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Friday, March 11, 2022

राजनीतिक-व्यवहार के सामाजिक-संदेशों को पढ़िए


चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं। 

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।

भारतीय और विदेशी-मीडिया और विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा कर रहा था, अबकी बार अखिलेश सरकार। अब लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं, पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित प्रगतिशील-वामपंथी दृष्टिकोण पर नजर डालने की जरूरत है।

इस चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस तरह से देश के प्रगतिशील-वर्ग ने हिजाब का समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।

इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों क पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।

Tuesday, January 4, 2022

उत्तर प्रदेश में चुनावी सफलता का सूत्र है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार के अनुसार उत्तर प्रदेश के चुनाव में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। आज के मिंट में प्रकाशित उनकी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण राजनीतिक फसल काटने का अच्छा जरिया है। एक पार्टी हिंदू वोट को हथियाने का प्रयास करती है तो दूसरी पार्टी मुसलमानों के वोटर को लुभाती है। राज्य में मुस्लिम आबादी 19.3 फीसदी है।

हालांकि मुस्लिम आबादी प्रदेश के सभी हिस्सों में उपस्थित है, पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में उसकी उपस्थिति सबसे अच्छी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 32 फीसदी और रूहेलखंड की 35 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। राज्य की कुल 403 सीटों में से 30 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। इसके बाद 43 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 30-40 फीसदी आबादी मुस्लिम है।

बीजेपी की दिलचस्पी बहुसंख्यक हिंदू वोटर को अपनी तरफ खींचने की होती है, तो समाजवादी पार्टी की दिलचस्पी मुस्लिम वोट को हासिल करने की होती है। पार्टी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मुसलमान किसका साथ देते हैं।

सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा का अध्ययन करने से निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में और 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुओं के कुल वोटों में से आधे भारतीय जनता पार्टी के खाते में गए। जिन सीटों पर बीजेपी की हार हुई, उनमें भी हिंदुओं के वोट भारी संख्या में बीजेपी को मिले।

इसके विपरीत समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में मिले। जिन क्षेत्रों में मुसलमानों के वोट कांग्रेस, बसपा और सपा के बीच बँटे, वहाँ भी सपा को सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब मुस्लिम वोटरों ने सपा का साथ दिया, फिर भी पार्टी को भारी अंतर से पराजय का सामना करना पड़ा।

ध्रुवीकरण मददगार

एक बात यह भी स्पष्ट हुई है कि जो पार्टियाँ मुस्लिम वोटों के सहारे हैं, वे भी हिंदू वोटों की अनदेखी नहीं कर सकती हैं। सन 2017 के चुनाव में बीजेपी ने उन सब सीटों पर सफलता हासिल की, जहाँ मुसलमान 30 से 40 फीसदी हैं। बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के कारण दूसरी पार्टियाँ केवल मुस्लिम वोट के सहारे जीत नहीं सकतीं। जिन क्षेत्रों में मुसलमान 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ बीजेपी नहीं जीत सकती। 2017 में जहाँ बीजेपी ने राज्य में भारी बहुमत हासिल किया, वहीं जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ सपा को जीत मिली। बीजेपी ऐसी 60 फीसदी सीटों पर हारी।

स्विंग वोटर

जबर्दस्त सांप्रदायिक अभियान ऐसे वोटरों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब होता है, जो मतदान के एक-दो दिन पहले फैसला करते हैं। स्विंग वोटर किसी पार्टी के वफादार नहीं होते, और वे प्रत्याशी या मुद्दों पर वोट देते हैं। आमतौर पर वे उसे वोट देते हैं, जिसकी जीत नजर आ रही हो। सीएसडीएस सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में करीब 25 फीसदी स्विंग वोटर हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी स्विंग वोटरों ने ऐसे प्रत्याशी को वोट दिया, जो उनकी निगाह में जीतता नजर आ रहा था, जबकि 8 फीसदी ने यह जानते हुए भी वोट दिया कि पार्टी हार जाएगी। जीतने वाली पार्टी के पक्ष में स्विंग मुसलमानों के बीच ज्यादा है। सर्वेक्षण के दौरान आधे से ज्यादा वोटरों ने कहा कि उन्होंने उस प्रत्याशी को वोट दिया, जो हमें लगा कि जीत जाएगा। सांप्रदायिक अभियान का एक उद्देश्य स्विंग वोटर को अपने साथ लाना भी होता है।

 

Wednesday, October 20, 2021

क्या उत्तर प्रदेश के वोटर को पसंद आएगी प्रियंका गांधी की ‘नई राजनीति’?

उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कुछ अलग नजर आने और चुनाव के मुद्दों को विस्तार देने के इरादे से उतर रही है। पार्टी ने मंगलवार को घोषणा की कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव पार्टी के 40 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को दिए जाएंगे। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने इस बात की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि पार्टी टिकट पाने के आवेदन के लिए तारीख 15 नवम्बर तक बढ़ा दी गई है। इस चुनाव में पार्टी का नारा है ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं।’

कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस लेने की शिद्दत से तलाश है। सन 2017 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 7 सीटें ही जीत पाई थी और राज्य में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की पूरी कोशिश कर रही है। वह भी तब, जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में ‘जाति’ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कांग्रेस यह कदम उठा कर महिला मतदाताओं को अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है। उसके पहले 2012 के चुनाव में पार्टी को बहुत उम्मीदें थीं। तब राहुल गांधी के नेतृत्व पर भरोसा किया गया था।

सन 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की सफलता से प्रेरित कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में सफलता की आशा थी। उस वक्त समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के भीतर राज्य के वोटर को नई ऊर्जा दिखाई पड़ी थी। कांग्रेस को लगता था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के कारण सफलता मिली है। वस्तुतः कांग्रेस की सफलता के पीछे उसे प्राप्त हमदर्दी थी, जो वाममोर्चा के हाथ खींचने के कारण पैदा हुई थी।

प्रियंका गांधी मानती हैं कि महिलाएं नफरत की राजनीति का विकल्प प्रदान करेंगी। महिलाओं को राजनीति का केन्द्रीय विषय बनाने का विचार अपने आप में रोचक और प्रभावशाली है। लोकसभा के पिछले दो चुनावों से यह बात साबित हुई है कि देश में महिला वोटर निर्णायक भूमिका निभाती हैं। बावजूद इसके सवाल है कि कांग्रेस पार्टी के पास क्या यूपी में दो सौ के आसपास ऐसी महिला प्रत्याशी हैं, जो मजबूती के साथ उतर सकें। यदि हैं भी, तो क्या वे पुराने कांग्रेसी नेताओं के परिवारों से आएंगी या अपनी सामर्थ्य पर राजनीति में उतरी महिलाएं होंगी?

Friday, June 11, 2021

चुनावी पृष्ठभूमि में पंजाब और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं


अगले साल के फरवरी-मार्च महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधान सभा चुनाव होंगे। उसके पहले इन सभी राज्यों में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दिल्ली में हैं। गुरुवार को उनकी मुलाकात गृहमंत्री अमित शाह से हुई है और आज वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भी उनकी मुलाकात होगी। कयास हैं कि केंद्रीय नेतृत्व के साथ उन्होंने मंत्रिमंडल विस्तार, पंचायत चुनाव समेत कई अन्य मुद्दों पर चर्चा की है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए जितिन प्रसाद से भी उनकी मुलाकात हुई है।

उधर पंजाब में तेज गतिविधियाँ चल रही हैं। कांग्रेस पार्टी घोषणा कर चुकी है कि हम मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरेंगे, पर प्रदेश के नेतृत्व में विकल्प की भी तलाश हो रही है। इस तलाश के पीछे कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चल रहे टकराव की भूमिका भी है। दोनों नेताओं के बीच राज्य में पोस्टर युद्ध चल रहा है। लगता यह भी है कि सिद्धू को बढ़ावा देने में हाईकमान की भूमिका भी है।

Sunday, April 2, 2017

प्रश्न प्रदेश में योगी का प्रवेश

आदित्यनाथ योगी की सरकार बनने के बाद से दो या तीन बातों के लिए उत्तर प्रदेश का नाम राष्ट्रीय मीडिया में उछल रहा है। एक, ‘एंटी रोमियो अभियान’, दूसरे बूचड़खानों के खिलाफ कार्रवाई और तीसरे बोर्ड की परीक्षा में नकल के खिलाफ अभियान। तीनों अभियानों को लेकर परस्पर विरोधी राय है। एक समझ है कि यह ‘मोरल पुलिसिंग’ है, जो भाजपा की पुरातनपंथी समझ को व्यक्त करती है। पर जनता का एक तबका इसे पसंद भी कर रहा है। सड़क पर निकलने वाली लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ की शिकायतें हैं। पर क्या यह अभियान स्त्रियों को सुरक्षा देने का काम कर रहा है? मीडिया में जो वीडियो प्रसारित हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि घर से बाहर जाने वाली लड़कियों को भी अपमानित होना पड़ रहा है। यह तो वैसा ही है जैसे वैलेंटाइन डे पर हुड़दंगी करते हैं। 

इस अभियान को लेकर मिली शिकायतों के बाद प्रशासन ने पुलिस को आगाह किया है कि चाय की दुकानों में खाली बैठे नौजवानों के साथ सख्ती बरतने और मुंडन करने या मुर्गा बनाने जैसी कार्रवाई से बचे। यह मामला हाईकोर्ट तक गया है और लखनऊ खंडपीठ ने इसे सही ठहराया है। अदालत ने कहा-प्रदेश के नागरिकों के लिए संकेत है कि वे भी अनुशासन के लिए अपने बच्चों को शिक्षित करें। उत्तर प्रदेश से प्रेरणा पाकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने यहाँ भी ऐसा ही अभियान चलाने की घोषणा की है।

क्या उत्तर देगा योगी का प्रश्न प्रदेश?

सन 2014 के चुनाव से साबित हो गया कि दिल्ली की सत्ता का दरवाजा उत्तर प्रदेश की जमीन पर है। दिल्ली की सत्ता से कांग्रेस के सफाए की शुरुआत उत्तर प्रदेश से ही हुई थी। करीब पौने तीन दशक तक प्रदेश की सत्ता गैर-कांग्रेसी क्षेत्रीय क्षत्रपों के हवाले रही। और अब वह भाजपा के हाथों आई है। क्या भाजपा इस सत्ता को संभाल पाएगी? क्या यह स्थायी विजय है? क्या अब गैर-भाजपा राजनीतिक शक्तियों को एक होने का मौका मिलेगा? क्या उनके एक होने की सम्भावना है? सवाल यह भी है कि क्या उत्तर प्रदेश के सामाजिक चक्रव्यूह का तोड़ भाजपा ने खोज लिया है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब भविष्य के गर्भ में छिपे हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक योगी को बैठाकर बहुत बड़ा प्रयोग किया है। क्या यह प्रयोग सफल होगा? पार्टी अपनी विचारधारा का बस्ता पूरी तरह खोल नहीं रही थी। उत्तर प्रदेश के चुनाव ने उसका मनोबल बढ़ाया है। इस साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव और होने वाले हैं। उसके बाद अगले साल कर्नाटक में होंगे। योगी-सरकार स्वस्थ रही तो पार्टी एक मनोदशा से पूरी तरह बाहर निकल आएगी। फिलहाल बड़ा सवाल यह है कि इस प्रयोग का फौरी परिणाम क्या होगा? क्या उत्तर प्रदेश की जनता बदलाव महसूस करेगी?

Saturday, December 31, 2016

ड्रामा था या सच अखिलेश बड़े नेता बनकर उभरे

लाहाबाद में अखिलेश समर्थक एक पोस्टर
अंततः यह सब ड्रामा साबित हुआ. गुरुवार की रात एक अंदेशा था कि कहीं यह नूरा-कुश्ती तो नहीं थी? आखिर में यही साबित हुआ.
मुलायम परिवार के झगड़े का अंत जिस तरह हुआ है, उससे तीन निष्कर्ष आसानी से निकलते हैं. पहला, यह कि यह अखिलेश की छवि बनाने की एक्सरसाइज़ थी. दूसरा, मुलायम सिंह को बात समझ में आ गई कि अखिलेश की छवि वास्तव में अच्छी है. तीसरा, दोनों पक्षों को समझ में आ गया कि न लड़ने में ही समझदारी है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि अखिलेश यादव ज्यादा बड़े नेता के रूप में उभर कर सामने आए हैं. और शिवपाल की स्थिति कमजोर हो गई है. टीप का बंद यह कि रामगोपाल यादव ने 1 जनवरी को जो राष्ट्रीय प्रतिनिधि सम्मेलन बुलाया था, वह भी होगा.

Monday, November 7, 2016

अब तलवार तो अखिलेश के हाथ में है

समाजवादी पार्टी ने अपना रजत जयंती समारोह मना लिया और यूपी में बिहार जैसा महागठबंधन बनाने की सम्भावनाओं को भी जगा दिया, पर उसकी घरेलू कलह कालीन के नीचे दबी पड़ी है। जैसे ही मौका मिलेगा बाहर निकल आएगी। पार्टी साफ़ तौर पर दो हिस्सों में बंट चुकी है। पार्टी सुप्रीमो ने एक को पार्टी दी है और दूसरे को सरकार। पार्टी अलग जा रही है और सरकार अलग। मुलायम सिंह असहाय खड़े दोनों को देख रहे हैं। बावजूद बातों के अभी यह मान लेना गलत होगा कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन बनने वाला है। धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि तलवार अब अखिलेश के हाथ में है।

Sunday, October 30, 2016

बिहार के रास्ते पर यूपी की राजनीति?

क्या उत्तर प्रदेश बिहार के रास्ते जाएगा?

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक आकाश पर जैसे शिकारी पक्षी मंडराने लगे हैं. चुनाव नज़दीक होने की वजह से यह लाज़िमी था. लेकिन समाजवादी पार्टी के घटनाक्रम ने इसे तेज़ कर दिया है. हर सुबह लगता है कि आज कुछ होने वाला है.

प्रदेश की राजनीति में इतने संशय हैं कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि चुनाव बाद क्या होगा. कुछ समय पहले तक यहाँ की ज्यादातर पार्टियाँ चुनाव-पूर्व गठबंधनों की बात करने से बच रही थीं.

भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने दावा किया था कि वे अकेले चुनाव में उतरेंगी. लेकिन अब उत्तर प्रदेश अचानक बिहार की ओर देखने लगा है. पिछले साल बिहार में ही समाजवादी पार्टी ने 'महागठबंधन की आत्मा को ठेस' पहुँचाई थी. इसके बावजूद ऐसी चर्चा अब आम हो गई है.

बहरहाल, अब उत्तर प्रदेश में पार्टी संकट में फँसी है तो महागठबंधन की बातें फिर से होने लगीं हैं.
सवाल है कि क्या यह गठबंधन बनेगा? क्या यह कामयाब होगा?

सपा और बसपा के साथ कांग्रेस के तालमेल की बातें फिर से होने लगी हैं. इसके पीछे एक बड़ी वजह है 'सर्जिकल स्ट्राइक' के कारण बीजेपी का आक्रामक रुख.

उधर कांग्रेस की दिलचस्पी अपनी जीत से ज्यादा बीजेपी को रोकने में है, और सपा की दिलचस्पी अपने को बचाने में है. कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी सबका ध्यान मुस्लिम वोटरों पर है. बीजेपी का भी...

मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण से बीजेपी की प्रति-ध्रुवीकरण रणनीति बनती है. 'बीजेपी को रोकना है' यह नारा मुस्लिम मन को जीतने के लिए गढ़ा गया है. इसमें सारा ज़ोर 'बीजेपी' पर है.

बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर पढ़ें पूरा लेख

Monday, October 24, 2016

बादशाह अकबर के खिलाफ खड़े हैं 'सलीम' अखिलेश

मुलायम 'अकबर' के सामने 'सलीम' अखिलेश?
सलमान रावी
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

समाजवादी पार्टी में हालात कुछ मुग़लिया सल्तनत के उस दौर जैसे हैं जब अकबर हिन्दुस्तान के शहंशाह हुआ करते थे और सलीम को ख़ुद की पहचान के लिए बग़ावत करनी पड़ी थी.

राजनीतिक विश्लेषक समाजवादी पार्टी की बैठक के दौरान अखिलेश यादव के तेवर में बग़ावत की बू पाते हैं.
बैठक के दौरान पार्टी सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव द्वारा पुत्र को सार्वजनिक फटकार, और अखिलेश यादव की चाचा शिवपाल यादव से हुई नोक झोंक से समझ साफ है कि समाजवादी पार्टी में सबकुछ ठीक नहीं है.

राजनीतिक विश्लेषक प्रमोद जोशी कहते हैं कि अखिलेश यादव का राजनीतिक भविष्य उनकी बग़ावत में ही है.

प्रमोद जोशी कहते हैं, "अखिलेश यादव की बग़ावत उसी तरह की है जैसी शहज़ादे सलीम ने अकबर के ख़िलाफ़ की थी. अगर वो झुक जाते हैं तो उनका राजनीतिक भविष्य ख़त्म हो जाएगा."

पूरा आलेख पढ़ें बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर 

Saturday, June 13, 2015

बिहार में बोया क्या यूपी में काट पाएंगे मुलायम?

बिहार में जनता परिवार के महागठबंधन पर पक्की मुहर लग जाने और नेतृत्व का विवाद सुलझ जाने के बाद वहाँ गैर-भाजपा सरकार बनने के आसार बढ़ गए हैं। भाजपा के नेता जो भी कहें, चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का अनुमान यही है। इस गठबंधन के पीछे लालू यादव और नीतीश कुमार के अलावा मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के राहुल गांधी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। लगता है कि बिहार में दिल्ली-2015 की पुनरावृत्ति होगी, भले ही परिणाम इतने एकतरफा न हों। ऐसा हुआ तो पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले स्पष्ट बहुमत का मानसिक असर काफी हद तक खत्म हो जाएगा। नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह और राहुल गांधी तीनों अलग-अलग कारणों से यही चाहते हैं। पर क्या चारों हित हमेशा एक जैसे रहेंगे?

Wednesday, May 22, 2013

क्या यूपी में चल पाएगा मोदी का करिश्मा?


कर्नाटक चुनाव में धक्का खाने के बाद भाजपा तेजी से चुनाव के मोड में आ गई है. अगले महीने 8-9 जून को गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, जिसमें लगता है गिले-शिकवे होंगे और कुछ दृढ़ निश्चय.
मंगलवार को नरेन्द्र मोदी का संसदीय बोर्ड की बैठक में शामिल होना और उसके पहले लालकृष्ण आडवाणी के साथ मुलाकात करना काफी महत्वपूर्ण है. मोदी ने अपने ट्वीट में इस मुलाकात को ‘अद्भुत’ बताया है.

भारतीय जनता पार्टी किसी नेता को आगे करके चुनाव लड़ेगी भी या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है. क्लिक करेंकर्नाटक के अनुभव ने इतना ज़रूर साफ किया है कि ऊपर के स्तर पर भ्रम की स्थिति पार्टी के लिए घातक होगी.
मोदी का संसदीय बोर्ड की बैठक में आना और खासतौर से अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया जाना इस बात की ओर इशारा कर ही रहा है कि मोदी का कद पार्टी के भीतर बढ़ा है.
बीबीसी हिन्दी में पढ़ें पूरा आलेख


Sunday, December 11, 2011

सरकार बनाम सरकार !!!


लड़ाई राजनीति में होनी चाहिए सरकारों में नहीं
नवम्बर के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में हुई एक रैली में मायावती ने आरोप लगाया कि हमने केन्द्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता माँगी थी, पर हमें मिला कुछ नहीं। यही नहीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जो कुछ मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। संघ सरकार पर राज्य सरकार का करोड़ों रुपया बकाया है। इस तरह केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश के विकास को बंधक बना रही है। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी खस्ता हालत को देखकर इस कदर डरी हुई है कि उसके महासचिव राहुल गांधी दिल्ली में सारे काम छोड़कर उत्तर प्रदेश में ‘नाटकबाजी’ कर रहे हैं।

उधर राहुल गांधी ने बाराबंकी की एक रैली में कहा कि लखनऊ में एक हाथी विकास योजनाओं का पैसा खा रहा है। पिछले बीस साल से उत्तर प्रदेश में कोई काम नहीं हुआ है। देश आगे जा रहा है और उत्तर प्रदेश पीछे। राहुल गांधी का कहना है कि मनरेगा और शिक्षा से जुड़ी जो रकम उत्तर प्रदेश को मिली उसका दुरुपयोग हुआ। दो साल पहले संसद में पूछे गए एक सवाल में बताया गया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सबसे ज्यादा शिकायतें उत्तर प्रदेश से मिली हैं। हाल में केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संदीप दीक्षित ने कहा कि प्रदेश में मनरेगा के तहत 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला है। हाल में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी इसी किस्म के आरोप लगाए और इसकी सीबीआई जाँच की माँग भी की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने इस घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय पर सीधे आरोप लगाए हैं। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के घोटालों को लेकर सीएजी की कोई रपट भी जल्द आने वाली है। प्रदेश में तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्या के बाद से उत्तर प्रदेश की ग्रामीण स्वास्थ्य योजना को लेकर कांग्रेस पार्टी लगातार आलोचना कर रही है।

Wednesday, November 23, 2011

उत्तर प्रदेश में शोर ज़्यादा और मुद्दे कम

राजनीतिक दलों को समझदार माना जाता है। इतना तो ज़रूर माना जाता है कि वे जनता के करीब होते हैं। उन्हें उसकी नब्ज़ का पता होता है। बावज़ूद इसके वे अक्सर गलती कर जाते हैं। हारने वाली पार्टियों को वास्तव में समय रहते यकीन नहीं होता कि उनकी हार होने वाली है। उत्तर प्रदेश में हालांकि पार्टियाँ एक अरसे से प्रचार में जुटीं हैं, पर उनके पास मुद्दे कम हैं, आवेश ज्यादा हैं। 

मुलायम सिंह ने बुधवार को एटा की रैली से अपने चुनाव अभियान की शुरूआत की। समाजवादी पार्टी का यकीन है कि मुलायम सिंह जब भी एटा से अभियान शुरू करते हैं, जीत उनकी होती है। एटा उनका गढ़ रहा है, पर 2007 के चुनाव में उन्हें यहाँ सफलता नहीं मिली। समाजवादी पार्टी इस बार अपने मजबूत गढ़ों को लेकर संवेदनशील है। एटा की रैली में पार्टी के महामंत्री मुहम्मद आजम खां ने कहा, ‘मैं यहाँ आपसे आपका गुस्सा माँगने आया हूँ। आप सबको मायावती के कार्यकाल में हुए अन्याय का बदला लेना है।‘ समाजवादी पार्टी घायल शेर की तरह इस बार 2007 के अपमान का बदला लेना चाहती है। मुलायम सिंह इस बार खुद मुख्यमंत्री बनने के लिए नहीं मायावती को हराने के लिए मैदान में हैं।

एक दाँव जो उल्टा भी पड़ सकता है

उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रदेश को चार हिस्सों में बाँटने वाला प्रस्ताव आनन-फानन पास तो हो गया, पर इससे विभाजन की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई। अलबत्ता यह बात ज़रूर कही जा सकती है कि यह इतना महत्वपूर्ण मामला है तो इस पर बहस क्यों नहीं हुई? सरकार ने साढ़े चार साल तक इंतज़ार क्यों किया? इस प्रस्ताव के पास होने मात्र से उत्तर प्रदेश का चुनाव परिदृश्य बदल जाएगा ऐसा नहीं मानना चाहिए। 
उत्तर प्रदेश प्राचीन आर्यावर्त का प्रतिनिधि राज्य है। मगध, मौर्य, नन्द, शुंग, कुषाण, गुप्त, गुर्जर, राष्ट्रकूट, पाल
और मुगल राज किसी न किसी रूप में इस ज़मीन से होकर गुजरा था। वाराणसी, अयोध्या, मथुरा, इलाहाबाद, मेरठ, अलीगढ़, गोरखपुर, लखनऊ, आगरा, कानपुर, बरेली जैसे शहरों का देश में ही नहीं दुनिया के प्राचीनतम शहरों में शुमार होता है। सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 की आज़ादी तक उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय आंदोलनों में सबसे आगे होता था। वैदिक, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों के अनेक पवित्र स्थल उत्तर प्रदेश में हैं। सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से यह भारत का हृदय प्रदेश है।