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Friday, December 24, 2021

पत्रकारिता के नाम ममता बनर्जी का यह कैसा संदेश है?


पश्चिम बंगाल सरकार और पत्रकारों के रिश्तों से जुड़ी दो खबरें हाल में पढ़ने को मिलीं। दोनों हालांकि दो विपरीत दिशाओं में थीं, पर दोनों के पीछे इरादा एक ही नज़र आ रहा था। सत्ताधारी की तारीफ करोगे तो वह आपको खुशी देगा, नहीं करोगे तो वह आपको खुश नहीं रहने देगा। सिद्धांत तो यह कहता है कि पत्रकार की जिम्मेदारी तथ्यों के आधार पर समाचार और विचारों को प्रकाशित करने की होती है। विज्ञापन पाना या प्रचार करना उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ विचार और अभिव्यक्ति की मर्यादा को बनाए रखने के लिए उसकी जिम्मेदारियाँ भी हैं, जो उसे सकारात्मकता से जोड़ती हैं। जरूरी होने पर ताकतवर से भिड़ने का साहस भी रखता है। दूसरी तरफ राजनीति और सत्ता की सैद्धांतिक-मर्यादा कहती है कि राज-शक्ति का इस्तेमाल न तो वैचारिक दमन के लिए हो और न प्रचार को
खरीदने के लिए।

सेवा करो, मेवा पाओ

हाल में ममता बनर्जी का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वे कह रही हैं कि अखबारों को विज्ञापन चाहिए, तो सकारात्मक खबरें लिखें। सकारात्मक का मतलब है सरकार के पक्ष में। यह बात उन्होंने छिपाकर नहीं, एक सम्मेलन में खुलेआम कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि स्थानीय अखबारों को विज्ञापन हासिल करने हैं, तो ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में पॉजिटिव खबरों वाली प्रतियाँ जमा करें। फिर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे। सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का अर्थ बहुत व्यापक है। किसी भी सकारात्मक सूचना को तथ्यों में तोड़-मरोड़ करके नकारात्मक बनाया जा सकता है। जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष भी होते हैं। पर यह चर्चा फिलहाल कवरेज के राजनीतिक निहितार्थ तक सीमित है।

Tuesday, February 2, 2021

बजट की कवरेज


देश के पत्रकारों और उनके संस्थानों की राजनीतिक समझ को लेकर अतीत में जो धारणाएं थीं, वे समय के साथ बदल रही हैं। मैं यहाँ मीडिया शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया भी आ जाते हैं, जिन्हें मैं यहाँ शामिल करना नहीं चाहता। प्रिंट मीडिया के पास अपेक्षाकृत सुगठित मर्यादा और नीति-सिद्धांत रहे हैं, भले ही उनमें कितनी भी गिरावट आई हो, पर खबरें और विचार लिखने का एक साँचा बना हुआ है। दूसरी तरफ अखबारों के दृष्टिकोण भी झलकते रहे हैं, भले ही वे संपादकों के व्यक्तिगत रुझान-झुकाव के कारण हों या मालिकों के कारण। मसलन इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों को एक हद तक तटस्थ और मौका पड़ने पर सरकार की तरफ झुका हुआ माना जाता है। इंडियन एक्सप्रेस प्रायः सरकार से दूरी रखता है, पर आर्थिक नीतियों में सरकार का समर्थन भी करता है।

हिन्दू पर वामपंथी होने का बिल्ला है और टेलीग्राफ पर बुरी तरह मोदी-विरोधी होने की छाप है। यह छवि सायास ग्रहण की गई है। यह प्रबंधन के समर्थन के बगैर संभव नहीं है, पर इसी कंपनी के एबीपी न्यूज की कवरेज बताती है कि मीडिया कंपनियाँ किस तरह अपने बाजार और ग्राहकों का ख्याल रखती हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों पर भले ही गोदी मीडिया की छाप लगी हो, पर प्रिंट में ज्यादातर पत्रकार आपको सत्ता-विरोधी मिलेंगे। इस अर्थ में मोदी-विरोधी। कभी दूसरी सरकार आएगी, तो उसके भी विरोधी। यह उनकी सहज दृष्टि है। आप दिल्ली के या किसी और शहर के प्रेस क्‍लब में इस बात का जायजा ले सकते हैं। बहरहाल आज की बजट कवरेज में आपको केवल बजट की कवरेज ही नहीं मिलेगी, बल्कि अखबारों का रुझान भी दिखाई पड़ेगा। इन बातों की विसंगतियों पर भी ध्यान दीजिएगा। मसलन हिंदू की कवरेज में कॉरपोरेट हाउसों के विचार को काफी जगह दी गई है। पर संपादकीय पेज पर अपनी परंपरागत विचारधारा से जुड़े रहने का आग्रह है। फिर भी संपादकीय के रूप में अखबार का आधिकारिक वक्तव्य सीपी चंद्रशेखर के लीड आलेख से अलग लाइन पर है।

ये कुछ मोटे बिंदु हैं। बजट पर व्यापक चर्चा मैं सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबलिटी (सीबीजीए) की वैबसाइट पर जाकर पढ़ता हूँ, जो 4 फरवरी को होगी। फिलहाल आज की कवरेज की कुछ तस्वीरों को शेयर करने के साथ कुछ संपादकीय टिप्पणियाँ पढ़ने का सुझाव दूँगा, जो इस तरह हैं:-

बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय

व्यापक यथास्थिति, कुछ सुधार

यदि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात की जाए तो प्रथमदृष्ट्या बजट में कुछ खास बदलाव नहीं नजर आता। हां, सरकार के राजकोषीय रूढ़िवाद और उसकी व्यय नीति तथा कई मोर्चों पर सुधार को लेकर उसकी सकारात्मक इच्छा में अवश्य परिवर्तन नजर आया। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को लेकर व्यापक बदलाव, बीमा कंपनियों में विदेशी स्वामित्व बढ़ाने, सरकारी परिसंपत्तियों का स्वामित्व परिवर्तन, सरकारी बैंकों का निजीकरण और नई परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी (बैड बैंक) जैसा पहले खारिज किया गया वित्तीय क्षेत्र सुधार और विकास वित्त संस्थान शामिल हैं। इनमें से अंतिम दो उपाय तो ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहे हैं लेकिन शेष का स्वागत किया जाना चाहिए। शेयर बाजार उत्साहित है क्योंकि सुधारों का प्रस्ताव रखा गया और एकबारगी उपकर भी नहीं लगा है जबकि इसकी आशंका थी। स्थिर कर नीति अपने आप में एक बेहतर बात है लेकिन बजट को लेकर किए गए वादों से इतर उसके वास्तविक प्रस्ताव शायद उत्साह को कम कर दें।

Tuesday, November 3, 2020

पश्चिम एशिया पर सबसे विश्वसनीय पत्रकार रॉबर्ट फिस्क का निधन

 


पश्चिम एशिया को विश्वसनीय तरीके से कवर करने के लिए प्रसिद्ध पत्रकार रॉबर्ट फिस्क (Robert Fisk)  के निधन की खबर भारत के बहुत कम पत्रकारों की दिलचस्पी का विषय रही। उनका ज्यादा से ज्यादा इस बात के लिए उल्लेख हुआ कि उन्होंने ओसामा बिन लादेन का तीन बार इंटरव्यू किया था। अरबी भाषा बोलने वाले रॉबर्ट फिस्क पश्चिमी दुनिया के उन इने-गिने पत्रकारों में से एक रहे हैं, जिन्होंने करीब 40 साल तक इस इलाके को काफी गहराई से कवर किया। फिस्क 12 वर्ष से ज्यादा समय तक अंग्रेज़ी अख़बार द इंडिपेंडेंट के लिए पश्चिम एशिया के रिपोर्टर रहे। उन्हें मिडिल ईस्ट की कवरेज के कारण कई ब्रिटिश और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। उन्हें सात बार ब्रिटेन का वार्षिक अंतरराष्ट्रीय पत्रकार पुरस्कार भी मिला। विभिन्न युद्धों पर उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।

Monday, October 26, 2020

रुक्मिणी कैलीमाची और पत्रकारिता की साख

हाल में न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार बेन स्मिथ ने अपने ही अखबार की स्टार रिपोर्टर रुक्मिणी कैलीमाची की रिपोर्टों की कड़ी आलोचना की, तो पत्रकारिता की साख से जुड़े कई सवाल एकसाथ सामने आए। अप्रेल 2018 में जब न्यूयॉर्क टाइम्स में रुक्मिणी कैलीमाची और एंडी मिल्स की कैलीफैट शीर्षक से दस-अंकों की प्रसिद्ध पॉडकास्ट सीरीज शुरू हुई थी, अमेरिका के कई पत्रकारों ने संदेह व्यक्त किया था कि यह कहानी फर्जी भी हो सकती है। संदेह व्यक्त करने वालों में न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार भी थे। इन संदेहों को व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या-प्रेरित मान लिया गया। अब वही अखबार इस बात की जाँच कर रहा है कि कहाँ पर चूक हो गई।

इस विवाद के उभरने के बाद न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने मीडिया रिपोर्टर बेन स्मिथ को पड़ताल का जिम्मा दिया है। बेन स्मिथ मशहूर बाइलाइनों धुलाई करने वाले रिपोर्टर-स्तंभकार माने जाते हैं। विवाद की खबर आने के बाद इसी अखबार के इराक ब्यूरो की पूर्व प्रमुख मार्गरेट कोकर ने ट्वीट किया कि इस सीरीज का नाम अब बदलकर होक्स (झूठ) रख देना चाहिए। यह उनके मन की भड़ास थी। पड़ताल के दिनों में कैलीमाची के साथ मतभेद होने पर उन्होंने इस्तीफा दिया था। न्यूयॉर्क टाइम्स ने अब वरिष्ठ सम्पादकों को इस प्रकरण की जाँच का जिम्मा दिया है।

Tuesday, September 29, 2020

प्रेरक पत्रकार हैरल्ड इवांस

मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले एडिटिंग एंड डिजाइन शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो गई।

हैरल्ड इवांस ने मेरे जैसे न जाने कितने पत्रकारों को प्रेरित प्रभावित किया। मुझे खुशी तब हुई, जब सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में एमजे अकबर के नेतृत्व में आनंद बाजार पत्रिका समूह ने नई धज का अखबार टेलीग्राफ शुरू किया, तो उसमें इनसाइट नाम से एक पेज भी था, जो शायद संडे टाइम्स के इनसाइट से प्रेरित था। मैं उन दिनों स्वतंत्र भारत में काम करता था। संडे टाइम्स की एक कॉपी पायनियर के दफ्तर में आती थी, जो डॉ सुरेंद्र नाथ घोष के कमरे में रहती थी। हमें पढ़ने को नहीं मिलती थी। इधर-उधर से या ब्रिटिश लाइब्रेरी जाकर पढ़ लेते थे। अक्तूबर 1983 में मैं नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में आया, तो वहाँ संडे टाइम्स पढ़ने को मिलता था। राजेंद्र माथुर दिल्ली से एक कॉपी भिजवाते थे। पर तबतक हैरल्ड इवांस संडे टाइम्स से हट चुके थे।

हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा।

Thursday, September 24, 2020

पत्रकारिता और राजनीति का द्वंद्व

यह आलेख मैंने अगस्त 2018 में लिखा था, जो गंभीर समाचार के पत्रकारिता से जुड़े विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। मैं इसे अपने ब्लॉग में लगा नहीं पाया था। इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के संदर्भ में कुछ बातें उठीं, तो इस आलेख का एक अंश मैंने फेसबुक में लगाया। संभव है, कोई पाठक इसे पूरा पढ़ने चाहें, तो मैं इसे यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसके संदर्भ 2018 के ही रहेंगे। 

हाल में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे। संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए।

इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई हैं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया। एक और खबर ने हाल में ध्यान खींचा है। जेडीयू के उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह कांग्रेसी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को हराकर राज्यसभा के उप-सभापति चुन लिए गए।

हरिवंश मूलतः पत्रकार हैं और लम्बे समय तक उन्होंने रांची के अखबार प्रभात खबर का सम्पादन किया। वे जेडीयू प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर राज्यसभा आए थे। संसद के उच्च सदन की परिकल्पना लेखकों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों और ललित कलाओं से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने की भी है, पर उसके लिए मनोनयन की व्यवस्था है।

Thursday, May 3, 2018

सामाजिक-टकराव के दौर में पत्रकारिता

मई की महीना वैश्विक और हिन्दी-पत्रकारिता की दो तारीखों के लिए याद किया जाता है. हर साल 3 मई को दुनिया प्रेस-फ्रीडम डे मनाती है. और 30 मई को हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाते हैं. मौका है कि हम अपने बारे में बात करें. वैश्विक-पत्रकारिता विसंगतियों से गुज़र रही है. संचार-तकनीक में क्रांतिकारी बदलाव आया है. सोशल मीडिया ने सबको अपनी बात कहने का मौका दिया है. वहीं फेक-न्यूज़ ने मीडिया के नकारात्मक पहलू को उजागर किया है. हाल में टाइम्स ऑफ इंडिया एमडी विनीत जैन ने फेक-न्यूज़ को लेकर कई ट्वीट किए.

फेक-न्यूज़ पर चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर की हैडलाइन को नकारात्मक अर्थों में बदल कर सोशल मीडिया पर चला दिया. विनीत जैन ने इस छेड़छाड़ के मास्टर-माइंड को खोज निकालने की घोषणा की है. शायद वे सफल हो जाएं, पर इससे फेक-न्यूज़ का खतरा खत्म नहीं होगा. पिछले चार सौ साल में पत्रकारिता और लोकतंत्र का साथ-साथ विकास हुआ है. दोनों एक-दूसरे पूरक हैं. 

Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।

Sunday, September 10, 2017

एक्टिविज्म और पत्रकारिता का द्वंद्व


गौरी लंकेश की हत्या ने देश के वैचारिक परिदृश्य में हलचल मचा दी है। इस हत्या की भर्त्सना ज्यादातर पत्रकारों, उनकी संस्थाओं, कांग्रेस-बीजेपी समेत ज्यादातर राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने की है। यह मुख्यधारा के मीडिया का सौम्य पक्ष है। पर सोशल मीडिया में गदर मचा पड़ा है। तलवारें-कटारें खुलकर चल रहीं हैं। कई किस्म के गुबार फूट रहे हैं। हत्या के फौरन बाद दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा दी। दूसरी ओर कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर अभद्र और अश्लील तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर की है।


चिंता की बात है कि विचार अभिव्यक्ति के कारण किसी की हत्या कर दी गई। पर यह पहले पत्रकार की हत्या नहीं है। वस्तुतः पत्रकारों की हत्या को हम महत्व देते ही नहीं हैं। इस वक्त की तीखी प्रतिक्रिया इसके राजनीतिक निहितार्थ के कारण है। हाल में हमारी पत्रकारिता पर दो किस्म के खतरे पैदा हुए हैं। पहला, जान का खतरा और दूसरा पत्रकारों का धड़ों में बदलते जाना। इसे भी खतरा मानिए। संदेह अलंकार का उदाहरण देते हुए कहा जाता है ...कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है। पत्रकारों की एक्टिविस्ट के रूप में और एक्टिविस्ट की पत्रकारों के रूप में भूमिका की अदला-बदली हो रही है।

Sunday, November 6, 2016

क्या एनडीटीवी को एकतरफा घेरा गया?

एनडीटीवी प्रकरण को लेकर यह बात कही जा रही है कि देश की सुरक्षा सर्वोपरि है। उस मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता। केबल टीवी नेटवर्क्स रूल्स, 1994 में पिछले साल संशोधन करके आतंकी हमलों के समय की लाइव कवरेज को लेकर कड़ाई की व्यवस्था। इस संशोधन को लेकर भी आपत्तियाँ हैं। इसके अलावा एनडीटीवी के प्रसंग में कहा जा रहा है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके आधार पर कहा जा सके कि देश की सुरक्षा संकट में पड़ गई। इस सिलसिले में वैबसाइट द वायर ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि ऐसी पाबंदी, भले ही एक दिन के लिए लगाई जाए, खतरनाक है और इससे राजनेताओं और उनके चुनींदा नौकरशाहों के हाथ में एक हथियार आ जाएगा। द वायर का सम्पादकीय इस सिलसिले में एक दिशा को बताता है वहीं ब्लॉग Angry Lok में अमित सेन के नाम से प्रकाशित आलेख में घटनाक्रम का विस्तार से विवरण देते हुए बताया गया है कि एनडीटीवी को दूसरे चैनलों से अलग करते हुए खासतौर से निशाना बनाया गया है। पढ़ें द वायर का सम्पादकीय और ब्लॉग Angry Log का आलेख

Ever since the chaotic and unseemly media spectacle which unfolded in downtown Mumbai during the 26/11 attacks, government managers, the courts – and journalists – have been especially mindful of the need for restraint and sensitivity in news coverage of ongoing security operations against terrorists. After the Mumbai attack ended, it emerged that some of the terrorists had planned their next moves on the basis of instructions received by telephone from handlers in Pakistan who learned about impending commando deployments from the live coverage several Indian TV channels were providing. Last year, the Modi government amended the Cable TV Network Rules, 1994, to add a new clause, 6(1) p, prohibiting TV channels from carrying content  “which contains live coverage of any anti-terrorist operation by security forces, wherein media coverage shall be restricted to periodic briefing by an officer designated by the appropriate Government, till such operation concludes.”

Friday, November 4, 2016

चिंता का विषय है एनडीटीवी को मिली सजा

एडिटर्स गिल्ड का वक्तव्य
 भारत सरकार ने टीवी चैनल एनडीटीवी इंडिया को एक दिन के लिए ऑफ-एयर करने को कहा है. यह आदेश भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भेजा है और यह मामला पठानकोट हमलों की कवरेज़ से जुड़ा है. पठानकोट हमलों के दौरान टीवी चैनलों की कवरेज़ को लेकर एक उच्च स्तरीय पैनल का गठन हुआ था. इस बैन को लेकर अधिकतर पत्रकार नाराज हैं, पर इसे उचित बताने वाले भी हैं. वस्तुतः इसके पीछे वही सामाजिक ध्रुवीकरण दिखाई पड़ रहा है, जो मोदी सरकार की देन बताया जाता है. 

कुछ लोगों ने इसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि बताया है और कुछ ने इसे इमर्जेंसी की पुनरावृत्ति कहा है. पर क्या यह राजनीतिक सवाल है? क्या एनडीटीवी को राजनीतिक कारणों से सजा दी गई है? इस किस्म की पाबंदी अच्छे लक्षण नहीं हैं. एक दिन के लिए ही सही, पर यह रोक चिंता का विषय है. पर चिंता का विषय यह भी है कि मीडिया कवरेज के कारण रक्षा से जुड़ी संवेदनशील विवरणों पर रोशनी पड़ी. मीडिया की जिम्मेदारी भी बनती है. अलबत्ता सरकार को स्पष्ट करना ही चाहिए कि वे कौन सी बातें हैं, जिनके कारण यह कदम उठाया है. मीडिया हाउस कहता है कि हमारी तरफ से गलती नहीं हुई है, पर यह तय कौन करेगा कि गलत हुआ या नहीं. लगता यह है कि चैनल अब अदालत के दरवाजे खटखटाएगा. यही सबसे अच्छा रास्ता है.  

Thursday, November 3, 2016

इनोवेटिव विज्ञापन अखबारों की बिगड़ती साख के प्रतीक न बनें

नवभारत टाइम्स, दिल्ली के 3 नवम्बर के अंक में विज्ञापनदाता का जैकेट है। जैकेट इस तरह डिजाइन किया गया है, जिससे बाहर से देखने पर अख़बार का नाम न्यूट्रीचार्ज टाइम्स नजर आता है। अखबारों के चलन को देखते हुए यह बात विस्मयकारी नहीं लगती, पर अखबारों की बिगड़ती साख पर यह प्रतीकात्मक टिप्पणी जरूर है। यह कारोबार का मामला है। अखबारों में इनोवेटिव विज्ञापनों के नाम पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार है। इनमें कभी-कभार इनोवेशन नजर आता है, पर जो बात सबसे ज्यादा दिखाई पड़ती है वह है विज्ञापनों को वहाँ जगह दिलाना जहाँ पहले वे नजर नहीं आते थे। भारतीय भाषाओं के कुछ अखबारों ने अब सम्पादकीय पेज पर विज्ञापन देने शुरू कर दिए हैं।

Tuesday, May 31, 2016

पत्रकारिता की आत्मा व्यवस्था-विरोधी होगी, अखबार भले न हों

हिन्दी अख़बार के 190 साल पूरे हो गए. हर साल हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाकर रस्म अदा करते हैं. हमें पता है कि कानपुर से कोलकाता गए किन्हीं पं. जुगल किशोर शुक्ल ने उदंत मार्तंड अख़बार शुरू किया था. यह अख़बार बंद क्यों हुआ, उसके बाद के अख़बार किस तरह निकले, इन अखबारों की और पत्रकारों की भूमिका जीवन और समाज में क्या थी, इस बातों पर अध्ययन नहीं हुए. आजादी के पहले और आजादी के बाद उनकी भूमिका में क्या बदलाव आया, इसपर भी रोशनी नहीं पड़ी. आज ऐसे शोधों की जरूरत है, क्योंकि पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दौर खत्म होने के बाद एक और महत्वपूर्ण दौर शुरू हो रहा है.

Tuesday, May 5, 2015

पत्रकारों की सेवाशर्तें, वेतन और भूमिका

कुछ साल पहले मैने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखकर मीडिया में काम करने वालों से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी कि उनके संस्थान में सेवाशर्तें किस प्रकार की हैं। तब कुछ लोगों ने फोन से और कुछ ने मेल से जानकारी दी थी। पर यह जानकारी काफी कम थी। उन दिनों मैं इस विषय पर एक लम्बा आलेख लिखना चाहता था। यह काफी ब़ड़ा विषय है। इस विषय पर लिखते समय कम से कम चार तरह के दृष्टिकोणों को सामने रखा जाना चाहिए। एक, ट्रेड यूनियन का दृष्टिकोण, दूसरे मालिकों का नजरिया, तीन, सरकार की भूमिका और चार, पाठक का नजरिया। पाठक का नज़रिया इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दूसरे व्यवसायों से भिन्न है। यह कारोबार हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए सूचना और विचार का कच्चा माल तैयार करता है। इसमें पाठक एक महत्वपूर्ण कारक है।

Thursday, January 22, 2015

पत्रकार की नौकरी और स्वतंत्रता

पंकज श्रीवास्तव की बर्खास्तगी के बाद मीडिया की नौकरी और कवरेज को लेकर कुछ सवाल उठेंगे। ये सवाल एकतरफा नहीं हैं। पहला सवाल यह है कि मीडिया हाउसों की कवरेज कितनी स्वतंत्र और निष्पक्ष है? दूसरा यह कि किसी पत्रकार की सेवा किस हद तक सुरक्षित है? तीसरा यह कि सम्पादकीय विभाग के कवरेज से जुड़े निर्णय किस आधार पर होते हैं? यह भी पत्रकार के व्यक्तिगत आग्रहों और चैनल की नीतियों में टकराव होने पर क्या होना चाहिए? संयोग से इसी चैनल के एक पुराने एंकर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए और लोकसभा चुनाव भी लड़ा। पंकज श्रीवास्तव ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे राजनीति में आना चाहते हैं। वे मानते है कि उनके चैनल की कवरेज असंतुलित है। चैनल क्या इस बात को जानता नहीं? बेशक वह सायास झुकाव के लिए भी स्वतंत्र है। चैनलो से उम्मीद की जाती है कि वे तटस्थ होकर काम करेंगे। पर क्या यह तटस्थता व्यावहारिक रूप से सम्भव है? खासतौर से तब जब पत्रकार की अपनी राजनीतिक धारणाएं हैं और दूसरी ओर चैनल के व्यावसायिक हित हैं।

Sunday, January 18, 2015

गूगल एडसेंस के बहाने मीडिया पर विमर्श

यों तो मैने कई ब्लॉग बना रखे हैं, पर नियमित रूप से जिज्ञासा और ज्ञानकोश को अपडेट करता हूँ। हाल में मेरी एक पोस्ट पर श्री अनुराग चौधरी ने टिप्पणी में सुझाव दिया कि मैं गूगल एडसेंस से जोड़ूं। उनकी टिप्पणी निम्नलिखित थी_-


आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
आपका ब्लॉग हमेशा देखता हूँ और मैं इंतजार कर रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर कब adsense के विज्ञापन चालू हो परन्तु अभीतक चालू नहीं हुए हैं। कृपया adsense के लिया apply करें आपका ब्लॉग adsense के लिए फिट है। Google ने हिंदी ब्लॉगों पर adsense शुरू कर दिया है। दूसरी बात यह है कि आपके ब्लॉग की सामग्री के अनुसार visitor संख्या कम है। कृपया कुछ समय निकल कर सर्च सेटिंग सही करें अथवा प्रत्येक पोस्ट को एक एक कर के गूगल सर्च इंजिन पर रजिस्टर करें।-अनुराग चौधरी

उसके पहले कई तरफ से जानकारी मिली थी कि अब हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉगों को भी गूगल एडसेंस की स्वीकृति मिल रही है। उनकी बात मानकर मैने एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई।

Thursday, June 26, 2014

पत्रकारों को निशाना बनाना खतरनाक है

बेहद खतरनाक है पत्रकारों को सजा देना, पढें वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी का विश्लेषण...

पश्चिम एशिया में लोकप्रिय अंग्रेजी चैनल अल-जजीरा के पत्रकारों को मिस्र में सजा सुनाए जाने के बाद दुनिया भर के पत्रकारों की पहली प्रतिक्रिया सदमे और सन्नाटे की है। इतने बड़े स्तर पर पत्रकारों को सजा देने का यह पहला मामला है।  बावजूद इसके हमारे देश में इस खबर पर ज्यादा चर्चा नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि हाल में भारतीय मीडिया के राजनीतिक झुकाव को लेकर उस पर हमले होने लगे हैं। उसकी साख को कायम रखने का सवाल है। दूसरी ओर पिछले तीन-चार साल में पत्रकारों की राजनीतिक और व्यावसायिक भूमिका को लेकर हमारे यहां ही नहीं दुनिया भर में जबर्दस्त टिप्पणियाँ हुईं हैं।

Friday, May 30, 2014

हिंदी पत्रकारिता की साख बचाने का सवाल

188 साल की हिंदी पत्रकारिता का खोया-पाया, बता रहे हैं प्रमोद जोशी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।

Tuesday, August 20, 2013

लाइसेंसी पत्रकारिता सम्भव नहीं

पत्रकारिता से जुड़ी वैबसाइट सैंस सैरिफ ने अपने पाठकों से इस विषय पर राय माँगी है कि पत्रकारों के चयन के लिए क्या कोई राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा होनी चाहिए? और यह भी क्या कोई लाइसेंस होना चाहिए जैसा वकालत या डॉक्टरी वगैरह का होता है? रोचक बात यह है कि इस पोल के जवाब में लगभग बराबरी की संख्या में पक्ष और विपक्ष में वोट पड़े हैं। कुछ समय पहले जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी पत्रकारिता से जुड़ने के एक बुनियादी शैक्षिक योग्यता की सलाह दी थी। बड़ी संख्या में पत्रकार भी मानते हैं कि योग्यता होनी चाहिए। इसे बड़ी संख्या कहने के बजाय लगभग बहुमत कहना चाहिए। किसी को क्यों आपत्ति होगी? हाँ आपत्ति उस तरीके और कारण पर होनी चाहिए जो इस माँग के पीछे है। बहरहाल आप अपनी राय बनाएं उससे पहले इस बात की पृष्ठभूमि तक भी आपको जाना चाहिए।

Tuesday, February 19, 2013

इंटरनेट सेंसरशिप


ग्वालियर की एक अदालत के आदेश पर कार्रवाई करते हुए सरकार ने उन 78 यूआरएल को ब्लाक करने के आदेश जारी किए जिनमें आईआईपीएम या फिर उनके निदेशक अरिन्दम चौधरी के बारे में कुछ अभद्र कहा सुना गया था। चीन में इंटरनेट सेंसरशिप चलती है, पर भारत में हाल के दिनों में इसे लेकर विमर्श चल रहा है। आईआईपीएम का तर्क अपनी जगह है कि यदि कोई किसी के भी बारे में अपनी राय व्यक्त करने को स्वतंत्र है तो किसी को अपने बारे में कुछ भी लिखे गए को स्वीकार करने या न करने की आजादी भी है। पिछली 14 फरवरी को ग्वालियर की एक अदालत के आदेश के बाद डीओटी की कम्प्यूटर इमरजंसी रिस्पांस टीम ने कार्रवाई भी कर दी। मीडियानामा नामक एक वेबसाइट ने उन सभी यूआरएल की लिस्ट भी प्रसारित कर दी जिन्हें ब्लाक किया जा रहा है। रोचक बात यह है कि जिन यूआरएल को ब्लाक करने की लिस्ट जारी की गई है उसमें यूजीसी की वेबसाइट का एक पन्ना भी शामिल है। हालांकि इस वक्त यूजीसी साइट का वह पन्ना विजिबल है जिसके ब्लाक करने की खबर कही गई थी। ऐसे कुछ और पन्ने भी देखे जा सकते हैं। ब्लाक लिस्ट में रीडिफ, आउटलुक, कैरेवान, इंडियन एक्सप्रेस के भी कुछ पन्ने शामिल हैं जिसमें आईआईपीएम के बारे में कथित 'गलत जानकारी' दी गई थी। इन वैबसाइटों में से कुछ का कहना है कि उनके पन्ने ब्लॉक करने के पहले कोई सूचना नहीं दी गई। 

इंटरनेट पर विवादित सामग्री के प्रकाशन को लेकर धीरे-धीरे मामले सामने आएंगे, पर आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय मीडिया में इस सवाल पर चर्चा बहुत क्षीण है। कम से कम हिन्दी अखबारों के सम्पादकों को तो लगता है कि इसकी भनक भी नहीं हैं, हालांकि लगभग सभी में अपने आप को यंगिस्तान के पहलवान साबित करने की होड़ लगी है। वस्तुतः यह अभिव्यक्ति के अधिकार और व्यवसाय चलाने की स्वतंत्रता के अंतर्विरोधों को उजागर करने का मामला है और जनता के सामने सारे तथ्य आने चाहिए। पर जैसा कि पहले होता रहा है मीडिया अपने मामलों पर विमर्श में पीछे रहता है। 18 फरवरी के हिन्दू के ऑपएड पेज पर वासुदेव मुकंठ और अनुज श्रीवास का लेख प्रकाशित हुआ। आज हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस मसले पर सम्पादकीय भी लिखे हैं। हिन्दू में Think beyond censorship शीर्षक सम्पादकीय में इटरनेट ब्लॉक करने की तकनीकी खामियों की ओर इशारा किया गया है। हिन्दू के सम्पादकीय अंशः-

 That bruising lesson must have been learnt by all actors involved in the blocking of over 70 web pages containing content critical of the Indian Institute of Planning and Management, an agency that widely advertises a variety of study courses and degrees. The online community has responded with a counter-offensive against the institution on a devastating scale, and called attention worldwide to precisely what the institute wanted purged. Moreover, the episode proves once again that the Information Technology Act is a handy censorship tool. Although the order to the Department of Telecommunications to block the web pages was issued by a Gwalior court, it is flawed, because no opportunity was provided to the websites to enter a defence. It is shocking that the court saw merit in the plaintiff’s plea to block a page of the University Grants Commission, the highest body regulating the general university system, simply because it declared that within the meaning of the UGC Act, IIPM is not a university, and does not have the right to confer or grant degrees. पूरा पढ़ें

इंडियन एक्सप्रेस

Block games
IIPM case highlights the inept way information is blocked online

Defamation is a serious business, and quick legal recourse is everyone’s due. That said, the IIPM case has revealed the bluntness of the instrument — the way IT legislation can be misused to blank out important public information, like the UGC’s notice. Courts are meant to use interim injunctions only in extraordinary situations, because of the way they can chill free speech. What’s more, this blocking was done silently, without offering the websites a chance to explain their side of the story, without even informing them. If the IIPM’s partner was hoping that all unflattering references would be quietly effaced, he would have realised his mistake by now. As tends to happen on the internet in response to clumsy attempts at suppression, that material has now sprouted all around, as publications and individuals defiantly reposted the content. The hacker collective, Anonymous India, targeted the IIPM for a while. On Twitter, Minister of State for HRD Shashi Tharoor flagged the UGC-blocking news to his counterpart in the communications ministry, Milind Deora. This kind of selective filtering of websites, and the pressure on intermediaries to remove “offensive” content, has come to characterise the official approach in recent years. The IIPM case is still unfolding in court, but it has revealed how, by default, the internet regulation regime appears to be set against free expression. पूरा पढ़ें

20 फरवरी 2013 के हिन्दू में प्रकाशित अपर्णा विश्वनाथन के लेख का अंश। पूरा लेख यहाँ पढ़ें

On February 6, 2013, Sanjay Chaudhary was arrested under section 66A of the Information Technology (IT) Act for posting ‘objectionable comments and caricatures’ of Prime Minister Manmohan Singh, Union Minister Kapil Sibal and Samajwadi Party president Mulayam Singh Yadav on his Facebook wall.

This arrest follows numerous others over the past few months for political speech through social media: Manoj Oswal for having caused ‘inconvenience’ to relatives of Nationalist Congress Party chief Sharad Pawar for allegations made on his website; Jadavpur University Professor Ambikesh Mahapatra for a political cartoon about West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee; businessman Ravi Srinivasan in Puducherry for an allegedly defamatory tweet against the son of Union Finance Minister P. Chidambaram; two Air India employees, who were jailed for 12 days for allegedly defamatory remarks on Facebook and Orkut against a trade union leader and a politician; Aseem Trivedi, accused of violation of the IT Act for drawing cartoons lampooning Parliament and the Constitution to depict its ineffectiveness. However, the incident that rocked the nation was the arrest last November of two young women, Shaheen Dadha and her friend Renu Srinivasan, for a comment posted on Facebook that questioned the shutdown of Mumbai following the demise of Shiv Sena Supremo Bal Thackeray. The girls were arrested under Section 66A(a) of the IT Act for allegedly sending a ‘grossly offensive’ and ‘menacing’ message through a communication device.


कुछ यूआरएल जो बंद किए गए। पूरी सूची यहाँ देखें
http://bitly.com/bundles/maheshmurthy/5
http://www.consumercourt.in/other-product-services/114783-fraud-done-iipm-delhi.html
http://akosha.com/IIPM-complaints-98.html
http://www.consumercourt.nic.in/other-department/88450-fraud-iipm-bangalore-campus.html
कुछ वे यूआरएल जो अभी देखे जा सकते हैं
http://www.iipmfraud.com/
http://www.fakingnews.com/2011/07/iipm-appoints-poonam-pandey-as-their-brand-ambassador/
http://harishc.blogspot.in/2011/06/caravan-iipm-article.html
http://www.indianexpress.com/news/court-asks-iipm-ugc-to-clarify-on-affiliation/676123/
http://kafila.org/2011/06/22/arindam-chaudhuri-silchar/

Call me ugly but don't attack my business: Arindam Caudhari