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Friday, October 1, 2010

अयोध्या फैसले पर अखबारों की राय







फैसले के बाद

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का बहुप्रतीक्षित फैसला आ गया और कहीं कुछ अप्रिय नहीं घटित हुआ। यह देश की जनता के संयम की जीत है और इसके लिए उसे बधाई मिलनी चाहिए, लेकिन संयम का यह प्रदर्शन भविष्य में भी होना चाहिए-न केवल अयोध्या विवाद के संदर्भ में, बल्कि अन्यमामलों में भी। वस्तुत: यही वह उपाय है जो भारत को सबल बनाएगा। चूंकि उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर दी गई है और यह अपेक्षा के अनुरूप भी है इसलिए अब निगाहें शीर्ष अदालत पर होंगी। बावजूद इसके उच्च न्यायालय के फैसले की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या होना स्वाभाविक है और वह होगी भी-इसलिए और भी अधिक, क्योंकि फैसले के बिंदु ही ऐसे हैं। उदाहरणस्वरूप यह बिंदु कि जब गिराया गया ढांचा मंदिर के स्थान पर बना था तो फिर एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम संगठनों को देने का क्या आधार है, लेकिन यह ध्यान रहे कि इस बिंदु पर तीनों न्यायाधीश एकमत नहीं। हां, जिस एक बिंदु पर वे एकमत हैं वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जहां रामलला की मूर्तियां स्थापित हैं वह राम जन्म स्थान है। तीनों न्यायाधीशों के इस एक बिंदु पर एकमत होने से जहां हिंदू संगठनों का दावा सशक्त हुआ है वहीं मुस्लिम संगठनों को भी उच्चतम न्यायालय जाकर अपनी बात कहने का एक आधार मिला है, लेकिन जब तक अंतिम निर्णय नहीं आ जाता तब तक ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई मतलब नहीं कि इस पक्ष की जीत अथवा उस पक्ष की हार हुई। ऐसे किसी निष्कर्ष पर न पहुंचने का एक प्रमुख कारण यह है कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं है। यह भविष्य के गर्भ में है कि उच्च न्यायालय के फैसले पर उच्चतम न्यायालय का क्या निर्णय होगा, लेकिन यह अपेक्षा अवश्य की जाती है कि इस मसले पर अब वैसी देर न हो जैसी उच्च न्यायालय के स्तर पर हुई। एक अपेक्षा राजनीतिक दलों से भी है कि वे वैसी परिस्थितियां पैदा करने से बचें जैसी उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर की गईं। यह ठीक नहीं होगा कि जब उच्चतम न्यायालय के निर्णय की बारी आए तो देश इसी तरह अनिष्ट की आशंका से घिर जाए। ऐसे परिदृश्य से बचने के प्रयास अभी से होने चाहिए और इसका एक बेहतर तरीका है-नए सिरे से आपसी सहमति से विवाद का हल निकालने की कोशिश। इसमें संदेह नहीं कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर निर्माण के आकांक्षी हिंदू संगठनों को बल मिला है, लेकिन यह सही समय है जब दोनों पक्ष ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करें जिससे विवाद का हल सुलह-समझौते से निकल आए। चंद दिन पहले तक ऐसी राह नहीं नजर आ रही थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उसे आसानी से खोजा जा सकता है। इसके लिए दोनों ही पक्षों को सक्रियता दिखानी होगी, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। यदि हमारे राजनेता और धर्माचार्य अयोध्या विवाद का समाधान जीत-हार के पलड़े में जाए बगैर करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए कि अयोध्या मसले का समाधान दोनों पक्षों की सहमति से निकल आए। ऐसा समाधान राष्ट्र में शांति-सद्भाव सुनिश्चित करने में कहीं अधिक सहायक होगा।

Tuesday, September 21, 2010

टकराव के दौर में मीडिया

इस हफ्ते भारतीय मीडिया पर जिम्मेदारी का दबाव है। 24 सितम्बर को बाबरी मस्जिद मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आएगा। उसके बाद कॉमनवैल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जिन्हें लेकर मस्ती कम अंदेशा ज्यादा है। पुरानी दिल्ली में इंडियन मुज़ाहिदीन ने गोली चलाकर इस अंदेशे को बढ़ा दिया है। कश्मीर में माहौल बिगड़ रहा है। नक्सली हिंसा बढ़ रही है और अब सामने हैं बिहार के चुनाव। भारत में मीडिया, सरकार और समाज का द्वंद हमेशा रहा है। इतने बड़े देश के अंतर्विरोधों की सूची लम्बी है। मीडिया सरकार को कोसता है, सरकार मीडिया को। और दर्शक या पाठक दोनों को।

न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने अयोध्या मसले को लेकर पहले से सावधानी बरतने का फैसला किया है। फैसले की खबर देते समय साथ में अपनी राय देने या उसका निहितार्थ निकालने की कोशिश नहीं की जाएगी। बाबरी विध्वंस की फुटेज नहीं दिखाई जाएगी। इसके अलावा फैसला आने पर उसके स्वागत या विरोध से जुड़े विज़ुअल नहीं दिखाए जाएंगे। यानी टोन डाउन करेंगे। हाल में अमेरिका में किसी ने पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ को जलाने की धमकी दी थी। उस मामले को भी हमारे मीडिया ने बहुत महत्व नहीं दिया। टकराव के हालात में मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। मीडिया ने इसे समझा यह अच्छी बात है।  

6 दिसम्बर 1992 को देश में टीवी का प्रसार इस तरीके का नहीं था। प्राइवेट चैनल के नाम पर बीबीसी का मामूली सा प्रसारण केबल टीवी पर होता था। स्टार और एमटीवी जैसे चैनल थे। सब अंग्रेजी में। इनके बीच ज़ी का हिन्दी मनोरंजन चैनल प्रकट हुआ। अयोध्या ध्वंस के काफी बाद भारतीय न्यूज़ चैनल सामने आए। पर हम 1991 के इराक युद्ध की सीएनएन कवरेज से परिचित थे, और उससे रूबरू होने को व्यग्र थे। उन दिनों लोग न्यूज़ ट्रैक के कैसेट किराए पर लेकर देखते थे। आरक्षण-विरोधी आंदोलन के दौरान आत्मदाह के एक प्रयास के विजुअल पूरे समाज पर किस तरह का असर डालते हैं, यह हमने तभी देखा। हरियाणा के महम में हुई हिंसा के विजुअल्स ने दर्शकों को विचलित किया। अखबारों में पढ़ने के मुकाबले उसे देखना कहीं ज्यादा असरदार था। पर ज्यादातर मामलों में यह असर नकारात्मक साबित हुआ। 

बहरहाल दिसम्बर 1992 में मीडिया माने अखबार होते थे। और उनमें भी सबसे महत्वपूर्ण थे हिन्दी के अखबार। 1992 के एक साल पहले नवम्बर 1991 में बाबरी मस्जिद को तोड़ने की कोशिश हुई थी। तब उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा, ऐसी घटना नहीं हुई। मुझे याद है लखनऊ के नव भारत टाइम्स ने बाबरी के शिखर की वह तस्वीर हाफ पेज में छापी। सबेरे उस अखबार की कॉपियाँ ढूँढे नहीं मिल रहीं थीं। उस ज़माने तक बहुत सी बातें मीडिया की निगाहों से दूर थीं। आज मीडिया की दृष्टि तेज़ है। पहले से बेहतर तकनीक उपलब्ध है। तब के अखबारों के फोटोग्राफरों के कैमरों के टेली लेंसों के मुकाबले आज के मामूली कैमरों के लेंस बेहतर हैं।

मीडिया के विकास के समानांतर सामाजिक-अंतर्विरोधों के खुलने की प्रक्रिया भी चल रही है। साठ के दशक तक मुल्क अपेक्षाकृत आराम से चल रहा था। सत्तर के दशक में तीन बड़े आंदोलनों की बुनियाद पड़ी। एक, नक्सली आंदोलन, दूसरा बिहार और गुजरात में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और तीसरा पंजाब में अकाली आंदोलन। तीनों आंदोलनों के भटकाव भी फौरन सामने आए। संयोग है कि भारतीय भाषाओं के, खासकर हिन्दी के अखबारों का उदय इसी दौरान हुआ। यह जनांदोलनों का दौर था। इसी दौरान इमर्जेंसी लगी और अखबारों को पाबंदियों का सामना करना पड़ा। इमर्जेंसी हटने के बाद देश के सामाजिक-सांस्कृतिक  अंतर्विरोधों ने और तेजी के साथ एक के बाद एक खुलना शुरू किया। यह क्रम अभी जारी है।

राष्ट्रीय कंट्राडिक्शंस के तीखे होने और खुलने के समानांतर मीडिया के कारोबार का विस्तार भी हुआ। मीडिया-विस्तार का यह पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके कारण मीडिया को अपनी भूमिका को लेकर बातचीत करने का मौका नहीं मिला। बाबरी-विध्वंस के बाद देशभर में विचार-विमर्श की लहर चली थी। अखबारों की भूमिका की खुलकर और नाम लेकर निंदा हुई। उस तरीके का सामाजिक संवाद उसके बाद नहीं हुआ। अलबत्ता उस संवाद का फायदा यह हुआ कि आज मीडिया अपनी मर्यादा रेखाएं तय कर रहा है। 

सामाजिक जिम्मेदारियों को किनारे रखकर मीडिया का विस्तार सम्भव नहीं है। मीडिया विचार-विमर्श का वाहक है, विचार-निर्धारक या निर्देशक नहीं। अंततः विचार समाज का है। यदि हम समाज के विचार को सामने लाने में मददगार होंगे तो वह भूमिका सकारात्मक होगी। विचार नहीं आने देंगे तो वह भूमिका नकारात्मक होगी और हमारी साख को कम करेगी। हमारे प्रसार-क्षेत्र के विस्तार से ज्यादा महत्वपूर्ण है साख का विस्तार। तेज बोलने, चीखने, कूदने और नाचने से साख नहीं बनती। धीमे बोलने से भी बन सकती है। शॉर्ट कट खोजने के बजाय साख बढ़ाने की कोशिश लम्बा रास्ता साबित होगी, पर कारोबार को बढ़ाने की बेहतर राह वही है।

खबर के साथ बेमतलब अपने विचार न देना, उसे तोड़ कर पेश न करना, सनसनी फैलाने वाले वक्तव्यों को तवज्जो न देना पत्रकारिता के सामान्य सूत्र हैं। पिछले बीस बरस में भारतीय मीडिया जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय मसलों से जूझ रहा है। इससे जो आम राय बनकर निकली है वह इस मीडिया को शत प्रतिशत साखदार भले न बनाती हो, पर वह उसे कूड़े में भी नहीं डालती। जॉर्ज बुश ने कहीं इस बात का जिक्र किया था कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं। इसे मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें। भारतीय मुसलमान के सामने तमाम दुश्वारियाँ हैं। वह आर्थिक दिक्कतों के अलावा केवल मुसलमान होने की सज़ा भी भुगतता है, पर भारतीय राष्ट्र राज्य पर उसकी आस्था है। इस आस्था को कायम रखने में मीडिया की भी भूमिका है, गोकि यह भूमिका और बेहतर हो सकती है। कश्मीर के मामले में भारतीय मुसलमान हमारे साथ है।

मीडिया सामजिक दर्पण है। जैसा समाज सोचेगा वैसा उसका मीडिया होगा। यह दोतरफा रिश्ता है। मीडिया भी समाज को समझदार या गैर-समझदार बनाता है। हमारी दिलचस्पी इस बात में होनी चाहिए कि हम किस तरह सकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकते हैं। साथ ही इस बात में कि हमारे किसी काम का उल्टा असर न हो। उम्मीद है आने वाला वक्त बेहतर समझदारी का होगा। पूरा देश हमें देखता, सुनता और पढ़ता है।       

Wednesday, September 1, 2010

बदलाव कहाँ से आता है?



सितम्बर 1982 में यूएसए टुडे की शुरुआत टीवी के मुकाबले अखबारों को आकर्षक बनाए रखने की एक कोशिश का हिस्सा थी। दुनिया का पहला पूरी तरह रंगीन अखबार शुरू में बाजीगरी लगता था, पर जल्द ही अमेरिका का वह नम्बर एक अखबार बन गया। आज भी वॉल स्ट्रीट जर्नल के बाद यह दूसरे नम्बर का अखबार है। खबर यह है कि यूएसए टुडे अब प्रिंट की तुलना में अपने डिजिटल संस्करण पर ज्यादा ध्यान देगा। इसके अलावा यह एक और मेकओवर की तैयारी कर रहा है। अखबार के वैब, मोबाइल, आई पैड और दूसरे प्लेटफॉर्म बदले जाएंगे। सर्कुलेशन, फाइनेंस और न्यूज़ के विभागों में बड़े बदलाव होंगे। पिछले हफ्ते अखबार के कर्मचारियों को दिखाए गए एक प्रेजेंटेशन में नए विभागों की योजना बताई गई। यह भी स्पष्ट है कि इस काम में 130 कर्मचारियों की छँटनी की जाएगी।

यूएसए टुडे के बारे में हम अपने संदर्भों में सोचें तो चिंता की बात नहीं है। भारत में डिजिटल अखबारों का दौर कुछ साल बाद की बात है। पर साफ है कि यह दौर भारत में भी आएगा। हमारे यहाँ जो कुछ होता है वह अमेरिका की नकल में होता है। अधकचरा होता है। अखवार की स्वामी गैनेट कम्पनी ने यह भी स्पष्ट किया है कि हम अपने रेवेन्यू को बढ़ाने के प्रयास में पत्रकारीय-प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटेंगे। इस बात को कहा जाय या न कहा जाय पर अमेरिका में आज भी अखबार के स्वामी अपने धंधे का गुणगान उतने खुले ढंग से नहीं करता जितने खुले अंदाज़ में हमारे यहाँ होता है।

बदलाव एक मनोदशा का नाम है। उसे समझने की ज़रूरत है। बदलाव हमें आगे भी ले जा सकता है और पीछे भी। एक मोहरा हटाकर उसकी जगह दूसरा मोहरा रखना भी बदलाव है, पर महत्वपूर्ण है मोहरे की भूमिका। पिछले कुछ साल से मुझे नए एस्पायरिंग पत्रकारों में बुद्धिजीवियों और बौद्धिक कर्म के प्रति वितृष्णा नज़र आती है। पढ़ने-लिखने और ज्ञान बढ़ाने के बजाय कारोबारी शब्दावली का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसके विपरीत सारे कथित बुद्धिजीवी और पुराने लोग भी दूध के धुले नहीं होते। उनका बड़ा तबका हर नई बात के प्रति शंकालु रहा है। उन्हें हर बात में साजिश नज़र आती है। अखबारों का रंगीन होना भी साम्राज्यवादी साजिश लगता है। इस द्वंद का असर अखबारों और मीडिया के दूसरे माध्यमों की सामग्री पर पड़ा है। बहुत से लोग इसके लिए बाज़ार को कोसते हैं, पर मुझे लगता है कि आज भी बाज़ार संजीदा और सरल पत्रकारिता को पसंद करता है और बाज़ीगरी को नापसंद। बाज़ार कौन है? हमारा पाठक ही तो हमारा बाज़ार है। वह छपाई और नई तकनीक को पसंद करता है, जो स्वाभाविक है। पर तकनीक तो फॉर्म है कंटेंट नहीं। रंग महत्वपूर्ण है यह यूएसए टुडे ने साबित किया।

1982 में यूएसए टुडे जब सामने आया तब उसने कंटेंट को बदल थोड़े दिया। सिर्फ उसे बेहतर तरीके से सजाया। मौसम जैसे उपेक्षित विषय की जानकारी और आर्थिक इंडिकेटरों को नया अर्थ दिया। उसके पहले मौसम की जानकारी यों ही दे दी जाती थी। यूएसए टुडे ने उसे बेहतर ग्रैफिक के साथ पेज एक पर एक खास जगह लगाया। अखबार के अलग-अलग सेक्शनों को अलग-अलग रंग की पहचान दी। पेज के बाईं ओर सार संक्षेप यानी रीफर शुरू किए। परम्परागत अखबारों से हटकर लीड खबर पेज पर दाईं ओर लगाना शुरू किया। सबसे रोचक थे यूएस टुडे स्नैपशॉट्स। ये कॉस्मेटिक बदलाव तो थे, पर सामग्री का मर्म पहले से बेहतर और साफ हुआ। यूएसए टुडे ने बदलाव की वह लहर शुरू की जिसने सारी दुनिया को धो दिया। इस बदलाव में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार देर से शामिल हुए। यूएसए टुडे के 15 साल बाद 1997 में न्यूयॉर्क टाइम्स रंगीन हुआ। भारत में हिन्दू ने अप्रेल 2005 में रिडिजाइन किया। यों इंटरनेट पर जाने वाला भारत का पहला अखबार हिन्दू था, जिसने 1995 में अपनी साइट लांच की। यह उसकी तकनीकी समझ थी।

बदलाव बंद दिमाग से किया जाय तो वह निरर्थक होता है। यूएसए टुडे ने शुरुआत में जितने तीखे रंग लगाए वे अब नहीं हैं। डिजाइन में पुरानेपन की भी वापसी हो रही है। आठ कॉलम के ग्रिड पर कायम रहना, ब्लैक एंड ह्वाइट स्पेस का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना ताकि रंग बेहतर उभरें, बाद का विचार है। किसी चीज़ का प्रवेश भविष्य के बदलाव के रास्ते नहीं रोकता। पर कुछ चीजें ऐसी हैं, जो सैकड़ों साल तक नहीं बदलतीं। जैसे अखबारों के सम्पादकीय पेज। सम्पादकीय पेज की निरर्थकता का शोर तमाम दिलजले मचाते रहते हैं, पर इस पेज को खत्म नहीं कर पाते। इन दिनों हिन्दी के कुछ अखबार इस पन्ने में चाट-मसाला भरने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं। हो सकता है वे कोई नई चीज़ निकाल दें, पर अतिशय बदलाव अस्थिर दिमाग की निशानी है। मैग्जीनों के मास्टहैड पूरे पेज में फ्लोट करते रहे हैं, पर अखबारों के मास्टहैड में फॉण्ट और रंग तो तमाम बदले, पर पोजीशन नहीं बदल पाई।   

डिजाइन और कॉस्मेटिक्स से थोड़ा फर्क पड़ता है। असल चीज़ है जर्नलिज्म। देश के सबसे लोकप्रिय अखबारों का उदाहरण सामने है। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू, टेलीग्राफ, इंडियन एक्सप्रेस, जागरण, भास्कर, मलयाला मनोरमा और आनन्द बाज़ार पत्रिका किसी न किसी मामले में लीडर हैं। इनके डिजाइन और कद को देखें। इनमें भास्कर ने हाल के वर्षों में डिजाइन और कंटेंट में कई प्रयोग किए हैं। शेष अखबार समय के साथ मामूली बदलाव करते रहे हैं, पर डिजाइन को लेकर बहुत चिंतित नहीं रहे। भास्कर का डिजाइन भी परम्परा के करीब है। जागरण शक्ल-सूरत से सामान्य लगता है, पर उसकी ताकत है सामान्य खबरें। न्यूज़ ऑफ द डे जागरण में होती है।

जो अखबार खबर को सादगी से देने के बजाय उसकी बाज़ीगरी में जुटते हैं, वे बुरी तरह पिटते हैं। सादा और सरल खबर लिखना मुकाबले बाज़ीगरी के ज्यादा मुश्किल काम है। दिक्कत यह है कि डिजाइन को स्वीकृति देने वाले लोगों का विज़न उस क्षण तक सीमित होता है, जिस क्षण वे डिजाइन देखते हैं। मसालेदार पकवान के मुकाबले सादा भोजन हमेशा फीका लगता है, फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा सादा भोजन ही खाया जाता है। हाल में अमर उजाला ने डिजाइन में बदलाव किया है, जो स्पेस मैनेजमेंट के लिहाज से आँख को कुछ खटकता है, पर पहले से सुथरा और बेहतर है। डिजाइन को कंटेंट की फिलॉसफी से जोड़ने के लिए एक बैचारिक अवधारणा भी किसी के पास होनी चाहिए। झगड़ा मार्केटिंग या सम्पादकीय का नहीं है। दोनों का उद्देश्य बाज़ार में सफल होना है। महत्वपूर्ण यह है कि हम पाठक के दिमाग को कितना समझते हैं। इसके लिए हमें भी तो खुद पाठक बनकर सोचना चाहिए।   



Tuesday, July 27, 2010

मीडिया का काम नाटकबाज़ी नहीं


दिल्ली के हंसराज कॉलेज में एक अखबार का फोटोग्राफर पहुँचा। उसने कॉलेज के पुराने छात्रों को जमा किया। फिर उनसे कहा, नए छात्रों की रैगिंग करो। फोटोग्राफी शुरू हो गई। इस बात की जानकारी कॉलेज प्रशासन के पास पहुँची। उन्होंने पुलिस बुला ली। फोटोग्राफी रोकी गई और कैमरा से खींचे गए फोटो डिलीट किए गए। यह जानकारी मीडिया वैबसाइट हूट ने छात्रों के हवाले से दी है। इस जानकारी पर हमें आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि ऐसा होता रहता है।

हाल में बिहार असेम्बली में टकराव हुआ। मीडिया की मौजूदगी में वह सब और ज्यादा हुआ, जो नहीं होना चाहिए। एक महिला विधायक के उत्साह को देखकर लगा कि इस जोश का इस्तेमाल बिहार की समस्याओं के समाधान में लगता तो कितना बड़ा बदलाव सम्भव था। वह उत्साह विधायक का था, पर मीडिया में कुछ खास दृश्यों को जिस तरह बारम्बार दिखाया गया, उससे लगा कि मीडिया के पास भी कुछ है नहीं। उसकी दृष्टि में ऐसा रोज़-रोज़ होता रहे तो बेहतर।

पिछले हफ्ते एक चैनल पर रांची के सज्जन के बारे में खबर आ रही थी, जो आठवीं शादी रचाने जा रहे थे। उन्हें कुछ महिलाओं ने पकड़ लिया। महिलाओं के हाथों उनकी मरम्मत के दृश्य मीडिया के लिए सौगात थे। किसी की पिटाई, रगड़ाई, धुलाई और अपमान हमारे यहाँ चटखारे लेकर देखा जाता है। मीडिया को देखकर व्यक्ति जोश में आ जाता है और आपा भूलकर सब पर छा जाने की कोशिश में लग जाता है। मीडिया के लोग भी उन्हें प्रेरित करते हैं।

कुछ साल बिहार में एक व्यक्ति ने आत्मदाह कर लिया। उस वक्त कहा गया कि उसे पत्रकारों ने प्रेरित किया था। ऐसा ही पंजाब में भी हुआ। अक्सर खबरें बनाने के लिए पत्रकार कुछ नाटक करते हैं, जबकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सच को सामने लाएंगे। पर होता कुछ और है। मीडिया को देखते ही आंदोलनकारी, बंद के दौरान आगज़नी करते या बाढ़-पीड़ितों की मदद करने गए लोग अपने काम को दूने वेग से करने लगते हैं। पूड़ी के एक पैकेट की जगह चार-चार थमाने लगते हैं। अब तो चलन ही यही है कि आंदोलन बाद में शुरू होता है, पहले मीडिया का इंतज़ाम होता है। सारा आंदोलन पाँच-दस मिनट के मीडिया सेशन में निबट जाता है।

सीबीएसई परीक्षा परिणाम देखने गई लड़कियों के एक ही झुंड, बल्कि अक्सर एक ही लड़की की तस्वीर सभी अखबारों में छपती है। इसे फाइव सेकंड्स फेम यानी पाँच सेकंड की प्रसिद्धि कहते हैं। इसमें ऑब्जेक्टिविटी वगैरह धरी की धरी रह जाती है। आमतौर पर सभी समाचार चैनल समाचार के साथ-साथ सामयिक संदर्भों पर बहस चलाते हैं। इस बहस को चलाने वाले एंकरों का ज़ोर इस बात पर नहीं होता कि तत्व की बात सामने लाई जाय, बल्कि इस बात पर होता है कि उनके बीच संग्राम हो। पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है यह तो हर पत्रकार अपने तईं तय कर सकता है। पर इतना सार्वभौमिक रूप से माना जाता है कि हम संदेशवाहक हैं। जैसा हो रहा है, उसकी जानकारी देने वाले। हम इसमें पार्टी नहीं हैं और हमें कोशिश करनी चाहिए कि बातों को तोड़े-मरोड़े बगैर तटस्थता के साथ रखें। 

पुराने वक्त में पत्रकारिता प्रशिक्षण विद्यालय नहीं होते थे। ज्यादातर लोग काम पर आने के बाद चीजों को सीखते थे। रोज़मर्रा बातों से धीरे-धीरे अपने नैतिक दायित्व समझ में आते थे। अब तो पत्रकार मीडिया स्कूलों से आते हैं। उन्हें तो पत्रकारीय आदर्श पढाए जाते हैं। लगता है जल्दबाज़ी में मीडिया अपने कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्वों का ध्यान नहीं रखता। जब रैगिंग होती है तो ज़मीन-आसमान एक कर देता है और जब नहीं होती तब रैगिंग करने वालों के पास जाता है कि भाई ठंडे क्यो पड़ गए। उसके पास नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर शायद कोई आचरण संहिता नहीं है। या यों कहें कि किसी किस्म की आचरण संहिता नहीं है।

आचरण संहिता व्यापक अवधारणा है। अक्सर सरकारें आचरण संहिता के नाम पर मीडिया की आज़ादी पर बंदिशें लगाने की कोशिश करती हैं, इसलिए हम मानते हैं कि मीडिया को अपने लिए खुद ही आचरण संहिता बनानी चाहिए। सामूहिक रूप से देश भर के पत्रकारों ने अपने लिए कोई आचार संहिता नहीं बनाई है। कुछ अखबार अपने कर्मचारियों के लिए गाइड बुक्स बनाते हैं, पर वे भी स्टाइल बुक जैसी हैं। हाल में गठित न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने कुछ मोटे दिशा-निर्देश तैयार किए हैं, जो उसकी वैबसाइट पर उपलब्ध हैं। इनकी तुलना में बीबीसी की गाइड लाइन्स को देखें जो काफी विषद हैं। हमारे देश में किसी मीडिया हाउस ने ऐसी व्यवस्था की हो तो इसका मुझे पता नहीं है। अलबत्ता हिन्दू एक ऐसा अखबार है, जिसने एक रीडर्स एडीटर की नियुक्ति की है जो नियमित रूप से अखबार की गलतियों या दूसरी ध्यान देने लायक बातों को प्रकाशित करता है। हाल में हिन्दू के रीडर्स एडीटर एस विश्वनाथन ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि 1984 में हिन्दू ने भोपाल त्रासदी को किस तरह कवर किया। अखबार में पाठक के दृष्टिकोण को उभारना भी बाज़ार-व्यवस्था है। राजेन्द्र माथुर जब नवभारत टाइम्स में सम्पादक थे, तब टीएन चतुर्वेदी ओम्बड्समैन बनाए गए थे। पता नहीं आज ऐसा कोई पद वहाँ है या नहीं।

जैसे-जैसे हमारे समाज के अंतर्विरोध खुलते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया की ज़रूरत बढ़ रही है। यह ज़रूरत तात्कालिक खबरें या सूचना देने भर के लिए नहीं है। यह ज़रूरत समूची व्यवस्था से नागरिक को जोड़ने की है। समूचा मीडिया एक जैसा नहीं हो सकता। कुछ की नीतियाँ समाजवादी होंगी, कुछ की दक्षिणपंथी। कांग्रेस समर्थक होंगे, भाजपाई भी। जो भी हो साफ हो। चेहरे पर ऑब्जेक्टिव होने का सर्टिफिकेट लगा हो और काम में छिछोरापन हो तो पाठक निराश होता है।
हम आमतौर पर सारी बातों के लिए बाज़ार-व्यवस्था को दोषी मानते हैं। बाज़ार व्यवस्था का दोष है भी तो इतना कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानती। पाठक-श्रोता या दर्शक ही तो हमारा बाज़ार है। वह हमें खारिज कर दे तो हम कहाँ जाएंगे। हम अपने पाठक को भूलते जा रहे हैं। नैतिक रूप से हमारी जिम्मेदारी उसके प्रति है और व्यावसायिक रूप से अपने मालिक के प्रति। इधर स्वार्थी तत्व मीडिया पर हावी हैं। ऐसा हमारी कमज़ोर राजनैतिक व्यवस्था के कारण है।

सनसनी, अफवाहबाज़ी और घटियापन को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी है। उसे शिक्षित करने वाली समाज-व्यवस्था को पुष्ट करने का काम जागरूक मीडिया कर सकता है। हम क्या जागरूक और जिम्मेदार बनना नहीं चाहेंगे? सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था और मीडिया के रिश्तों पर पड़ताल की ज़रूरत आज नहीं तो कल पैदा होगी। कहते हैं चीनी समाज कभी अफीम के नशे में रहता था। आज नहीं है। हमारा नशा भी टूटेगा। 

Saturday, July 24, 2010

हिंग्लिश, हिन्दी और हम


सारा संसार समय के साथ बदलता है। भाषाएं भी बदलतीं हैं। हिन्दी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। इसे लेकर हाल में बीबीसी रेडियो के हिन्दी कार्यक्रम में इस सवाल को लेकर एक रोचक कार्यक्रम पेश किया गया। इसमें हिन्दी भाषियों के विचार भी रखे गए। 


हिन्दी के अखबारों ने , खासतौर से नवभारत टाइम्स ने अंग्रेजी मिली-जुली हिन्दी का न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया है, बल्कि उसे प्रगतिशील साबित भी किया है। अखबार के मास्टहैड के नीचे लाल रंग से मोटे अक्षरों में एनबीटी लिखा जाता है। मेरा ख्नयाल है कि नवभारत टाइम्स ने ऐसा विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए किया है। विज्ञापनदाता का हिन्दी जीवन-संस्कृति और समाज से रिश्ता नहीं है। वे फैशन के लिए एक खास तबके को लुभाते हैं। यह तबका हमारे बीच है, यह भी सच है। पर यह हिन्दी की मुख्यधारा नहीं है। बिजनेस के दबाव में यह धारा फैसले करती है। 


बीबीसी के इस कार्यक्रम में शब्बीर खन्ना नाम के श्रोता ने बीबीसी की अपनी भाषा नीति पर हमला बोला। भाषा में बदलाव कितना होना चाहिए, कैसे होना चाहिए, यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। क्या कोई भाषा शुद्ध हो सकती है? दाल में नमक या नमक में दाल? संज्ञाएं नहीं क्रियाएं बदली जा रहीं है। मजेदार बात यह है कि न तो  इस हिन्दी को चलाने वाले नवभारत टाइम्स ने और न किसी दूसरे अखबार ने कोई बहस चलाई। कोई सर्वे भी नहीं किया। बीबीसी ने यह चर्चा की अच्छी बात है। इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। 
  
बीबीसी कार्यक्रम को सुनें 

Wednesday, July 21, 2010

बाजार से भागकर कहाँ जाओगे?




पत्रकारों की तीन या चार पीढ़ियाँ हमारे सामने हैं। एक, जिन्हें रिटायर हुए पन्द्रह-बीस साल या उससे ज्यादा समय हो गया। दूसरे वे जो या तो रिटायर हो रहे हैं या दो-एक साल में होंगे। तीसरे जो 35 से 50 की उम्र के हैं और चौथे जिन्हें आए दस साल से कम का समय हुआ है या जो अभी शामिल ही हुए हैं। मीडिया के बारे में इन सब की राय एक जैसी नहीं है। 75 या 80 साल की उम्र वालों का अनुभव सिर्फ अखबारों का है। उसके बाद वाले इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट मीडिया से भी वाकिफ हैं। एकदम नई पीढ़ी को बड़े बदलावों का इंतज़ार है। पुरानी पीढ़ी मीडिया को संकटग्रस्त मानती है। वह इसे घटती साख और कम होते असर की दृष्टि से देखती है। नई पीढ़ी की दिलचस्पी अपने मेहनताने में है। अपने भविष्य और करियर में। दोनों मामले मीडिया के कारोबारी मॉडल से जुड़े हैं।


अक्सर हम लोग मीडिया के अंतर्विरोधों के लिए मार्केट को जिम्मेदार मानते हैं। हम यह नहीं देखते कि मार्केट न होता तो इतना विस्तार कैसे होता। इस विस्तार से गाँवों और कस्बों तक में बदलाव हुआ है। कई प्रकार की सामंती प्रवृत्तियों पर प्रहार हुआ है। जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ी है। हमारे पास इस विस्तार का कोई दूसरा मॉडल है भी नहीं। मार्केट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आपको वैकल्पिक रास्ता खोजने का मौका देता है। आज भी यदि कोई संज़ीदा अखबार या गम्भीर चैनल शुरू करना चाहे तो उसपर रोक नहीं है। बाज़ार नई प्रवृत्तियों को खरीदने की कोशिश करता है। संज़ीदा पाठक या बाज़ार है तो यह उसे भी खरीद लेगा, जैसे रूपर्ट मर्डोक ने लंदन टाइम्स जैसा संज़ीदा अखबार खरीदा। इस मार्केट पर पाठक और लोकतंत्र का दबाव होगा तो यह नियंत्रण में रहेगा। फिर भी यह दीर्घकालीन हल नहीं है।


मीडिया, खासतौर से हिन्दी का जो कारोबारी मॉडल हमारे सामने है, वह पिछले डेढ़ दशक में उभरा है। पहले प्रेस आयोग को लगता था कि भारतीय प्रेस को इज़ारेदारी(मोनोपॉली) से बचाना चाहिए। वक्त के साथ यह अंदेशा सही साबित नहीं हुआ। बड़े मीडिया हाउसों के मुकाबले छोटे और स्थानीय स्तर के व्यापारियों ने हिन्दी के अखबार निकाले। अखबारों की बड़ी चेनें इनके सामने टूट गईं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे। हिन्दी के पहले दस अखबारों में सिर्फ दो पुराने और बड़े मीडिया समूहों से जुड़े हैं। इनमें से एक के पास विस्तार का कोई भावी कार्यक्रम नज़र नहीं आता। हिन्दी को छोड़ दें तो देश की अन्य भाषाओं के अखबारों में से कोई भी अंग्रेजी अखबारों की परम्परागत चेन से नहीं निकला है। नई ओनरशिप खाँटी देशी है। उसके विकसित होने के पीछे तीन कारक हैं। एक, स्वभाषा प्रेम जो हमारे राज्यों के पुनर्गठन का आधार बना। दूसरे, स्थानीयता। और तीसरे राजनीति और राजव्यवस्था पर प्रभाव। इस तीसरे कारक के कारण बिल्डर या इसी किस्म के कारोबारी मीडिया की तरफ आकृष्ट हुए हैं। कुछ साल पहले तक चिट फंड कम्पनियों वाले इधर आए थे। ये सब मीडिया पर इतने कृपालु क्यों हुए हैं? मीडिया के इनफ्लुएंस के कारण ऐसा है। यह इनफ्लुएंस पाठक पर कम सरकार पर ज्यादा है। दूसरे अब इसमें मुनाफा भी है।


बिजनेस और राजनीति को भारतीय भाषाओं की अहमियत नज़र आई है। बिजनेस को इसमें फायदा दिखाई पड़ता है और राजनीति को वोट। भारतीय भाषाई अखबारों के शुरूआती मालिक स्थानीय कारोबारी थे। उनका बिजनेस मॉडल देशी था। अब वे बिजनेस-प्रबंध की अहमियत समझने लगे हैं। विस्तार के लिए पूँजी की ज़रूरत है। उसके लिए ये अखबार पूँजी बाज़ार की ओर जा रहे हैं। अखबार की गुणवत्ता, साख और करियर के सवाल इन बातों से जुड़े हैं। ये सवाल या तो पाठक के हैं या पत्रकार के। कारोबारियों के नहीं। कारोबारी को यहां तुरत फायदा नज़र आ रहा है, जिसे फिलिप मेयर हार्वेस्टिंग मार्केट पोज़ीशन कहते हैं। अखबार ईज़ी मनी के ट्रैप में हैं। यह ईज़ी मनी शेयर बाज़ार में भी है। पर यह सब ऐसा ही नहीं रहेगा। शेयर बाज़ार को भी ज्यादा ट्रांसपेरेंट बनाने की कोशिश होगी।


हाल में पेड न्यूज़ के जिस मसले पर हम माथा-पच्ची करते रहे हैं, वह सिर्फ मीडिया का मसला ही तो नहीं था। अनुमान है कि चुनाव के दौरान करीब 5000 करोड़ रुपया इस मद में खर्च हुआ। यह रुपया किसके पास से किसके पास गया? ऐसी पब्लिसिटी की किसी ने रसीद नहीं दी होगी। और न पक्की किताबों में इसका ब्योरा रखा गया होगा। इसका मतलब काली अर्थ-व्यवस्था में गया। यह काली अर्थव्यवस्था सिर्फ मीडिया हाउसों तक सीमित नहीं है। मीडिया-कर्म के विचार से इस काम से हमारी साख को धक्का लगा। यह धक्का किसे लगा?  पाठकों को, नेताओं को, चुनाव आयोग को या पत्रकारों को? मालिकों को क्यों नहीं लगा? अखबार तो उनके थे। अपने अखबार की साख गिरती देखना उन्हें खराब क्यों नहीं लगा?

दरअसल बहुत दूर की कोई नहीं सोचता। टेक्नॉलजी का बदलाव पूरे औद्योगिक ढाँचे को बदल देगा। अनेक उद्योग आने वाले वर्षों में गायब हो जाएंगे। अनेक कम्पनियाँ जो आज चमकती नज़र आ रहीं हैं, अगले कुछ साल में व्यतीत हो जाएंगी। ऐसा ही सूचना के साथ होने वाला है। अखबार या मीडिया इनफ्लुएंस बेचता है। पाठक उसके प्रभाव को मानता है। पर कारोबार को शायद यह बात समझ में नहीं आती। वह कॉस्ट कम करने और प्रॉफिट बढ़ाने के परम्परागत विचार पर कायम है। वह अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में नहीं सोच रहा। उसकी बॉटमलाइन मुनाफा है। उसका ज़ोर ऐसी तकनीक खरीदने पर है जो लागत (कॉस्ट) कम करे। ऐसा वह बेहतर पत्रकारिता की कीमत पर कर रहा है। पत्रकारिता पर इनवेस्ट करना नादानी लगती है और उसकी सलाह देने वाले नादान। न्यूज़रूम पर इनवेस्ट करना घाटे का सौदा लगता है। आप कैसा भी अखबार निकालें, पैसा आता रहेगा तो आप इनोवेशन बंद कर देंगे। अंततः मीडिया न्यूज़ फैक्ट्री में तब्दील हो जाएगा।


पाठक की मीडिया से अपेक्षा सिर्फ खबरें बेचने की नहीं है। खासतौर से उस मीडिया से जो उसे धोखा देकर खबर के नाम पर विज्ञापन छापता है। इसपर भी शर्मिन्दा नहीं है। यह सूचना का युग है। इसमें सूचना की बहुलता हमारे दुष्कर्म का भंडाफोड़ भी कर देती है, पर उसकी परिणति क्या है? नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हर्बर्ट सायमन के शब्दों में इससे खबरदारी की मुफलिसी(पोवर्टी ऑफ अटेंशन) पैदा हो रही है। जनता हमपर ध्यान नहीं देगी। उसके बाद हम उन पर्चों जैसे बेजान हो जाएंगे जो हर सुबह हमारे अखबारों के साथ चिपके चले जाते हैं। और जिन्हें हम सबसे पहले अलग करते हैं। जो शानदार रंगीन छपाई के बावजूद हमारी निगाहों में नहीं चढ़ते।


मीडिया का मौजूदा मॉडल मार्केट-केन्द्रित है। वह ज़ारी रहेगा। उसे आप बदल नहीं पाएंगे। एक रास्ता यह है कि आप वैकल्पिक अखबार तैयार करें और उसे सफल बनाकर दिखाएं। पैसा लगाने वाले तब सामने आएंगे। पर अंततः मीडिया पर लगने वाली पूँजी और प्रॉफिट का गणित अलग ही होगा। उसपर वह पूँजी लगे, जिसे अपनी साख की फिक्र भी हो। संयोग से इसपर विचार भी शुरू हो गया है। उसपर फिर कभी।  

Monday, July 12, 2010

संकट और समाधान के दोराहे पर


यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी?  काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।

खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।   
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था,  इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर ना कहना चाहिए। रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर इलस्ट्रेटेड वीकली में कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशन ही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है। 

Tuesday, June 22, 2010

सब पर भारी सूचना की बमबारी


विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता चल रही है। साथ ही श्रीलंका में एशियाकप क्रिकेट प्रतियोगिता भी। देश में क्रिकेट की लोकप्रियता मुकाबले फुटबॉल के कहीं ज्यादा है। पर मीडिया की कवरेज देखें तो फुटबॉल की कवरेज क्रिकेट से ऊपर है। वह तब जब इसमें भारतीय फुटबॉल टीम खेल भी नहीं रही है। यों हिन्दी के एक मार्केट सैवी अखबार ने अपने संडे एडीशन के पहले सफे पर हैडिंग दी फुटबॉल पर भारी पड़ा क्रिकेट का रोमांच। उसी अखबार के खेल पन्नों पर फुटबॉल का रोमांच हावी था। शाब्दिक बाज़ीगरी अपनी जगह है, पर सारे रोमांच पाठक तय नहीं करते। फरबरी-मार्च में विश्वकप हॉकी प्रतियोगिता दिल्ली में हुई थी। उसकी कवरेज़ आईपीएल के मुकाबले फीकी थी। अपने अखबारों में आपको हर रोज़ एक न एक खबर फॉर्मूला कार रेस की नज़र आती है। कितना लोकप्रिय है यह खेल हमारे यहाँ? यही हाल गॉल्फ का है। टाइगर वुड हाल तक खबरों पर हावी थे। हिन्दी के कितने पाठकों की दिलचस्पी टाइगर वुड के खेल में है? कितने लोग उसके व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी रखते थे? मीडिया ने तय किया कि आपको क्या पसंद आना चाहिए।

बाजार का सिद्धांत है, जो ग्राहक कहे वह सही। पर मार्केटिंग टीमें यह तय करतीं हैं कि ग्राहक को क्या पसंद करवाना है। फुटबॉल की वैश्विक व्यवस्था क्रिकेट की वैश्विक व्यवस्था से ज्यादा ताकतवर है। यह क्या आसानी से समझ में नहीं आता? मीडिया का कार्यक्षेत्र उतना सीमित नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। पाठक को परोसी जाने वाली खबरें और विचार इसका छोटा सा पहलू है। सरकारों, कम्पनियों, संस्थाओं और कारोबारियों के भीतर होने वाला संवाद ज्यादा बड़ा पहलू है। यह हमारे जीवन को परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। हर रोज़ हज़ारों-लाखों पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन आने वाले वक्त के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की रूपरेखा तय करते हैं। वे मीडिया का एजेंडा तय करते हैं। पाठक, दर्शक या श्रोता उसका ग्राहक है सूत्रधार नहीं।

vहमारे पाठक पश्चिमी देशों के पाठकों से फर्क हैं। हम लोग अधिकतर सद्यःसाक्षर हैं, जागृत विश्व से दूर हैं और अपने हालात को बदलने के फेर में फँसे हैं।

vहम पर चारों ओर से सूचना की जबर्दस्त बमबारी होने लगी है। इस सूचना का हमसे क्या रिश्ता है हम जानते ही नहीं। इसमें काफी सूचना हमारे संदर्भों से कटी है, पर हम इसमें कुछ कर नहीं सकते।

vमार्शल मैकलुहान के शब्दों में मीडिया इज़ मैसेज(जो बाद में मसाज हो गया)। यानी सूचना से ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया। फेसबुक में मेरे अनेक मित्रों की राय है कि यहाँ गम्भीर संवाद संभव नहीं। फेसबुक दोस्त बनाने का टूल है। इसमें मस्ती ज्यादा है। संज़ीदगी डालने की कोशिश करेंगे तो उसे मंज़ूरी नहीं मिलेगी।  

vव्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का बेहतर माध्यम ब्लॉग है, पर ब्लॉग में भी चटपटेपन को लोकप्रियता मिलती है। या उन्हें जो हमारे रोज़ के जीवन में उपयोगी हैं।

vएक बदलते समाज को देश-काल की बुनियादी बातों का पता भी होना चाहिए। खबरों के संदर्भों की जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बताने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया आपको नहीं बताता तो आप उसका क्या कर लेंगे?

vजो हो रहा है वह सब अनाचार ही नहीं है। खेल और फुटबॉल में कोई करिश्मा ज़रूर है, जो इतने लोग उसके दीवाने हैं। उसे समझने और फिर उसे वृहत् स्तर पर मानव कल्याण से जोड़ने वाली समझ हमारे पास होनी चाहिए।

किर्गीज़िस्तान में हिंसा क्यों हो रही है? वहाँ भारतीय क्या करने गए थे? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उस पोस्टर पर क्या आपत्ति थी, जिसमें वे नरेन्द्र मोदी का हाथ पकड़ कर खड़े हैं? भाजपा और जद(यू) एक-दूसरे को पसंद नहीं करते तो मिलकर सरकार क्यों चलाते हैं? भोपाल मामला क्या है? जस्टिस अहमदी ने कानून की सीमा के बारे में जो बात कही है, वह क्या हैमसलन प्रातिनिधिक दायित्व (विकेरियस लायबिलिटी) क्या है? उसकी बारीकियाँ क्या हैं? इस तरह के हादसों से जुड़े कानून बनाने के बारे में क्या हुआ? जाति आधारित जनगणना की माँग क्यों हो रही है? उसके पक्ष में क्या तर्क हैं और उसे न कराने के पीछे क्या कारण हैं?

ऐसे अनेक सवाल एक सामान्य पाठक के मन में उठते होंगे। पर हिन्दी का सामान्य पाठक कौन है? वह विश्वविद्यालय का छात्र है, सरकारी कर्मचारी है, रिटायर कर्मचारी है, छोटा और मझोला व्यापारी है, घरेलू महिला है। इनमें किसान हैं, कुछ मज़दूर भी हैं। प्राइमरी कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक के छात्र इनमें शामिल हैं। काफी बड़ा तबका ऐसा है जो सारी बारीकियों को नहीं समझता। जानकारी उच्चस्तरीय स्पेस साइंस और कानूनी बारीकियों की हो तो दिक्कत और ज़्यादा है। उसे सही संदर्भ में जानकारी चाहिए।

जब सूचना का विस्फोट हो रहा हो, हर मिनट लाखों-करोड़ों शब्द आपकी मुट्ठी में मौज़ूद आईपैड, आईफोन, ब्लैकबैरी या मामूली मोबाइल फोन के रास्ते इधर से उधर हो रहे हों, तो उम्मीद करनी चाहिए कि देखते ही देखते समूचा समाज जानकार हो जाएगा। सब कुछ साफ हो जाएगा। एक सूचना आधारित विश्व होगा। अमर्त्य सेन के शब्दों में अकाल नहीं पड़ेंगे क्योंकि जागरूक जन समुदाय के दबाव में वितरण व्यवस्था दुरुस्त रहेगी। जानकारी पाने के अधिकार ने भी द्वार खोल दिए हैं। पर बुनियादी भ्रम दूर नहीं हो रहा, बल्कि सूचना के बॉम्बार्डमेंट के कारण बढ़ गया है। यह उस मिकैनिज्म के कारण है, जो सूचना-क्रांति को भी अपने पक्ष में मोड़ लेने की ताकत रखता है। यह वैचारिक भ्रम नहीं है। सूचना का भ्रम है।  

पिछली पीढ़ी बताती है कि शुरू में लोग रोज़ चाय पीने के आदी नहीं थे। चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए कम्पनियों ने कई तरह के काम किए। ऐसा डालडा के साथ भी हुआ। लोग नूडल्स खाने के आदी नहीं थे, पर मार्केटिंग ने आदी बनाया। पीत्ज़ा, बर्गर और कोक के साथ भी ऐसा ही हुआ। हुक्के की जगह सिगरेट ने ली। देसी की जगह अंग्रेजी शराब ने ली। इसमें दो तत्वों की भूमिका थी। एक संदेश की और दूसरे ग्राहक की। संदेश आधुनिक बनने का है। लोग अपने बच्चों के करियर के लिए अपना पैसा, समय और ऊर्जा खर्च करते हैं। इन बच्चों को टार्गेट बनाकर बाज़ार अपनी मार्केटिंग रणनीति तय करता है।

चेंज या बदलाव नई जेनरेशन जल्दी स्वीकार करती है। इसलिए तकरीबन हर प्रोडक्ट में मस्ती का भाव है। यह मस्ती युवा वर्ग का एक सहज गुण है। पर यही एक गुण नहीं है। युवा वर्ग में उत्कंठा या जिज्ञासा भी होती है। वह आदर्शों से प्रेरित होता है और रोमांचकारी काम करने को तैयार रहता है। नूडल्स और टूथपेस्ट बेचने के पीछे व्यावसायिक प्रवृत्ति है। पूँजी को बढ़ाने की इच्छा है। सही संदर्भ में जानकारी देना, सामाजिक बदलाव के लिए तैयार करना और देश-दुनिया की व्यापक समझ बनाना उसकी प्राथमिकता नहीं है। तब फिर किसकी प्राथमिकता है? इस रासते पर बढ़ने के लिए हमारे पास इंसेंटिव क्या हैं?  और हम किसी को ज़िम्मेदार-जागरूक बनाना ही क्यों चाहते हैं?

सामाजिक जीवन में निजी प्रॉफिट-लॉस एक तरफ हैं और सार्वजनिक प्रॉफिट-लॉस दूसरी तरफ। सार्वजनिक हित भी किसीकी जिम्मेदारी है, खासकर मीडिया के संदर्भ में। कौन है जिसे सार्वजनिक हित के बारे में सोचना चाहिए? या तो पाठक को या सरकार को। आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल को आप न मानें तब भी चलना उसके ही साथ है। कोई विकल्प सामने नहीं है। इसलिए जो है उसके अंतर्विरोध ही बेहतर परिस्थिति का निर्माण करेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति चेतना उस सार्वजनिक संकट से उपजी है, जो सबके सामने खड़ा है। बेहतर शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरत आर्थिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं को है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए शिक्षित और जागरूक जन-समूह चाहिए। यह शिक्षित जन-समूह बेहतर मीडिया के सहारे शक्ल लेता है और फिर बेहतर मीडिया को शक्ल देता है। विकसित और शिक्षित समाजों में ऐसा ही हुआ है।

हमारे मीडिया में जो भ्रम है वह सारी दुनिया के मीडिया में नहीं है। पश्चिमी देशों के टेबलॉयड अखबारों और संजीदा अखबारों में जो अंतर है वह हमारे यहाँ नहीं है। हमारे ब्रॉडशीट अखबार टेबलॉयड का काम भी कर रहे हैं। टीवी पर बीबीसी की खबरें वैसी ही हैं, जैसी होती थीं। बीबीसी से तुलना न करें, फॉक्सन्यूज़ भी भारतीय चैनलों के मुकाबले सोबर है। इसकी वजह दर्शक की उदासीनता भी है। शायद ही कोई दर्शक अपनी नाराज़गी मीडिया हाउस तक लिख कर भेजता है। वह अपनी जानकारी को लेकर उदासीन है। या प्राप्त जानकारी से संतुष्ट। अभी इस मीडिया के अंतर्विरोध उभरे नहीं हैं। फिलहाल हमारे सामने दो विकल्प हैं या तो हम समानांतर मीडिया तैयार करें, जिसके लिए पूँजी चाहिए। या फिर सूचना के सही संदर्भों से जुड़े बाज़ार के विकसित होने का इंतज़ार करें। ये सूचना-संदर्भ लोकतांत्रिक-व्यवस्था का कच्चा माल है। यह इस बाज़ार-व्यवस्था का विरोधी भी नहीं है। लोकतंत्र अपने आप में एक बड़ी बाज़ार व्यवस्था है।