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Sunday, August 22, 2010

गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

अकबर इलाहाबादी


तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट[1] सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म[2] में बस यही दास्ताँ[3] है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ[4] है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है
शब्दार्थ:
  1.  गवर्नमेन्ट
  2.  सभा
  3.  कथा
  4.  अतिथि


कविता कोश में पढ़े अकबर इलाहाबादी की कुछ और रचनाएं

Saturday, August 21, 2010

पाँच नगर : प्रतीक- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

दिल्ली
कच्चे रंगों में नफ़ीस
चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया
जिसमें नकली हीरे की अंगूठी
असली दामों के कैश्मेमो में लिपटी हुई रखी है ।

लखनऊ
श्रृंगारदान में पड़ी
एक पुरानी खाली इत्र की शीशी
जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।

बनारस
बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,
जो एक तरफ़ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।

इलाहाबाद
एक छूछी गंगाजली
जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर
और रात में कला के नाम पर
उठायी जाती है ।

बस्ती
गाँव के मेले में किसी
पनवाड़ी की दुकान का शीशा
जिस पर अब इतनी धूल जम गई है
कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।
( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )