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Wednesday, April 19, 2023

विश्वमंच पर ‘शोकेस’ होगा कश्मीर

 


देस-परदेश

श्रीनगर और लेह में जी-20 कार्यक्रमों के आयोजन पर पाकिस्तान की आपत्ति को खारिज करते हुए भारत ने कहा है कि इन दोनों जगह जी-20 कार्यक्रमों का आयोजन स्वाभाविक है, क्योंकि ये भारत के अभिन्न अंग हैं. दूसरी तरफ पाकिस्तान और चीन इन आयोजनों का विरोध कर रहे हैं. कश्मीर को लेकर इन दोनों देशों की वैश्विक-डिप्लोमेसी की धार का पता भी इस दौरान लगेगा. जी-20 देश खामोश हैं और ओआईसी ने भी अभी तक कुछ कहा नहीं है.   

कश्मीर और लद्दाख की इन बैठकों के पहले एक बैठक अरुणाचल की राजधानी ईटानगर में 26 मार्च को हो चुकी है. अब श्रीनगर में 22 से 24 मई तक जी-20 टूरिज्म वर्किंग ग्रुप की बैठक होने वाली है. उसके पहले 26 से 28 अप्रेल तक लेह में यूथ इंगेजमेंट समूह की बैठक होगी. कुल मिलाकर देश के 55 केंद्रों में 215 कार्यक्रम होंगे, पर सारी निगाहें श्रीनगर और लेह पर लगी हैं.  

अटूट अंग

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने पिछले गुरुवार अपने मंत्रालय की ब्रीफिंग के दौरान एक सवाल के जवाब में कहा, जी-20 कार्यक्रम पूरे देश में हो रहे हैं. हर क्षेत्र में इनका आयोजन किया जा रहा है. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में इनका आयोजन बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि वे भारत के अभिन्न अंग हैं. अरुणाचल की बैठक को लेकर चीन की आपत्ति पर उन्होंने कहा कि अरुणाचल भारत का अटूट अंग था, है और रहेगा.

पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने मंगलवार 11 अप्रेल को इन बैठकों के आयोजन पर तीव्र आक्रोश व्यक्त किया था. उन्होंने भारत के इस कदम को गैर-जिम्मेदार बताया और कहा था कि इस तरह से भारत, संरा प्रस्तावों की अनदेखी करते हुए जम्मू-कश्मीर पर अपने अवैध कब्जे को वैध बनाने का प्रयास कर रहा है.

चीन को जवाब

गृहमंत्री अमित शाह सोमवार 10 अप्रैल को दो दिन के दौरे पर अरुणाचल पहुंचे और वहाँ एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, भारत सुई की नोक पर भी अतिक्रमण स्वीकार नहीं करेगा. गृहमंत्री के दौरे को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताते हुए चीन ने धमकी दी थी कि यह दौरा शांति के लिए खतरा पैदा कर सकता है. बीजिंग में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक मीडिया ब्रीफ में दावा किया कि अरुणाचल चीन का हिस्सा है, और वहां भारत के किसी अधिकारी और नेता का दौरा हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है.

Thursday, January 5, 2023

नैनो उर्वरकों की सफलता

 कतरनें

कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है, उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए हैं.

नैनो यूरिया की सफलता के बाद, अब दूसरे सबसे अ​धिक खपत वाले उर्वरक डीएपी (डाई अमोनियम फॉस्फेट) के नैनो संस्करण को जैव सुरक्षा और विषाक्तता परीक्षणों में मंजूरी मिल गई है और इसके साथ ही अगले खरीफ सत्र में इसे खेतों में इस्तेमाल करने की औपचारिक स्वीकृति का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है। ये नवाचारी और स्वदेशी तौर पर विकसित तरल उर्वरक फसलों के जरूरी पोषण के लिए किए जाने वाले आयात और सरकारी स​सब्सिडी के क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने वाले साबित हो सकते हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय, जिसने मेरी जानकारी को बढ़ाया

जम्मू-क्षेत्र में फिर हत्याएं

जेहादियों द्वारा नए साल की सुबह राजौरी के छह निवासियों की हत्या ने, जो कि वर्षों में इस तरह की पहली सामूहिक हत्या है, आशंका जताई है कि जम्मू क्षेत्र में जानलेवा सांप्रदायिक युद्ध फिर से शुरू हो सकता है. तीस साल पहले किश्तवाड़ बस यात्रियों की हत्या ने भी, जो अपनी तरह की पहली घटना थी, इस हफ्ते की साम्प्रदायिक हत्याओं-और उससे पहले हुए कई नरसंहारों की तरह का खाका तैयार किया था. दिप्रिंट में प्रवीण स्वामी का आलेख

अल नस्र से नाता क्यों जोड़ा रोनाल्डो ने?

एक महीने से भी कम वक्त गुज़रा है, जब पुर्तगाल की फ़ुटबॉल टीम के कप्तान क्रिस्टियानो रोनाल्डो क़तर में हो रहे विश्व कप के क्वॉर्टर फ़ाइनल में मोरक्को से 1-0 से हारने के बाद आंखों में आंसू लिए मैदान से बाहर जाते दिखे थे. पुर्तगाल को हराने के बाद मोरक्को वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल तक पहुँचने वाला पहला अफ़्रीकी अरब देश बना था. विश्व कप जीतने का सपना टूटने के कुछ सप्ताह बाद अब पुर्तगाल के कप्तान क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने यूरोपीय फ़ुटबॉल क्लब मैनचेस्टर यूनाइटेड छोड़कर, सऊदी अरब के 'अल-नस्र' से नाता जोड़ लिया है. अल नस्र और रोनाल्डो के बीच हुआ क़रार अब तक का सबसे महंगा सौदा बताया जा रहा है. अल-नस्र 2025 तक हर साल रोनाल्डो को क़रीब 1800 करोड़ रुपये का भुगतान करेगा. सऊदी अरब की टीम रोनाल्डो पर इतना पैसा क्यों बहा रही है इसपर पढ़ें बीबीसीहिंदी की यह रिपोर्ट

 

Saturday, December 10, 2022

हम कैसे वापस ले सकते हैं अपनी खोई ज़मीन?

 देस-परदेस


कश्मीर की पहेली-3

तीन किस्तों के लेख की दूसरी किस्त पढ़ें यहाँ

इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला

इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है कि हम अपनी खोई ज़मीन वापस कैसे लेंगे. सैनिक हस्तक्षेप आसान नहीं है और उससे जुड़े तमाम जोखिम हैं. बैकरूम डिप्लोमेसी अदृश्य होती है, पर कारगर भी होती है. पिछले 75 वर्षों में वैश्विक स्थिति और भारत की भूमिका में बड़ा बदलाव आया है. यह बात समस्या के समाधान में भूमिका निभाएगी.

पश्चिमी देशों को 1947-48 में डर था कि कहीं सोवियत संघ को अरब सागर तक का रास्ता हासिल नहीं हो जाए. अब उन्हें नज़र आ रहा है कि रूस से जिस रास्ते पर कब्जे का डर था, उसे तो चीन ने हथिया चुका है. शीतयुद्ध के कारण पश्चिमी खेमा हमारे खिलाफ था, पर आज हालात बदले हुए हैं.

चीनी पकड़

अगस्त 2010 में अमेरिका के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिसी के डायरेक्टर सैलिग एस हैरिसन का न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा, जिसमें बताया गया था कि पाकिस्तान अपने अधीन कश्मीर में चीनी सेना के लिए जगह बना रहा है. चीन के सात हजार से ग्यारह हजार फौजी वहाँ तैनात हैं. इस इलाके में सड़कें और सुरंगें बन रहीं हैं, जहाँ पाकिस्तानियों का प्रवेश भी प्रतिबंधित है. यह बात इसके बाद भारत के अखबारों में प्रमुखता से छपी.

चीन ने इस इलाके पर अपनी पकड़ बना ली है. समुद्री रास्ते से पाकिस्तान के ग्वादर नौसैनिक बेस तक चीनी पोत आने में 16 से 25 दिन लगते हैं. गिलगित से सड़क बनने पर यह रास्ता सिर्फ 48 घंटे का रह गया है. इसके अलावा रेल लाइन भी बिछाई जा रही है.

अगस्त 2020 की खबर थी कि कंगाली से जूझ रही तत्कालीन इमरान खान सरकार ने पीओके में रेल लाइन बनाने के लिए 6.8 अरब डॉलर (करीब 21 हजार करोड़ भारतीय रुपये) के बजट को मंजूरी दी. यह रेल लाइन सीपैक का हिस्सा है. साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने इस्लामाबाद से शिनजियांग प्रांत के काशगर तक सड़क के एक हिस्से को आम लोगों के लिए खोल दिया है.

दशकों पुरानी परिकल्पना

पाकिस्तान और चीन के बीच आर्थिक गलियारे सीपैक की परिकल्पना 1950 के दशक में ही की गई थी, लेकिन वर्षों तक पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता रहने के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका. बासठ की लड़ाई के एक साल बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर की 5,189 किमी जमीन चीन को सौंप दी.

इस जमीन से होकर चीन के शिनजियांग स्वायत्त क्षेत्र के काशगर शहर से लेकर पाकिस्तान के एबटाबाद तक एक सड़क बनाई गई, जिसे कराकोरम राजमार्ग कहा जाता है. कश्मीर अब सिर्फ भारत और पाकिस्तान के बीच का मसला नहीं है. चीन इसमें तीसरी पार्टी है. और इसीलिए 2019 में उसने 370 के मसले को सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश की.

सिंगापुर से करार तोड़ा

पाकिस्तान ने सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी के साथ 40 साल तक ग्वादर बंदरगाह के प्रबंध का समझौता किया था. यह समझौता अचानक अक्टूबर 2012 में खत्म करके बंदरगाह चीन के हवाले कर दिया गया. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित क्षेत्र में चीन ने सड़क बनाई है, जो उसके शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ती है. यह सड़क ग्वादर तक जाती है.

चीन को अरब सागर तक जाने का जमीनी रास्ता मिल गया है. चीन ने 2014 में इस आर्थिक गलियारे की आधिकारिक रूप से घोषणा की. इसके जरिए चीन ने पाकिस्तान में विभिन्न विकास कार्यों के लिए तब करीब 46 बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की थी.

Thursday, December 8, 2022

इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला

 देस-परदेस

नेहरू, माउंटबेटन के चीफ ऑफ स्टाफ हेस्टिंग इज़्मे, माउंटबेटन और जिन्ना

कश्मीर की पहेली-2

तीन किस्तों के आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

अविभाजित भारत में 562 देशी रजवाड़े थे. कश्मीर भी अंग्रेजी राज के अधीन था, पर उसकी स्थिति एक प्रत्यक्ष उपनिवेश जैसी थी और 15 अगस्त 1947 को वह भी स्वतंत्र हो गया. देशी रजवाड़ों के सामने विकल्प था कि वे भारत को चुनें या पाकिस्तान को.

देश को जिस भारत अधिनियम के तहत स्वतंत्रता मिली थी, उसकी मंशा थी कि कोई भी रियासत स्वतंत्र देश के रूप में न रहे. पर कश्मीर राज के मन में असमंजस था. इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर पर भी अंग्रेज सरकार का आधिपत्य (सुज़रेंटी) समाप्त हो गया.

पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा को कई तरह से मनाने का प्रयास किया कि वे पकिस्तान में विलय को स्वीकार कर लें. स्वतंत्रता के ठीक पहले जुलाई 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें हर तरह की सुविधा दी जाएगी.

स्टैंडस्टिल समझौता

महाराजा ने भारत और पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ की पेशकश की. यानी यथास्थिति बनी रहे. भारत ने इस पेशकश पर कोई फैसला नहीं किया, पर पाकिस्तान ने महाराजा की सरकार के साथ ‘स्टैंडस्टिल समझौता’ कर लिया. इसके बावजूद उसने समझौते का अनुपालन किया नहीं, बल्कि आगे जाकर कश्मीर की नाकेबंदी कर दी और वहाँ पाकिस्तान की ओर से जाने वाली रसद की आपूर्ति रुक गई.

अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान सेना की छत्रछाया में कबायली हमलों के बाद 26 अक्तूबर को महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए. एक दिन बाद दिन भारत के गवर्नर जनरल ने उसे मंजूर भी कर लिया. भारतीय सेना कश्मीर भेजी गई और करीब एक साल तक कश्मीर की लड़ाई चली. भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद नवम्बर में पाकिस्तानी सेना भी आधिकारिक रूप से बाकायदा इस लड़ाई में शामिल हो गई.

इस सिलसिले में कुछ और बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. 1.पुंछ में मुस्लिम आबादी ने बगावत की. 2.गिलगित-बल्तिस्तान में महाराजा की सेना ने बगावत की. सेना में ज्यादातर सैनिक मुसलमान थे और कमांडर अंग्रेज. 3.जम्मू में सांप्रदायिक हिंसा हुई और 4.कश्मीर के अलावा हैदराबाद और जूनागढ़ पर पाकिस्तान की नजरें थी.

Wednesday, December 7, 2022

कैसे और कब होगी पाकिस्तानी कब्जे से ज़मीन की वापसी?

 देस-परदेश

कश्मीर की पहेली-1

पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल सैयद आसिम मुनीर ने पिछले शनिवार को कहा कि हमारी सेना पूरी ताक़त के साथ दुश्मन को जवाब देने के लिए तैयार है. पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष के तौर पर यह सामान्य बयान है, पर यह समझने की जरूरत है कि यह बयान क्यों दिया गया है. उन जटिलताओं को समझना चाहिए, जो जम्मू-कश्मीर विवाद से जुड़ी हैं.

गत 29 नवंबर को नया पद संभालने के बाद जनरल मुनीर पहली बार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के दौरे पर आए थे. वहाँ जाकर उन्होंने कहा कि भारतीय नेतृत्व ने गिलगित-बल्तिस्तान और कश्मीर को लेकर हाल में ग़ैर-जिम्मेदाराना बयान दिए हैं, इसलिए मैं साफ़ करना चाहता हूं कि पाकिस्तान की सेना अपने इलाके के एक-एक इंच की रक्षा करने को तैयार है.

रक्षामंत्री का बयान

पहली नजर में यह बात पाकिस्तानी राजनीति के आंतरिक इस्तेमाल के लिए कही गई है. ऐसे बयान वहाँ से आते ही रहते हैं. यह भी माना जा सकता है कि यह बात हाल में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना की नॉर्दर्न कमांड के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी के बयानों के जवाब में कही गई है.

उन वक्तव्यों से संदेश गया था कि शायद पाक-अधिकृत कश्मीर को वापस लेने के लिए भारत फौजी कार्रवाई करने का विचार कर रहा है. व्यावहारिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं लगता कि भारत का इरादा सैनिक कार्रवाई करने का है.

यूक्रेन-युद्ध से पैदा हुए घटनाचक्र से भी लगता नहीं कि भारत इस समय युद्ध का जोखिम मोल लेना चाहेगा. वह इस समय जी-20 का अध्यक्ष भी है, इसलिए वैश्विक-शांति को भंग करने की तोहमत भी भारत अपने ऊपर नहीं लेना चाहेगा. पर रक्षामंत्री का बयान भी निराधार नहीं है. उसके पीछे दो कारण नजर आते हैं. एक, डिप्लोमैटिक और दूसरा आंतरिक राजनीति से जुड़ा है.

ताकि सनद रहे

भारत इस बात को रेखांकित करना चाहता है कि कश्मीर विवाद का मतलब है, कश्मीर पर पाकिस्तानी कब्जा. हमें वह ज़मीन वापस चाहिए. यह भी लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पीओके की वापसी को भी बीजेपी एक मुद्दा बना सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी. इस प्रक्रिया की सहज परिणति है शेष जमीन की वापसी.

गत 27 अक्टूबर को श्रीनगर में शौर्य दिवस के मौके पर रक्षामंत्री राजनाथ ने कहा था कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है. हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे. जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके के हिस्से वाले गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही हासिल होगा.

Sunday, October 30, 2022

पीओके बनेगा बीजेपी का चुनावी-मुद्दा


रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को जम्मू-कश्मीर में हुए एक कार्यक्रम में कहा कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है। हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से भारत सरकार कश्मीर में स्थितियों को सामान्य बनाने की दिशा में मुस्तैदी से काम कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी। रक्षामंत्री के इस बयान में लोकसभा के अगले चुनाव के एजेंडा को भी पढ़ा जा सकता है। राम मंदिर, नागरिकता कानून, ट्रिपल तलाक, हिजाब, सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर वगैरह के साथ कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा बड़े मुद्दे बनेंगे।  

परिवार पर निशाना

बीजेपी के कश्मीर-प्रसंग को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बरक्स भी देखा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर मसले को अपने तरीके से सुलझाने का प्रयास किया था, जिसके कारण यह मामला काफी पेचीदा हो गया। अब बीजेपी नेहरू की कश्मीर नीति की भी आलोचना कर रही है। गत 10 अक्तूबर को नरेंद्र मोदी ने आणंद की एक रैली में नाम न लेते हुए नेहरू पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद सरदार पटेल ने रियासतों के विलय के सभी मुद्दों को हल कर दिया था लेकिन कश्मीर का जिम्मा 'एक अन्य व्यक्ति' के पास था, इसीलिए वह अनसुलझा रह गया। मोदी ने कहा कि मैं कश्मीर का मुद्दा इसलिए हल कर पाया, क्योंकि मैं सरदार पटेल के नक्शे कदम पर चलता हूँ।

राजनीतिक संदेश

प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और गृहमंत्री के बयानों को जोड़कर पढ़ें, तो मसले का राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट हो जाता है। रक्षामंत्री ने ‘शौर्य दिवस’ कार्यक्रम में कहा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके और गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही पूरा होगा। हमने जम्मू कश्मीर और लद्दाख में विकास की अपनी यात्रा अभी शुरू की है। जब हम गिलगित और बल्तिस्तान तक पहुंच जाएंगे तो हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय सेना 27 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर पहुंचने की घटना की याद में हर साल ‘शौर्य दिवस’ मनाती है। पिछले दो साल से केंद्र सरकार ने 22 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर में काला दिन मनाने की शुरुआत भी की है। 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोला था। पाकिस्तान सरकार हर साल 5 फरवरी को कश्मीर एकजुटता दिवस मनाती है। यह चलन 2004 से शुरू हुआ है। उस दिन देशभर में छुट्टी रहती है। इसका उद्देश्य जनता के मन में कश्मीर के सवाल को सुलगाए रखना है।

राष्ट्रीय संकल्प

भारत सरकार ने ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा करके एक तरह से जवाबी कार्रवाई की थी। पाकिस्तानी लुटेरों ने कश्मीर में भारी लूटमार मचाई थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे। इस हमले से घबराकर कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, जिसके बाद भारत ने अपने सेना कश्मीर भेजी थी। तथाकथित आजाद कश्मीर सरकार, जो पाकिस्तान की प्रत्यक्ष सहायता तथा अपेक्षा से स्थापित हुई, आक्रामक के रूप में पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में कब्जा जमाए बैठी है। भारत ने यह मामला 1 जनवरी, 1948 को ही संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत उठाया था। यह मसला वैश्विक राजनीति की भेंट चढ़ गया। संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव लागू क्यों नहीं हुए, उसकी अलग कहानी है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की वैध संधि की पाकिस्तान अनदेखी करता है। भारत के नजरिए से केवल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) ही नहीं, गिलगित-बल्तिस्तान भी जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है। राजनाथ सिंह ने गिलगित-बल्तिस्तान तक क सवाल को उठाया है, जिसकी अनदेखी होती रही।  

370 की वापसी

तीन साल पहले 5 अगस्त, 2019 को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया था। राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है। पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अब भी अधूरा है। कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो हमें उस हिस्से को भी वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या यह सम्भव है? कैसे हो सकता है यह काम? गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है। इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं।

Friday, August 26, 2022

पाकिस्तान के संकट का क्या हमें फायदा उठाना चाहिए?


भारत और पाकिस्तान ने इस साल एक साथ स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे किए हैं। पर दोनों के तौर-तरीकों में अंतर है। भारत प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है, और पाकिस्तान दुर्दशा के गहरे गड्ढे में गिरता जा रहा है। जुलाई के अंतिम सप्ताह में पाकिस्तान सरकार ने देश चलाने के लिए विदेशियों को संपत्ति बेचने का फैसला किया है। एक अध्यादेश जारी करके सरकार ने सभी प्रक्रियाओं और नियमों को किनारे करते हुए सरकारी संपत्ति को दूसरे देशों को बेचने का प्रावधान किया है। यह फैसला देश के दिवालिया होने के खतरे को टालने के लिए लिया है, पर सच यह है कि पाकिस्तान दिवालिया होने के कगार पर है। अध्यादेश में कहा गया है कि इस फैसले के खिलाफ अदालतें भी सुनवाई नहीं करेंगी।

आर्थिक-संकट के अलावा पाकिस्तान में आंतरिक-संकट भी है। बलूचिस्तान और अफगानिस्तान से लगे पश्तून इलाकों में उसकी सेना पर विद्रोहियों के हमले हो रहे हैं। हाल में 2 अगस्त को बलूचिस्तान में बाढ़ राहत अभियान में तैनात पाकिस्तानी सेना का एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें सवार एक लेफ्टिनेंट जनरल और पांच वरिष्ठ फौजी अफसरों सैन्य अधिकारियों की मौत हो गई। पता नहीं यह दुर्घटना थी या सैबोटाज, पर सच यह है कि इस इलाके में सेना पर लगातार हमले हो रहे हैं।

बलूच स्वतंत्रता-सेनानियों के निशाने पर पाकिस्तान और चीन के सहयोग से चल रहा सीपैक कार्यक्रम है। इससे जुड़े चीनी लोग भी इनके निशाने पर हैं। पंजाब को छोड़ दें, तो देश के सभी सूबों में अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं।  बलूचिस्तान, वजीरिस्तान, गिलगित-बल्तिस्तान और सिंध में अलगाववादी आँधी चल रही है। भारत से गए मुहाजिरों का पाकिस्तान से मोह भंग हो चुका है। वे भी आंदोलनरत हैं।

हम क्या करें?

पाकिस्तान जब संकट से घिरा है, तब हमें क्या करना चाहिए?  जब लोहा गरम हो, तब वार करना चाहिए। तभी वह रास्ते पर आएगा। पाकिस्तान के रुख और रवैये में बदलाव करना है, तो उसपर भीतर और बाहर दोनों तरफ से मार करने की जरूरत है। बेशक हमें गलत तौर-तरीकों पर काम नहीं करना चाहिए, पर लोकतांत्रिक और मानवाधिकार से जुड़े आंदोलनों को समर्थन जरूर देना चाहिए।  

क्या हम पाकिस्तानी कब्जे से कश्मीर को मुक्त करा पाएंगे?  गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है।

15 अगस्त, 2016 को लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित और बलूचिस्तान के बिगड़ते हालात का और वहाँ के लोगों की हमदर्दी का जिक्र किया। उन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मामला भी उठाया। उनकी बात से बलूचिस्तान के लोगों के मन में उत्साह बढ़ा था। यह पहला मौका था जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इस तरह खुले-आम बलूचिस्तान का ज़िक्र किया था। इसपर स्विट्ज़रलैंड में रह रहे बलूच विद्रोही नेता ब्रह्मदाग़ बुग्ती ने कहा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे बारे में बात कर हमारी मुहिम को बहुत मदद पहुंचाई है।

पाकिस्तानी तिकड़म

इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान ने तिकड़म करके कश्मीर और बलूचिस्तान पर कब्जा किया है। 1947 में बलूचिस्तान और पश्तूनिस्तान भी पाकिस्तान से जुड़ना नहीं चाहते थे। भारतीय उपमहाद्वीप से अंग्रेजी शासन की वापसी के दौरान, बलूचिस्तान को दूसरी देसी रियासतों की तरह भारत में शामिल होने, पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। उस दौर के इतिहास को पढ़ें तो पाएंगे कि भारत के तत्कालीन नेतृत्व ने इस इलाके की उपेक्षा की, जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि पाकिस्तान के हौसले बढ़ते गए।

Sunday, March 20, 2022

‘कश्मीर फाइल्स’ में छिपे संदेश


इतिहास की विसंगतियाँ, विडंबनाएं और कटुताएं केवल किताबों में ही नहीं रहतीं। वे लोक-साहित्य, संगीत और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में भी संचित होती हैं। यह सामाजिक जिम्मेदारी है कि वह उनसे सबक सीखकर एक बेहतर समाज बनाने की ओर आगे बढ़े, पर अतीत की अनुगूँज को नकारा नहीं जा सकता। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने राष्ट्रीय-बहस के जो दरवाजे खोले हैं, उसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोनों हैं। इस फिल्म में अतीत की भयावहता के कुछ प्रसंग हैं, जो हमें विचलित करते हैं। पर इससे जुड़े कुछ सवाल हैं, जिनसे फिल्म की उपादेयता या निरर्थकता साबित होगी।

क्या यह झूठ है?

क्या हम इन घटनाओं से अपरिचित थे? फिल्म में जो दिखाया गया है, क्या वह झूठ या अतिरंजित है? जब यह हो रहा था, तब देश क्या कर रहा था? इस उत्पीड़न को क्या नाम देंगे? नरमेध, जनसंहार या मामूली हिंसा, जो इन परिस्थितियों में हो जाती है? उनके पलायन को क्या कहेंगे, जगमोहन की साजिश, पंडितों का प्रवास या एक कौम का जातीय सफाया ‘एथिनिक क्लींजिंग’? फिल्म को लेकर कई तरह का प्रतिक्रियाएं हैं, जिनके मंतव्यों को भी पढ़ना होगा। देखना होगा कि फिल्म को बनाने के पीछे इरादा क्या है। अलबत्ता इस मामले को देश की राजनीति के चश्मे से देखने पर हम मूल विषय से भटक जाएंगे। मसलन कहा जाता है कि दिल्ली में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की जो सरकार थी, उसे भारतीय जनता पार्टी का समर्थन प्राप्त था। समर्थन तो वाम मोर्चा का भी प्राप्त था। इससे साबित क्या हुआ? पंडितों की हत्याएं इस सरकार के आगमन के पहले से चल रही थीं और उनका पलायन इस सरकार के गिरने के बाद भी जारी रहा। कश्मीर में जेहादियों का असर बढ़ने के कारणों को हमें कहीं और खोजना होगा।

बहरहाल फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल है, क्योंकि उसे जनता का समर्थन मिला है। पर जैसे नारे सिनेमाघरों में सुनाई पड़ रहे हैं, क्या वे चिंता का विषय नहीं हैंदूसरी तरफ कश्मीरी पंडितों की बदहाली के लिए भारत के मुसलमान दोषी नहीं हैं। सच यह भी है कि इस फिल्म के बनने के साथ ही इसका विरोध शुरू हो गया था। यह सफलता इसके विरोध की प्रतिक्रिया को भी दर्शा रही है। हमारी कथित प्रगतिशील राजनीति जमीनी सच्चाई को देख पाती, तो बहुत सी घटनाएं होती ही नहीं। सवाल है कि यह फिल्म नफरत फैला रही है या इसके पीछे राष्ट्रवादी चेतना की अभिव्यक्ति है? इसका जवाब बरसों बाद मिलेगा।

झकझोरने वाली फिल्म

तमाम सवाल हैं और उनके संतुलित, वस्तुनिष्ठ और ईमानदार जवाब देना बहुत कठिन काम है। फिल्म न तो पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री है और न काल्पनिक कथाचित्र। इस पृष्ठभूमि पर पहले भी फिल्में आईं हैं, पर ज्यादातर में भयावहता और कटुता से बचने की कोशिश की गई है, पर इस फिल्म का ट्रीटमेंट फर्क है। यह भी नैरेटिव है, जो काफी लोगों को विचलित कर रहा है। इसे पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री के रूप में नहीं बनाया गया है, बल्कि एक कहानी बुनी गई है, जिसके साथ वास्तविक प्रसंगों को जोड़ा गया है। शिल्प और कला की दृष्टि से फिल्म कैसी बनी है, यह एक अलग विषय है, पर इसमें दो राय नहीं कि इसने काफी बड़े तबके को झकझोर कर रख दिया है।

राजनीतिक उद्देश्य?

क्या इसे राजनीतिक इरादे से बनाया गया है? फिल्म 11 मार्च, 2022 को रिलीज हुई। पाँच राज्यों में चुनाव परिणाम आने के बाद। अब कहा जा रहा है कि इसका लक्ष्य गुजरात के चुनाव हैं। इतना तय है कि इस फिल्म का सामाजिक जीवन पर भारी असर होगा, जो सिनेमाघरों में दिखाई पड़ रहा है। कश्मीर का मसला मोदी सरकार बनने के बाद खड़ा नहीं हुआ है। ‘कश्मीर फाइल्स’ को बनाने के पीछे राजनीति है, तो उसके विरोध के पीछे भी राजनीति है। आप वक्तव्यों को पढ़ें। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मुस्तफा कमाल ने शुक्रवार को कहा कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ, वह उनकी अपनी मर्जी से हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला उसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। राज्य में जगमोहन की सरकार थी। फारूक अब्दुल्ला वास्तव में जिम्मेदार नहीं थे, पर इसे जगमोहन की योजना बताना भी गलत है। पंडितों की हत्याएं जगमोहन के आने के काफी पहले से शुरू हो गईं थीं। दूसरे उनके राज्यपाल बनने के अगले दिन से ही भारी पलायन शुरू हो गया। इसके पीछे पाकिस्तान-समर्थित जेहादी ग्रुप थे, जो आज भी वहाँ सक्रिय हैं। कौन छोड़ता है अपना घर? यह कोई एक-दो दिन या एक-दो साल का घटनाक्रम नहीं था।

Tuesday, October 19, 2021

कश्मीर में आतंकियों की नई रणनीति का उद्देश्य है हालात को सामान्य बनने से रोकना

 


जम्मू-कश्मीर में अक्तूबर के महीने में आतंकी घटनाओं ने रफ्तार पकड़ ली है। इस माह के पहले 18 दिनों में आतंकियों की तरफ से काफी नुकसान किया गया है। अभी तक इस माह में आतंकियों की तरफ से 12 नागरिकों की हत्या की गई है, जिसमें बाहर के नागरिक भी शामिल हैं। इसके अलावा नौ जवान मुठभेड़ों में शहीद हुए हैं। इनके अलावा कुल 13 मुठभेड़ों में 14 आतंकियों को मार गिराया गया है। इन आतंकी घटनाओं को देखते हुए पूरे प्रदेश में सुरक्षा को कड़ा किया गया है। जाँच एजेंसियाँ इस बात की पड़ताल भी कर रही हैं कि पाकिस्तानी आईएसआई क्या इस्लामिक स्टेट खुरासान की आड़ में अपनी गतिविधियों को बढ़ाने का प्रयास तो नहीं कर रही है। आईएसकेपी की पत्रिका में एक गोलगप्पे वाले को गोली मारने की तस्वीर प्रकाशित की गई है। हाल में राज्य में बाहर से आए लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। प्रशासन ने एहतियातन कश्मीर के कुछ इलाकों में इंटरनेट पर फिर से रोक लगा दी है।

जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की नई रणनीति का उद्देश्य राज्य में सामान्य होते हालात की प्रतिक्रिया और फिर से अशांति और अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश है। राज्य में औद्योगिक गतिविधियों को तेज करने और कई श्रेणियों के नागरिकों को राज्य का स्थायी निवासी घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है। इससे न केवल उन्हें, बल्कि राज्य के लोगों को रोजगार हासिल करने में आसानी होगी। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी एनआईए का कहना है कि आतंकवादी इसे विफल करना चाहते हैं।  

आतंकवादियों के इस इरादे की जानकारी एक ब्लॉग पोस्ट से मिली है, जिसे अब ब्लॉक कर दिया गया है। इस पोस्ट में बताया गया था कि जम्मू-कश्मीर में अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने और राज्य के विभाजन के बाद आतंकवादियों क्या करेंगे। इस ब्लॉग पोस्ट को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के आदेशों के बाद ब्लॉक कर दिया गया है।

Wednesday, October 13, 2021

क्या हम पीओके वापस ले सकते हैं?


दो साल पहले 5 अगस्त, 2019 को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया। राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है। पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अब भी अधूरा है। कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो हमें उस हिस्से को भी वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या यह सम्भव है? कैसे हो सकता है यह काम?

गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है।

इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं। गृहमंत्री के इस बयान के पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सितम्बर 2019 में एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में कहा ता कि पाकिस्तान के कब्जे में जो कश्मीर है, वह भारत का हिस्सा है और हमें उम्मीद है कि एक दिन इस पर हमारा अधिकार हो जाएगा।

इन दोनों बयानों के बाद जनवरी 2020 में भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने सेना दिवस के पहले एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि यदि देश की संसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का आदेश देगी तो हम कारवाई कर सकते है। ‌उन्होंने कहा, संसद इस बारे में प्रस्ताव पास कर चुकी है कि पीओके भारत का अभिन्न अंग है‌‌। इन बयानों के पीछे क्या कोई संजीदा सोच-विचार था? क्या भविष्य में हम कश्मीर को भारत के अटूट अंग के रूप में देख पाएंगे?

संसद का प्रस्ताव

इस सिलसिले में भारतीय संसद के एक प्रस्ताव का उल्लेख करना भी जरूरी है। हमारी संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा संकल्प में कहा गया, जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है, और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक साधन के द्वारा विरोध किया जाएगा। प्रस्ताव में कहा गया कि पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को खाली करे।

Sunday, October 10, 2021

कश्मीरी हिंसा के पीछे कौन?


पिछले कुछ दिनों में कश्मीर घाटी में हुई आतंकी-हिंसा में हिंदुओं और सिखों की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर का माहौल फिर से तनावपूर्ण हो गया है। स्थानीय लोगों के मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं, वहीं शेष भारत में सवाल पूछा जा रहा है कि राज्य के हालात क्या फिर से 90 के दशक जैसे होने वाले हैं? क्या घाटी से बचे-खुचे पंडितों और सिखों का पलायन शुरू हो जाएगा? क्या यह हिंसा पाकिस्तान-निर्देशित है? क्या आतंकवादियों की यह कोई रणनीति है? इस हिंसा के पीछे द रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) नामक नई संस्था है, जिसके पीछे पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का हाथ है। इस साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की थीं। अब अक्तूबर में पाँच दिन के भीतर सात लोगों के मारे जाने की खबरें हैं।

सॉफ्ट टार्गेट

नई बात यह है कि ये हमले मासूम नागरिकों पर हुए हैं। हाल के वर्षों में आतंकवादी ज्यादातर सुरक्षाबलों पर हमले कर रहे थे। हमलों के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे, पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। ऐसा ही वे नब्बे के दशक में कर रहे थे, जिसके कारण घाटी से पंडितों का पलायन हुआ था। हालांकि छत्तीसिंहपुरा की हिंसा को छोड़ दें, तो सिखों पर अपेक्षाकृत कम हमले हुए हैं। 20 मार्च, 2000 की रात को छत्तीसिंहपुरा में 40-50 आतंकियों ने इस गाँव पर हमला करके 35 सिखों की हत्या की थी। महत्वपूर्ण यह है कि ये ‘टार्गेटेड किलिंग्स’ हैं। ऐसा नहीं है कि भीड़ को निशाना बनाया गया है, बल्कि सोच-समझकर हत्या की गई है। इसका मतलब है कि कोई सोच इसके पीछे काम कर रहा है।

क्या यह माना जाए कि आतंकवादी परास्त हो रहे हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं, जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं? जनता के बीच घुसकर कार्रवाई करने के लिए मामूली तमंचों और चाकुओं से काम चल जाता है। हत्यारे अपनी कार्रवाई करके भागने में सफल हो जाते हैं। यह रणनीति क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की भी जरूरत है। क्या वे दहशत फैलाना चाहते हैं, ताकि अल्पसंख्यक कश्मीर छोड़कर भागें और कानूनी-व्यवस्था में बदलाव के कारण जो नए लोग इस इलाके में बसना चाहें, तो वे अपना इरादा बदलें?

सम्पत्ति की बंदरबाँट

कश्मीर से पंडितों के पलायन के बाद उनकी सम्पत्ति पर कब्जे को लेकर बंदरबाँट भी एक कारण हो सकता है। हाल में सरकार ने कश्मीरी पंडितों की क़ब्ज़ा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की कवायद शुरू की थी। अब तक ऐसे लगभग 1,000 मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को वापस उनके असली मालिक के हवाले कर दिया गया। हिंसा के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है। इन सब बातों के अलावा ये घटनाएं 'बड़ी सुरक्षा चूक' भी हैं। जहाँ-जहाँ वारदात हुई, वहाँ से कुछ ही मीटर की दूरी पर या तो सुरक्षा बलों के शिविर थे या एसएसपी का कार्यालय। सुरक्षा एजेंसियों ने 21 सितंबर को ही अलर्ट जारी किया था और बड़े हमले की आशंका जताई थी। हमारी खुफिया-व्यवस्था को अब ज्यादा जागरूक होकर काम करना होगा, क्योंकि हत्यारे छिपने के लिए जगह तलाशते हैं। यदि जनता के बीच पुलिस की पैठ हो, तो उनका पता लगाना आसान होता है।

सौहार्द पर निशाना

इन हत्याओं से केवल कश्मीर में ही नहीं, शेष भारत में भी साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ता है। इसीलिए लगता है कि इसके पीछे पाकिस्तान में बैठे आकाओं की कोई योजना काम कर रही है। टीआरएफ नाम के नए समूह का नाम अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से ही सुनाई पड़ा है। टीआरएफ ने गत 2 अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी ली थी। फिर मंगलवार 5 अक्तूबर को तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर दी। पहले इकबाल पार्क क्षेत्र में श्रीनगर की प्रसिद्ध फार्मेसी के मालिक माखनलाल बिंदरू की, फिर लाल बाजार क्षेत्र में गोलगप्पे बेचने वाले वीरेंद्र पासवान की और इसके बाद बांदीपुरा के शाहगुंड इलाके में एक नागरिक मोहम्मद शफी लोन की हत्या की गई।

Friday, October 8, 2021

कश्मीर में हत्याओं के पीछे क्या है आतंकवादियों की रणनीति?

 

माखन लाल बिंदरू

जम्मू-कश्मीर में हाल में हुई नागरिकों की हत्याओं से कुछ सवाल खड़े होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में आतंकवादियों के ज्यादातर हमले सुरक्षाबलों पर होते थे। इन हमलों के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे, पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। इसका एक अर्थ है कि आतंकवादी परास्त हो रहे हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं, जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं। इसके अलावा यह भी समझ में आता है कि पाकिस्तान से इनके लिए कुछ नए संदेश प्राप्त हो रहे हैं।

यह रणनीति क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की जरूरत है। अलबत्ता पाक-परस्त द रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी ली है। जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों का मानना है कि TRF लश्कर-ए-तैयबा का ही एक फ्रंट है जिसे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को स्थानीय कश्मीरियों का मूवमेंट बताकर प्रोजेक्ट करने के लिए खड़ा किया है। ऐसे में पाकिस्तान की मंशा साफ समझी जा सकती है। इस साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की हैं।

टीआरएफ ने गत 2 अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी ली थी। इस तरह पाँच दिन में सात नागरिकों की हत्याएं हुई हैं। बिंदरू की हत्या के बाद जारी बयान में टीआरएफ ने कहा कि बिंदरू दवाइयों के धंधे की आड़ में काम कर रहा था और दूसरी तरफ आरएसएस की सहायता से सीक्रेट सेमिनारों को चलाता था। उसने यह सब बन्द करने से इनकार कर दिया था।

शिक्षकों की हत्या

मंगलवार को आतंकवादियों ने तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर दी। इसके बाद गुरुवार को श्रीनगर के ईदगाह इलाके में आतंकवादियों ने एक सरकारी विद्यालय के दो शिक्षकों की गोली मार कर हत्या कर दी। इनमें एक महिला विद्यालय की प्रधानाचार्य थी। मृतकों में स्कूल की प्रिंसिपल सुपिन्दर कौर और कश्मीरी पंडित शिक्षक दीपक चंद शामिल हैं।

इन हत्याओं के बाद कश्मीर में अल्पसंख्यक हिन्दू और सिख समुदायों के बीच भय का माहौल है। जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) दिलबाग सिंह ने कहा कि इन हत्याओं के पीछे के लोगों का जल्द ही परदाफाश किया जाएगा। कायरता के यह कृत्य कश्मीर घाटी में सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारे को नुकसान पहुंचाने का एक प्रयास है।

Sunday, June 27, 2021

कश्मीर से सकारात्मक-संदेश


इस हफ्ते 24 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कश्मीरी नेताओं की वार्ता ने न केवल जम्मू-कश्मीर में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता की सम्भावनाओं का द्वार खोला है। इस बातचीत के सही परिणाम मिलेंगे या नहीं, यह भी कहना मुश्किल है, पर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के शब्दों में यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रिया की प्रक्रिया शुरू होने के साथ दूसरी प्रक्रियाएं शुरू होंगी, जिनसे हालात को सामान्य बनाने का मौका मिलेगा। इनमें सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियाँ शामिल हैं।

पहले परिसीमन

सरकार ने जो रोडमैप दिया है उसके अनुसार राज्य में पहले परिसीमन, फिर चुनाव और उसके बाद पूर्ण राज्य का दर्जा देने की प्रक्रिया होगी। पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि राज्य में परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद चुनाव होंगे। उसके पहले अगस्त 2019 में गृहमंत्री अमित साह ने संसद में कहा था कि समय आने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा। वस्तुतः यह कश्मीर के नव-निर्माण की प्रक्रिया है।

सन 2019 में संसद से जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद मार्च 2020 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग को रिपोर्ट सौंपने के लिए एक साल का समय दिया गया था, जिसे इस साल मार्च में एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है। 6 मार्च, 2020 को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में आयोग का गठन किया था।

प्रधानमंत्री के साथ बातचीत का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि पूरी बातचीत में बदमज़गी पैदा नहीं हुई। बैठक में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे थे, जो 221 दिन से 436 दिन तक कैद में रहे। उनके मन में कड़वाहट जरूर होगी। वह कड़वाहट इस बैठक में दिखाई नहीं पड़ी। बेशक बर्फ पिघली जरूर है, पर आगे का रास्ता आसान नहीं है।