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Friday, December 10, 2021

किसान-आंदोलन के बाद अब क्या होगा?


करीब 14 महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा की है। अब देखना होगा कि यह विषय राष्ट्रीय-विमर्श का विषय रहता है नहीं। किसान इसे अपनी विजय मान सकते हैं, पर सरकार को इसे अपनी पराजय नहीं मानना चाहिए। अभी तक कोई भी निर्णायक फैसला नहीं हुआ है, केवल वे तीन कानून वापस हुए हैं, जिन्हें सरकार लाई थी। इन कानूनों की प्रासंगिकता और निरर्थकता को लेकर अब विचार होना चाहिए।

कृषि-सुधार पर विमर्श

अभी इस विषय पर चर्चा नहीं हुई है कि सरकार कानून लाई ही क्यों थी। क्या भारतीय कृषि में सुधार की जरूरत है? सुधार किस प्रकार का हो और कैसे होगा? देश की राजनीतिक व्यवस्था और खासतौर से लोकलुभावन राजनीति ने कर्जों की माफी, सब्सिडी, मुफ्त बिजली, एमएसपी वगैरह को कृषि-सुधार मान लिया है। इन सारे प्रश्नों पर भी विचार की जरूरत है। सरकार ने भी कुछ छोटी-मोटी कोशिशों के अलावा इस विषय पर ज्यादा विमर्श की कोशिश नहीं की।

इस विमर्श में किसान-संगठनों को शामिल करना उपयोगी और जरूरी है। यह विमर्श पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ देशभर के किसानों के साथ देश के सभी क्षेत्रों के किसानों के साथ होना चाहिए। उनके दीर्घकालीन हितों पर भी विचार होना चाहिए, साथ ही अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन प्रश्नों पर उन्हें भी विचार करना चाहिए। यह केवल किसानों या केवल खेती का मामला नहीं है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था का मामला है। इसके साथ ग्रामीण-अर्थव्यवस्था के सवाल जुड़े हैं।

जब हम किसान की बात करते हैं, तब सारे मामले बड़ी जोत वाले भूस्वामियों तक सिमट जाते हैं। गाँवों में भूस्वामियों की तुलना में भूमिहीन खेत-मजदूरों का तादाद कई गुना ज्यादा है। उन्हें काम देने के बारे में भी विचार होना चाहिए।

15 जनवरी को समीक्षा

संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बार्डर पर अहम बैठक के बाद किसान आंदोलन का स्थगित करने का ऐलान किया। इसके साथ यह भी कहा गया है कि 15 जनवरी को मोर्चा की समीक्षा बैठक होगी। यदि केंद्र सरकार ने बातें नहीं मानीं तो आंदोलन फिर शुरू होगा। ऐसा इशारा भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की ओर से किया गया है। गुरनाम सिंह चढूनी ने भी कहा कि हम इस आंदोलन के दौरान सरकार से हुए करार की समीक्षा करते रहेंगे। यदि सरकार अपनी ओर से किए वादों से पीछे हटती है तो फिर से आंदोलन शुरू किया जा सकता है। इस आंदोलन ने सरकार को झुकाया है।

दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बार्डर (कुंडली बार्डर) शंभु बार्डर तक जुलूस के रूप में किसान प्रदर्शनकारी जाएंगे। इसके बीच में करनाल में पड़ाव हो सकता है। प्रदर्शनकारियों की वापसी के दौरान हरियाणा के किसान पंजाब जाने वाले किसानों पर जगह-जगह पुष्प वर्षा करेंगे। इसके बाद 13 दिसंबर को किसान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अरदास करेंगे और अपने घरों को चले जाएंगे।  

Wednesday, January 13, 2021

किसान आंदोलन का हल क्या है?

 

कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनमें से ज्यादातर ने अदालत के हस्तक्षेप पर आपत्ति व्यक्त की है। अदालत के रुख से लगता है कि वह सांविधानिक समीक्षा के बजाय राजनीतिक मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहती है, जो अटपटा लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे अदालत ने पहले रोज सरकार को फटकार लगाकर किसानों को भरोसे में लेने की कोशिश की और फिर अपने पुराने सुझाव को लागू कर दिया। अदालत ने पिछले महीने सरकार को सलाह दी थी कि आप इन कानूनों को कुछ समय के लिए स्थगित क्यों नहीं कर देते? अनुमान यही है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए अदालत का सहारा लिया है।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि यह सांविधानिक कोर्ट है, जो सांविधानिक सवालों पर फैसले नहीं सुनाती, बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक मसलों में पैर अड़ा रही है। खेती से जुड़े मसले जटिल हैं, पर आप इस मामले में किसी भी तरफ हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि किस न्यायिक आधार पर अदालत ने इन कानूनों को स्थगित कर दिया है।

Sunday, December 13, 2020

किसान आंदोलन : गतिरोध टूटना चाहिए

किसान आंदोलन से जुड़ा गतिरोध टूटने का नाम नहीं ले रहा है। सरकार और किसान दोनों अपनी बात पर अड़े हैं। सहमति बनाने की जिम्मेदारी दोनों की है। जब आप आमने-सामने बैठकर बात करते हैं, गतिरोध तभी टूटता है पर कई दौर की वार्ता के बाद भी बात वहीं की वहीं है। किसानों का कहना है कि बात तो करने को हम तैयार हैं, पर पहले आप तीन कानूनों को वापस लें। उन्होंने अपने आंदोलन का विस्तार करने की घोषणा की है, जिसमें हाइवे जाम करना, रेलगाड़ियों को रोकना और टोल प्लाजा पर कब्जा करने का कार्यक्रम भी शामिल है। फिलहाल किसानों का तांता लगा हुआ है, एक वापस जाता है, तो दस नए आते हैं।

केंद्र सरकार ने किसानों को लिखित रूप से देने का आश्वासन किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। सरकार ने कानून में बदलाव की पेशकश की है, ताकि सरकारी और प्राइवेट मंडियों के बीच समानता रहे। बाहर से आने वाले व्यापारियों पर भी शुल्क लगाने की बात मान ली गई है। व्यापारियों का पंजीकरण होगा और विवाद खड़े होने पर अदालत जाने का अवसर रहेगा। पर किसानों की एक ही माँग है कि तीनों कानूनों को वापस लो।

Friday, December 11, 2020

किसान आंदोलन में लहराते पोस्टर

 


दिल्ली के आसपास चल रहे किसान आंदोलन के दौरान 10 दिसंबर की एक तस्वीर मीडिया में (खासतौर से सोशल मीडिया में) प्रसारित हुई है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 10 दिसंबर को हर साल संयुक्त राष्ट्र की ओर से सार्वभौमिक मानवाधिकार दिवसमनाया जाता है। इस मौके पर किसी किसान संगठन की ओर से देश के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की तस्वीरों के पोस्टर आंदोलनकारियों ने हाथ में उठाकर प्रदर्शन किया। इन तस्वीरों में गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवर राव, अरुण फरेरा, आनन्द तेलतुम्बडे के साथ-साथ पिंजरा तोड़ के सदस्य नताशा नरवाल और देवांगना कलीता वगैरह की तस्वीरें शामिल थीं। इनमें जेएनयू के छात्र शरजील इमाम और पूर्व छात्र उमर खालिद की तस्वीरें भी थीं। ये सभी लोग अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (यूएपीए) के अंतर्गत जेलों में बंद हैं।    

इस समय आंदोलन का सबसे बड़ा केंद्र सिंघु बॉर्डर है और पिछले दो हफ्ते से काफी आंदोलनकारी टिकरी सीमा पर भी बैठे हैं। जो तस्वीरें सामने आई हैं, वे टिकरी बॉर्डर की हैं। आंदोलन के आयोजक शुरू से कहते रहे हैं कि इसमें केवल किसानों के कल्याण से जुड़े मसले ही उठाए जाएंगे, राजनीतिक प्रश्नों को नहीं उठाया जाएगा।

बहरहाल जोगिंदर सिंह उगराहां के नेतृत्व में बीकेयू (उगराहां) से जुड़े लोगों ने इन पोस्टरों का प्रदर्शन किया था। उगराहां का कहना है कि जेलों में बंद लोगों के पक्ष में आवाज उठाना राजनीति नहीं है। जो लोग जेलों में बंद हैं, वे हाशिए के लोगों की आवाज उठाते रहे हैं। हम भी आपके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जिन्हें सरकार ने छीन लिया है। यह राजनीति नहीं है।

Monday, December 24, 2018

राजनीतिक अखाड़े में कर्ज-माफी

इस बारे में दो राय नहीं हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दशा खराब है, यह भी सच है कि बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है, पर यह भी सच है कि इन समस्याओं का कोई जादुई समाधान किसी ने पेश नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि इस संकट के कारण कई तरह के हैं। खेती के संसाधन महंगे हुए हैं, फसल के दाम सही नहीं मिलते, विपणन, भंडारण, परिवहन जैसी तमाम समस्याएं हैं। मौसम की मार हो तो किसान का मददगार कोई नहीं, सिंचाई के लिए पानी नहीं, बीज और खाद की जरूरत पूरी नहीं होती।

नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद से खासतौर से समस्या बढ़ी है। अचानक नीतियों में बदलाव आया। कई तरह की सब्सिडी खत्म हुई, विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, खेती पर न तो पर्याप्त पूँजी निवेश हुआ और तेज तकनीकी रूपांतरण। वामपंथी अर्थशास्त्री सारा देश वैश्वीकरण के मत्थे मारते हैं, वहीं वैश्वीकरण समर्थक मानते हैं कि देश में आर्थिक सुधार का काम अधूरा है। देश का तीन चौथाई इलाका खेती से जुड़ा हुआ था। स्वाभाविक रूप से इन बातों से ग्रामीण जीवन प्रभावित हुआ। राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में अचानक खेती की हिस्सेदारी कम होने लगी। ऐसे में किसानों की आत्महत्या की खबरें मिलने लगीं। 

Saturday, December 22, 2018

कर्ज-माफी का राजनीतिक जादू

उत्तर भारत के तीन राज्यों में बनी कांग्रेस सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणाएं की हैं। उधर भाजपा शासित गुजरात में 6.22 लाख बकाएदारों के बिजली-बिल और असम में आठ लाख किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब और कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए। अचानक ऐसा लग रहा है कि कर्ज-माफी ही किसानों की समस्या का समाधान है। गुजरात और असम सरकार के फैसलों के जवाब में राहुल गांधी ने ट्वीट किया कि कांग्रेस गुजरात और असम के मुख्यमंत्रियों को गहरी नींद से जगाने में कामयाब रही है, लेकिन प्रधानमंत्री अभी भी सो रहे हैं। हम उन्हें भी जगाएंगे।
मोदीजी भी सोए नहीं हैं, पहले से जागे हुए हैं। उनकी पार्टी ने घोषणा की है कि यदि हम ओडिशा में सत्ता में आए तो किसानों का कर्ज माफ कर देंगे। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एक तरफ उनके नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा है कि कृषि-क्षेत्र की बदहाली का इलाज कर्ज-माफी नहीं है, वहीं उनकी पार्टी कर्ज-माफी के हथियार का इस्तेमाल राजनीतिक मैदान में कर रही है।

Sunday, June 18, 2017

किसानों की बदहाली पर राजनीति

हाल में मंदसौर में हुए गोलीकांड के बाद ऐसा लग रहा है कि देश का किसान असंतुष्ट ही नहीं, बुरी तरह नाराज है। मंदसौर में जली हुई बसों की टीवी फुटेज को देखकर लगता है कि हाल में ऐसा कुछ हुआ है, जिसके कारण उसकी नाराजगी बढ़ी है। हाल में दो साल लगातार मॉनसून फेल होने के बावजूद किसान हिंसक नहीं हुआ। अब लगातार दो साल बेहतर अन्न उत्पादन के बावजूद वह इतना नाराज क्यों हो गया कि हिंसा की नौबत आ गई? किसानों की समस्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। पर कम से कम मंदसौर में किसान आंदोलन की राजनीतिक प्रकृति भी उजागर हुई है।

इसमें दो राय नहीं कि खेती-किसानी घाटे का सौदा बन चुकी है। उन्हें अपने उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता। खेती से जुड़ी सामग्री खाद, कीटनाशक, सिंचाई और उपकरण महंगे हो गए हैं। कृषि ऋणों का बोझ बढ़ रहा है। प्राकृतिक आपदा के कारण नष्ट हुई खेती का न तो बीमा है और न सरकारी मुआवजे की बेहतर व्यवस्था। पर ये समस्याएं अलग-अलग वर्ग के किसानों की अलग-अलग हैं। इनपर राजनीतिक रंग चढ़ जाने के बाद समाधान मुश्किल हो जाएगा।