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Monday, July 17, 2023

2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में सत्तापक्ष और विपक्ष की कवायद शुरू


तकरीबन एक महीने की खामोशी के बाद इस हफ्ते राष्ट्रीय राजनीति में फिर से हलचल शुरू हो रही है। 20 जुलाई से संसद का मानसून सत्र शुरू होगा, जो 11 अगस्‍त तक चलेगा। इस सत्र में सरकार की ओर से 32 अहम बिल संसद में पेश किए जाएंगे। इस दौरान विरोधी दल सरकार को मणिपुर की हिंसा,  यूसीसी और केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर घेरने का प्रयास करेंगे। इस दौरान सदन के भीतर और बाहर दोनों जगह विरोधी एकता की परीक्षा भी होगी। सवाल यह भी है कि संसद का सत्र ठीक से चल भी पाएगा या नहीं।

राजनीतिक दृष्टि से 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने गठबंधनों को मजबूत करने की कवायद शुरू कर दी है। इस दृष्टि से सत्र शुरू होने के ठीक पहले 17 और 18 को बेंगलुरु में हो रही विरोधी-एकता बैठक भी महत्वपूर्ण होगी। इस बैठक में केवल चुनावी रणनीति ही नहीं बनेगी, बल्कि संसद के सत्र में विभिन्न मसलों को लेकर समन्वय पर भी विचार होगा। इस बैठक में शामिल होने के लिए 24 दलों को निमंत्रित किया गया है। इस बैठक को कांग्रेस पार्टी कितना महत्व दे रही है, इस बात का पता इससे भी लगता है कि उसमें सोनिया गांधी भी शामिल होंगी। पटना में 23 जून की बैठक के बाद तय हुआ था कि 10 से 12 जुलाई के बीच शिमला में विपक्षी दलों की दूसरी मीटिंग होगी, जिसमें भविष्य की रणनीति पर चर्चा की जाएगी। इस बैठक की ज़िम्मेदारी कांग्रेस पार्टी पर सौंपी गई थी। कांग्रेस ने शिमला की जगह बेंगलुरु में बैठक बुलाई है।

इस दौरान महाराष्ट्र में एनसीपी के विभाजन, बंगाल के स्थानीय चुनावों में हुई हिंसा, पंजाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ओपी सोनी की गिरफ्तारी और बिहार में राजद के नेता तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल होने से विरोधी-एकता को धक्का भी लगा है, पर इन पार्टियों ने अपने प्रयासों को जारी रखने, बल्कि उसे विस्तार देने का फैसला किया है। पटना में जहाँ 16 पार्टियों को बुलाया गया था (शामिल 15 ही हुई थीं) वहीं बेंगलुरु में 24 दलों को आमंत्रित किया गया है।

इस बैठक में ऐसे दलों को ही न्यौता दिया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से भाजपा की राजनीतिक शैली और विचारधारा के खिलाफ मैदान में खड़े होते हैं। एमडीएमके, फॉरवर्ड ब्लॉक,आरएसपी और आईयूएमएल समेत आठ ऐसे दलों को बेंगलुरु बैठक में निमंत्रण दिया गया है, जिन्हें पटना में विपक्षी एकता की पहली बैठक में नहीं बुलाया गया था।

Tuesday, August 9, 2022

बिहार में एक अध्याय खत्म, दूसरा शुरू


बिहार में भाजपा और जेडीयू का गठबंधन अंततः टूट गया है। नीतीश कुमार ने राज्यपाल फागू चौहान को  मुलाकात करके अपना इस्तीफा सौंप दिया और अब कल वे नई सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे। गवर्नर हाउस से निकल कर वे तेजस्वी यादव के घर पहुँचे। फिर तेजस्वी के साथ दुबारा राज्यपाल से मुलाकात करने गए और 164 विधायकों का समर्थन-पत्र सौंपा। इस प्रकार राज्य में एक राज्नीतिक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हो गया है। कांग्रेस विधायक शकील अहमद खान ने कहा है कि नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री होंगे। सब कुछ तय हो गया है। इसका मतलब है कि इसकी बातचीत कुछ दिन पहले से चल रही थी। 

राजभवन से वापसी के बाद नीतीश और तेजस्वी यादव ने पत्रकारों के साथ बातचीत में विश्वास जताया कि उनका गठबंधन बेहतर काम करेगा। अब कल से नई सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। उसके बाद पता लगेगा कि राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। बीजेपी को ओर से कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई है। केवल इतना कहा गया है कि हमने गठबंधन धर्म का निर्वाह किया, फिर भी नीतीश कुमार ने गठबंधन को तोड़ा है। 

किसे क्या मिलेगा?

हालांकि कहा जा रहा है कि महागठबंधन वैचारिक लड़ाई का हिस्सा है। इसका सरकार बनाने या गिराने से वास्ता नहीं है, पर नई सरकार का गठन होने के पहले ही मीडिया में खबरें चल रही हैं कि किसे कौन सा मंत्रालय मिलेगा। मसलन खबर है कि तेजस्वी यादव ने गृह मंत्रालय की मांग की है। गृह मंत्रालय अभी तक नीतीश के पास है।

अभी तक खामोशी से इंतजार कर रहे बीजेपी के खेमे की खबर है कि पार्टी के कोर ग्रुप की बैठक आज शाम तारकिशोर प्रसाद के आवास पर हुई। अब कुछ समय तक राज्य की राजनीति में नए गठबंधन और नई सरकार से जुड़े मसले हावी रहेंगे। फिलहाल दिलचस्पी का विषय यह है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ क्यों छोड़ा और क्या राजद और कांग्रेस के साथ उनकी ठीक से निभ पाएगी या नहीं।

बिहार का धुँधला परिदृश्य


बिहार का राजनीतिक-परिदृश्य अभी तक अस्पष्ट है। राज्य के ज्यादातर दलों के पास गठबंधनों के इतने अच्छे-बुरे अनुभव हैं कि वे सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं। सत्ता-समीकरण इसबार बदले तो वे काफी दूर तक जाएंगे। नहीं बदले, तो उनमें कुछ बुनियादी बदलाव होंगे। पर सबसे महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि नीतीश कुमार ने परिस्थितियों का आकलन किस प्रकार किया है और बीजेपी की योजना क्या है। राज्य में जो हो रहा है, उसका स्रोत कहाँ है वगैरह

हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि हमारा गठबंधन दुरुस्त है, पर नीतीश कुमार को समझाने उसका कोई वरिष्ठ नेता इसबार पटना नहीं गया है। जो भी बातें हैं, वह या तो फोन पर हो रही हैं या दिल्ली और पटना में बैठे नेताओं के मार्फत। इस प्रसंग से जुड़े ज्यादातर दलों की बैठकें चल रही हैं। सब इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नीतीश कुमार की अगली घोषणा क्या होगी।

जेडीयू ने बीजेपी से अलग होने का साफ संकेत दे दिया है। इस संकेत का मतलब क्या है? क्या यह फौरी तौर पर धमकी है या दृढ़-निश्चय? क्या उन्हें राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर जाने में अपना बेहतर भविष्य दिखाई पड़ रहा है या वे केंद्रीय-मंत्रिमंडल में बेहतर भागीदारी चाहते हैं? क्या बीजेपी के रणनीतिकार नीतीश कुमार की भंगिमाओं को सही पढ़ पा रहे हैं या वे ये वे अंधेरे में हैं? 

Wednesday, November 11, 2020

बीजेपी की रणनीतिक सफलता

बिहार के विधानसभा चुनावों के अलावा कुछ राज्यों के उप चुनावों के परिणामों के रुझान से एक स्पष्ट निष्कर्ष है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने में सफल हुई है। वह भी ऐसे मौके पर जब राज्य में 15 साल की एंटी-इनकंबैंसी है और कोरोना की महामारी ने घेर रखा है। इस सफलता ने उसकी रणनीति को धार प्रदान की है। बिहार में नीतीश के नेतृत्व को नहीं, बीजेपी को सफलता मिली है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम नहीं आए थे, बल्कि बुधवार 11 नवंबर की सुबह तक भी चुनाव आयोग ज्यादातर क्षेत्रों में मतगणना जारी का ही संकेत दे रहा है। अलबत्ता इतना स्पष्ट हो चुका है कि एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। यों मंगलवार की रात राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता ने परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी। शायद वह अपनी हार की पेशबंदी थी। इस चुनाव ने बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता का परिचय जरूर दिया है, साथ ही जेडीयू के साथ उसके कुछ अंतर्विरोधों को भी उभारा है। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा ने अपना नुकसान तो किया ही नीतीश कुमार को भी भारी नुकसान पहुँचाया। उनकी इस रणनीति के रहस्य पर से परदा उठाने की जरूरत है। 

Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Monday, June 17, 2013

अकेली पड़ती भाजपा

इधर जेडीयू ने भाजपा से नाता तोड़ा, उधर कांग्रेस ने चुनाव के लिए अपनी टीम में फेरबदल किया। कांग्रेस ने पिछले साल नवम्बर से चुनाव की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। राहुल गांधी को चुनाव अभियान का प्रमुख बनाया गया। पार्टी के कुशल कार्यकर्ता चुनाव के काम में लगाए जा रहे हैं। इनका चुनाव राहुल गांधी के साथ करीबी रिश्तों को देखकर किया गया है। उधर भाजपा की चुनाव तैयारी आपसी खींचतान के कारण अस्त-व्यस्त है। सबसे बड़ी परेशानी जेडीयू के साथ गठबंधन टूटने के कारण हुई है। इसमें दो राय नहीं कि वह अकेली पड़ती जा रही है।

भाजपा और जेडीयू गठबंधन टूटने के कारणों पर वक्त बर्वाद करने के बजाय अब यह देखने की ज़रूरत है कि इस फैसले का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पिछले हफ्ते ही जेडीयू की ओर से कहा गया था कि मोदी के बारे में फैसला भाजपा का अंदरूनी मामला है। यानी इस बीच कुछ हुआ, जिसने जेडीयू के फैसले का आधार तैयार किया। बहरहाल अब राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी। जेडीयू क्या कांग्रेस के साथ जाएगी? या ममता बनर्जी के संघीय मोर्चे के साथ? या अकेले मैदान में रहेगी? इन सवालों के फौरी जवाब शायद आज मिल जाएं, पर असल जवाब 2014 के परिणाम आने के बाद मिलेंगे। बहरहाल भानुमती का पिटारा खुल रहा है।

Monday, May 20, 2013

पराजय-बोध से ग्रस्त भाजपा




कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है। 

वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की वापसी पार्टी में संभव नहीं है। पर क्या कोई वापसी चाहता है?

उससे बड़ा सवाल है कि भाजपा किस तरह से पार्टी विद अ डिफरेंस नज़र आना चाहती है। उसके पास नया क्या है, जिसके सहारे वोटर का मन जीतना चाहती है? और उसके पास कौन ऐसा नेता है जो उसे चुनाव जिता सकता है?

भाजपा अभी तक कर्नाटक, यूपी और बिहार की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाई है। उसके भीतर कहा जा रहा है कि सन 2008 में जब कर्नाटक में सरकार बन रही थी तब बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं को शामिल कराने का दबाव तो केन्द्रीय नेताओं ने डाला। क्या वे उनकी पृष्ठभूमि नहीं जानते थे? आडवाणी जी कहते हैं कि हमने भ्रष्टाचार में मामले में समझौता नहीं किया, पर क्या उन्होंने रेड्डी बंधुओं के बारे में अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी?

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले साल जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा भी आए थे। पार्टी की भीतरी कलह कुछ नहीं केवल राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का झगड़ा है। और इस वक्त यह झगड़ा नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी की शक्ल ले चुका है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें कुछ कड़वे सवाल हैं। सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर क्या सवाल खत्म हो गए?