं तो सैकड़ों घोटाले हैं, पर सजा पाने वालों की सूची काफी छोटी है। यूपीए सरकार के आखिरी तीन साल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से घिरे रहे। क्या वह आंदोलन दिखावटी था? सत्ता हथियाने की साजिश? क्या कारण है कि मैं बेईमान तो तू डबल बेईमानजैसा तर्क राजनीतिक ढाल बन गया है? इसी वजह से टू-जी मामला अपने मतलब को खोकर राजनीति की चौखट पर दम तोड़ता नजर आता है।
कांग्रेस, बीजेपी और डीएमके तीनों इस मामले को अपने नजरिए से पेश कर रहे हैं। पर जनता का सवाल है कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामले तार्किक परिणति तक क्यों नहीं पहुँचते? मामले में दम ही नहीं था, तो ए राजा को 15 महीने तक और कनिमोई को साढ़े तीन महीने तक जेल में क्यों रहना पड़ा? यह सरकार को बदनाम करने की बीजेपी की साजिश थी तो यूपीए सरकार ने ए राजा को बर्खास्त क्यों किया? सीएजी जैसी सांविधानिक संस्था पर राजनीतिक कीचड़ क्यों उछाला जा रहा है?
इससे जुड़ी तमाम विसंगतियाँ भी हैं। इससे राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता। पर किसकी राजनीति? जिस वक्त टू-जी मामला उछल रहा था, नरेन्द्र मोदी का नाम राष्ट्रीय मंच पर नहीं था। बीजेपी का नेतृत्व एक दूसरे समूह के हाथों में था। वह नेतृत्व बदला और 2014 के चुनाव में फायदा नरेन्द्र मोदी को मिला। दूसरा रोचक तथ्य यह है कि उस वक्त का भ्रष्टाचार–विरोधी थिंक टैंक आज टू-जी के फैसले पर तालियाँ बजा रहा है। क्यों? वास्तव में भ्रष्टाचार नहीं यह राजनीतिक माया भी है।
यह मामला खोदा पहाड़ निकला चूहा साबित हुआ है। वहीं यह भी कि हम भ्रष्टाचार को गम्भीरता से नहीं लेते। विशेष न्यायाधीश ओपी सैनी ने अपने फैसले में अभियोजन पक्ष पर जमकर लताड़ लगाई है। सच यह है कि ये एजेंसियाँ राजनीतिक जकड़बंदी में हैं और जनता जाति और सम्प्रदाय की जकड़बंदी में।



हरिभूमि में प्रकाशित 

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - क्रिसमस डे और प्रकाश उत्सव पर्व की ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएँ में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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